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Tuesday, February 20, 2018

जीएसटी जैसे-तैसे

एक फरवरी 2018 भारत के लिए एक खास तारीख थी. इसलिए नहीं कि उस दिन बजट आया. वह तो हर साल आता है. यह भारत में विशाल अंतरराज्यीय कारोबार को एक सूत्र में पिरोने का दिन था. इस तारीख को द्वारका से दीमापुर और लेह से कोवलम तक कारोबारी सामान की आवाजाही सभी किस्म के अवरोधों से मुक्त होने वाली थी.

जीएसटी ई वे बिल?

सही पकड़े हैं. 

यह जीएसटी का सबसे जरूरी और दूरगामी हिस्सा था. यह वन नेशनवन सिस्टम की शुरुआत था. बस कंप्यूटर से निकला एक बिल और कहीं भी माल ले जाने की छूटन कोई परमिटन चेकपोस्ट! यही वजह थी कि बजट के दिन कारोबारियों की दिलचस्पी वित्त मंत्री के भाषण में नहीं बल्कि ई वे बिल में थी. 

एक फरवरी को बजट भाषण और जीएसटी नेटवर्क से ई वे बिल लेने की जद्दोजहद एक साथ शुरू हुई. बजट भाषण खत्म होने तक जीएसटी का नेटवर्क बैठ चुका था. कुछ राज्यों ने इस पर अमल रद्द करने का ऐलान कर दिया. शाम होते-होते टीवी स्टुडियो में जब बजट गूंज रहा थाउसी दौरान जीएसटी के अफसर एक ट्वीट टिकाकर घर को निकल लिए कि तकनीकी दिक्कतों के कारण ई वे बिल का क्रियान्वयन अनिश्चितकाल के लिए टाला जा रहा है.

और इस तरह देश को एक बाजार बनाने यानी जीएसटी का सबसे बड़ा मकसद भी खेत रहा.

शुरुआत के सात महीने बीतते-बीततेजीएसटी सुधार से चुनौती में तब्दील हो गया है.

- इस बजट में टैक्स की जो मार (कैपिटल गेंससीमा शुल्क में बढ़ोतरीसेस व सरचार्ज) हुई वह जीएसटी का नतीजा है. नेटवर्क की नाकामी से रिटर्न और टैक्स संग्रह का बुरा हाल पहले से था. इस बीच गुजरात चुनाव की चपेट में जीएसटी का ढांचा फेंट दिया गया. 95 फीसदी करदाताओं को रिटर्न भरने से रियायत मिली. नतीजतन पिछले सात माह में जीएसटी से राजस्व बढऩे की उम्मीदें ढह गईं.

- राज्यों को और ज्यादा नुक्सान हुआ. पिछली जुलाई से मार्च तक के लिए केंद्रीय बजट से राज्यों को 60,000 करोड़ रु. की भरपाई होगी और अगले साल 90,000 करोड़ रु. दिए जाएंगे. राजस्व में कमी और क्षतिपूर्ति ने वित्त मंत्री का घाटा नियंत्रण रिकॉर्ड दागदार कर दिया.

- सभी कारोबारियों को करदाता बनाने का मकसद पटरी से उतर गया है. जीएसटीएन की खामी95 फीसदी करदाताओं को तिमाही रिटर्न की सुविधा और एक फीसदी टैक्स व तिमाही रिटर्न वाली कंपोजिशन स्कीम के कारण केवल 30 फीसदी करदाता विस्तृत इनवॉयस रिटर्न भर रहे हैं. जीएसटी की गफलत से काफी बड़ा कारोबार टैक्स निगहबानी से बाहर है. 

- जीएसटी में पंजीकरण के शुरुआती आंकड़े सरकार के लिए उत्साहवर्धक हैं. करदाताओं की संख्या 50 फीसदी बढ़ी है. छोटे उद्योगों में एक-तिहाई लेन-देन कारोबारी इकाइयों के बीच हो रहा है. इससे कर नियम पालन कराना आसान है. हर राज्य को उसके औद्योगिक कारोबारी परिदृश्य के हिसाब से पंजीकरण मिले हैं. इससे किसी खास राज्य को नुक्सान या फायदे की आशंका खत्म हुई है. 

- अलबत्ता इन उपयोगी सूचनाओं के जरिए राजस्व बढऩे की उम्मीद कम है क्योंकि जीएसटी का क्रियान्वयन पटरी से उतर चुका है. ई वे बिल के जरिए देश भर में माल की आवाजाही की मॉनिटरिंग होनी थी जो टैक्स चोरी रोकने के लिए जरूरी है. सात-आठ लाख बिल प्रति दिन जारी करने वाला सिस्टम बनाने के लिए एनआइसी (सरकारी कंप्यूटर एजेंसी) को लगाया गया लेकिन यह कोशिश भी असफल रही.

बजट के बाद अपने साक्षात्कारों में वित्त‍ मंत्री ने कहा कि टैक्स नियमों के पालन में सख्ती के साथ जीएसटी का राजस्व बढ़ेगा. वित्त मंत्रालय का कहना है कि निगरानी बढ़ाकर एक लाख करोड़ रु. टैक्स वसूला जा सकता है. सरकार को जानकारी है कि इस सुधार में रियायतों का कोटा पूरा हो गया है. चुनावी डर के चलते दी गई सुविधाओं और तकनीकी खामियों के कारण टैक्स चोरी हो रही है. राजस्व में गिरावट के कारण जीएसटी में अगले सुधार (पेट्रो उत्पादअचल संपत्ति को शामिल करना) जहां के तहां ठहर गए हैं. 


जीएसटी को लेकर सरकार की राजनैतिक दुविधा ज्यादा बड़ी है. इसे पटरी पर लाने के लिए इंस्पेक्टर राज की वापसी यानी छोटे व्यापारियों पर सख्ती करनी होगी. गुजरात की जली सरकार चुनावों के साल यह जोखिम तो लेने से रही. इसलिए सीधे और आसानी से उगाहे जाने वाले टैक्स (इनकम टैक्ससेस और सीमा शुल्क) बढ़ा लिए गए हैंउपभोक्ता तो टैक्स चुका ही रहे हैंकारोबारी टैक्स देंगे या नहींइसका हिसाब चुनाव देखकर होगा. 

जिसका डर था वही हुआ है. भारत का सबसे नया सुधार सिर्फ सात माह में पुराने रेडियो की तरह हो गयाजिसे ठोक-पीट कर किसी तरह चलाया जा रहा है. जीएसटी का सुधारवाद अब इतिहास की बात है. 

Sunday, February 11, 2018

टैक्स सत्यम्, बजट मिथ्या

सत्य कब मिलता है ?

लंबी साधना के बिल्कुल अंत में.

जब संकल्प बिखरने को होता है तब अचानक चमक उठता है सत्य. 

ठीक उसी तरह जैसे कोई वित्त मंत्री अपने 35 पेज के भाषण के बिल्कुल अंत में उबासियां लेते हुए सदन पर निगाह फेंकता है और बजट को सदन के पटल पर रखने का ऐलान करते हुए आखिरी पंक्तियां पढ़ रहा होता है, तब ...
अचानक कौंध उठता है बजट का सत्य.

टैक्स ही बजट का सत्य है, शेष सब माया है.

एनडीए सरकार के आखिरी पूर्ण बजट की सबसे बड़ी खूबी हैं इसमें लगाए गए टैक्स.

करीब 90,000 करोड़ रु. के कुल नए टैक्स के साथ यह पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा टैक्स वाला बजट है.

पिछले पांच साल में अरुण जेटली ने 1,33,203 करोड़ रु. के नए टैक्स लगाए औसतन करीब 26,000 करोड़ रु. प्रति वर्ष. पांच साल में केवल 53,000 करोड़ रु. की रियायतें मिलीं. 2014-15 और 17-18 के बजटों में रियायतें थीं, जबकि अन्य बजटों में टैक्स के चाबुक फटकारे गए. जेटली के आखिरी बजट में टैक्सों का रिकॉर्ड टूट गया. 

टैक्स तो सभी वित्त मंत्री लगाते हैं लेकिन यह बजट कई तरह से नया और अनोखा है.

ईमानदारी की सजा

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में जानकारी दी थी कि देश में आयकरदाताओं की तादाद 8.67 करोड़ (टीडीएस भरने वाले लेकिन रिटर्न न दाखिल करने वालों को मिलाकर) हो गई है. टैक्स बेस बढऩे से (2016-17 और 2017-18) में सरकार को 90,000 करोड़ रु. का अतिरिक्त राजस्व भी मिला. लेकिन हुआ क्या? ईमानदार करदाताओं का उत्साह अर्थात् टैक्स बेस बढऩे से टैक्स दर में कमी नहीं हुई.
याद रखिएगा कि इसी सरकार ने अपने कार्यकाल में कर चोरों को तीन बार आम माफी के मौके दिए हैं. एक बार नोटबंदी के बीचोबीच काला धन घोषणा माफी स्कीम लाई गई. तीनों स्कीमें विफल हुईं. कर चोरों ने सरकार पर भरोसा नहीं किया.
आर्थिक सर्वेक्षण ने बताया कि जीएसटी आने के बाद करीब 34 लाख नए करदाता जुड़े हैं लेकिन वह सभी जीएसटीएन को बिसूर रहे हैं और टैक्स के नए बोझ से हलकान हैं.

ताकि सनद रहे: टैक्स बेस में बढ़ोतरी यानी करदाताओं की ईमानदारी, सरकार को और बेरहम कर सकती है.  

सोने के अंडे वाली मुर्गी

भारतीय शेयर बाजारों में अबाधित तेजी को पिछले चार साल की सबसे चमकदार उपलब्धि कहा जा सकता है. मध्य वर्ग ने अपनी छोटी-छोटी बचतों से एक नई निवेश क्रांति रच दी. म्युचुअल फंड के जरिए शेयर बाजार में पहुंची इस बचत ने केवल वित्तीय निवेश की संस्कृति का निर्माण नहीं किया बल्कि भारतीय बाजार पर विदेश निवेशकों का दबदबा भी खत्म किया.
इस बजट में वित्त मंत्री ने वित्तीय निवेश या बचत को नई रियायत तो नहीं उलटे शेयरों में निवेश पर लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस और म्युचुअल फंड पर लाभांश वितरण टैक्स लगा दिया. शेयरों व म्युचुअल फंड कारोबार पर अब पांच (सिक्यूरिटी ट्रांजैक्शन, शॉर्ट टर्म कैपिटल गेंस, लांग टर्म कैपिटल गेंस, लाभांश वितरण और जीएसटी) टैक्स लगे हैं. बाजार गिरने के लिए नए गड्ढे तलाश रहा है.

ताकि सनद रहे: वित्तीय निवेश को प्रोत्साहन नोटबंदी का अगला चरण होना चाहिए था. ये निवेश पारदर्शी होते हैं. भारत में करीब 90 फीसदी निजी संपत्ति भौतिक निवेशों में केंद्रित है. नए टैक्स के असर से बाजार गिरने के बाद अब लोग शेयरों से पैसा निकाल वापस सोना और जमीन में लगाएंगे जो दकियानूसी निवेश हैं और काले धन के पुराने ठिकाने हैं. 

लौट आए चाबुक

उस नेता को जरूर तलाशिएगा, जिसने यह कहा था कि जीएसटी के बाद टैक्स का बोझ घटेगा और सेस-सरचार्ज खत्म हो जाएंगे. इस बजट ने तो सीमा शुल्क में भी बढ़ोतरी की है, जो करीब एक दशक से नहीं बढ़े थे. नए सेस और सरचार्ज भी लौट आए हैं. सीमा शुल्क पर जनकल्याण सेस लगा है और डीजल-पेट्रोल पर 8 रु. प्रति लीटर का सेस. आयकर पर लागू शिक्षा सेस एक फीसदी बढ़ गया है. यह सब इसलिए कि अब केंद्र सरकार ऐसे टैक्स लगाना चाहती है जिन्हें राज्यों के साथ बांटना न पड़े. ऐसे रास्तों से 2018-19 में सरकार को 3.2 लाख करोड़ रु. मिलेंगे.

जीएसटी ने खजाने की चूलें हिला दी हैं. इसकी वजह से ही टैक्स की नई तलवारें ईजाद की जा रही हैं. जीएसटी के बाद सभी टैक्स (सर्विस, एक्साइज, कस्टम और आयकर) बढ़े हैं, जिसका तोहफा महंगाई के रूप में मिलेगा.


सावधान: टैक्स सुधारों से टैक्स के बोझ में कमी की गारंटी नहीं है. इनसे नए टैक्स पैदा हो सकते हैं. 

Tuesday, January 30, 2018

जवाबदेही का 'बजट'

बजट की फिक्र में दुबले होने से कोई फायदा नहीं है. आम लोगों के बजट (खर्च) को बनाने या बिगाडऩे वाला बजट अब संसद के बाहर जीएसटी काउंसिल में बनता है. दरअसल, बजट को लेकर अगर किसी को चिंतित होने की जरूरत है तो वह स्वयं संसद है. लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था को इस बात की गहरी फिक्रहोनी चाहिए कि भारत की आर्थिक-वित्तीय नीतियों के निर्धारण में उसकी भूमिका किस तरह सिमट रही है

अमेरिका में सरकार का ठप होना अभी-अभी टला है. सरकारी खर्च को कांग्रेस (संसद) की मंजूरी न मिलने से पूरे मुल्क की सांस अधर में टंग गई. लोकतंत्र के दोनों संस्करणों (संसदीय और अध्यक्षीय) में सरकार के वित्तीय और आर्थिक कामकाज पर जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्थाओं (संसद-विधानसभाओं) के नियंत्रण के नियम पर्याप्त स्पष्ट हैं.

सरकार के वित्तीय व्यवहार पर संसद-विधानसभाओं का नियंत्रण दो सिद्धांतों पर आधारित हैः एक—प्रतिनिधित्व के बिना टैक्स नहीं और दूसरा—सरकार के बटुए यानी खर्च पर जनता के नुमाइंदों का नियंत्रण. इसलिए भारत में सरकारें (केंद्र व राज्य) संसद की मंजूरी के बिना न कोई टैक्स लगा सकती हैं और न खर्च की छूट है. बजट (राजस्व व खर्च) की संसद से मंजूरी—विनियोग विधेयक, अनुदान मांगों, वित्त विधेयक, कंसोलिडेटेड फंड (समेकित निधि)—के जरिए ली जाती है. भारत में सरकार संसद की मंजूरी के बिना केवल 500 करोड़ रु. खर्च कर सकती है और वह भी आकस्मिकता निधि से, जिसका आकार 2005 में 50 करोड़ रु. से बढ़ाकर 500 करोड़ रु. किया गया था.

पिछले एक दशक में सरकार के खर्च और राजस्व का ढांचा बदलने से सरकारी वित्त पर संसद और विधानसभाओं का नियंत्रण कम होता गया है. जीएसटी सबसे ताजा नमूना है.

- जीएसटी से पहले तक अप्रत्यक्ष कर वित्त विधेयक का हिस्सा होते थे, संसद में बहस के बाद इनमें बदलाव को मंजूरी मिलती थी. खपत पर टैक्स की पूरी प्रक्रिया, अब संसद-विधानसभाओं के नियंत्रण से बाहर है. जीएसटी कानून को मंजूरी देने के बाद जनता के चुने हुए नुमाइंदों ने इनडाइरेक्ट टैक्स पर नियंत्रण गंवा दिया. जीएसटी काउंसिल संसद नहीं है. यहां दो दर्जन मंत्री मिलकर हर महीने टैक्स की दरें बदल देते हैं. इन बदलावों का क्या तर्क है? इससे किसे फायदा है? जीएसटी काउंसिल में होने वाली चर्चा सार्वजनिक क्यों नहीं होती? टैक्स लगाने के लिए प्रतिनिधित्व की शर्त जीएसटी काउंसिल पर कितनी खरी उतरती है? जीएसटी के सदंर्भ में संसद और सीएजी की क्या भूमिका होगी? संसद और विधानसभाओं को इन सवालों पर चर्चा करनी चाहिए.

- भारत में सरकारों की खर्च बहादुरी बेजोड़ है. कर्ज पर निर्भरता बढ़ने से ब्याज भुगतान हर साल नया रिकॉर्ड बनाते हैं. कर्ज पर ब्याज की अदायगी बजट खर्च का 18 फीसदी है, जिस पर संसद की मंजूरी नहीं (चाज्र्ड एक्सपेंडीचर) ली जाती. राज्य सरकारों, पंचायती राज संस्थाओं और अन्य एजेंसियों के दिए जाने वाले अनुदान बजट खर्च में 28 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. सीएजी की पिछली कई रिपोर्ट बताती रही हैं कि करीब 20 फीसदी अनुदानों पर संसद में मतदान नहीं होता यानी कि लगभग 38 फीसदी (ब्याज और अनुदान) खर्च संसद के नियंत्रण से बाहर है.

- रेल बजट के आम बजट में विलय (2017) से रेलवे का तो कोई भला नजर नहीं आया लेकिन रेलवे बजट पर भी संसद का सीधा नियंत्रण खत्म हो गया. रेल का खर्च और राजस्व किसी दूसरे विभाग की तरह बजट का हिस्सा है.

- पिछले तीन साल में वित्तीय फैसलों पर, राज्यसभा से कन्नी काटने के लिए मनी बिल (सिर्फ लोकसभा) का इस्तेमाल खूब हुआ है. गंभीर वित्तीय फैसलों में अब पूरी संसद भी शामिल नहीं होती.

उदारीकरण के बाद आर्थिक फैसलों में पारदर्शिता के लिए संसद की भूमिका बढऩी चाहिए थी लेकिन...

- स्वदेशी को लेकर आसमान सिर पर उठाने वाले क्या कभी पूछना चाहेंगे कि विदेशी निवेश के उदारीकरण के फैसलों में संसद की क्या भूमिका है, इन फैसलों को संसद कभी परखती क्यों नहीं है.

- अंतरराष्ट्रीय निवेश, व्यापार और टैक्स रियायत संधियां तो संसद का मुंह भी नहीं देखतीं. विश्व के कई देशों में इन पर संसद की मंजूरी ली जाती है.


जब आर्थिक फैसलों में संसद की भूमिका का यह हाल है तो विधानसभाओं की स्थिति क्या होगी? केंद्रीय बजट के करीब एक-तिहाई से ज्यादा खर्च के लिए जब सरकार को संसद से पूछने की जरूरत न पड़े और एक तिहाई राजस्व जुटाने के लिए टैक्स लगाने या बदलने का काम संसद के बाहर होता हो तो चिंता उन्हें करनी चाहिए जो लोकतंत्र में संसद के सर्वशक्तिमान होने की कसमें खाते हैं.

Monday, January 8, 2018

जिसका डर था...


मंदी हमेशा बुरी होती है, लंबी मंदी और भी बुरी. 2018 में सात वर्ष पूरे कर रही मंदी ने भारत की सबसे बड़ी आर्थिक दरार खोल दी है. 1991 के बाद पहली बार किसान और उपभोक्ता आमने-सामने खड़े हो गए हैं. पिछले 25 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ जब गांव और शहर इस तरह आमने-सामने आए हों.

आर्थिक सुधारों की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि इसने गांव और शहर के बीच राजनैतिक बंटवारे को सिकोड़ दिया था. सुधारों के पहले पांच साल में ही गांव और शहरों के बीच की दूरी घटने लगी थी. दोनों अर्थव्यवस्थाओं के पास एक दूसरे को देने के लिए कुछ न कुछ था. शहरों के पास बढ़ती आबादी थी और गांवों के पास उपज. शहरों के पास अवसर थे, गांवों के पास श्रम था. शहरों के पास सुविधाएं, सेवाएं, तकनीक थीं, गांवों के पास उनकी मांग.

सुधारों के करीब ढाई दशक बाद आज यह समझा जा सकता है कि इस बदलाव ने सरकारों और राजनीति को, गांव और शहरों को (सड़क, मोबाइल, बिजली) जोडऩे पर बाध्य किया न कि बांटने पर. 2006-07 में तेज आर्थिक विकास के बीच कांग्रेस ने मनरेगा के जरिए गांवों को राजनीति के केंद्र में लाने की आंशिक कोशिश की. मनरेगा तेज आर्थिक विकास के बीच आई थी इसलिए इससे एक ओर गांवों में आय बढ़ी तो दूसरी ओर उद्योगों को नई मांग मिली.

यही वह समय था जब गांवों में एक नया मध्य वर्ग तैयार हुआ. पिछले एक दशक में शिक्षा, चिकित्सा, संचार की अधिकांश नई मांग इसी ग्रामीण और अर्धनगरीय मध्य वर्ग से निकली है. 2007 के बाद ग्रामीण और कस्बाई बाजार के लिए रणनीतियां हर कंपनी की वरीयता पर थीं.

ताजा मंदी ने यह संतुलन बिगाड़ दिया. मंदी ने हमें 2011-12 में पकड़ा. 2014 में सरकार बदलते वक्त ई-कॉमर्स, शेयर बाजार, होटल और यात्रा जैसे कुछ क्षेत्र ही दहाई के अंकों की रफ्तार दिखा रहे थे. औद्योगिक उत्पादन और भवन निर्माण ठप था, सेवाएं भी सुस्त पड़ गई थीं.

फिर भी 2008 से 2014 के बीच माकूल मौसम, समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी, नगरीय आबादी की बढ़ती मांग, गांवों में जमीन की बेहतर कीमत और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कृषि जिंसों की तेजी ने खेती को दौड़ाए रखा था. 2014 के सूखे के बाद चार साल में उपज बिगड़ी और कीमतें गिरीं.

पिछले 25 साल में आर्थिक सुस्ती के छोटे दौर आए हैं लेकिन यह पहला सबसे लंबा कालखंड है जबकि अर्थव्यवस्था के सभी इंजन सुस्त या बंद हैं.

सबसे बड़ी दुविधा

2014 में सरकार ने इस संकल्प के साथ शुरुआत की थी कि अब समर्थन मूल्य नहीं बढ़ेंगे क्योंकि इनसे महंगाई बढ़ती है. भूमि अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक चोट और सूखे के कारण समर्थन मूल्य बढ़ाना पड़ा. महंगाई आई तो दालों के आयात से बाजार में कीमतें टूट गईं. नतीजतन मंदसौर में दाल की कीमत मांगते किसानों को पुलिस की गोलियां मिलीं.

गांव और शहर अब दो ध्रुवों पर खड़े हैं:

- किसान को अपनी उपज का मूल्य चाहिए. पैदावार पर 50 फीसदी मुनाफे का चुनावी वादा (जो तर्कसंगत नहीं था) राजनैतिक आफत है. कहां 2014 में सरकार समर्थन मूल्यों को सीमित कर रही थी लेकिन अब हरियाणा में सब्जी पर भी सरकारी कीमत देने की कोशिश हो रही है, हालांकि वह बेहद कम है. सरकारों के बजट इससे ज्यादा की इजाजत नहीं देते.

- दूसरी तरफ समर्थन मूल्य में कोई भी बढ़त महंगाई को दावत है. इस साल की शुरुआत मुद्रास्‍फीति के साथ हुई है. तेल कीमतें, बजट घाटा सब मिलकर महंगाई के लिए ईंधन जुटा रहे हैं. शहरों में बेकारी और आय में कमी के बीच चुनाव के साल में महंगाई का जोखिम राजनैतिक मुसीबत बन जाएगा.

किसान और उपभोक्ता के बीच संतुलन का इलाज खुदरा बाजार में विदेशी निवेश और मंडी कानून की समाप्ति हो सकती थी लेकिन वहां भाजपा का पारंपरिक वोट बैंक है, जिसने दोनों बेहद संवेदनशील सुधार परवान नहीं चढऩे दिए. इन्हीं की एक घुड़की में जीएसटी का शीर्षासन हो गया.


पिछले दो दशक में यह पहला मौका है जब किसान और उपभोक्ता, दोनों एक साथ परेशान हैं. दोनों जगह आय घटी है और अवसर कम हुए हैं. प्रोत्साहन की चौखट पर अब किसान और उपभोक्ता, दोनों को एक साथ बिठाना असंभव हो चला है. इस साल का बजट बताएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गांव की पूंछ पकड़ चुनावी वैतरणी उतरेंगे या उपभोक्ताओं को पुचकार कर सियासत साधेंगे. मंदी न चाहते हुए भी गांव बनाम शहर की विभाजक सियासत को चुनाव के केंद्र में ले आई है.