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Tuesday, August 11, 2015

पटकथा बदलने का मौका


मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे नैतिक शिक्षा व स्‍कीम राज नहीं बल्कि दो टूक सुधार सुनना चाहेगा 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से रेलवे, रिटेल और बैंकिंग जैसे बड़े आर्थिक सुधारों की घोषणा करने की हिम्मत जुटा सकते हैं? क्या मोदी ऐलान करेंगे कि संसद के शीत सत्र में एक विधेयक आएगा जो उच्च पदों पर हितों का टकराव रोकने का कानूनी इंतजाम करता हो? क्या यह घोषणा हो सकती है कि सरकार कानून बनाकर सभी खेल संघों में सियासी मौजूदगी खत्म करेगी? क्या प्रधानमंत्री इस ऐलान का साहस दिखा सकते हैं कि राजनैतिक दलों के चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए छह माह में कानून बन जाएगा?
प्रधानमंत्री ने देश से यह पूछा है न कि लोग स्वाधीनता दिवस पर उनसे सुनना क्या चाहते हैं, तो यह रही अपेक्षाओं सूची. यकीनन, देश अब उनसे नैतिक शिक्षा नहीं सुनना चाहेगा. नई स्कीमों की घोषणाएं तो हरगिज नहीं.
जब किसी दल के पास भव्य जनादेश हो, विपक्ष बुरी तरह टूट चुका हो, केंद्र के साथ देश के 11 राज्यों में उस दल या उसके दोस्तों की सरकार हो, उस दल की सरकार, दरअसल, पिछली सरकार की ही नीतियां लागू कर रही हो और पिछली सरकार चलाने वाली पार्टी अपना राजनैतिक मूलधन भी गवां चुकी हो तो फिर संसद न चल पाने की वजह सिर्फ मुट्ठी भर विपक्ष की उग्रता नहीं है. मोदी सरकार को यह सवाल अब खुद से पूछना होगा कि पिछले 15 अगस्त से इस 15 अगस्त के बीच उसने ऐसा क्या-क्या कर दिया है जिससे हताश विपक्ष को ऐसी एकजुटता और ऊर्जा मिल गई है.
एनडीए सरकार की उलझनों का मजमून मानूसन सत्र में संसदीय गतिरोध की धुंध के पार छिपा है. सरकार एक साल के भीतर ही विश्वसनीयता की दोहरी चुनौती से मुकाबिल है, जो यूपीए की दूसरी पारी से ज्यादा बड़ी है. पहली चुनौती यह है मोदी सरकार भारतीय लोकतंत्र के तीन अलिखित मूल्यों पर कमजोर दिख रही है, जो बहुमत से भरपूर सरकारों को भी अप्रासंगिक कर देते हैं. पहला नियम यह है कि किसी भी स्थिति में सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी को रोकते हुए नजर नहीं आना चाहिए. दूसरा सिद्धांत है कि बहुमत हो या अल्पमत, विपक्ष को साथ लेकर चलने की क्षमता होनी चाहिए और तीसरा नियम जो हाल में ही जुड़ा है कि उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर कोई भी समझौता साख पर बुरी तरह भारी पड़ सकता है.
इस साल में मार्च में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश की दलील (सूचना तकनीक कानून की धारा 66 ए) खारिज होने के बाद सरकार को चेत जाना चाहिए था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में (आधार केस) निजता को मौलिक अधिकार न मानने की ताजा दलील, वेबसाइट पर प्रतिबंधों और उनकी वापसी, सूचना के अधिकार पर रोक और स्वयंसेवी संस्थाओं पर चाबुक चलाते हुए लगातार सरकार संकेत दे रही है कि वह कुछ मौलिक आजादियों को लेकर सहज नहीं है. संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को साथ लेकर चलना 'रकार' होने के लिए अनिवार्य है. राजीव गांधी के 413 सदस्यों के बहुमत के सामने 15 सदस्यों का विपक्ष नगण्य था लेकिन उसे नकारने का नतीजा इतिहास में दर्ज है. बीजेपी को कांग्रेस से मिले सबक की रोशनी में ही उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर क्रांतिकारी हदों तक सख्त होना चाहिए था. अलबत्ता लोकसभा में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जब फरार ललित मोदी की मदद को उनकी बीमार पत्नी की मदद मानने की भावुक अपील कर रही थीं तो स्वराज और मोदी परिवार के कारोबारी रिश्तों का अतीत पीछे से झांक रहा था.
सबसे बड़ी असंगति यह है कि भारतीय लोकतंत्र के इन तीन मूल्यों को बीजेपी से बेहतर कोई नहीं समझता, जिसका पूरा राजनैतिक जीवन कांग्रेस के साथ इन्हीं को लेकर लड़ते और उत्पीडऩ झेलते बीता है. लेकिन बीजेपी ने एक साल के भीतर ही उस कांग्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी, विपक्ष की अहमियत और पारदर्शिता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया जो हमेशा इन मूल्यों पर अपने कमजोर अतीत को लेकर असहज रही है.
दूसरी चुनौती भी हलकी नहीं है. मोदी को यह नहीं भूलना होगा कि वे खुले बाजार की पैरोकारी, निजीकरण, सुधार और निजी उद्यमिता को बढ़ावा देने के मॉडल को बखानते हुए सत्ता में आए थे लेकिन पिछले एक साल में उनके नेतृत्व में जो गवर्नेंस निकली है उसमें रेलवे सुधार, बैंकिंग सुधार, सब्सिडी पुनर्गठन, प्रशासनिक सुधार जैसे साहसी फैसले नहीं दिखते. सरकार तो नए सार्वजनिक स्टील प्लांट (राज्यों के साथ) लगा रही है, कांग्रेस की तरह सार्वजनिक उपक्रमों की अक्षमता को ढंक रही है, सरकारी स्कीमों की कतार खड़ी कर रही है, नए मिशन और नौकरशाही गढ़ रही है और सब्सिडी बांटने के नए तरीके ईजाद कर रही है. सामाजिक स्कीमों पर आपत्ति नहीं है लेकिन गवर्नेंस में सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और स्कीमें थोप दी गई हैं. इसलिए हर मिशन सांकेतिक सफलताओं से भी खाली है.
मोदी सरकार से अपेक्षा थी कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों और उदारीकरण के नए प्रतिमान गढ़ेगी जो न केवल गवर्नेंस की कांग्रेसी रीति-नीति से अलग होंगे बल्कि विपक्ष के तौर पर बीजेपी की भूलों का प्रतिकार भी करेंगे. लेकिन मोदी सरकार पता नहीं क्यों यह साबित करना चाहती है कि बड़ी सफलताएं अपना विरोधी चरम (ऐंटी क्लाइमेक्स) साथ लेकर आती हैं?

यह कतई जरूरी नहीं है कि संक्रमण का क्षण आने में वर्षों का समय लगे, कभी-कभी एक संक्रमण के तत्काल बाद दूसरा आ सकता है. 2014 नरेंद्र मोदी के पक्ष में आए जनादेश को भारत के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा संक्रमण मानने वाले शायद अब खुद को संशोधित करना चाहते होंगे, क्योंकि असली संक्रमण तो दरअसल अब आया है जब मोदी सत्ता में एक साल गुजार चुके हैं और उम्मीदों का उफान ऊब, झुंझलाहट और मोहभंग की नमी लेकर बैठने लगा है. मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे 'न की बात' नहीं बल्कि गवर्नेंस की दो टूक सुनना चाहेगा, क्योंकि देश के लोग इस बात को एक बार फिर पुख्ता करना चाहते हैं कि उन्होंने कमजोर कंधों पर अपनी उम्मीदों का बोझ नहीं रखा है.