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Friday, September 18, 2020

पांव के नीचे जमीन नहीं

 

प्रधान की भैंस तालाब के गहरे पानी में फंस गई. सलाहकारों ने गांव के सबसे दुबले और कमजोर व्यक्तिको आगे करते हुए कहा कि इसमें जादू की ताकत है, यह चुटकियों में भैंस खींच लाएगा. दुर्बल मजदूर को तालाब के किनारे ले जाकर भैंस की रस्सी पकड़ा दी गई. सलाहकार नारे लगाने लगे और देखते-देखते बेचारा मजदूर भैंस के साथ तालाब में समा गया.

इस घटना को देखकर आया एक यात्री अगले गांव में जब यह किस्सा सुना रहा था तब कोई एक बड़ा नेता टीवी पर देश को यह बता रहा था कि जीडीपी के -24 फीसद टूटने पर सवाल उठाने वाले नकारात्मक हैं. लॉकडाउन के बीच भी खेती की ग्रोथ नहीं दिखती?  नए कानूनों की गाड़ी लेकर निजी कंपनियां खेतों तक पहुंच रही हैं. मंदी बस यूं गई, समझो.

मंडियों में निजी क्षेत्र के दखल के कानूनों में नए बदलावों पर भ्रम हो सकता है लेकिन इस पर कोई शक नहीं कि दिल्ली का निजाम खेती की हकीकत से गाफिल है. उसे अभी भी लगता है कि उपज की मार्केटिंग में निजी क्षेत्र को उतार कर किसानों की कमाई बढ़ाई जा सकती है जबकि खेती की दरारें बहुत चौड़ी और गहरी हो चुकी हैं.

जहां समर्थन मूल्य बढ़ाने के बावजूद 2019 में किसानों को तिमाही वजीफा देना पड़ा था, उस खेती को महामंदी से उबारने की ताकत से लैस बताया जा रहा है. पहली तिमाही में 3.4 फीसद की कृषिविकास दर चमत्कारिक नहीं है. खेती के कुल उत्पादन मूल्य (जीवीए) में बढ़ोतरी बीते बरस से खासी कम (8.6 से 5.7 फीसद) है. यानी उपज का मूल्य न बढ़ने से, पैदावार बढ़ाकर किसान और ज्यादा गरीब हो गए.

खेती में आय पिछले चार-पांच वर्षों से स्थिर है, बल्कि महंगाई के अनुपात में कम ही हो गई है. 81.5 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास एक एकड़ से कम जमीन है. जोत का औसत आकार अब घटकर केवल 1.08 एकड़ पर आ चुका है. नतीजतन, भारत में किसान की औसत मासिक कमाई (प्रधानमंत्री के वजीफे सहित) 6,000 रुपए से ज्यादा नहीं हो पाती. यह 200 रुपए रोज की दिहाड़ी है जो कि न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम है. क्या हैरत कि 2018 में 11,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की.

90 फीसद किसान खेती के बाहर अतिरिक्त दैनिक कमाई पर निर्भर हैं. ग्रामीण आय में खेती का हिस्सा केवल 39 फीसद है जबकि 60 फीसद आय गैर कृषिकामों से आती है. खेती से आय एक गैर कृषिकामगार की कमाई की एक-तिहाई (नीति आयोग 2017) है. जो शहरी दिहाड़ी से हुई बचत गांव भेजकर गरीबी रोक रहे थे लॉकडाउन के बाद वे खुद गांव वापस पहुंच गए हैं.

सरकार बार-बार खेती की हकीकत समझने में चूक रही है. याद है न समर्थन मूल्य पर 50 फीसद मुनाफे का वादा और उसके बाद बगलें झांकना या 2014 में भूमि अधिग्रहण कानून की शर्मिंदगी भरी वापसी. अब आए हैं तीन नए कानून, जो उपज के बाजार का उदारीकरण करते हैं और व्यापारियों के लिए नई संभावनाएं खोलते हैं.

फसलों से उत्पाद बनाने की नीतियां कागजों पर हैं. सरकार के दखल से उपजों का बाजार बुरी तरह बिगड़ चुका है. किसान ज्यादा उगाकर गरीब हो रहा है. जब सरकार ही उसे सही कीमत नहीं दे पाती तो निजी कारोबारी क्या घाटा उठाकर किसान कल्याण करेंगे.

कृषिमें अब दरअसल यह होने वाला हैः

खरीफ में अनाजों का बुवाई बढ़ना अच्छी खबर नहीं है. लॉकडाउन में नकदी फसलों में नुक्सान के कारण किसान फिर अनाज उगाने लगे हैं, जहां उन्हें कभी फायदे का सौदा नहीं मिलता.

घटती मांग के बीच अनाज की भरमार होने वाली है. खेती भी मंदी की तरफ मुखातिब है, स्थानीय महंगाई से किसान को कुछ नहीं मिलता बल्कि उपभोक्ता इस बोझ को उठाता है.

करीब 50 करोड़ लोग या 55 फीसद ग्रामीणों के पास जमीन का एक टुकड़ा तक नहीं है. देश में 90 लाख मजदूर मौसमी प्रवासी (जनगणना 2011) हैं, जो खेती का काम बंद होने के बाद शहर में दिहाड़ी करते हैं. लॉकडाउन के बाद ये सब निपट निर्धनता की कगार पर पहुंच गए हैं.

जरूरत से ज्यादा मजदूर, मांग से ज्यादा पैदावार और शहरों से आने वाले धन के स्रोत बंद होने से ग्रामीण आय में कमी तय है.

बीते 67 सालों में जीडीपी की वृद्धि दर 3 से 7.29 फीसद पर पहुंच गई लेकिन खेती की विकास दर 2 से 3 फीसद के बीच झूल रही है. इस साल भी कोई कीर्तिमान बनने वाला नहीं है. जीडीपी में केवल 17 फीसद हिस्से वाली खेती इस विराट मंदी से क्या उबारेगी. यह मंदी तो 43 फीसद रोजगारों को संभालने वाली इस आर्थिक गतिविधिको नई गरीबी की फैक्ट्री में बदलने वाली है.

सरकार को दो काम तो तत्काल करने होंगे. एकअसंख्य स्कीमों को बंद कर यूनिवर्सल बेसिक इनकम की शुरुआत और दूसरा न्यूनतम मजदूरी दर को महंगाई से जोड़ना.

सनद रहे कि गांवों के पास मंदी का इलाज होने या ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ताकत बताने वाले सिर्फ भरमा रहे हैं. गांवों की हकीकत दर्दनाक है. शहर जब तक मंदी की गर्त से निकल कर तरक्की की सीढ़ी नहीं चढ़ेंगे गांव उठकर खड़े नहीं होंगे.

Friday, December 13, 2019

महंगाई वाली मंदी



महंगाई झेलना चाहते हैं या मंदी? अपनी तकलीफ चुन लीजिए. फिलहाल तो दोनों ही बढ़ने वाली हैं.

रिजर्व बैंक के अनुसार, अगले तीन माह में जेबतराश महंगाई बढ़ेगी. और इस साल की दूसरी तिमाही में विकास दर 4.5 फीसद इस ढलान का अंतिम छोर नहीं है. अगले छह माह में मंदी गहराएगी. इस साल पांच फीसद की विकास दर भी नामुमकिन है.

बचत, खपत और निवेश में कमी से बनी यह मंदी जितनी उलझन भरी है, महंगाई उससे कम पेचीदा नहीं है. महंगाई के छिलके उतारने पर ही समझ में आता है कि रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कमी रोक कर अब मंदी से लड़ाई का बीड़ा सरकार की तरफ बढ़ा दिया है और दूसरी तरफ सरकार यह समझ ही नहीं पा रही है कि कौन-सी महंगाई अच्छी है और कौन-सी बुरी या कि मंदी और महंगाई की इस जोड़ी को तोड़ा कैसे जाए?

 अक्तूबर के महीने में थोक महंगाई 40 महीने के न्यूनतम स्तर पर (0.16 फीसद) थी, जबकि खुदरा महंगाई 16 महीने के सर्वोच्च स्तर 4.6 फीसद पर. थोक महंगाई उत्पादकों के स्तर पर कीमतों की नापजोख है जबकि खुदरा महंगाई उपभोक्ताओं की जेब पर असर की पैमाइश करती है.
थोक महंगाई में रिकाॅर्ड कमी मांग टूटने का सबूत है जिसके कारण  उत्पादक (किसान और उद्योग) कीमतें नहीं बढ़ा पा रहे हैं. इस साल रबी मौसम तक कृषिऔर खाद्य उत्पादों की कीमतें लागत से कम थीं. पिछले कई महीनों से मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों की कीमतें नहीं बढ़ी हैं.

दूसरी तरफ, खुदरा यानी उपभोक्ता महंगाई इस साल जनवरी से बढ़ने लगी थी जो अब सरकार को डराने वाले स्तर तक गई.

थोक महंगाई खपत में मंदी का सबूत है और खुदरा महंगाई महंगी होती खपत का. दोनों का एक साथ प्रकट होना मांग और आपूर्ति दोनों में ढांचागत दिक्कतों का दुर्लभ दुर्योग है

·       महंगाई का दूसरा पेच यह है कि आपूर्ति की दिक्कतों के कारण फलों-सब्जियों वाली खाद्य महंगाई बढ़ रही है जबकि मांग में कमी के कारण घरेलू खपत के सामान, सेवाओं, भवन निर्माण, संचार कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हुई है यानी उत्पादकों के लाभ नहीं बढ़ रहे हैं.

·       शहरी और ग्रामीण महंगाई का अंतर एक और बड़ी चुनौती है. अक्तूबर के महीने में गांवों में खाद्य महंगाई बढ़ने की दर 6.4 फीसद थी जबकि शहरों में 10.5 फीसद.

·       महंगाई की पैमाइश का एक और चेहरा उलझन को कई गुना बढ़ाता है. केयर रेटिंग्स के एक ताजा अध्ययन के अनुसार, पिछले वित्त वर्ष में भारत के 19 राज्यों में उपभोक्ता महंगाई, राष्ट्रीय औसत से ज्यादा रही जबकि 11 राज्यों में रिजर्व बैंक के आदर्श पैमाने (4 फीसद) से ऊपर थी, यानी कि हमारे पड़ोस की महंगाई, देश की महंगाई से बिल्कुल अलग है.

मंदी की रोशनी में, महंगाई के अंतर्विरोध ने अर्थव्यवस्था को कठिन विकल्पों की स्थिति में ला खड़ा किया है. पूरा उत्पादन क्षेत्र मंदी का शिकार है. इसमें किसान और उद्योग, दोनों शामिल हैं. 2014 से 2019 के बीच खेती में कमाई बढ़ने की रफ्तार इससे पहले के दशक की तुलना में आधी रही थी. किसान और उद्योग, दोनों नजरिये से कीमतें बढ़ना जरूरी है क्योंकि अब आय रोजगार बढ़े बगैर खपत का पहिया घूम नहीं सकता. अचरज नहीं कि मंदी के बावजूद मोबाइल बिल और कुछ कारों की कीमत में इजाफा शुरू हो गया है.

नगरीय उपभोक्ताओं के लिए इस परिदृश्य में तकलीफ दिखती है. खासतौर पर रोजगार देने वाले उद्योगों में मंदी के कारण नई नौकरियां बंद हैं और वेतन में बढ़त भी. ऐसी हालत में भोजन की महंगाई जिंदगी की मुसीबतों में इजाफा करेगी.

महंगाई या कीमतों में बढ़ोतरी भारत में संवेदनशील पैमाना है. इस पर उत्पादकों का भविष्य भी टिका है और खपत का भी. भारत के कृषिबाजार में अधिकांश कीमतें सरकार तय करती है. घटिया वितरण तंत्र, बाजार के फायदे किसानों तक नहीं पहुंचने देता. दूसरी तरफ, भारी टैक्स, पूंजी की कमी और ऊर्जा की ऊंची लागत के कारण उद्योगों का मार्जिन सीमित है इसलिए कारोबारी लाभ मांग और मूल्य, दोनों में बढ़ोतरी से आते हैं.

सरकारों के अनावश्यक हस्तक्षेप ने बाजार को बिगाड़ दिया है. हाल के वर्षों में भारत में न्यूनतम महंगाई के बाद भी मांग नहीं बढ़ी. अब नीतियों का असंतुलन दम घोंट रहा है. फसलों की मांग-आपूर्ति पर कोई दूरगामी नीति है और उद्योगों पर टैक्स की. सरकार कभी प्याज के ताबड़तोड़ आयात की तरफ दौड़ पड़ती है जिससे फसल बाजार का संतुलन बिगड़ता है तो कभी कंपनियों पर टैक्स के नियमों में अप्रत्याशि बदलाव कर देती है. जैसे कि पहले कॉर्पोरेट टैक्स घटाकर घाटा बढ़ाया गया, अब जीएसटी बढ़ाने की तैयारी हो रही है.

मंदी के विभिन्न संस्करणों में मंदी और महंगाई की जोड़ी (स्टैगफ्लेशन) सबसे जटिल है. बेकारी और महंगी जिंदगी की यह जहरीली जोड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था को घेर रही है. सरकार को जल्द ही तय करना होगा कि वह महंगाई को बढ़ने देकर मंदी से उबारेगी या मंदी को बढ़ने देगी. चुनाव कठिन है लेकिन इस आग के दरिया में डूब कर जाना ही होगा और कोई सहज विकल्प नहीं है.