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Monday, February 11, 2019

सुधारों की हार



चुनाव में वोट डालने से पहले सुधारों को श्रद्धांजलि देना मत भूलिएगा. अंतरिम बजट को गौर से समझिए. पच्चीस साल के सुधारों के बाद हम इस घाट फिसलेंगे! भारत में कोई सरकारी स्कीम अभी या कभी नियमित कमाई का विकल्प नहीं बन सकतीफिर भी भाजपा और कांग्रेस के बीचकिसानों व गरीबों के हाथ में राई के दाने रख महादानी बनने की आत्मघाती प्रतिस्पर्धा शुरू हो चुकी है
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चुनावी जयघोष के बीच बजट पढऩे के बाद कोई भी निष्पक्षता के साथ दो निष्कर्ष निकाल सकता है.

एकढांचागत सुधारों की जिस अगली पीढ़ी को सामने लाने का दावा करते हुए नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे और सामाजिक स्कीमों का ढांचा व पहुंच ठीक करने की जो उम्मीद उन्होंने दिखाई थीउनकी याद में दो मिनट का मौन तो बनता है.

दोमोदी या राहुल भारत की राजनीति का बुनियादी चरित्र नहीं बदल सकते. यह सुधार विरोधीदकियानूस और चुनाव केंद्रित ही रहेगी.

चुनावी लोकलुभावनवाद नया नहीं हैलेकिन इस बार कुछ नया और बेहद खतरनाक हुआ है. राजनीति घातक प्रतीकवाद पर उतारू है. सरकारें किसी भी कीमत पर लोगों को सम्मानजनक सालाना कमाई नहीं दे सकतीं. लेकिन लाभार्थियों के लिए नगण्य‍ आय सहायता भी बजटों की कमर तोडऩे के लिए पर्याप्त है. मोदी-किसान का इनकम सपोर्ट केवल 500 रु. महीने (दैनिक मजदूरी का पांच फीसदी) का है. कांग्रेस की मेगा बजट वाली मनरेगा हर कोशिश के बावजूद केवल 100 दिन का सालाना रोजगार दे पाई. सरकार की दूसरी सहायतापेंशनबीमा योजनाओं के वर्तमान व संभावित लाभों को बाजार और जीने के खर्च की रोशनी से मापिएआपको सरकारों की समझ पर तरस आ जाएगा.

विशाल आबादीबजटों के घाटेभारी सरकारी कर्ज और लाभार्थ‌ियों की पहचान में बीसियों झोल के कारण इनकम सपोर्ट हर तरह से अभिशप्त है लेकिन बजट की जेब फटे होने के बावजूद नेता इस तमाशे पर उतारू हैंजिनसे लाभार्थियों की ज‌िंदगी में रत्तीभर बदलाव मुश्किल है.



मोदी सरकार की किसान इनकम सपोर्ट सुविचारित नहीं है. फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाकर सरकार पहले ही बजट बिगाड़ चुकी थी. यह फैसला जनवरी में जन्मा जब राहुल गांधी ने गरीबों को न्यूनतम आय का वादा उछाल दिया. इसलिए मोदी-किसान पिछले साल दिसंबर से अमल में आएगी.

तेलंगाना (खर्च 120 अरब रु.)ओडिशा (खर्च 33 अरब रु.) और झारखंड (खर्च 22 अरब रु.) को इस जोखिम से रोकने के बजाए केंद्र सरकार ने भी इस चुनावी घोड़े की सवारी कर ली जो अर्थव्यवस्था को जल्द ही मुसीबत की राह पर पटक देगा.

आगे की राह कुछ ऐसी होने वाली है.

1. तीन राज्यों में किसानों को दोहरी सहायता मिलेगी. राज्य अपनी किसान-दान योजनाएं बंद नहीं करेंगे बल्कि इस के बाद कई दूसरे राज्य इसी तरह की योजनाएं ला सकते हैं. यानी एक घातक प्रतीकवादी होड़बस शुरू होने वाली है

2. अंतरिम बजट के बाद बॉन्ड बाजार ने खतरे के संकेत दे दिए. केंद्र सरकार के घाटे का आंकड़ा भरोसेमंद नहीं है. 2019-20 में सात लाख करोड़ रु. की सरकारी कर्ज योजना को देखकर बाजार को पसीने आ गए. राज्य भी इस साल और ज्यादा कर्ज लेंगे.

प्रतीकात्मक आय समर्थन इसलिए संकट को न्योता है क्योंकि सरकारें खेती को असंख्य सब्सिडी (खादपानीबिजलीउपकरणकर्ज पर ब्याज) देती हैं. 2020 में केंद्र का कृषि सब्सिडी बिल 2.84 खरब रु. होगा. इसके बाद भी संतोषजनक नियमित आय दे पाना असंभव है.

आय समर्थन का तदर्थवाद सुधारों का शोकगीत है.

1. सरकारें अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव और बाजार के विस्तार के जरिये आय बढ़ाने के लिए मेहनत नहीं करना चाहतीं.

2. वे सामाजिक कार्यक्रम में सुधार नहीं सिर्फ वोट खरीदना चाहती हैं.

3. सरकारी खैरातेंइसे बांटने वाले तंत्र को लूट के लिए प्रेरित करती हैं. तमाम स्कीमें इसका उदाहरण हैं. 

सुधारों के ढाई दशक के दौरान भारत में केंद्र की राजकोषीय सेहत कमोबेश संतुलित रही है. यह पहला मौका है जब वित्तीय तंत्र में कर्ज इतने बड़े पैमाने पर एकत्र हुआ है. केंद्र का कर्ज-जीडीपी अनुपात 70 फीसदी की ऊंचाई पर है. राज्यों की कुल देनदारियों में बाजार कर्ज का 74 फीसदी हिस्सा है. बैंकों और एनबीएफसी के कर्ज इससे अलग हैं. 2022 में केंद्र सरकार की सबसे बड़ी कर्ज अदायगी शुरू हो जाएगी.

रेटिंग एजेंसियां के पास आंकड़े मौजूद हैं. भारत की कर्ज साख को झटका लगा तो अगले छह माह के भीतर ही भारत में कर्ज संकट के अलार्म बज उठेंगे.

Saturday, November 10, 2018

उन्नीस के बाद



अगर हम सियासत के गुबार से बाहर देख पाएं तो हमें कर्ज संकट से निबटने की तैयारी शुरु कर देनी चाहिए जो करीब दस-बारह महीने के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था पर फटने को तैयार होगा. 



भारत के वित्तीय तंत्र के लिए अब यूपीए और एनडीए में कोई बड़ा फर्क नहीं बचा है. 2008 के बाद जिस तरह यूपीए ने बैंकों से अंधाधुंध कर्ज बांटने को कहा और पूरी बैंक‌िंग में बकाया कर्जों का बारूद बिछ गया, ठीक उसी तरह आर्थिक ग्रोथ तेज करने की कोशिशों को ढहते देख मोदी सरकार को भी लगने लगा है कि कर्ज पर कर्ज देकर चुनावी संभावनाएं चमकाई जा सकती हैं. 

सरकार और रिजर्व बैंक के बीच ताजा विवाद के साथ ही कर्ज के इस टाइम बम की टिक्-टिक् भी शुरू हो गई है. भारत की छद्म बैंक‌िंग यानी एनबीएफसी (गैर बैंक‌िंग वित्तीय कंपनियों) ने पिछले चार साल में बेरोक-टोक कर्ज बाटे हैं. सरकार, रिजर्व बैंक के जरिए कर्ज के बकायों को बैंकों के गले बांधने जा रही है. बैंकों के पास बकाया कर्ज का भारी बारूद पहले से जमा है जिस पर अब नया आरडीएक्स बिछने वाला है.

रिजर्व बैंक गवर्नर रहें या जाएं लेकिन अब सरकार ने यह फरमान सुना ही दिया है कि एक-सरकारी बैंकों को एनबीएफसी के बकाया कर्ज खरीदने होंगे या नए कर्ज देने होंगे. दो-बैंकों पर बकाया कर्ज वसूली को लेकर सख्ती नहीं होगी और तीन-यूपीए की तर्ज पर बैंकों को कर्ज बांटने का अभियान शुरू करना होगा.

सब जानते हुए सरकार कर्ज से लदे बैंकों को नए बारूद पर क्यों बिठा रही है?

सरकार चुनाव के पहले एक कर्ज संकट को टालना चाहती है. एनबीएफसी या शैडो बैंक‌िंग ने बाजार से बड़े पैमाने पर (कॉमर्शियल पेपर और डिबेंचर) कर्ज लिए हैं. इन्हें जमा करने-जुटाने की छूट नहीं है. वे बैंक व बाजार से कर्ज लेकर आगे कर्ज देते हैं. एनबीएफसी के 2.3 लाख करोड़ के कर्ज दिसंबर तक चुकाए जाने हैं. कुछ बड़ी देनदारियां अगले साल सितंबर तक चलेंगी. 

इसी भुगतान की आहट के बाद अक्तूबर में बाजार में नकदी का संकट शुरू हुआ कि क्यों लेनदारों को यह पता है कि शैडो बैंक‌िंग के पैर के नीचे पूंजी की जमीन नहीं है.

सरकार की कवायद इस टाइम बम की घड़ी को आगे बढ़ाने की है ताकि चुनाव अच्छे-भले गुजर जाएं. ऐसा ही यूपीए ने किया था जब कंपनियों के बकाया कर्जों का भुगतान टाल कर उन्हें नए कर्ज दिए गए थे. सरकार के धमकाने पर रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि वे इस शैडो बैंक‌िंग को और कर्ज दें, उनके बॉन्ड्स को गारंटी दें और यहां तक कि स्टेट बैंक तो एनबीएफसी के 45,000 करोड़ रु. के बकाया कर्ज खरीदने जा रहा है.

म्युचुअल फंड भी अपनी नकदी एनबीएफसी के बॉन्ड्स में लगाते थे. उन्हें इस शैडो बैंक‌िंग की सचाई मालूम है इसलिए पिछले दो माह में उन्होंने काफी बिकवाली की है. यानी अब इनके बकाया कर्ज की जिम्मेदारी बदहाल बैंकों पर आ गई है जिनके पास करोड़ों जमाकर्ताओं की बचत है.

रिजर्व बैंक के एनपीए फॉर्मूले के मुताबिक, एनबीएफसी यानी शैडो बैंक‌िंग के एनपीए उनके कुल उधार का 5.8 फीसदी है जबकि बैंकों का एनपीए (कुल कर्ज का प्रतिशत) 11.8 फीसदी है. इन्हें मिलने वाली ताजा राहत एक साल बाद बड़ी आफत बनकर टूटेगी और तब मुसीबत के नए दांत उग चुके होंगे.
2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी का सबसे लंबा क्रम शुरू हो रहा है. यानी सरकार को या तो बैंकों से लिया कर्ज (ट्रेजरी बिल के जरिए) चुकाना होगा या उसे चुकाने के लिए नया कर्ज उठाना होगा. इस बीच सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ब्याज दरें बढऩे लगी हैं जो इस संकट को समय से पहले आमंत्रित कर सकती हैं.

चुनाव सामने हैं, वित्तीय संकट सबको दिख रहा है इसलिए कर्ज पर कर्ज बांटने से तत्काल न तो मांग बढऩी है और न निवेश. इसका लाभ कुछ ही बड़े शैडो बैंकों (एनबीएफसी) को ही मिलेगा. जैसा कि 2010 में माइक्रोफाइनेंस कंपनियों पर संकट के दौरान अन्य वित्तीय कंपनियों पर संकट बना रहेगा.

वित्तीय तंत्र में कर्ज मिथकों के राक्षस रक्तबीज की तरह होता है. वह सिर्फ जगह बदलता है, बढ़ता है, मरता कभी नहीं. बाजार को यह अच्छी तरह पता है. बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में ऐसे कर्ज संकट की स्थिति 40 साल में एक बार बनती है. क्या हम इससे बच पाएंगे?