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Tuesday, November 30, 2021

महाक्रांति की हार


मैक्सिको और इजिप्ट और भारत को केवल उनका इत‍िहास ही नहीं  बल्‍क‍ि वर्तमान भी जोड़ता है.. तीनों ही दुनिया की महान प्राचीन सभ्यताओं (सिंधु, मिस्‍त्र, एजटेक, माया) की  लीला भूम‍ि हैं  अलबत्‍ता उनकी ताजी समानता इतनी गर्वीली नहीं है.

अगर महंगी मोबाइल सेवा को बिसूर रहे हैं तो भारत और इन देशों की समानता को समझना बहुत जरुरी है. तीनों ही देश अब दुनिया में बेडौल बाजारों के सबसे नए नमूने हैं. मैक्‍स‍िको का कार्लोस स्‍लिम आविष्कारक नहीं था. कमाई का स्रोत सियासी रसूख और स्टॉक ब्रोकिंग थे. 1990 में निजीकरण में उसने टेलीमैक्स (मैक्सिको की सरकारी टेलीकॉम कंपनी) को खरीद लिया और सरकारी एकाधिकार निजी मोनोपली में बदल गया.

होस्नी मुबारक सरकार ने 1990 में इजिप्ट में सरकारी एकाधिकार खत्म किये तो सरकार के करीबी उद्योगों ने एकाधिकार बना लिये.

भारत में भी दूरसंचार सेवा बेडौल बाजार (इम्‍परफेक्ट मार्केट) का सबसे नया नमूना है. 

ब्रिटेन की अर्थशास्‍त्री जोआन रॉबिनसन (1930) ने इस बाजार के खतरे को समय से पहले देख लिया था.  जोआन ने बताया था कि मोनोपली और मोनोस्पोनी की घातक जोड़ी असंतुलित बाजारों की पहचान है. मोनोपली के तहत चुनिंदा कंपनियां बाजार में आपूर्ति पर नियंत्रण कर लेती हैं. ग्राहक उनके के बंधक हो जाते हैं जबकि मोनोस्पोनी में यही कंपनियां मांग पर एकाधिकार जमा लेती है और रोजगार के अवसरों सीमित कर देती हैं जिससे रोजगार व कमाई में कमी आती है.

भारत के दूरसंचार बाजार में मोनोपली या डुओपोली और मोनोस्पोनी  डुओस्पोनी दोनों ही खुलकर खेल रही हैं.

सस्ता नहीं अब 

प्रतिस्पर्धा सिमटते (कभी 12 कंपनियां) ही दुनिया में सबसे सस्ती मोबाइल सेवा का सूर्य डूबने लगा था. 2018 तक रिलायंस जिओ बाजार में बड़ा हिस्सा लेकर डुओपोली बना चुकी थी. उसे अब सस्ती दरों पर लुभाने की जरुरत नहीं थी.

यद‍ि आपको लगता है कि मोबाइल दरों में महंगाई अभी शुरु हुई तो अपने पुराने बिल निकाल कर फि‍र देखिये.  बीते तीन साल में टेलीफोन की दरें करीब 25 फीसदी बढ़ीं. हालांक‍ि सस्‍ते मोबाइल वाली क्रांति का अंतिम गढ़ इसी जुलाई में टूटा जब वोडाफोन-आइडिया के संकट के बाद बाजार पूरी तरह जिओ और एयरटेल के बीच बंट गया.

जुलाई में ही एयरटेल ने सभी 22 सर्किल में 49 रुपये का सबसे सस्ता शुरुआती प्री पेड प्लान बंद कर दिया था. वोडाफोन आइडिया 13-14 सर्किल में 2 जी सेवा की दरें पहले ही बढ़ा चुका है. जुलाई के अंत तक सभी कंपनियों (जिओ रु. 75) के न्यूनतम प्री पेड प्लान की कीमत  75 से 79 रुपये (28 दिन वैधता) हो गई  थी.

एयरटेल की तरफ से ताजी मोबाइल महंगाई सबसे सस्‍ता प्लान  20 रुपये और सबसे ऊंची दर वाला प्‍लान पर 501 रुपये  महंगा हुआ है.  यानी अब एयरटेल के सबसे सस्‍ते प्‍लान के लिए 79 रुपये की जगह 99 रुपये और सबसे महंगे प्‍लान के लिए 2498 रुपये की जगह अब 2999 रुपये चुकाने होंगे.

इस महंगाई की बुन‍ियाद में दूरसंचार न‍ियामक का योगदान भी कम नहीं है. इसी स‍ितंबर टीआरएआई ने यह फरमान सुनाया था कि अब कंपन‍ियां एक जैसे ग्राहकों (यानी एक जैसे प्‍लान) को अलग अगल दरों पर सेवा नहीं दे सकेंगी. नंबर पोर्ट करने पर सस्‍ती सेवा देने की छूट भी खत्‍म हो गई थी. इसके बाद एक तरफा टेलीकॉम सेवा की एक तरफा महंगाई का रास्‍ता साफ हो गया था. जो अब शुरु हुई है.

एयर टेल  के ताजा फैसले से पहले ही यह तय हो चुका था क‍ि कंपनियों पर स्पेक्ट्रम देनदारी बढ़ने के कारण प्री पेड मोबाइल का न्यूनतम प्लान 100 रुपये/28 दिन तक पहुंच सकता है. (गोल्‍डमैन सैक्‍शे) अब एयर टेल क्‍या पूरे दूरसंचार उद्योग ने ही बता द‍िया है क‍ि इस कारोबार में  एवरेज रेवेन्यू पर यूजर (आरपू)   यानी हर ग्राहक से कमाई औसत (आरपो) 200 रुपये तो कम से कम होनी चाहिएआगे इसे 300 रुपये तक पहुंचना चाहिए ताकि कंपनियों को निवेश की गई पूंजी पर सही रिटर्न मिल सके. 

रोजगारों का अंधेरा

2007 के बाद भारत में सबसे ज्यादा रोजगार इसी एक सेवा ने दिये. जो तकनीक, नेटवर्किंग, हैंडसेट बिक्री से लेकर सेवा की मार्केटिंग तक फैले थे. अलबत्ता 2 जी लाइसेंस रद होने, कंपनियां बंद होने और हैंडसेट बाजार में उथल पुथल से डुओस्पोनी की शुरुआत हुई. 2018 मे अंत तक दूरसंचार कारोबार में करीब एक लाख नौकरियां जा चुकी थीं .कोविड के असर से करीब 70000 रोजगार और गए हैं. इस बाजार में करीब 20 लाख लोगों को काम रोजगार मिला है.( सीआईईएल एच आर 2018 और 2020 ).

दूरसंचार बाजार में रोजगार के अवसर सिमट गए हैं. वेतन टूट रहे हैं. नई तकनीकें रोजगार की संभावनायें और सीमित कर रही हैं

इसी उठापटक में 2 जी लाइसेंस रद होने के बाद प्रमुख सरकारी बैंकों के करीब 6000 करोड़ के बकाया कर्ज डूब गए. बैंकों के खातों में अभी 3 लाख करोड़ के कर्ज हैंभारत की सरकार अजीबोगरीब जंतु है. अभी कुछ महीने पहले तक यह दूरसंचार ‌कंपनियों से पिछली तारीख से लाइसेंस फीस की वसूली के लिए अदालत में लड़ रही थी. अब कंपनियों के चार साल तक इसे चुकाने से मोहलत दे दी गई है. पहले कंपनियों को महंगी कीमत पर स्पेक्ट्रम बेचा गया, अब उनसे वापस लिया जा रहा है. 

1999 से  लेकर  आज  तक  सरकारें  यह  तय  नहीं  कर   पाईं कि वे बाजार व सस्ती सेवा को फलने फूलने देना चाहती है या ‌फिर कंपनियों निचोड़ लेना चाहती है. पहले  मोटी  लाइसेंस  फीस  या  महंगा  स्पेक्ट्रम बेचने की जिद , फिर कंपनियों का डूबना और  फिर  माफी यानी (बेलआउट)  ... बीते 25 सालों में यह इतनी बार हुआ है कि इस क्रांति सभी फायदे खेत रहे. अब बाजार पर दो कंपनियों (एयर टेल-जिओ) का कब्जा इस कदर है कि तीसरी (वोडाफोन आइडिया) को जिलाये रखने के लिए उद्धार पैकेज आया है. जो केवल घिसट पाएगी, प्रतिस्पर्धा के के काबिल नहीं होगी.

क्रांतियों का अवतरण सफलता की चिरंतन गारंटी नहीं होते. प्रतिस्पर्धा की हिफाजत की बड़े जतन से करनी होती है. समग्र आबादी को सस्ती संचार सुविधा के लिए बाजार में प्रतिस्पर्धा के नियम नए सिरे लिखे जाने की जरुरत है. भारतीय बाजार कम से कम पांच बड़ी टेलीकॉम कंपनियों को फलने फूलने का मौका दे सकता है.  सनद रहे क‍ि फिनटेक, ई कामर्स और मोबाइल इंटरनेट  बाजारों में एकाधिकार का रास्‍ता, मोबाइल बाजार से पर एकाधिकार की मोहल्‍ले से जाता है.

कोविड लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन शिक्षा में भारत की डिजिटल खाई का विद्रूप चेहरा दिखा दिया है. भारत में अभी करीब 60-65 फीसदी लोगों के पास इंटरनेट नहीं है. करीब एक अरब लोग  पास स्मार्ट फोन नहीं रखते.  इससे पहले सब तक मोबाइल व इंटरनेट पहुंचे लेक‍िन इस बीच भारत की सबसे बड़ी और महत्‍वाकांक्षी क्रां‍ति महंगाई के कतलखाने में पहुंच गई है. ‍

 

 

 


Friday, November 15, 2019

क्रांति का शोकांत


दस साल के भीतर करोड़ों हाथों में मोबाइल देने वाले टेलीकॉम उद्योग की प्रतिस्पर्धा (दो कंपनियां बचींमृत्यु शैया पर हैबची हुई सरकारी कंपनियों के मुंह में गंगा जल डाला जा रहा हैनेटवर्क लाइलाज हैं और मोबाइल सेवा महंगी हो रही है.

देश की सबसे चमकदार क्रांति एड़ियां रगड़ रही है.

भारत जैसे किसी देश में ऐसा कम ही हुआ होगा जब एक दशक के भीतर सरकारों के नीतिगत अंधत्व ने देश की सबसे बड़ी सफलता को नेस्तनाबूद कर दिया.

सबसे पहले सबसे ताजा उदाहरण...

अगर दूरसंचार कंपनियों को राहत ही दी जानी थी तो फिर दूरसंचार विभाग 2005 से नई लाइसेंस फीस की नई परिभाषा लागू करने का मुकदमा क्यों लड़ रहा था जिसके तहत देश की प्रमुख निजी टेलीकॉम (खासतौर पर एयर टेल  वोडाफोन-आइडियाकंपनियों पर करीब एक लाख करोड़ रुकी देनदारी निकली हैअब इस बोझ से डूब रही कंपनियों को बचाने के लिए आला अफसरों की एक कमेटी बिठा दी गई हैजो नया राहत पैकेज लेकर आएगी.

मार्च, 2015 में मोदी सरकार ने भारत के इतिहास की तथाकथि सबसे सफल स्पेक्ट्रम नीलामी की थीकैमरों के सामने डटे मंत्री दावे कर रहे थे कि इस नीलामी से 1.10 लाख करोड़ रुमिलेंगेऔर सरकार ने 2जी घोटाले के कथित नुक्सान की भरपाई कर ली है.

मार्च 2018 आते-आतेऊंची कीमत पर स्पेक्ट्रम खरीदने वाली टेलीकॉम कंपनियां 7.7 लाख करोड़ रुके कर्ज में दब गईंकंपनियों की चीत्कार (लामबंदीसे पिघलते हुए सरकार ने तय किया कि अब वे दस साल की जगह 16 साल में स्पेक्ट्रम की फीस देंगीयानी मार्च 2015 की महान ‘उपलब्धि’ तीन साल के भीतर कंपनियों पर 550 अरब रुकी मेहरबानी में बदल गई.

आप फिर पूछ सकते हैं कि अगर माफी ही देनी थी तो इतना महंगा स्पेक्ट्रम बेचने की जरूरत क्या थीसरकार को कुछ मिला नहींकंपनियों का कुछ गया नहींबस बैंक (आम लोगों की बचतकट गएजो स्पेक्ट्रम के बदले कंपनियों कर्ज दे बैठे थे.

गलतियों से  सीखने की जिद इस उद्योग से जुड़ी सरकारी नीतियों का स्थायी भाव बन चुकी है. 1999 में दूरंसचार कंपनियों को भारी लाइसेंस फीस की जकड़ से आजाद करने से लेकर आज तक सरकार यह तय नहीं कर पाई है कि वह कंपनियों को फलने-फूलने देना चाहती है या उनको निचोड़ लेना चाहती हैसुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक बार फिर सरकार का एक हाथ कंपनियों को निचोड़ लेना चाहता है जबकि दूसरा उसके लिए उद्धार पैकेज गढ़ने में लगा है.

टेलीकॉम क्षेत्र का गला घोंट देने वाली नीतिगत धुंध की शुरुआत उस 2जी घोटाले से हुई जो अदालत में कभी साबित नहीं हुआसभी आरोपी बरी हो गएजांच एजेंसियों ने हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ ऊंची अदालत में जाने की जहमत नहीं उठाई लेकिन आरोपियों पर फैसला आने से पांच साल में 122 कंपनियों के लाइसेंस रद्द हो गएअरबों का निवेश डूबाहजारों की नौकरियां गईं और दूरसंचार बाजार का चेहरा बदल गया.

उद्योग में प्रतिस्पर्धा खत्म हो गईकार्टेल और एकाधिकार उभरने लगेनिजी कंपनियों की लामबंदी में उलझी सरकार अपने उपक्रमों (बीएसएनएल-एमटीएनएलको प्रतिस्पर्धात्मक बनाना तक भूल गईआज दोनों सरकारी कंपनियां इतिहास बनने की तरफ अग्रसर हैं.

पहले मोटी लाइसेंस फीस या महंगा स्पेक्ट्रम और फिर माफी (बेलआउट)  ... भारत के टेलीकॉम सेक्टर में यह इतनी बार हुआ है कि भंवर में फंस कर पूरा का पूरा उद्योग तबाह हो गया.

कहना मुश्कि है घोटाला 2जी आवंटन में हुआ या उसके बादलेकिन आज हम यहां खड़े हैं:

·       पूरा बाजार दो कंपनियों के हाथ में सिमट रहा हैउसमें भी एक (एयरटेलबुरी हालत में है और दूसरी (वोडाफोन-आइडियाअब गई कि तब. 

·       बैंकों के नए एनपीए टेलीकॉम क्षेत्र में उग रहे हैं

·       मोबाइल नेटवर्क बद से बदतर हो गए

·       5जी का क्रियान्वयन मुश्कि हैइसमें अब एकाधिकार का खतरा हैक्योंकि स्पेक्ट्रम किराया देने की क्षमता केवल रिलायंस जिओ में है

·       अब बारी महंगी टेलीकॉम सेवा की है

टेलीकॉम क्रांति की यह दुर्दशा प्राकृतिक संसाधनों को बाजार में बांटने की नीति में असमंजस के कारण हुई हैराजस्व को बढ़ता हुआ दिखाने के लिए सरकार ने ऊंची कीमत पर स्पेक्ट्रम की नीलामी (या फीसकी और करोड़ों उपभोक्ताओं के बाजार को राजनैतिक रसूख वाली दो-तीन कंपनियों को सौंप दियाइन कंपनियों ने बैंकों से कर्ज (जमाकर्ताओं का पैसाउठाकर सरकार के खाते में रख दिया और फिर बाद में फीस भुगतान में मोहलत भी ले लीयही सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय के बाद होने वाला है.

जरूरत दरअसल यह थी कि संसाधनों का सही मूल्यांकन किया जाएउन्हें सस्ता रखा जाए ताकि उनके इस्तेमाल से निवेशमांगनौकरियां और प्रतिस्पर्धा बढ़े और उपभोक्ता के लिए दरें कम रहें.

अब हम टेलीकॉम क्रांति के शोकांत के करीब हैंजहां 2015 के बाद से करीब एक लाख से ज्यादा नौकरियां जा चुकी हैं.