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Tuesday, January 5, 2016

आकस्मिकता के विरुद्ध


अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए.

भारत में जान-माल यकीनन महफूज हैं लेकिन कारोबारी भविष्य सुरक्षित रहने की गारंटी नहीं है. पता नहीं कि सरकारें या अदालतें कल सुबह नीतियों के ऊंट को किस करवट तैरा देंगी इसलिए धंधे में नीतिगत जोखिमों का इंतजाम जरूरी रखिएगा, भले ही सेवा या उत्पाद कुछ महंगे हो जाएं. यह झुंझलाई हुई टिप्पणी एक बड़े निवेशक की थी जो हाल में भारत में नीतियों की अनिश्चितता को बिसूर रहा था. अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए. नीतियों की अनिश्चितता केवल उद्यमियों की मुसीबत नहीं है. युवाओं से लेकर अगले कदम उठाने तक को उत्सुक नौकरीपेशा और सामान्य उपभोक्ताओं से लेकर रिटायर्ड तक, किसी को नहीं मालूम है कि कौन-सी नीति कब रंग बदल देगी और उन्हें उसके असर से बचने का इंतजाम तलाशना होगा.
दिल्ली की सड़कों पर ऑड-इवेन का नियम तय करते समय क्या दिल्ली सरकार ने कंपनियों से पूछा था कि वे अपने कर्मचारियों की आवाजाही को कैसे समायोजित करेंगी? इससे उनके संचालन कारोबार और विदेशी ग्राहकों को होने वाली असुविधाओं का क्या होगा? बड़ी डीजल कारों को बंद करते हुए क्या सुप्रीम कोर्ट ने यह समझने की कोशिश की थी कि पिछले पांच साल में ऑटो कंपनियों ने डीजल तकनीक में कितना निवेश किया है. केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद बाजार में दीवाली मना रहे निवेशकों को इस बात का इलहाम ही नहीं था कि उन्हें टैक्स के नोटिस उस समय मिलेंगे जब वे नई व स्थायी टैक्स नीति की अपेक्षा कर रहे थे. ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लंबी है जिन्होंने भारत को सरकारी खतरों से भरा ऐसा देश बना दिया है जहां नीतियों की करवटों का अंदाज मौसम के अनुमान से भी कठिन है.
लोकतंत्र बदलाव से भरपूर होते हैं लेकिन बड़े देशों में दूरदर्शी स्थिरता की दरकार भी होती है. भारत इस समय सरकारी नीतियों को लेकर सबसे जोखिम भरा देश हो चला है. यह असमंजस इसलिए ज्यादा खलता है क्योंकि जनता ने अपने जनादेश में कोई असमंजस नहीं छोड़ा था. पिछले दो वर्षों के लगभग सभी जनादेश दो-टूक तौर पर स्थायी सरकारों के पक्ष में रहे और जो परोक्ष रूप से सरकारों से स्थायी और दूरदर्शी नीतियों की अपेक्षा रखते थे. अलबत्ता स्वच्छ भारत जैसे नए टैक्स हों या सरकारों के यू-टर्न या फिर चलती नीतियों में अधकचरे परिवर्तन हों, पूरी गवर्नेंस एक खास किस्म के तदर्थवाद से भर गई है.
गवर्नेंस का यह तदर्थवाद चार स्तरों पर सक्रिय है और गहरे नुक्सान पैदा कर रहा है. पहला&आर्थिक नीतियों में संभाव्य निरंतरता सबसे स्पष्ट होनी चाहिए लेकिन आयकर, सेवाकर, औद्योगिक आयकर से जुड़ी नीतियों में परिवर्तन आए दिन होते हैं. जीएसटी को लेकर असमंजस स्थायी है. आयकर कानून में बदलाव की तैयार रिपोर्ट (शोम समिति) को रद्दी का टोकरा दिखाकर नई नीति की तैयारी शुरू हो गई है. कोयला, पेट्रोलियम, दूरसंचार, बैंकिंग जैसे कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां अगले सुधारों का पता नहीं है. इस तरह की अनिश्चितता निवेशकों को जोखिम लेने से रोकती है.
दूसरा क्षेत्र सामाजिक नीतियों व सेवाओं से जुड़ा है, जहां लोगों की जिंदगी प्रभावित हो रही है. मसलन, मोबाइल कॉल ड्राप को ही लें. मोबाइल नेटवर्क खराब होने पर कंपनियों पर जुर्माने का प्रावधान हुआ था लेकिन कंपनियां अदालत से स्टे ले आईं. अब सब कुछ ठहर गया है. सामाजिक क्षेत्रों में निर्माणाधीन नीतियों का अंत ही नहीं दिखता. आज अगर छात्र अपने भविष्य की योजना बनाना चाहें तो उन्हें यह पता नहीं है कि आने वाले पांच साल में शिक्षा का परिदृश्य क्या होगा या किस पढ़ाई से रोजगार मिलेगा.
नीतियों की अनिश्चितता के तीसरे हलके में वे अनोखे यू-टर्न हैं जो नई सरकारों ने लिए और फिर सफर को बीच में छोड़ में दिया. आधार कार्ड पर अदालती खिचखिच और कानून की कमी से लेकर ग्रामीण रोजगार जैसे क्षेत्रों में नीतियों का बड़ा शून्य इसलिए दिखता है, क्योंकि पिछली सरकार की नीतियां बंद हैं और नई बन नहीं पाईं. एक बड़ी अनिश्चितता योजना आयोग के जाने और नया विकल्प न बन पाने को लेकर आई है. जिसने मंत्रालयों व राज्यों के बीच खर्च के बंटवारे और नीतियों की मॉनिटरिंग को लेकर बड़ा खालीपन तैयार कर दिया है.
नीतिगत अनिश्चितता का चौथा पहलू अदालतें हैं, जो किसी समस्या के वर्तमान पर निर्णय सुनाती हैं लेकिन उसके गहरे असर भविष्य पर होते हैं. अगर सरकारें नीतियों के साथ तैयार हों तो शायद अदालतें कारों की बिक्री पर रोक, प्रदूषण कम करने, नदियां साफ करने, गरीबों को भोजन देने या पुलिस को सुधारने जैसे आदेश देकर कार्यपालिका की भूमिका में नहीं आएंगी बल्कि अधिकारों पर न्याय देंगी.
भारत में आर्थिक उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन का एक पूरा दौर बीतने के बाद गवर्नेंस की नसीहतों के साथ दीर्घकालीन नीतियों की जरूरत थी. लेकिन सरकार की सुस्त चाल, पिछली नीतियों पर यू-टर्न, छोटे-मोटे दबावों और राजनैतिक आग्रह एवं अदालतों की सक्रियता के कारण नीतिगत अनिर्णय उभर आया है. कांग्रेस की दस साल की सरकार एक खास किस्म की शिथिलता से भर गई थी लेकिन सुधारों की अगली पीढिय़ों का वादा करते हुए सत्ता में आई मोदी सरकार नीतियों का असमंजस और अस्थिरता और बढ़ा देगी, इसका अनुमान नहीं था.

चुनाव पश्चिम के लोकतंत्रों में भी होते हैं. वहां राजनैतिक दलों के वैर भी कमजोर नहीं होते लेकिन नीतियों का माहौल इतना अस्थिर नहीं होता. अगर नीतियां बदली भी जाती हैं तो उन पर प्रभावित पक्षों से लंबी चर्चा होती है, भारत की तरह अहम फैसले लागू नहीं किए जाते हैं. नीतिगत दूरदर्शिता, समस्याओं से सबसे बड़ा बचाव है. लेकिन जैसा कि मशहूर डैनिश दार्शनिक सोरेन कीर्केगार्द कहते थे कि मूर्ख बनने के दो तरीके हैं एक झूठ पर भरोसा किया जाए और दूसरा सच पर विश्वास न किया जाए. भारत की गवर्नेंस व नीतिगत पिलपिलेपन के कारण लोग इन दोनों तरीकों से मूर्ख बन रहे हैं. क्या नया साल हमें नीतिगत आकस्मिकता से निजात दिला पाएगा? संकल्प करने में क्या हर्ज है.

Monday, December 14, 2015

भारतीय सियासत का ग्रीन होल

अब जब कि पर्यावरण को लेकर दुनिया के सामने ठोस आर्थिक व राजनैतिक वादों की बारी है तब हमारी सियासी बहसों की पर्यावरणीय दरिद्रता और ज्यादा मुखर हो चली है. 
क्या प  मुतमइन हो सकते हैं कि नेताओं ने शीतकालीन सत्र में तीन दिन तक, जिस तरह संविधान और सहिष्णुता का धान कूटा, ठीक उसी तरह दिल्ली की दमघोंट हवा और चेन्नै के सैलाब पर भी बहस की आएगी. संसद का रिकॉर्ड देखने के बाद उम्मीद नहीं जगती कि देर रात तक संसद चलाकर लडऩे वाले नेता, बदमिजाज मौसम से जीविका व जिंदगी को बचाने वाली गवर्नेंस पर ऐसी गंभीर बहस करेंगे. अतीत की रेत में धंसे शुतुरमुर्गी सिरों जैसी संसदीय बहसें बताती हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सियासत में आधुनिकता का स्तर न्न्या है. भारत में तो ग्रीन पॉलिटिक्स की आमद एक दशक पहले तक हो जानी चाहिए थी जब मौसमी बदलाव जानलेवा हो चले थे. अब जब कि पर्यावरण को लेकर दुनिया के सामने ठोस आर्थिक और राजनैतिक वादों की बारी है, तब हमारी सियासी बहसों की पर्यावरणीय दरिद्रता और ज्यादा मुखर हो चली है.
यूरोप में ग्रीन पॉलिटिक्स ने दरअसल वामपंथी दलों की जगह भरी है. पर्यावरण की नई राजनीति यूरोप में 1980 के दशक में उभरी और 1990 के दशक की शुरुआत तक बेहद प्रभावी हो गई. चुनावों में ग्रीन पार्टियों ने बड़ी सफलता नहीं हासिल की पर यह पार्टियां पर्यावरण को सुरक्षित रखने की नीतियों की हिमायत के साथ क्रमशः राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेंडा तय करने लगीं. इस 'ग्रीन लेफ्ट' के अतिवादी आग्रहों पर कई बार लानतें भेजी गईं लेकिन इस राजनीति का असर था ग्रीन टैक्स, साफ ऊर्जा, शहरों में कंजेशन टैक्स, विलासितापूर्ण जिंदगी के लिए ऊंची कीमत, प्रकृति के लिए सुरक्षित कारोबार को लेकर आज यूरोप के कानून और नियम, अमेरिका से ज्यादा आधुनिक हैं.
अगर आपको हैरत न हुई तो अब होनी चाहिए कि संविधान दिवस की बहस में जब सभी दल अपने-अपने आंबेडकर चुने रहे थे और कांग्रेस और बीजेपी का आइडिया ऑफ इंडिया एक दूसरे से गुत्थमगुत्था थे, ठीक उस समय प्रधानमंत्री के दफ्तर में पेरिस पर्यावरण सम्मेलन को लेकर भारत की वचनबद्धताओं को अंतिम रूप दिया जा रहा था. संसद ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि आखिर कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए भारत जो समझौते करने वाला है, उससे देश की आबादी की जिंदगी पर कैसे असर होंगे? भारत ने दुनिया से वादा किया है कि वह 2020 तक, पर्यावरण को गर्म करने वाले कार्बन का उत्सर्जन 33 से 35 फीसदी घटाएगा. यह बहुत बड़ा वादा है जिसकी आर्थिक-राजनैतिक लागत भी बड़ी होगी क्योंकि इसके बाद साफ सुथरी बिजली से लेकर हर जगह नई तकनीकों की जरूरत होगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पेरिस होकर लौट आए, चेन्नै में मौसम के गुस्से ने दहला भी दिया लेकिन भारत के नेता जिंदगी और मौत से जुड़ी बहसों में शायद इसलिए नहीं उतर पाए क्योंकि उनकी सियासी पढ़ाई में आधुनिक ग्रीन पॉलिटिक्स का अध्याय ही नहीं है.
दिल्ली का स्मॉग इसी साल नहीं पैदा हुआ. लेकिन राजनैतिक मंचों पर यह सवाल कभी नहीं उभरा कि शहरों की आबोहवा बदलने के लिए तात्कालिक व दीर्घकालिक रणनीति क्या होगी? अदालत ने जब चाबुक फटकारा तो हर काम जनता से पूछकर करने वाले केजरीवाल ने सिर्फ पंद्रह दिन के नोटिस पर हफ्ते में तीन दिन आधी कारें सड़क से हटाने का फरमान जारी कर दिया. दुनिया के ज्यादातर शहरों में यह व्यवस्था इसलिए आजमाई नहीं गई क्योंकि वहां की राजनीति ने उन विकल्पों पर चर्चा की थी जो कम से कम असुविधा में जनता को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाते थे. भारत में ग्रीन पॉलिटिक्स सक्रिय होती तो हम दिल्ली में कंजेशन टैक्स लगाने, पार्किंग महंगी करने, एक से अधिक कार रखने पर रोक, डीजल कारों पर टैक्स बढ़ाकर राजस्व जुटाने और उससे नगरीय परिवहन तैयार करने पर चर्चा कर रहे होते न कि कारें बंद करने के बेतुके फैसलों से निबटने की तैयारी कर रहे होते. तब हमारी बहसें यह होतीं कि क्लीन एनर्जी सेस या स्वच्छ भारत सेस का इस्तेमाल आखिर कहां हो रहा है?
सियासत के पोंगापंथ पर शक नहीं है लेकिन नसीहतों को लेकर असंवेदनशीलता ज्यादा परेशान करती है. पिछले एक दशक में आधुनिक सियासत व गवर्नेंस की बड़ी बहसें या फैसले देश की पारंपरिक राजनीति के मंच से उठे ही नहीं हैं. भारत में पर्यावरण को लेकर गवर्नेंस को बदलने की शुरुआत स्वयंसेवी संस्थाओं और अदालतों की जुगलबंदी से होती है, किसी राजनैतिक दल के आंदोलन से नहीं. पश्चिम के लोकतंत्र इससे ठीक उलटे हैं. वहां पर्यावरण के नुक्सान भारत जैसे मुल्कों की तुलना में कम हैं फिर भी उन्होंने राजनैतिक आंदोलनों के जरिए पर्यावरण को राजनीति के केंद्र में स्थापित किया. भारत में पर्यावरण को लेकर जो गैर राजनैतिक और स्वयंसेवी सक्रियता दिखी भी, उसे नई सरकार ने बंद कर दिया. आबोहवा की दुरुस्तगी पर अगर, अदालतें न सक्रिय हों तो भारत के नेता, इतिहास में बदलाव पर जूझ जाएंगे लेकिन दमघोंट वर्तमान को बदलने पर सक्रिय नहीं होंगे. 
भारत के भविष्य की अब लगभग हर नीति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण से प्रभावित होनी है. आने वाले कुछ ही वर्षों में शहर बनाने से लेकर बिजली संयंत्र लगाने, कारों के उत्पादन से उनके इस्तेमाल तक, बीमारियों से लड़ाई के इंतजाम से लेकर खेती तक और टैक्स, निर्यात, आयात तक लगभग सभी नीतियों में जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण के संदर्भ मुखर होने वाले हैं, जो जिंदगी जीने की लागत व तरीका बदलेंगे. ग्रीन गवर्नेंस को लेकर नेताओं की सीमित समझ और सक्रियता से दो तरह के खतरे सामने हैं एक—अदालती या अंतरराष्ट्रीय फैसलों के कारण हम अचानक जिंदगी बदलने या महंगी करने वाले अहमक फैसलों के शिकार हो सकते हैं, जैसा दिल्ली में कारों की संख्या कम करने को लेकर हुआ है. और दूसरा-हमें शायद धुंध या पानी में डूबने के लिए छोड़ दिया जाएगा.

पर्यावरण की चुनौती से निबटने वाली गवर्नेंस के लिए हमें एक आधुनिक सियासत चाहिए जो अभी केंद्रीय स्तर पर भी नहीं है, राज्यों की राजनीति में तो अभी इसका बीज तक नहीं पड़ा है. अगर चेन्नै की डूब और दिल्ली की जहर भरी हवा भी हमारी सियासत को आधुनिक व दूरदर्शी नहीं बना पा रही है तो मान लीजिए कि किसी बड़े जनविनाश के बावजूद हम इतिहास ठीक करने की बहस में ही उलझे रहेंगे, भविष्य बचाने की नहीं.