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Monday, April 9, 2018

सूबेदारों पर दारोमदार



एक राजा था. उसके सिपहसालार धुरंधर थे. वे राजा के लिए जीत पर जीत लाते रहते थे. राजा नए सूबेदारों को जीते हुए सूबे सौंप कर अगली जंग में जुट जाता था.

फिर शुरू हुई सबसे बड़ी जंग की तैयारी. कवच बंधने लगे. सिपहसालारों ने जीते हुए मोर्चों का दौरा किया और थके से वापस लौट आए. राजा ने पूछा कि माजरा क्या है? एक पके हुए सलाहकार ने कहा कि हुजूर, यह जंग अब सिपहसालारों की नहीं रही. लोग अब सूबेदारों से जवाब मांग रहे हैं.

इस कहानी के पात्र रहस्यमय नहीं हैं. सरकारी पार्टी में यह किस्सा अलग-अलग संदर्भों के साथ बार-बार कहा-सुना जा रहा है. गुजरात से गोरखपुर तक वाया राजस्थान, मध्य प्रदेश सत्ता विरोधी तापमान बढऩे लगा है. पेशानी पर पसीना सवालों की इबारत में छलक रहा है. सूबेदार दिल्ली तलब होने लगे हैं.

तो सरकार से नाराजगी ने दिग्विजयी भाजपा को भी घेर लिया! 

लोकसभा चुनाव की भव्य जीत लेकर गुजरात तक, जीत पर जीत (बिहार व दिल्ली को छोड़कर) में झूमती भाजपा में किसी ने नहीं सोचा था कि लोग उनकी सरकारों से भी नाराज हो सकते हैं. गुजरात की हार जैसी जीत और उपचुनावों में बेजोड़ हार के बाद सरकार में ऐसे सवाल घुमड़ रहे हैं जिनका सामना हाल के वर्षों में किसी पार्टी ने नहीं किया. जाहिर है, इस तरह की निरंतर चुनावी विजय भी तो दुर्लभ थीं.

आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार देश ने यह देखा कि पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी कि क्लब फाइव (महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक) में तीन और उभरते हुए तीनों प्रमुख राज्यों (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) पर उस पार्टी का शासन है जो केंद्र में भी राज कर रही है. भारत के जो 11 राज्य (महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल, बिहार, ओडिशा और संयुक्त आंध्र) 2020 तक देश की जीडीपी में 76 फीसदी के हिस्सेदार होंगे, उनमें सात (आंध्र प्रदेश अभी तक एनडीए में था) पर भाजपा का शासन है. इसके बाद तीन प्रमुख छोटी अर्थव्यवस्थाएं झारखंड, हरियाणा और असम भी भाजपा के नियंत्रण में हैं.

यह ऐसा अवसर था, जिसके लिए यूपीए सरकार दस साल तक तरसती रही. सुधारों के कई अहम प्रयोग इसी वजह से जमीन नहीं पकड़ सके क्योंकि बड़े और संसाधन संपन्न राज्यों से केंद्र के राजनैतिक रिश्तों में गर्मजोशी नहीं थी.

लेकिन क्या केंद्र व राज्यों में राजनैतिक रिश्तों के रसायन से मोदी सरकार के मिशन परवान चढ़ सके? मोदी सरकार पिछले एक दशक की पहली ऐसी सरकार है जिसने 'स्वच्छता' से 'उड़ान' यानी जमीन से लेकर आसमान तक कार्यक्रमों और मिशनों की झड़ी लगा दी, फिर भी सरकारों से नाराजगी ने घेर ही लिया! 

क्यों नहीं उम्मीदों पर खरी उतरी मोदी की टीम इंडिया?

1. राज्यों में पहले से ही मुख्यमंत्रियों के पास खासी ताकत थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पीएमओ केंद्रित राजनैतिक गवर्नेंस राज्यों का आदर्श बन गई. सत्ता का विकेंद्रीकरण न होने से जमीनी क्रियान्वयन और संवाद जड़ नहीं पकड़ सका जबकि दूसरी तरफ घोषणाओं का अंबार लगा दिया गया. अब बारी मोहभंग की है. उदाहरण के लिए गोरखपुर.

2. राज्यों का प्रशासनिक ढांचा थक चुका है. इसे कहीं ज्यादा कठोर और नए सुधारों की जरूरत है. लेकिन पिछले चार साल में किसी राज्य में कोई नया बड़ा क्रांतिकारी सुधार या प्रयोग नजर नहीं आया. योजना आयोग को समाप्त करने से फायदा नहीं हुआ. राज्यों के आर्थिक फैसलों में आजादी मिलने की बजाए नया स्कीम राज मिला जिसे पुराने ढांचे पर लाद दिया गया.

3. पिछले तीन साल में राज्यों की वित्तीय स्थिति बिगड़ी है. बिजली घाटों की भरपाई, कर्ज माफी और राजस्व में कमी के कारण राज्यों का समेकित घाटा बारह साल और बाजार कर्ज दस साल के सर्वोच्च स्तर पर है. यह हालत चौदहवें वित्त आयोग से अधिक संसाधन मिलने के बाद है. जीएसटी की असफलता ने राज्यों के खजाने की हालत और बिगाड़ दी है.

केंद्र व 20 राज्यों और करीब 60 फीसदी जीडीपी पर शासन के बाद भी भाजपा को अगर अपनी सरकारों से नाराजगी का डर है और कुछ राज्यों में सूबेदारों की तब्दीली के जरिए नाराजगी को कम करने की नौबत आन पड़ी है तो मानना चाहिए कि लोकतंत्र मजबूत हो रहा है. सरकारों से नाराजगी लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रमाण है. 

गुजरात से गोरखपुर तक मतदाता यह एहसास कराने लगे हैं कि प्रत्येक चुनावी जीत अगली जीत की गारंटी नहीं है. क्या लोग सियासत और सरकार का फर्क समझने लगे हैं अगर ऐसा है तो फिर याद रखना होगा कि इन लाखों अनाम लोगों की एक उंगली में बला की ताकत है. 


Monday, February 5, 2018

बजट की कसौटी

एनडीए सरकार उसी घाट फिसल गई जिसको उसे सुधारना था. सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पढ़ते हुए महसूस होता है कि सरकारों के तौर-तरीके आत्मा की तरह अजर-अमर हैं. यह आत्मा हर पांच वर्ष में राजनैतिक दलों के नाशवान शरीर बदलती है.

अगर बजट से सरकार की कमाई और खर्च को संसदीय मंजूरी निकाल दी जाए तो फिर इस सालाना जलसे में बचता क्या हैक्यों बजट इतने मूल्यवान हैं जबकि अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्साभाग्यवशबजट यानी सरकार के नियंत्रण से बाहर हैजहां बजट की भूमिका परोक्ष ही होती है. 

बजट इसलिए उत्सुकता जगाते हैं क्‍यों कि इनसे एक तो सरकार की नई सूझ का पता चलता है और दूसरा सरकार ने अपनी पिछली सूझ (फैसलोंनीतियों) पर अमल कितने दुरुस्त तरीके से किया है. बजट देखकर हम आश्वस्त हो सकते हैं कि हमसे लिया गया टैक्स कायदे से खर्च हो रहा है और बैंकों में हमारी जमा जो कर्ज में बदल कर सरकार को मिल रही हैउसका सही इस्तेमाल हो रहा है.

बजट हमेशा तात्‍कालिक और  दूरगामी कसौटी पर कसे जाते हैं तात्‍कालिक कसौटी यह है कि जिंदगी जीने की लागत बढ़ेगी या कम होगी. महंगाई ओर ब्‍याज दरें इस कसौटी का हिस्‍सा हैं.  दूरगामी कसौटी यह है कि जिंदगी कितनी सुविधाजनक होगी. सरकारी  स्‍कीमों का क्रियान्‍वयन इस कसौटी की बुनियाद है  

आगे और महंगाई है

महंगाई जिंदगी जीने की लागत बढ़ाती है. इस बजट के पीछे भी महंगाई थी जो जीएसटी से निकली थी और आगे भी महंगाई खड़ी है.

एकखेती के बढ़े हुए समर्थन मूल्य किसानों को भले ही न मिलें लेकिन बाजार को 
यह अहसास हो गया है कि खाद्य उत्‍पादों के मूल्‍य बढ़ेंगे. कई बाजारो में उन फसलों को लेकर तेजी माहौल बनने लगा है जिन की उपज आमतौर पर मांग से कम है. दालें इनमें प्रमुख हैं महंगाई उपभोक्‍ताओं के दरवाजे पर खड़ी है कीमतों तेजी रबी की फसल बाजार में आने के साथ प्रारंभ हो सकती है

दोढेर सारी चीजों पर सीमा शुल्क बढ़ा है जीएसटी का असर कीमतों पर पहले से है खासतौर  टैक्‍स के चलते सेवायें महंगी हुई हैं

तीनराजकोषीय घाटा बढऩे से सरकार का कर्ज बढ़ेगा जो महंगाई की वजह होगा.

चार- कच्‍चे तेल की कीमतें बढ़ने लगी है, पेट्रोल-डीजल पर नया सेस लगाया गया है. जो ईंधन की महंगाई को असर करेगा.

इस बजट ने फिर यह साबित किया कि महंगाई बढ़ाए बिनासरकार खुद को नहीं चला सकती. सरकार अपना खर्च कम करने को तैयार नहीं है इसलिए लोग महंगाई या टैक्स की मार के बदले ही कुछ पाने की उम्मीद कर सकते हैं.

ताकि सनद रहे: पहले बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकारी खर्च के पुनर्गठन का वादा किया था.

स्‍कीम-राज !
भारतीय गवर्नेंस अच्छे इरादों को खोखले वादों में बदलने वाली मशीन है. जिंदगी को सुविधाजनक बनाने के लिए सरकारी स्कीमों का क्रियान्वयन बेहतर होना जरूरी है. जेटली जब 'दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा स्कीम का ऐलान कर रह थेउनकी अपनी ही सरकार की दो असफल स्वास्थ्य बीमा स्कीमें उनके पीछे खड़ी थीं. सरकारों की स्कीमबाजी उबाऊ हो चली है. इनकी असफलता असंदिग्ध है. नई सरकारें नई स्‍कीमें लाती हैं तो लोग निराश होते हैं उम्‍मीद यह होती है कि सरकार पुरानी स्कीमों की डिलीवरी को चुस्त करेगी.

ताकि सनद रहे: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा लक्ष्य गवर्नेंस यानी कि सरकारी कार्यक्रमों का क्रियान्वयन सुधारना था. लेकिन बजट दर बजट उन्हें नई स्कीमें लानी पड़ी हैं ताकि पिछली स्कीमों के खराब क्रियान्वयन को भुलाया जा सके. स्कीमों की भीड़ और उनके बुरे हाल से अब इस सरकार की ही नहींअगली सरकारों की साख भी खतरे में रहेगी.

कर्ज जो रहेगा महंगा

सस्ता कर्ज नोटबंदी के सबसे बड़े मकसदों में एक था. हालांकि ऐसा   हुआ नहीं. फंसे हुए कर्जों ने बैंकों के हाथ बांध दिये थे. नोटबंदी ने उन पर ब्‍याज का बोझ बढ़ा दिया. बैंकों की सरकारी मदद ( पूंजीकरण) पहुंचने तक महंगाई आ पहुंची. सात फरवरी को रिजर्व बैंक जब मौद्रिक नीति की समीक्षा करेगातो उसे महंगाई और राजकोषीय घाटे को लेकर खतरे की चेतावनियां भेजनी होंगी. ब्‍याज दरें कम होने की उम्‍मीद अब कम है. अचरज नहीं कि अगर ब्‍याज दरें बढ़ जाएं. स्‍टेट ने अपने डिपॉजिट पर ब्‍याज बढ़ाई है ताकि जमाकर्ता बैंकों से जुडे रहे हैं. इसका असर कर्ज की ब्‍याज दर पर होगा

मोदी सरकार के पहले दो बजट (जुलाई 2014 और फरवरी 2015 ) अभी कल की ही बात लगते हैं जब दहाई के अंकों में विकास दरनई गवर्नेंसबिग आइडियासब्सिडी में कटौतीखर्च में कमीघाटे पर काबूसस्‍ते कर्ज के आह्वान उम्मीदें जगाते थे लेकिन आखिरी बजट आते-आते महंगाईकच्चे तेल की बढ़ती कीमतस्कीमों की बारात और भारी टैक्स लौट आए हैं. और मंदी अभी तक गई नहीं है 

हाल के दशकों में सबसे भव्य जनादेश वाली सरकार का आखिरी बजट यही बता रहा है कि चुनावों में सरकार तो बदली जा सकती है लेकिन 'सरकार’ को बदलना नामुमकिन है.  

Tuesday, September 6, 2016

आखिरी मंजिल की चुनौती


ढाई साल पूरे कर रही मोदी सरकार को अब क्रियान्वयन की चुनौती से दो-दो हाथ करने चाहिएजो उसके अच्छे-अच्छे इरादों को पटरी से उतार रही है.

दिल्ली से 150 किमी दूर उत्तर प्रदेश का गांव नगला फतेला मोदी सरकार की नई किरकिरी है. गांवों में बिजली पहुंचाने को लेकर एक साल पुराने अभियान की सफलता का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने लाल किले से ऐलान कर दिया कि इस गांव में सत्तर साल बाद बिजली पहुंच चुकी है. भाषण को सात घंटे भी नहीं बीते थे कि सरकार को पता चला कि दावा गलत हैक्योंकि गांव में अब तक अंधेरा है. इसके बाद ट्वीट वापस लेने और उत्तर प्रदेश सरकार से कैफियत तलब करने का दौर शुरू हुआ.
स्कीमों को लाभार्थी तक पहुंचाने की चुनौती भारतीय गवर्नेंस की बुनियादी उलझन है. नगला फतेला इसका सबसे नया नुमाइंदा है. मोदी सरकार के साथ यह उलझन ज्यादा बढ़ गई है क्योंकि नई महत्वाकांक्षी स्कीमें बनाने से पहले पुराने तजुर्बों से कुछ नहीं सीखा गया. दूसरी तरफ प्रचार इतना तेज हुआ कि नगला फतेला कई जगह नजर आने लगे.
स्कीमें बनाने में हमारे नेता लासानी हैं. अच्छी स्कीमें पहले भी बनीं और इस सरकार ने भी बनाईं. स्कीमों की दूसरी मंजिल संसाधन जुटानेसमन्वय (केंद्रराज्य और सरकारी विभागों से) और लक्ष्य  तय करने की है. लाभार्थी तक पहुंचाने के बाद स्कीम को आखिरी मंजिल मिलती है. सरकार की कई स्कीमें दूसरी मंजिल भी पार कर नहीं कर पाई हैंजबकि मध्यावधि लग चुकी है.
नगला फतेला के संदर्भ में तीन प्रमुख स्कीमों की पड़ताल की जा सकती हैजो लास्ट माइल चैलेंज की शिकार हैं.
नवंबर, 2015 में जब सरकार ने सर्विस टैक्स पर 0.5 फीसदी सेस लगायातब तक स्वच्छता अभियान को एक साल बीत चुका था और स्कीम के लक्ष्यक्रियान्वयन का तरीका व संसाधन तय नहीं हो पाए थे. सफाई का मिशन नगरों व गांवों में संपूर्ण स्वच्छता की उम्मीद जगाता थालेकिन एक साल के भीतर ही इसे यूपीए सरकार के निर्मल ग्राम की तर्ज पर गांवों में शौचालय बनाने और खुले में शौच को समाप्त करने पर सीमित कर दिया गया.
नया टैक्स लगने से संसाधन मिलने लगेलेकिन अभियान में गति नहीं आई. शहरों की सफाई अंतत: नगर निकायों को करनी है जिनके पास संसाधन नहीं हैं. यदि संसाधन नगर निगमों को जाने लगते तो शहरों में सफाई का पहिया घूम सकता था. गांवों में शौचालय बनाते समय यह नहीं देखा गया कि पानी की आपूर्ति और मल निस्तारण का इंतजाम कैसे होगा. इन दोनों बुनियादी जरूरतों के लिए संसाधनों की व्यवस्था स्कीम में शामिल नहीं थी. इसलिए गांवों में बने शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं हो सके.
ताजा सूरते-हाल यह है कि सरकारी संकल्पस्कीमोंविभागों और नए टैक्स के बावजूद शहर व गांव जस के तस गंदे हैं. 
दूसरा उदाहरण डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर (लाभार्थियों तक सीधे सब्सिडी) स्कीम का है. स्कीम के पास संसाधनों की चुनौती नहीं थी क्योंकि सब्सिडी पहले से बांटी जा रही थी. अलबत्ता एलपीजी सब्सिडी बांटने में मिली सफलता के बाद स्कीम ठिठक-सी गई. दरअसलएलपीजी सब्सिडी यूनिवर्सल थी यानी सबको मिलनी थी. केरोसिन या दूसरी सब्सिडी स्कीमों की तरहइसमें लाभार्थियों को पहचानने की चुनौती नहीं थी. 
एलपीजी के बाद डीबीटी का सफर धीमा पड़ गया. केरोसिन व खाद्य सब्सिडी की डीबीटी स्कीमें सक्रिय नहीं हो सकीं. सब्सिडी वाली स्कीमों को अलग-अलग मंत्रालय चलाते हैं. इसमें राज्य सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है. यह समग्र समन्वय ही डीबीटी की दूसरी मंजिल है. एलपीजी में यह काम आसानी से हो गया क्योंकि पेट्रोलियम मंत्रालयतेल कंपनियों और कुछ सौ गैस एजेंसियों को यह स्कीम लागू करनी थी. अन्य स्कीमों के मामले में यह इतना आसान नहीं है. लाभार्थियों की पहचान इस स्कीम की आखिरी मंजिल हैजिसका पैमाना अभी तक तय नहीं है. मनरेगा को डीबीटी से जोडऩे की कोशिशें तेज नहीं हो सकीं क्योंकि राज्यों व केंद्र के बीच तालमेल नहीं बन पाया.
डीबीटी के लिए सरकार के पास संसाधन हैं. सफलताओं का तजुर्बा भी हैलेकिन समन्वय और क्रियान्वयन की चुनौतियों के कारण मंजिल नहीं मिल सकी है.
सांसद आदर्श ग्राम योजना भारत में ग्रामीण विकास की सबसे क्रांतिकारी पहल हो सकती थी क्योंकि पहली बार किसी सरकार ने चुने हुए सर्वोच्च प्रतिनिधि को लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई यानी पंचायत से जोड़ा था. सांसद निधि से जोड़े जाने पर यह स्कीम चमत्कारिक हो सकती थी. लेकिन योजना के लक्ष्य अस्पष्ट थे. गांवों में केंद्र व राज्य की दर्जनों स्कीमें चलती हैं जिनसे समन्वय नहीं हुआ इसलिए सरकारी विभाग तो दूरसांसदों ने भी गांवों को अपनाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और एक बड़ी पहल बीच में ही दम तोड़ गई.
कैबिनेट में ताजे फेरबदल से पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा. हालांकि प्रधानमंत्री को खुदलाल किले के मैराथन भाषण में रह-रहकर दावे करने पड़े.
स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री का भाषण उनकी बेचैनी बता रहा था कि सरकार आधा रास्ता पार कर चुकी हैलेकिन स्कीमों के असर नजर नहीं आ रहे हैं. अच्छा है कि प्रधानमंत्री बेचैन हैंकांग्रेस की तरह हकीकत से गाफिल नहीं. राजनेताओं की बेचैनी अच्छी होती है खासतौर पर तब जबकि सरकार को हकीकत का अंदाजा हो.

ढाई साल पूरे कर रही मोदी सरकार को अब क्रियान्वयन की चुनौती से दो-दो हाथ करने चाहिएजो उसके अच्छे-अच्छे इरादों को पटरी से उतार रही है. सरकार को स्कीमों की भीड़ से निकल कर चुनिंदा कार्यक्रमों को चुनना होगा और उन्हें नतीजों तक पहुंचाना होगा ताकि बदलाव महसूस हो सके. प्रधानमंत्री के पास अब नगला फतेला जैसे तजुर्बों की कोई कमी नहीं है. अपेक्षाओं के खेल का जोखिम भी अब तक उन्हें समझ आ गया होगा. उनकी होड़ अब वक्‍त के साथ हैजिसके गुजरने की रफ्ता्र पर उनका कोई काबू नहीं है. 

Wednesday, July 20, 2016

ताकि नजर आए बदलाव

सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है

ह अनायास नहीं था कि मंत्रिपरिषद को फेंटने से ठीक पहले प्रधानमंत्री ने कुछ अखबारों को दिए अपने साक्षात्कार में बेबाकी के साथ कहा कि ''मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा."
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी से ठीक एक सप्ताह पहले सरकार के दो साल पूरे होने का अभियान खत्म हुआ था जो देश बदलने के अभूतपूर्व दावों से भरपूर था. इसमें आंकड़ोंदावोंसूचनाओं की बाढ़-सी आ गई थी लेकिन प्रधानमंत्री ने उन मंत्रियों को ही बदल दिया जो पूरे जोशो-खरोश से यह स्थापित करने में लगे थे कि जो बदलाव 60 साल में नहीं हुएवे दो साल में हो गए हैं.
दरअसल यह फेरबदल बताता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब दिल्ली के लिए नए नहीं रहे. दो साल में उन्होंने सरकार और अपनी टीम के बारे में बहुत कुछ जान-समझ लिया है. उनका एक अपना स्वतंत्र सूचना तंत्र भी है जो उन्हें दावों और हकीकत का फर्क बता रहा है. यह हकीकत पांच घंटे की उस समीक्षा बैठक में भी सामने आई थी जो प्रधानमंत्री ने मंत्रिपरिषद में फेरबदल से ठीक पहले बुलाई थी.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बदलाव ने भले ही सुर्खियां बटोरीं हों लेकिन ताजा फेरबदल का शिकार हुए प्रत्येक मंत्री के पिछले दो साल के कामकाज को करीब से देखिए तो पता चल जाएगावह क्यों बदला गयाग्रामीण विकास मंत्रालय में बदलाव प्रधानमंत्री स्वच्छता मिशन की असफलता से निकला. संसदीय समन्वय में कमी के चलते पूरी संसदीय टीम बदल गई. कॉल ड्रॉप रोकने में असफलता ने संचार मंत्री बदले बल्कि मंत्रालय भी दो-फाड़ हो गया. स्टील और खनन मंत्रालय भी इसी राह चला. कानून और खनन मंत्रालयों के मुखिया बदलने के पीछे भी पिछले दो साल का कामकाज ही है. जहां खराब प्रदर्शन के बावजूद मंत्री जमे रहे हैं तो वहां शायद राजनैतिक मजबूरियां गवर्नेंस के पैमानों पर भारी पड़ी हैं.
अलबत्ता मंत्रालयी विश्लेषणों से परे इस फेरबदल का व्यापक संदेश प्रधानमंत्री के इस साहसी स्वीकार से निकलता है कि बदलाव है तो महसूस होना चाहिए. आज दो साल बाद अगर प्रधानमंत्री उन उम्मीदों को कमजोर होता पा रहे हैं तो हमें यह भी मानना चाहिए कि वे मंत्रिमंडल फेरदबल तक सीमित नहीं रहना चाहेंगे बल्कि उन दूसरी कमजोर कडिय़ों को भी संभालने की कोशिश करेंगेजो बड़े बदलावों को जमीन पर उतरने से रोक रही हैं.
एक ताकतवर पीएमओ की छवि के विपरीत जाकर क्या प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों को अब अधिकारों से लैस करना चाहेंगेकेंद्र सरकार को चलाने का ढंग राज्यों से अलग है. केंद्रीय गवर्नेंस का इतिहास गवाह है कि प्रधानमंत्री मंत्रियों को अधिकारों से लैस करते हैं और मंत्री अपने अधिकारियों को. मंत्रियों को मिली आजादी और अधिकार नीतियां बनाने और नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया तय करने के लिए जरूरी है.
पिछले दो साल में सरकार ने कई नई पहल की हैं लेकिन ज्यादातर फैसले स्कीमों की घोषणा तक सीमित थे. सरकार के महत्वाकांक्षी मिशन वह असर पैदा करने में सफल नहीं हुए जिसकी उम्मीद खुद प्रधानमंत्री को थी. मोबाइल कॉल ड्रॉप डिजिटल इंडिया की चुगली खाते हैंकिसानों की आत्महत्याएं ग्रामोदय को ग्रस लेती हैं या शहरों में बदस्तूर गंदगी स्वच्छता मिशन को दागी कर देती है या नए निवेश की बेरुखी मेक इन इंडिया की चमक छीन लेती है. इस तरह के सभी मिशन पूरक नीतियांप्रक्रियाएं और लक्ष्य मांगते हैंइसलिए नीतियों और व्यवस्थाओं में बदलाव जरूरी है.  
प्रधानमंत्री ने पिछले दो साल में जिस तेवर-तुर्शी के बदलावों का सपना रोपाराज्य सरकारें उसके मुताबिक सक्रिय नहीं नजर आईं. राज्य सरकारें जो मोदी की विकास रणनीति की ताकत हो सकती थींफिलहाल कुछ बड़ा कर गुजरती नहीं दिखीं हैं. कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए तरसती रही थीवह बीजेपी को संयोग से अपने आप मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ,  जब 12 राज्यों  में उस गठबंधन या पार्टी की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है.
देश का लगभग 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले नौ बड़े राज्यों में बीजेपी या उसके सहयोगी दल राज्य कर रहे हैं जो केंद्र सरकार की स्कीमों के क्रियान्वयन के लिए सबसे बेहतर मौका है. लेकिन पिछले दो साल में राज्यों ने प्रधानमंत्री की किसी भी प्रमुख स्कीम के क्रियान्वयन में कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की. मंडी कानून को खत्म करनेनिवेश और कारोबार को सहज करने या खदानों के ई-ऑक्शन जैसे कार्यक्रम बीजेपी शासित राज्यों में भी उस उत्साह के साथ आगे नहीं बढ़े जिसकी उम्मीद थी. 
शिक्षास्वास्थ्यग्रामीण विकासनगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की प्रभावी जिम्मेदारी अब राज्यों के हाथ है. केंद्र सरकार इसके लिए संसाधनों के आवंटन कर रही है. पिछले दो साल में सबसे सीमित विकास इन सामाजिक सेवाओं में दिखा हैजो बीजेपी की राजनैतिक आकांक्षाओं के लिए नुक्सानदेह है. 
इस फेरबदल से आगे बढ़ते हुए अब प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ समन्वय का सक्रिय व प्रभावी ढांचा विकसित करना होगा. नीति आयोग राज्यों से समन्वय और नीतियों की नई व्यवस्था में अभी तक कोई ठोस योगदान नहीं कर सका हैउसे सक्रिय करना जरूरी है. राज्य यदि बढ़-चढ़कर आगे नहीं आए तो केंद्रीय मंत्रालय कोई ठोस असर नहीं छोड़ सकेंगे. 

मंत्रिपरिषद में बदलाव से चुनाव नहीं जीते जाते. सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है. यह अच्छे दिन के संदेश व उम्मीदों से ही जुड़ता है जो नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान का आधार था. शुक्र है कि प्रधानमंत्री को बदलाव नजर न आने की हकीकत का एहसास है इसलिए हमें मानना चाहिए कि सरकार का पुनर्गठन अभी शुरू ही हुआ है. प्रधानमंत्री अपनी टीम के बाद स्कीमोंनीतियों और प्रक्रियाओं को भी बदलेंगे ताकि उपलब्धियां महसूस हो सकेउनका दावा न करना पड़े.