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Saturday, May 4, 2019

ताकत की साझेदारी




ब्बे के शुरुआती दशकों में अगर सत्तर की इंदिरा गांधी या आज के नरेंद्र मोदी की तरह बहुमत से लैस कोई प्रधानमंत्री होता तो क्या हमें टी.एनशेषन मिल पाते या भारत के लोग कभी सोच भी पाते कि लोकतंत्र को रौंदते नेताओं को उनकी सीमाएं बताई जा सकती हैं


अगर 1991 के बाद भारत में साझा बहुदलीय सरकारें न होतीं तो क्या हम उन स्वतंत्र नियामकों को देख पातेजिन्हें सरकारों ने अपनी ताकत सौंपी और जिनकी छाया में आर्थिक उदारीकरण सफल हुआ.

क्या भारत का राजनैतिक व आर्थिक लोकतंत्र बहुदलीय सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित हैपिछले ढाई दशक के अद्‍भुत अखिल भारतीय परिवर्तन ने जिस नए समाज का रचना की हैक्या उसे संभालने के लिए साझा सरकारें ही चाहिए?

भारतीय लोकतंत्र का विराट और रहस्यमय रसायन अनोखे तरीके से परिवर्तन को संतुलित करता रहा हैइंद्रधनुषी (महामिलावटी नहींयानी मिलीजुली सरकारों से प्रलय का डर दिखाने वालों को इतिहास से कुछ गुफ्तगू कर लेनी चाहिएसत्तर पार कर चुके भारतीय लोकतंत्र को अब किसी की गर्वीली चेतावनियों की जरूरत नहीं हैउसके पास इतना अनुभव उपलब्ध है जिससे वह अपनी समझ और फैसलों पर गर्व कर सकता है.

1991 से पहले के दौर की एक दलीय बहुमत से लैस ताकतवर इंदिरा और राजीव गांधी की सरकारों के तहत लोकतांत्रिक आर्थिक संस्थाओं ने खासा बुरा वक्त देखा है.

अचरज नहीं कि भारत के आर्थिक और लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे अच्छे दशक बहुमत के दंभ से भरी सरकारों ने नहीं बल्कि समावेशीसाझा सरकारों ने गढ़े. 1991 के बाद भारत ने केवल ढाई दशक के भीतर गरीबी को कम करनेआय बढ़ानेरिकॉर्ड ग्रोथतकनीक के शिखर छूने और दुनिया में खुद स्थापित करने का जो करिश्मा कियाउसकी अगुआई अल्पमत की सरकारों ने की. 

तो क्या भारत के नए आर्थिक लोकतंत्र की सफलता केंद्र की अल्पमत सरकारों में निहित थी? 

स्वतंत्र नियामकों का उदय भारत का सबसे बड़ा सुधार थादरअसलमुक्त बाजार में निवेशकों के भरोसे के लिए दो शर्तें थीं

एक— नीति व नियमन की व्यवस्था पेशेवर विशेषज्ञों के पास होनी चाहिएराजनेताओं के हाथ नहींयानी कि सरकार को अपनी ताकत कम करनी थी ताकि स्वतंत्र नियामक बन सकें.
दो— सरकार को कारोबार से बाहर निकल कर अवसरों का ईमानदार बंटवारा सुनिश्चित करना चाहिए.

उदारीकरण के बाद कई नए रेगुलेटर बने और रिजर्व बैंक जैसी पुरानी संस्थाओं को नई आजादी बख्शी गईताकतवर सेबी के कारण भारतीय शेयर बाजार की साख दिग-दिगंत में गूंज रही हैबीमादूरंसचारखाद्यफार्मास्यूटिकल्स-पेट्रोलियमबीमापेंशनप्रतिस्पर्धा आयोगबिजली...प्रत्येक नए रेगुलेटर के साथ सरकार की ताकत सीमित होती चली गई.

इसी दौरान पहली बार बड़े पैमाने पर सरकारी कंपनियों का निजीकरण हुआयह आर्थिक लोकतंत्र की संस्थाओं का सबसे अच्छा दौर था क्योंकि इन्हीं की जमानत पर दुनिया भर के निवेशक आए.

साझा सरकारें भारत के राजनैतिक लोकतंत्र के लिए भी वरदान थींचुनाव आयोग को मिली नई शक्ति (जिसे बाद में कम कर दिया गयाराज्य सरकारों को लेकर केंद्र की ताकत को सीमित करने वाले और नए कानूनों को प्रेरित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले इसी दौर में आएसबसे क्रांतिकारी बदलाव दसवें से चौदहवें (1995 से 2015) वित्त आयोगों के जरिए हुआ जिन्होंने केंद्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का ढांचा पूरी तरह बदलकर राज्यों की आर्थिक आजादी को नई ताकत दी.

बहुमत की कौन-सी सरकार नियामकों या राज्यों को अधिकार सौंपने पर तैयार होगीमोदी सरकार के पांच साल में एक नया नियामक (रियल एस्टेट रेगुलेटर पिछली सरकार के विधेयक परनहीं बनाउलटे रिजर्व बैंक की ताकत कम कर दी गईचुनाव आयोग मिमियाने लगा और सीएजी अपने दांत डिब्बों में बंद कर चुका हैयहां तक कि आधार जैसे कानून को पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल का इस्तेमाल हुआ.

सरकारें गलत फैसले करती हैं और माफ भी की जाती हैंमुसीबतें उनके फैसलों के अलोकतांत्रिक तरीकों (मसलननोटबंदीसे उपजती हैंइस संदर्भ मेंसाझा सरकारों का रिकॉर्ड एक दल के बहुमत वाली सरकारों से कहीं ज्यादा बेहतर रहा है.

पिछले सात दशक के इतिहास की सबसे बड़ी नसीहत यह है कि एक दलीय बहुमत वाली ताकतवर सरकारें और सशक्त लोकतांत्रिक संस्थाएं एक साथ चल नहीं पा रही हैंजब-जब हमने एक दलीय बहुमत से लैस सरकारें चुनी हैं तो उन्होंने लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन ली है.

नेता तो आते-जाते रहेंगेउभरते भारत को सशक्त लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में ‘‘सरकार को जनता से डरना चाहिएजनता को सरकार से नहीं.’’