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Monday, September 12, 2022

मेरी रेवड़ी अच्‍छी उसकी खराब,

 




मैं हमेशा सच बोलता हूं अगर मैं झूठ भी बोल रहा हूं तब भी वह सच ही है.

भारत की राजनीति आजकल रेवड़‍ियों यानी लोकलुभान अर्थशास्‍त्र पर एसे  ही अंतरविरोधी बयानों से हमारा मनोरंजन कर रही है.

वैसे ऊपर वाला संवाद प्रस‍िद्ध हॉलीवुड फिल्‍म स्‍कारफेस (1983) का है. ब्रायन डी पाल्‍मा की इस फिल्‍म में अल पचीनो ने  गैंगस्‍टर टोनी मोंटाना का बेजोड़ अभिनय किया था. इस फिल्‍म ने गैंगस्‍टर थीम पर बने  सिनेमा को  कई पीढ़‍ियों तक प्रभावित कि‍या.

सरकार के अंतरव‍िरोध देख‍िये

नीति आयोग ने बीते साल  कहा कि खाद्य सब्‍सिडी का बिल कम करने के लिए  राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के लाभार्थ‍ियों की संख्‍या को करीब 90 करोड से घटाकर 72 करोड पर लाना चाहिए. इससे सालाना 47229 करोड़ रुपये बचेंगे.

दूसरा, इसी साल जून में नीति आयोग ने कहा कि इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों पर सरकारी की सब्‍सि‍डी 2031 तक जारी रहनी चाहिए. ताकि बैटरी की लागत कम हो सके.च्

आप कौन की सब्‍सि‍डी चुनेंगे?

इस वर्ष अप्रैल में केंद्र ने राज्‍यों को सुझाया कि कर्ज और सब्‍स‍िडी कम करने के लिए  सरकारी  सेवाओं को महंगा किया जाना चाहिए.

मगर घाटा तो केंद्र का भी कम नहीं है तो उद्योगों को करीब 1.11 लाख करोड़ रुपये की टैक्‍स रियायतें क्‍यों दी गईं ?

कौन सी रेवड़ी विटामिन है कौन सी रिश्‍वत?

68000 करोड़ रुपये की सालाना किसान सम्‍मान न‍िधि‍ को किस वर्ग में रखा जाए?

14 उद्योगों को 1.97 करोड़ रुपये के जो प्रोडक्‍शन लिंक्‍ड इंसेट‍िव हैं उनको क्‍या मानेंगे हम ?

रेवड‍ियों का बजट

वित्‍त वर्ष 2022-23  में केंद्र सरकार का सब्‍स‍िडी बिल करीब 4.33 लाख करोड़ होगा. इनके अलावा करीब 730 केंद्रीय योजनाओं पर  इस याल 11.81 लाख करोड़ खर्च होंगे. इनमें से कई के रेवड़ि‍त्‍वपर बहस हो सकती है.

केंद्र प्रयोजित योजनायें दूसरा मद हैं जिन्‍हें केंद्र की मदद से राज्‍य लागू करते हैं. इस साल के बजट में इनकी संख्‍या 130 से घटकर 70 रह गई है लेक‍िन आवंटन बीते साल के 3.83 लाख करोड़ रुपये से बढकर 4.42 लाख करोड़ रुपये हो गया है.

राज्‍यों में रेवड़ी छाप योजनाओं की रैली होती रहती है.  इनसे अलग  2020-21 में राज्‍यों का करीब 2.38 लाख करोड़ रुपये स्‍पष्‍ट रुप से सब्‍स‍िडी के वर्ग आता था जो  2018-19 के मुकाबले करीब 12.7 फीसदी बढ़ा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार  बीते बरस राज्‍यों के राजस्‍व में केवल एक फीसदी की बढ़त हुई. राज्‍यों के  राजस्‍व में सब्सिडी का हिस्‍सा अब बढ़कर 19.2 फीसदी हो गया है  

कितना फायदा कितना नुकसान

मुफ्त तोहफे बांटने की बहसें जब उरुज़ पर आती हैं तो किसी सब्‍स‍िडी को उससे मिलने वाले फायदे से मापने का तर्क दिया जाता है.

2016 में एनआईपीएफपी ने अपने एक अध्‍ययन में बताया था कि खाद्य शि‍क्षा और स्‍वास्‍थ्‍य के अलावा सभी सब्‍स‍िडी अनुचित हैं. वही सोशल ट्रांसफर उचित हैं जिनसे मांग और बढ़ती हो.  इस पुराने अध्‍ययन के अनुसार 2015-16 में समग्र गैर जरुरी (नॉन मेरिट)  सब्‍स‍िडी जीडीपी के अनुपात में 4.5 फीसदी थीं. कुल सब्‍स‍िडी में इनका हिस्‍सा आधे से ज्‍यादा है और राज्‍यों में इनकी भरमार है.

आर्थ‍िक समीक्षा (2016-17) बताती है कि करीब 40 फीसदी लक्षित लोगों को राशन प्रणाली और 65 फीसदी जरूरतमंदों को मनरेगा का लाभ नहीं मिलता. छह प्रमुख स्कीमों (आवास योजनासर्व शिक्षामिड डे मीलग्राम सड़कमनरेगास्वच्छ भारत) के सबसे कम फायदे उन जिलों को मिले जहां सबसे ज्यादा गरीब आबादी थी.  

यदि शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य को सामाजिक जरुरत मान लिया जाए तो उसके नाम पर लग रहे टैक्‍स  और सेस के बावजूद अधि‍कांश आबादी निजी क्षेत्र से शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य खरीदती है.

सनद रहे कि कंपनियों को मिलने वाली टैक्‍स रियायते, सब्‍स‍िडी की गणनाओं में शामिल नहीं की जातीं.

ब‍िजली का स्‍यापा

ि‍बजली सब्‍स‍िडी भारत का सबसे विद्रूप सच है. उदय स्‍कीम के तहत ज्‍यादातर राज्‍य बिजली बिलों की व्‍यवस्‍था सुधारने  और वितरण घटाने के लक्ष्‍य नहीं पा सके. 31 राज्‍यों और केंद्रशास‍ित प्रदेशों में 2019 के बाद से ब‍िजली की आपूर्ति लागत में सीधी बढत दर्ज की गई.

बिजली दरों का ढांचा पूरी तरह सब्‍स‍िडी केंद्रि‍त है. इसमें सीधी सब्‍स‍िडी भी है उद्योगों पर भारी टैरिफ लगाकर बाकी दरों को कम रखने वाली क्रॉस सब्‍स‍िडी भी.  27 राज्‍यों ने 2020-21 में करीब 1.32 लाख करोड़ रुपये की बिजली सब्‍स‍िडी दी, इसमें 75 फीसदी सब्‍स‍िडी किसानों के नाम पर है.

बिजली वितरण कंपनियां (डिस्‍कॉम) 2.38 लाख करोड की बकायेदारी में दबी हैं. इन्‍हें यह  पैसा बिजली बनाने वाली कंपनियों को देना है. डिस्‍कॉम के खातों में सबसे बड़ी बकायेदारी राज्‍य सरकारों की है जिनके कहने पर वह सस्‍ती बिजली बांट कर चुनावी संभावनायें चमकाती हैं

तो होना क्‍या चाहिए

सरकार रेवड़‍ियों पर बहस चाहती है तो सबसे पहले   केंद्रीय और राज्‍य स्‍कीमों, सब्‍स‍िडी और कंपनियों को मिलने वाली रियायतों की पारदर्शी कॉस्‍ट बेनीफ‍िट एनाल‍िसिस हो  ताकि पता चला कि किस स्‍कीम और सब्‍स‍िडी से किस लाभार्थी वर्ग को ि‍कतना फायदा हुआ.

और जवाब मिल सकें इन सवालों के

कि क्‍या किसानों को सस्‍ती खाद, सस्‍ती बिजली, सस्‍ता कर्ज और एमएसपी सब देना जरुरी है?

सरकारी स्‍कीमों से शिक्षा स्‍वास्‍थ्‍य या किसी दूसरी सेवा की गुणवत्‍ता और फायदों में कितना इजाफा हुआ ?

कंपनियों को मिलने वाली किस टैक्‍स रियायत से कितने रोजगार आए?

अगर सस्‍ती श‍िक्षा और मुफ्त किताबें रेवडी नहीं हैं तो डिजिटल शिक्षा के लिए लैपटॉप या मोबाइल रेवड़ी क्‍यों माने जाएं?

इस सालाना  विश्‍लेषण के आधार पर जरुरी और गैर जरुरी सब्‍स‍िडी  के नियम तय किये जा सकते हैं.

इस गणना के बाद राज्‍यों के लिए राजकोषीय घाटे की तर्ज  रेवड़ी खर्च की सीमा तय की जा सकती है.  राज्‍य सरकारें बजट नियमों के तहत तय करें कि उन्‍हें क्‍या देना है और क्‍या नहीं.

सनद रहे‍ कि कमाना और बचाना तो हमारे लिए जरुरी है संप्रभु सरकारें पैसा छाप सकती हैं, टैक्‍स थोप सकती हैं  और बैंकों से हमारी जमा निकाल कर मनमाना खर्च कर सकती है . यही वजह है कि भारत के बजट दशकों के सब्‍स‍िडी के  एनीमल फॉर्म (जॉर्ज ऑरवेल) में भटक रहे हैं जहां "All animals are equal, but some are more equal than others. इस सबके बीच  सुप्रीम कोर्ट की कृपा से अगर देश को इतना भी पता चल जाए कि कौन सा सरकारी दया रेवड़ी है और कौन सी रियायत वैक्‍सीन तो कम से कम हमारे ज़हन तो साफ हो जाएंगे.

 

 

 

Sunday, June 26, 2022

कौन बढ़ाता है कितनी महंगाई ?


 

एक ट्व‍िटर चर्चा ..

पहला - सरकार ने एक्‍साइज ड्यूटी घटाकर पेट्रोल डीजल सस्‍ता किया. बधाई दीजिये संवेदनीशलता को

दूसरा – दस रुपये बढ़ाकर नौ रुपये कम किये, कीमत तो वहीं है जहां मार्च से पहले थी, पहले बढ़ाओ फिर घटा कर ताली बजवाओ.

यद‍ि कोई इन राजनीतिक स्‍वादानुसार बहसों के परे भारत की महंगाई का सबसे विद्रूप सच समझना चाहता है तो सरकार का ताजा फैसला उसकी नज़ीर है. दरअसल भारत में महंगाई जहां से निकलती वहीं से उसे कम किया जा सकता है और सरकार अब हार कर इस सच को स्‍वीकार करना पड़ा है कि कीमतें न तो रिजर्व बैंक के कर्ज सस्‍ता करने से घटेंगी न और बयानबाजी से.

हमारी ऊर्जा महंगाई के लिए पूरी दुनिया को लानते भेजने के बाद अंतत: सरकार ने यह मान लिया कि यह टैक्‍स ही है महंगाई की जड़ है.

फॉसि‍ल फ्यूल यानी जैव ईंधन यानी कोयला और पेट्रो उत्‍पाद भारत में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत हैं.. भारत दुनिया के उन गिने चुने देशों में होगा जहां ऊर्जा और ईंधन यानी कच्‍चा तेल, पेट्रोल डीजल कोयला बिजली और यहां तक क‍ि सौर ऊर्जा का साजोसामान पर भी भारी टैक्‍स लगता है. यह टैक्‍स न केवल हमें महंगाई के नर्क में जला रहे हैं बल्‍क‍ि भारतीय उत्‍पादों और सेवाओं की प्रतिस्‍पर्धा खत्‍म कर रहे हैं

केंद्र सरकार के कुल टैक्‍स राजस्‍व का करीब 25 फीसदी हिस्‍सा ऊर्जा से आता है राज्‍यों के कुल राजस्‍व का 13 फीसदी ऊर्जा से मिलता है

 

पेट्रोल डीजल पर एक्‍साइज कटौती की रोशनी में चलते हैं भारत के टैक्‍स भवन में जहां ऊर्जा पर टैक्‍स से थोक में महंगाई बन रही है

ईंधन और महंगाई

पेट्रो उत्‍पादों पर एक्‍साइज ड्यूटी क्‍यों घटी क्‍यों कि रिजर्व बैंक ने कारोबारों और उपभोक्‍ताओं की लागत का आकलन करने के बाद कहा था कि ज्‍यादातर महंगाई तो ईंधन से आ रही है. रिजर्व बैंक ने अपनी मॉनेटरी पॅालिसी रिपोर्ट 2021 में बताया था कि खुदरा और थोक दोनों ही वर्गों में ईंधन की महंगाई जुलाई 2020 से शुरु हो गई थी. जो पेट्रोल डीजल कीमतों में ताजा यानी चुनाव बाद मार्च के बाद बढ़ोत्‍तरी का दौर शुरु होने से पहले तक दहाई के अंकों में पहुंच चुकी थी.

भारत की अध‍िकांश महंगाई जो ऊर्जा की कीमतों से निकल रही है, उसकी बड़ी वजह खुद सरकार के टैक्‍स हैं इन्हें टैक्‍स कम किये बिना यह आग ठंडी कैसे होती.

इसल‍िए जब सरकार ने टैक्‍स का लोभ कम किया तो कीमतों का सूचकांक नीचे आया.

पेट्रोल डीजल पर उत्‍पाद शुल्‍क या एक्‍साइज और वैट की चर्चा होतीहै लेकिन यहां तो टैक्‍सों का पूरा परिवार ही पेट्रो उत्‍पादों के पीछे पड़ा है
इंपोर्टेड महंगाई

  • भारत सरकार इंपोर्टेड कच्‍चे तेल पर एक रुपये प्रति टन बेसिक कस्‍टम ड्यूटी, इतनी ही काउंटरवेलिंग ड्यूटी और 50 रुपये प्रति टन का राष्‍ट्रीय आपदा राहत शुल्‍क लगाती है.
  • भारत अपनी जरुरता का 85.5 फीसदी तेल आयात करता है मार्च 2022 में समाप्‍त वर्ष में कच्‍चे तेल का कुल आयात 212 मिल‍ियन टन रहा जो अभी कोविड के पहले के आयात (227 मिलियन टन) से कम है.
  • देश के भीतर निकाले जाने वाले कच्‍चे तेल पर एक रुपये प्रति‍ टन बेसिक एक्‍साइज ड्यूटी, 50 रुपये प्रति टन का आपदा राहत शुल्‍क तो लगता ही इसके अलावा 20 फीसदी का सेस भी लगता है जो कच्‍चे तेल की कीमत पर आधार‍ित (एडवैलोरम) है. इसे 2016 में लगाया गया था. देशी कच्‍चे तेल की कीमत तय करने के लिए भारत के तेल आयात की कीमत को आधार बनाया जाता है यानी अगर इंपोर्टेड क्रूड महंगा तो देशी भी महंगा होगा.
  • आत्‍मनिर्भरता का यह अनोखा तकाजा है कि भारत मे घरेलू तेल उत्‍पादन कुल आयात का 15 फीसदी भी नहीं लेक‍िन इस पर टैक्‍स आयात‍ित क्रूड से काफी ज्‍यादा है
  • आयात‍ित और देशी कच्‍चे तेल पर टैक्‍स से सरकार ने कोविड से पहले के वर्ष यानी 2019-20 में 43.8 अरब रुपये का राजस्‍व जुटाया.
  • भारत में पेट्रोल डीजल का आयात भी होता है पेट्रोल पर 2.5% कस्‍टम ड्यूटी,1.4 रुपये प्रति लीटर की काउंटरवेलिंग ड्यूटी, 11 रुपये प्रति लीटर स्‍पेशल एडीशनल ड्यूटी, 2.5 रुपये प्रति‍ लीटर का इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर सेस, 13 रुपये प्रति लीटर की एडीशनल कस्‍टम ड्यूटी लगती है. डीजल पर बेसिक कस्‍टम ड्यूटी, काउंटर वेलिंग ड्यूटी के अलावा 8 रुपये प्रति लीटर की स्‍पेशल ड्यूटी , 4 रुपये प्रति लीटर का इन्‍फ्रा से और 8 रुपये प्रति लीटर की एडीशनल कस्‍टम ड्यूटी लगती है. 2019-20 में इनसे 73 अरब रुपये का राजस्‍व मिला.
  • आयात‍ित कच्‍चा तेल और पेट्रोउत्‍पाद पर टैक्‍स का इनकी कीमतों सीधा रिश्‍ता है. कच्‍चा तेल लगातार महंगा हुआ इसलिए सरकार की कमाई भी खूब बढ़ी है. 2021-22 में भारत का तेल आयात ब‍िल दोगुना बढ़कर 119 अरब डॉलर हो गया जबकि मात्रा में आयात कम हुआ था.

 

  • मोटे तौर यह समझ‍िये कि एक्‍साइज, स्‍पेशल एडीशनल ड्यूटी, सडक सेस और राज्‍यों के वैट आदि को मिलाकर लगभग अधि‍कांश भारत मे पेट्रोल और डीजल की कीमत का आधा हिस्‍सा टैक्‍स है. बीते साल यूपी चुनाव से पहले और इसी मई 21 यही हिस्‍सा हल्‍का क‍िया गया है.
  • पेट्रोल डीजल पर टैक्‍स कटौती और बढ़त का हिसाब कि‍ताब बताता है कि राहत क्‍यों खोखली होती है 2015 में जब कच्‍चे तेल की कीमत कम थी तब से केंद्र सरकार ने पेट्रो उत्‍पादों पर टैक्‍स बढ़ाना शुरु किया. अक्‍टूबर 2021 तक पेट्रोल पर एक्‍साइज ड्यूटी 200 फीसदी और डीजल पर 600 फीसदी बढ़ी. इसकी क्रम में राज्‍यों का वैट भी बढ़ा. नतीजतन 2014-15 से 20-21 के बीच पेट्रो उत्‍पादों से केंद्रीय एक्‍साइज संग्रह 163 फीसदी बढ़कर 1.72 लाख करोड़ रुपये से 4.5 लाख करोड़ हो गया. इसी दौरान मार्च 2014 से अक्‍टूबर 2021 तक राज्‍यों का वैट संग्रह 35 फीसदी बढ़कर 1.6 लाख करोड़ से 2.1 लाख करोड़ हो गया.
  • केंद्र सरकार पेट्रोल डीजल पर बेसिक एक्‍साइज पर राजस्‍व का 42 फीसदी हिस्‍सा राज्‍यों से बांटती है जो पेट्रोल पर केवल 58 पैसे और डीजल पर 75 पैसे प्रति लीटर है जबकि इन दोनों पर कुल एक्‍साइज क्रमश 33 रुपये और 42 रुपये प्रति लीटर है.

 

कोयला और बिजली वाला टैक्‍स

केवल पेट्रोल डीजल ही नहीं , टैक्‍स निचोड़ नीति के कारण कोयले और बिजली का हाल भी इतना ही बुरा है. भारत की करीब 60 फीसदी बिजली कोयले से बनती है

  • बिजली के कोयले की औसत बेसिक कीमत (955-1100 रुपये) पर रॉयल्‍टी, पर्यावरण विकास उपकर, सीमा कर, कुछ राज्‍यों मे जंगल कर, विकास कर, कोयला निकालने का चार्ज, 5 फीसदी का जीएसटी, 400 रुपये प्रति बिजली घर तक टन के बाद कोयले की कीमत लगभग दोगुनी हो जाती है. रेलवे का भाड़ा (दूरी के अनुसार) और उस पर जीएसटी अलग से.
  • कोल कंट्रोलर के आंकडे बताते हैं केंद्र सरकार को कोयले से करीब 25000 करोड़ का जीएसटी मिलता है. राज्‍यों को मिलने वाला टैक्‍स इससे अलग है.
  • इन टैक्‍स के कारण घरेलू और औद्योगिक उपभोक्‍ताओं के लिए बिजली करीब 26 पैसे प्रति यूनिट महंगी हो जाती है
  • कई राज्‍य सरकारें बिजली पर इलेक्‍ट्र‍िस‍िटी बिल पर ड्यूटी या टैक्‍स लगाती हैं. यह टैक्‍स, चुनावी वादों बिजली को सस्‍ता रखने के लिए लगाया जाता है.

 

नई ऊर्जा नया टैक्‍स

  • टैक्‍स का शिकंजा बडा हो रहा है . सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के प्रचार के बीच सरकार ने सोलर मॉड्यूल्‍स के आयात पर 40 फीसदी और सेल पर 25 फीसदी इंपोर्ट ड्यूटी लगा दी है. भारत में उत्‍पादन क्षमता है नहीं, आयात चीन होता है नतीजतन बढ़ती लागत के कारण सौर ऊर्जा क्रांति का दम भी टूट रहा है

पुणे की रिसर्च संस्‍था प्रयास एनर्जी ग्रुप का अध्‍यन बताता है कि केंद्र सरकार के कुल टैक्‍स राजस्‍व का करीब 25 फीसदी हिस्‍सा ऊर्जा से आता है राज्‍यों के कुल राजस्‍व का 13 फीसदी ऊर्जा से मिलता है. करीब से देखने पर पता चलता है कि केंद्र सरकार को ऊर्जा क्षेत्र से कंपनियों के लाभांश सहित जितना राजस्‍व मिलता है उसमें 90 फीसदी टैक्‍स हैं.

केंद्र को ऊर्जा क्षेत्र से मिलने वाले कुल राजस्‍व में 83 फीसदी पेट्रो उत्‍पादन से और 17 फीसदी कोयले से आता है जबकि राज्‍यों को कोयले से केवल दो फीसदी राजस्‍व मिलता है. 83 फीसदी पेट्रो उत्‍पादों से और शेष बिजली से आता है... रिजर्व बैंक के आंकडे बताते हैं कि 2018-19 के बाद से ऊर्जा पर केंद्र सरकार का राजस्‍व बढ़ा और सब्‍स‍िडी घटती चली गई.

इधर राज्‍य अपने ऊर्जा राजस्‍व का करीब आधा हिस्‍सा , लगभग 1.33 लाख करोड़ रुपये सब्सिडी पर खर्च कर रहे हैं हमें समझना होगा कि पेट्रोल डीजल और बिजली की महंगाई केवल सरकारी टैक्‍स से निकल रही है.

 

GST ked ayre mein kyuu nahi le aateघ्‍

यही वजह है कि सरकारें पेट्रो उत्‍पादों, कोयला और बिजली को जीएसटी के दायरे में नहीं लाना चाहतीं. जबकि यह टैक्‍स वाली लागत का सबसे बड़ा हिस्‍सा है जिस इनपुट टैक्‍स क्रेडिट‍ मिलना चाहिए भारत के नेता जितनी बडी बड़ी बातें करते हैं, उतनी चतुरता उनके आर्थि‍क प्रबंधन में नहीं है. बजटों का राजस्‍व ढांचा बुरी तरह सीमित हो चुका है. सरकारें खर्च कम करने को राजी नहीं है. देश ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता. शाहखर्च सरकारें टैक्‍स निचोड़कर हमें महंगाई में भून रही हैनतीजा यह है कि भारत अब दुनिया के सबसे महंगे मोटर ईंधन और पर्याप्‍त महंगी बिजली वाले देशों में शामिल हो गया.

यदि प्रति व्‍यक्‍ति‍ खपत खर्च या क्रय क्षमता के आधार पर देखें तो यह महंगाई और ज्‍यादा भयावह लगती है भारत के पास अब विकल्‍प कम हैं. कोयले और कच्‍चे तेल की महंगाइ्र स्‍थायी हो रही है. या तो ऊर्जा पर टैक्‍स कम करने होंगे या फिर झेलनी होगी महंगाई. इसके अलावा कोई रास्‍ता नहीं है सनद रहे कि पर्यावरण की चिंताओं के बाद भारत को ऊर्जा का ढांचा बदलना है. नई तकनीकों के बाद ऊर्जा और महंगी होगी. जब तक टैक्‍स नहीं कम हो ऊर्जा क्षेत्र में कोई नया बदलाव मुश्‍क‍िल होगा...

 

Saturday, February 22, 2020

अंधेरे में बिजली


सस्ती या रियायती बिजली क्या दिल्ली वालों की ही किस्मत में लिखी है? उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बंगाल या बिहार में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? बिजली बिलों को बिसूरते हुए गर्मी से भेंट से पहले यह जान लेना जरूरी है कि सरकारों ने हमें कौन-सी अंधी सुरंग में पटक दिया है.

भारत दुनिया में बिजली का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. 2006 से 2018 के बीच बिजली की उत्पादन क्षमता 124 गीगावाट से बढ़कर 344 गीगावाट पर पहुंच चुकी है. 8.9 फीसद की दर से यह बढ़ोतरी जीडीपी से ज्यादा तेज है.

उत्पादन क्षमता की बढ़ोतरी की रफ्तार, पीक डिमांड (सबसे ज्यादा मांग के समय-बिजली की मांग 24 घंटे एक सी नहीं रहती) बढ़ने की गति यानी पांच फीसद से ज्यादा है. नेशनल इलेक्ट्रिसिटी प्लान 2016 के अनुसार, 2021-22 तक भारत में पीक डिमांड 235 गीगावाट होगी यानी कि उत्पादन क्षमता पहले ही इससे कहीं ज्यादा हो चुकी है.

• 2012 से 2016 के बीच बिजली पारेषण (ट्रांसमिशन) क्षमता 7 फीसद की दर से बढ़ी. यानी जो बिजली बन रही थी उसे बिजली वितरण कंपनियों तक पहुंचाने वाला नेटवर्क छह साल में बढ़कर 3.9 लाख किमी पर पहुंच गया.

• 2003 के इलेक्ट्रिसिटी ऐक्ट के तहत उपभोक्ता खुले बाजार से बिजली खरीद (ओपन एक्सेस) सकते हैं, जहां सस्ती बिजली उपलब्ध है. भारत में स्टॉक एक्सचेंज की तरह पावर एक्सचेंज है लेकिन उपभोक्ताओं को यह सस्ती बिजली मिलती है और ही बिजली वितरण कंपनियों को.

पर्याप्त बिजली उत्पादन और पारेषण क्षमता, यथेष्ट सस्ती बिजली, और भरपूर मांग के बावजूद औसत बिजली इतनी महंगी (औसत 6-8 रुपए प्रति यूनिट, उद्योग के ल‍िए और महंगी) क्यों?

इस सवाल का तयशुदा जवाब बीते बरस अप्रैल में सरकार की मेज पर पहुंच गया था. नीति आयोग ने बिजली वितरण की चुनौतियों पर क्रिसि से एक अध्ययन कराया, जिसने केवल पूरे बिजली सुधारों की विफलता का सबूत दिया बल्कि दिल्ली में बिजली सुधारों से नसीहत लेने की राय दी. इस रिपोर्ट के बाद मांग पर बिजली देने के बड़बोले दावे बंद हो गए, बिजली कंपनियों के बकाए को राज्यों के बजट पर थोप देने वाली उदय स्कीम की नाकामी स्वीकार कर ली गई और बिजली दरों में बढ़ोतरी अबाध जारी रही.

क्रिसिल की रिपोर्ट बताती है कि

बाजार (पावर एक्सचेंज) में सस्ती बिजली उपलब्ध है लेकिन बिजली वितरण कंपनियां महंगी बिजली खरीदने को बाध्य हैं. 

समस्या की जड़ है बिजली दरों का ढांचा. बिजली दरें फिक्स्ड और एनर्जी, दो हिस्सों में बंटी होती हैं. फिक्सड चार्ज, लोड या डिमांड पर आधारित होते हैं जिसके तहत कंपनियां उत्पादन, पारेषण, मेंटेनेंस लागत और ब्याज पूंजी पर रिटर्न वसूलती हैं जबकि एनर्जी चार्ज बिजली की वास्तवि खपत पर आधारित होता है.

कंपनियां फिक्स्ड चार्ज से पूरी लागत नहीं निकाल पातीं इसलिए बिजली महंगी होती जाती है. कई उपभोक्ता वर्गों जैसे, किसान, सरकारी संस्थानों को सस्ती बिजली देने के लिए राज्य सरकारें वक्त पर सब्सिडी नहीं देतीं. जिन राज्यों में सब्सिडी वाले उपभोक्ता जितने अधि हैं उतना ही ज्यादा अंतर है बिजली की खरीद लागत और आपूर्ति राजस्व में. यह आंध्र प्रदेश में दो रुपए प्रति यूनिट से ऊपर है और दिल्ली में सबसे कम 19 पैसे. 

यह व्यवस्था शायद दुनिया की सबसे जटिल बिजली दरों के ढांचे से पाली-पोसी जाती है, अलग-अलग राज्यों में उपभोक्ताओं के  9 से लेकर 18 वर्ग हैं और दरों के 14 से लेकर 72 स्लैब हैं. अधिकांश उपभोक्ता जानते ही नहीं कि यह जटिल बिलिंग कैसे होती है.

अक्षम बिजली दर ढांचे, लागत और राजस्व में अंतर यानी घाटे के कारण वितरण कंपनियों को लंबे समय के लिए महंगे बिजली खरीद सौदे करने होते हैं ताकि उधार आपूर्ति हो सके. अगर कोई उपभोक्ता बाजार से खरीदकर सस्ती बिजली की आपूर्ति चाहे भी तो कंपनियां भारी सप्लाई चार्ज लगाती हैं. नतीजतन ओपेन एक्सेस व्यवस्था टूट चुकी है.

सरकारें कभी बिजली दरों का ढांचा ठीक नहीं करना चाहतीं. सब्सिडी को सीधे उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचाना चाहतीं. इसमें अकूत भ्रष्टाचार और उत्पादकों-वितरकों की अक्षमता का संरक्षण निहित है. सरकार बिजली दरों को नियामकों के हाथ से निकाल बाजार के हवाले नहीं करना चाहती. इसलिए बिजली तो सस्ती बनती है लेकिन मिलती नहीं.

2001 से 2015 के बीच बिजली बोर्ड या वितरण कंपनियों को बकाए और कर्ज से उबरने के लिए तीन पैकेज (सबसे ताजा उदय) दिए गए लेकिन 2019 में बिजली कंपनियों का घाटा 27,000 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है. उन्हें करीब 81,000 करोड़ रु. बिजली उत्पादन कंपनियों को चुकाने हैं. 

बहु प्रचारित सुधार वीरों की अगुआई में कई राज्यों में बिजली दरें बढ़ चुकी हैं. बिजली की महंगाई और कटौती के बीच दुनिया के तीसरे सबसे बड़े बिजली उत्पादक देश के उपभोक्ता एक और कठिन गर्मी झेलने को तैयार हो रहे हैं.