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Saturday, December 31, 2016

कल क्या होगा?

नीति शून्यता (पॉलिसी पैरालिसिस) जवाब नीति रोमांच (पॉलिसी एडवेंचरिज्म)  हरगिज नहीं हो सकता

नोटबंदी के बाद राम सजीवन हर तीसरे दिन बैंक की लाइन में लग जाते हैं, कभी एफडी तुड़ाने तो कभी पैसा निकालने के लिए. फरवरी में बिटिया की शादी कैसे होगी? फ्रैंकफर्ट से भारत के बाजार में निवेश कर रहे एंड्रयू भी नोटबंदी के बाद से लगातार शेयर बाजार में बिकवाली कर रहे हैं.

सजीवन को सरकार पर पूरा भरोसा है और एंड्रयू को भारत से जुड़ी उम्मीदों पर. लेकिन दोनों अपनी पूरी समझ झोंक देने के बाद भी आने वाले वक्त को लेकर गहरे असमंजस में हैं.

सजीवन और एंड्रयू की साझी मुसीबत का शीर्षक है कल क्या होगा?

सजीवन आए दिन बदल रहे फैसलों से खौफजदा हैं. एंड्रयू को लगता है कि सरकार ने मंदी को न्योता दे दिया है, पता नहीं कल कौन-सा टैक्स थोप दे या नोटिस भेज दे इसलिए नुक्सान बचाते हुए चलना बेहतर.

सजीवन मन की बात कह नहीं पाते, बुदबुदा कर रह जाते हैं जबकि एंड्रयू तराशी हुई अंग्रेजी में रूपक गढ़ देते हैं, ''म ऐसी बस में सवार हैं जिसमें उम्मीदों के गीत बज रहे हैं. मौसम खराब नहीं है. बस का चालक भरोसेमंद है लेकिन वह इस कदर रास्ते बदल रहा है कि उसकी ड्राइविंग से कलेजा मुंह को आ जाता है. पता ही नहीं जाना कहां है?"

नोटबंदी से पस्त सजीवन कपाल पर हाथ मार कर चुप रह जाते हैं. लेकिन एंड्रयू, डिमॉनेटाइजेशन को भारत का ब्लैक स्वान इवेंट कह रहे हैं. सनद रहे कि नोटबंदी के बाद विदेशी निवेशकों ने नवंबर महीने में 19,982 करोड़ रु. के शेयर बेचे हैं. यह 2008 में लीमन ब्रदर्स बैंक तबाही के बाद भारतीय बाजार में सबसे बड़ी बिकवाली है.


ब्लैक स्वान इवेंट यानी पूरी तरह अप्रत्याशित घटना. 2008 में बैंकों के डूबने और ग्लोबल मंदी के बाद निकोलस नसीम तालेब ने वित्तीय बाजारों को इस सिद्धांत से परिचित कराया था. क्वांट ट्रेडर (गणितीय आकलनों के आधार पर ट्रेडिंग) तालेब को अब दुनिया वित्तीय दार्शनिक के तौर पर जानती है. ब्लैक स्वान इवेंट की तीन खासियतें हैः

एकऐसी घटना जिसकी हम कल्पना भी नहीं करते. इतिहास हमें इसका कोई सूत्र नहीं देता.
दोघटना का असर बहुत व्यापक और गहरा होता है.
तीनघटना के बाद ऐसी व्याख्याएं होती हैं जिनसे सिद्ध हो सके कि यह तो होना ही था

ब्लैक स्वान के सभी लक्षण नोटबंदी में दिख जाते हैं.

इसलिए अनिश्चितता 2016 की सबसे बड़ी न्यूजमेकर है.

और

नोटबंदी व ग्लोबल बदलावों के लिहाज से 2017, राजनैतिक-आर्थिक गवर्नेंस के लिए सबसे असमंजस भरा साल होने वाला है.

ब्लैक स्वान थ्योरी के मुताबिक, आधुनिक दुनिया में एक घटना, दूसरी घटना को तैयार करती है. जैसे लोग कोई फिल्म सिर्फ इसलिए देखते हैं क्योंकि अन्य लोगों ने इसे देखा है. इससे अप्रत्याशित घटनाओं की शृंखला बनती है. नोटबंदी के बाद उम्मीद थी कि भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन यह नए सिरे से फट पड़ेगा, बेकारी-मंदी आ जाएगी यह नहीं सोचा था.

नोटबंदी न केवल खुद में अप्रत्याशित थी बल्कि यह कई अप्रत्याशित सवाल भी छोड़कर जा रही है, जिन्हें सुलझाने में इतिहास हमारी कोई मदद नहीं करता क्योंकि ब्लैक स्वान घटनाओं के आर्थिक नतीजे आंके जा सकते हैं, सामाजिक परिणाम नहीं.
  • नोटबंदी के बाद नई करेंसी की जमाखोरी का क्या होगाक्या नकदी रखने की सीमा तय होगीडिजिटल पेमेंट सिस्टम अभी पूरी तरह तैयार नहीं है. क्या नकदी का संकट बना रहेगाकाम धंधा कैसे चलेगा?
  • नई करेंसी का सर्कुलेशन शुरू हुए बिना नए नोटों की आपूर्ति का मीजान कैसे लगेगानकद निकासी पर पाबंदियां कब तक जारी रहेंगी ?
  • नकदी निकालने की छूट मिलने के बाद लोग बैंकों की तरफ दौड़ पडे तो ?
  • कैश मिलने के बाद लोग खपत करेंगे या बचतयदि बचत करेंगे तो सोना या जमीन-मकान खरीद पाएंगे या नहीं.
और सबसे बड़ा सवाल

इस सारी उठापटक के बाद क्या अगले साल नई नौकरियां मिलेंगी? कमाई के मौके बढेंग़े? या फिर 2016 जैसी ही स्थिति रहेगी?

भारत को ब्लैक स्वान घटनाओं का तजुर्बा नहीं है. अमेरिका में 2001 का डॉट कॉम संकट और जिम्बाब्वे की हाइपरइन्क्रलेशन (2008) इस सदी की कुछ ऐसी घटनाएं थीं. शेष विश्व की तुलना में भारतीय आर्थिक तंत्र में निरंतरता और संभाव्यता रही है. विदेशी मुद्रा संकट के अलावा ताजा इतिहास में भारत ने बड़े बैंकिंग, मुद्रा संकट या वित्तीय आपातकाल को नहीं देखा. 

आजादी के बाद आए आर्थिक संकटों की वजह प्राकृतिक आपदाएं (सूखा) या ग्लोबल चुनौतियां (तेल की कीमतें, पूर्वी एशिया मुद्रा संकट या लीमन संकट) रही हैं, जिनके नतीजे अंदाजना अपेक्षाकृत आसान था और जिन्हें भारत ने अपनी देसी खपत व भीतरी ताकत के चलते झेल लिया. नोटबंदी हर तरह से अप्रत्याशित थी इसलिए नतीजों को लेकर कोई मुतमइन नहीं है और असुरक्षा से घिरा हुआ है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सक्रिय राजनेता हैं. वह जल्द से जल्द से कुछ बड़ा कर गुजरना चाहते हैं. हमें मानना चाहिए कि वह सिर्फ चुनाव की राजनीति नहीं कर रहे हैं. पिछले एक साल में उन्होंने स्कीमों और प्रयोगों की झड़ी लगा दी है लेकिन इनके बीच ठोस मंजिलों को लेकर अनिश्चितता बढ़ती गई है. 

2014 में मोदी को चुनने वाले लोग नए तरह की गवर्नेंस चाहते थे जो रोजगार, बेहतर कमाई और नीतिगत निरंतरता की तरफ ले जाती हो. प्रयोग तो कई हुए हैं लेकिन पिछले ढाई साल में रोजगार और कमाई नहीं बढ़ी है. पिछली सरकार अगर नीति शून्यता (पॉलिसी पैरालिसिस) का चरम थी तो मोदी सरकार नीति रोमांच (पॉलिसी एडवेंचरिज्म) की महारथी है.

ब्लैक स्वान वाले तालेब कहते हैं विचार आते-जाते हैं, कहानियां ही टिकाऊ हैं लेकिन एक कहानी को हटाने के लिए दूसरी कहानी चाहिए. नोटबंदी की कहानी बला की रोमांचक है, लेकिन अब इससे बड़ी कोई कहानी ही इसकी जगह ले सकती है जिस पर उम्मीद को टिकाया जा सके. 

क्या 2017 में अनिश्चितता और असमंजस से हमारा पीछा छूट पाएगा?

Tuesday, May 17, 2016

अब मिशन पुनर्गठन


बेहतर मंशा के बावजूद पिछले दो साल में सरकार के कई अभियान और मिशन जमीनी हकीकत से गहरी असंगति का शिकार हो गए हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 14 अप्रैल को जब मध्य प्रदेश में ग्राम उदय से भारत उदय अभियान की शुरुआत कर रहे थे, उस समय उनकी सरकार सूखे पर सुप्रीम कोर्ट के लिए जवाब तैयार कर रही थी, जो उसे अदालत की फटकार के बाद दाखिल करना था. अप्रैल के तीसरे हफ्ते में जब सरकार ने अदालत को बताया कि देश की एक-चौथाई आबादी सूखे की चपेट में है, उस दौरान पार्टी अपने मंत्रियों और सांसदों को गांवों में किसान मेले लगाने का कार्यक्रम सौंप रही थी. नतीजतन, पानी की कमी, खेती की बदहाली और सूखे के बीच ग्राम उदय जनता तो क्या, बीजेपी के सांसदों के गले भी नहीं उतरा जो सरकारी स्कीमों का भरपूर प्रचार न करने को लेकर आजकल प्रधानमंत्री से अक्सर झिड़कियां और नसीहतें सुन रहे हैं.

करिश्माई नेतृत्व की अगुआई में प्रचंड बहुमत वाली किसी सरकार के सांसदों का दो साल में ही इतना हतोत्साहित होना अचरज में डालता है. खासतौर पर ऐसी पार्टी के सांसद जो लंबे अरसे बाद सत्ता में लौटी हो और जिसकी सरकार लगभग हर महीने कोई नया मिशन या स्कीम उपजा रही हो.

सरकार के अभियानों और स्कीमों पर उसके अपने सांसदों का ठंडा रुख एक सच बता रहा है, सरकार जिसे समझने को तैयार नहीं है. सिर्फ ग्रामोदय ही नहीं, बेहतर मंशा के बावजूद पिछले दो साल में सरकार के कई अभियान और मिशन जमीनी हकीकत से गहरी असंगति के नमूने बन गए हैं. यही वजह है कि ऐसे बदलाव नहीं नजर आए, जिन्हें लेकर सांसद अपेक्षाओं से भरी जनता से नजरें मिला सकें.

मोदी सरकार ने गवर्नेंस और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों की कई दुखती रगों पर उंगली रखने की कोशिश की है लेकिन अधिकतर प्रयोग जड़ें नहीं पकड़ सके. कुछ मिशन कायदे से शुरू भी नहीं हो पाए तो कुछ स्कीमों को चलाने लायक व्यवस्था तैयार नहीं थी, इसलिए दो साल के भीतर ही मोदी सरकार के लगभग सभी प्रमुख मिशन और स्कीमें एक जरूरी पुनर्गठन की टेर लगाने लगी हैं. मिसाल के तौर पर मेक इन इंडिया को ही लें, जो आर्थिक वास्तविकता से कटा होने के कारण जहां का तहां ठहर गया.

कोई शक नहीं कि मैन्युफैक्चरिंग में निवेश जरूरी है लेकिन मोदी सरकार जब सत्ता में आई, तब औद्योगिक क्षेत्र ऐसी मंदी की गिरफ्त में था, जिसमें कंपनियों के पास भारी उत्पादन क्षमताएं तैयार पड़ी हैं लेकिन मांग नहीं है. जब कर्ज में दबी कंपनियां बैंकों की मुसीबत बनी हैं तो निवेश क्या होगा. दो साल में जो विदेशी निवेश आया, वह सर्विस सेक्टर में चला गया जिस पर सरकार का फोकस नहीं था, जबकि मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां बंद हो रही हैं या उत्पादन घटा रही हैं. कारोबार आसान बनाने की मुहिम मेक इन इंडिया का हिस्सा थी जो परवान नहीं चढ़ी, क्योंकि राज्यों ने बहुत उत्साह नहीं दिखाया. मेक इन इंडिया को अगर प्रासंगिक रखना है तो इसे चुनिंदा उद्योगों पर फोकस करना होगा, तभी कुछ नतीजे मिल सकेंगे.

स्वच्छता मिशन मौजूदा नगरीय प्रबंधन की हकीकत से कटा हुआ था, इसलिए यह सड़क बुहारती साफ-सुथरी छवियों से आगे नहीं गया. इसे पूरे देश में एक साथ शुरू करने की गलती की गई, जो न केवल असंभव था, बल्कि अव्यावहारिक भी. भारत में नगरीय स्वच्छता का जिम्मा स्थानीय निकायों का है, जिनके पास पर्याप्त संसाधन, श्रमिक और तकनीक का अभाव है. स्कीम के डिजाइन, लक्ष्यों और रणनीति में नगर प्रशासनों की भूमिका नहीं थी, इसलिए मिशन मजाक बनकर गुजर गया. सुनते हैं कि स्वच्छता मिशन का पुनर्गठन होने वाला है. इसे अब चुनिंदा शहरों पर फोकस किया जाएगा. देर आए, दुरुस्त आए.

सब कुछ मोबाइल और इंटरनेट पर देने की मुहिम लेकर शुरू हुआ डिजिटल इंडिया इस हकीकत से कोई वास्ता नहीं रखता था कि जब शहरों में ही मोबाइल नेटवर्क काम नहीं करते तो गांवों का क्या हाल होगा, जहां इंटरनेट तो क्या, वॉयस नेटवर्क भी ठीक से नहीं चलता. गांवों में स्मार्ट फोन की पहुंच सीमित है और मोबाइल इंटरनेट की लागत एक जरूरी पहलू है. यही वजह है कि डिजिटल इंडिया सरकारी सेवाओं के कुछ मोबाइल ऐप्लिकेशनों तक सीमित रह गया, जबकि मोबाइल नेटवर्क पर कॉल ड्रॉप बढ़ते चले गए.

जनधन में 50 फीसदी खाते अब भी जीरो बैलेंस हैं, जिनमें न लोगों ने पैसा रखा और न सरकार ने कोई ट्रांसफर किया. डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर रसोई गैस की सब्सिडी बांटने तक ठीक चली क्योंकि उसमें लाभार्थियों की पहचान का टंटा नहीं था, लेकिन जैसे ही लाभार्थी पहचान कर केरोसिन बांटने की बारी आई, स्कीम ठिठक गई.

सांसद आदर्श ग्राम योजना के लक्ष्य ही स्पष्ट नहीं थे, सांसद भी बहुत उत्साही नहीं दिखे. पेंशन और बीमा योजनाएं पिछले प्रयोगों की तरह कमजोर डिजाइन और सीमित लाभों के चलते परवान नहीं चढ़ीं. सबके लिए आवास और स्मार्ट सिटी जैसे मिशन क्रियान्वयन रणनीति की कमी का शिकार हो गए, जबकि मुद्रा बैंक की जिम्मेदारी बैंकों को उस वक्त मिली जब वे फंसे हुए कर्जों में जकड़े हैं.

सत्ता में दो साल पूरे कर रहे प्रधानमंत्री को यह एहसास जरूर होना चाहिए कि उनकी सरकार ने दो साल में स्कीमों और मिशनों का इतना बड़ा परिवार खड़ा कर दिया है, जिनकी मॉनिटरिंग ही मुश्किल है, नतीजे निकाल पाना तो दूर की बात है. जल्दी नतीजों के लिए मोदी सरकार को घोषित स्कीमों और मिशनों को मिशन मोड में पुनर्गठित करना होगा ताकि वरीयताओं की सूची नए सिरे से तय हो सके. गांव से लेकर शहर तक, बैकिंग से लेकर कूड़े-कचरे तक और डिजिटल से लेकर स्किल तक फैले अपने दो दर्जन से अधिक मिशन-स्कीम समूह में से चुनिंदा चार या पांच कार्यक्रमों पर फोकस करना होगा.

सरकारी स्कीमों को लेकर बीजेपी सांसदों की बेरुखी बेसबब नहीं है. वे सियासत की जमीन के सबसे करीब हैं और नतीजों की नामौजूदगी में मोहभंग की तपिश महसूस कर रहे हैं. सांसद जानते हैं कि अगले तीन साल चुनावी सियासत से लदे-फदे होंगे, जिसमें कुछ बड़ा करने की गुंजाइश कम होती जाएगी. इसलिए जो हो चुका है, उसे चुस्त-दुरुस्त कर अगर नतीजे निकाले जा सकें तो पार्टी सांसदों का उत्साह लौटने की सूरत बन सकती है.



Monday, March 4, 2013

अलविदा गेम चेंजर



यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया।

खेद प्रगट का करने इससे भव्‍य तरीका और क्‍या हो सकता है कि एक पूरे बजट को वी आर सॉरी का आयोजन में बदल दिया जाए। यूपीए का दसवां बजट पछतावे की परियोजना है। यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया। प्रायश्चित तो मौन व सर झुकाकर होते हैं और इसलिए बजट से कोई उत्‍साह आवंटित नहीं हुआ। चिदंबरम खुल कर जो नहीं कह सके उसे आंकडों के जरिये बताया गया। यह बजट पिछले एक दशक के ज्‍यादातर लोकलुभावन प्रयोगों को अलविदा कह रहा है। वह स्‍कीमें जिन्‍हें यूपीए कभी गेम चेंजर मानती थी अंतत: जिनके कारण ग्रोथ व वित्‍तीय संतुलन का घोंसला उजड़ गया।

Monday, July 2, 2012

याद हो कि न याद हो


ह जादूगर यकीनन करामाती था। उसने सवाल उछाला। कोई है जो बीता वक्‍त लौटा सके। .. मजमे में सन्‍नाटा खिंच गया। जादूगर ने मेज से यूपीए सरकार के पिछले बजट उठाये और पढ़ना शुरु किया। भारी खर्च वाली स्‍कीमें, अभूतपूर्व घाटेभीमकाय सब्सिडी बिलकिस्‍म किस्‍म के लाइसेंस परमिट राज, प्रतिस्‍पर्धा पर पाबंदी,.... लोग धीरे धीरे पुरानी यादों में उतर गए और अस्‍सी के दशक की समाजवादी सुबहें, सब्सिडीवादी दिन और घाटा भरी शामें जीवंत हो उठीं। यह जादू नही बल्कि सच है। उदार और खुला भारत अब अस्सी छाप नीतियों में घिर गया है। यह सब कुछ सुनियोजित था या इत्तिफाकन हुआ अलबत्‍ता संकटों की इस ढलान से लौटने के लिए भारत को अब बानवे जैसे बड़े सुधारों की जरुरत महसूस होने लगी है। इन सुधारों के लिए प्रधानमंत्री को वह सब कुछ मिटाना होगा जो खुद उनकी अगुआई में पिछले आठ साल में लिखा गया है।
बजट दर बजट
ढहना किसे कहते हैं इसे जानने के लिए हमें 2005-06  की रोशनी में 2011-12 को देखना चाहिए। संकटों के सभी प्रमुख सूचकांक इस समय शिखर छू रहे हैं। जो यूपीए की पहली शुरुआत के वक्‍त अच्‍छे खासे सेहत मंद थे। राजकोषीय घाटा दशक के सर्वोच्‍च स्‍तर पर (जीडीपी के अनुपात में छह फीसद) है और विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का अंतर यानी चालू खाते का घाटा बीस साल के सबसे ऊंचे स्‍तर (4.5 फीसद) पर। ग्रोथ भी दस साल के गर्त में है। राजकोषीय संयम और संतुलित विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत की दो सबसे बडी ताजी सफलतायें थीं, जिन्‍हें हम पूरी तरह गंवा चुके हैं।  ऐसा क्‍यों हुआ इसका जवाब यूपीए के पिछले आठ बजटों में दर्ज है। उदारीकरण के सबसे तपते हुए वर्षों में समाजवादी कोल्‍ड स्‍टोरेज से निकले पिछले बजट ( पांच चिदंबरम चार प्रणव) भारत की आर्थिक बढ़त को कच्‍चा खा गए। बजटों की बुनियाद यूपीए के न्‍यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। वह भारत का पहला राजनीतिक दस्‍तावेज था जिसने देश के आर्थिक संतुलन को मरोड़ कर

Monday, March 12, 2012

बजट का जनादेश

ग्रोथ भी गई और वोट भी गया! क्‍या खूब भूमिका बनी है बारह के बजट की। आर्थिक नसीहतें तो मौजूद थीं ही अब राजनीतिक सबक का ताजा पर्चा भी वित्‍त मंत्री की मेज पर पहुंच गया है। पांच राज्यों के महाप्रतापी वोटरों ने पारदर्शिता और भ्रष्टाचार से लेकर ग्रोथ तक और स्थिरता से लेकर बदलाव तक हर उस पहलू पर ऐसा बेजोड़ फैसला दिया है जो किसी भी समझदार बजट का कच्चा माल बन सकते हैं। भ्रष्टाचार पर उत्तर प्रदेश का वोटर सत्ता विरोधी हो गया हैं तो ग्रोथ के सबूतों के साथ पंजाब के वोटर बादल को दोबारा आजमाने जा रहे हैं। वित्त मंत्री यदि बजट को इन चुनाव नतीजों को रोशनी में लिखेंगे तो उन्हें तो उन्‍हें केवल आज की नहीं बलिक बीते और आने वाले कल की मुसीबतों के समाधान भी देने होंगे। क्‍यों कि सरकार असफलताओं के सियासी तकाजे शुरु हो गए हैं। कांग्रेस के प्रति वोटरों का यह समग्र इंकार यूपीए सरकार के खाते में जाता है। चुनावी इम्‍तहानो का पूरा कैलेंडर (दो वर्षो में कई राज्‍यों के चुनाव) सामने है इसलिए एक खैराती नहीं बल्कि खरा बजट देश की जरुरत और कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरी बन गया है।
बीते कल का घाटा
अगर वित्‍त मंत्री उत्‍तर प्रदेश के नतीजों को पढ़कर बजट बनायेंगे तो उनका बजट बहुत दम खम के साथ उस घाटे को खत्‍म करने की बात करेगा जिसने उत्‍तर प्रदेश में राहुल गांधी की मेहनत पानी फेर दिया। अगली चुनावी फजीहत से बचने के लिए एक पारदर्शी सरकार का कौल इस बजट की बुनियाद होना चाहिए कयों कि केंद्र सरकार के भ्रष्‍टाचार ने कांग्रेस की राजनीतिक उममीदों का वध कर दिया है। माया राज मे यूपी की ग्रोथ इतनी बुरी नहीं थी। कानून व्‍यवस्‍था भी कमोबेश ठीक ही थी। जातीय गणित भी मजबूत थी लेकिन बहन जी का सर्वजन दरअसल विकट भ्रष्‍टाचार के कारण उखड़ गया। कांग्रेस अपने दंभ में यह भूल

Monday, February 27, 2012

सूझ कोषीय घाटा

धाई! हमने अपने बजट की पुरानी मुसीबतों को फिर खोज लिया है। सब्सिडी का वही स्यापा, सरकारी स्कीमों के असफल होने का खानदानी मर्ज, खर्च बेहाथ होने का बहुदशकीय रोना और बेकाबू घाटे का ऐतिहासिक दुष्चक्र। लगता हैं कि हम घूम घाम कर वहीं आ गए हैं करीब बीस साल पहले जहां से चले थे। उदारीकरण के पूर्वज समाजवादी बजटों का दुखदायी अतीत जीवंत हो उठा है। हमें नास्टेल्जिक (अतीतजीवी) होकर इस पर गर्व करना चाहिए। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं। बजट के पास जब अच्छा राजस्व, राजनीतिक स्थिरता, आम लोगों की बचत, आर्थिक उत्पादन में निजी निवेश आदि सब कुछ था तब हमारे रहनुमा बजट की पुरानी बीमारियों से गाफिल हो गए इसलिए असंतुलित खर्च जस का तस रहा और जड़ो से कटीं व नतीजो में फेल सरकार स्कीमों में कोई नई सूझ नहीं आई । दरअसल हमने तो अपनी ग्रोथ के सबसे अच्छे वर्ष बर्बाद कर दिये और बजट का ढांचा बदलने के लिए कुछ भी नया नहीं किया। हमारे बजट का सूझ-कोषीय घाटा, इसके राजकोषीय घाटे से ज्यादा बड़ा है।
बजट स्कीम फैक्ट्री
बजट में हमेशा से कुछ बड़े और नायाब टैंक रहे हैं। हर नई सरकार इन टैंकों पर अपने राजनीतिक पुरखों के नाम का लेबल लगा कर ताजा पानी भर देती है। यह देखने की फुर्सत किसे है इन टैंकों की तली नदारद है। इन टंकियों को सरकार की स्कीमें कह सकते हैं। बजट में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन व रोजगार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण आवास को मिलाकर कुल पांच बड़ी टंकियों, माफ कीजिये, स्कीमों का कुनबा है। देश में जन कल्याण की हर स्कीम की तीन पीढिय़ा बदल गईं हैं मगर हर स्कीम असफलता व घोटाले में समाप्त हुई। गरीब उन्‍मूलन और ग्रामीण रोजगार स्कीमें तो असफल प्रयोगों का अद्भुत इतिहास

Monday, October 3, 2011

पलटती बाजी

ह यूरोप और अमेरिका के संकटों का पहला भूमंडलीय तकाजा था, जो बीते सपताह भारत, ब्राजील, कोरिया यानी उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के दरवाजे पर पहुंचा। इस जोर के झटके में रुपया, वॉन (कोरिया), रिएल (ब्राजील), रुबल, जॉल्‍टी(पोलिश), रैंड (द.अफ्रीका) जमीन चाट गए। यह 2008 के लीमैन संकट के बाद दुनिया के नए पहलवानों की मुद्राओं का सबसे तेज अवमूल्‍यन था। दिल्‍ली, सिओल, मासको,डरबन को पहली बार यह अहसास हुआ कि अमेरिका व यूरोप की मुश्किलों का असर केवल शेयर बाजार की सांप सीढ़ी तक सीमित नहीं है। वक्‍त उनसे कुछ ज्‍यादा ही बडी कीमत वसूलने वाला है। निवेशक उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में उम्‍मीदों की उड़ान पर सवार होने को तैयार नहीं हैं। शेयर बाजारों में टूट कर बरसी विदेशी पूंजी अब वापस लौटने लगी है। शेयर बाजारों से लेकर व्‍यापारियों तक सबको यह नई हकीकत को स्‍वीकारना जरुरी है कि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के लिए बाजी पलट रही है। सुरक्षा और रिर्टन की गारंटी देने वाले इन बाजारों में जोखिम का सूचकांक शिखर पर है।
कमजोरी की मुद्रा
बाजारों की यह करवट अप्रत्याशित थी, एक साल पहले तक उभरते बाजार अपनी अपनी मुद्राओं की मजबूती से परेशान थे और विदशी पूंजी की आवक पर सख्‍ती की बात कर रहे थे। ले‍किन अमेरिकी फेड रिजर्व की गुगली ने उभरते बाजारों की गिल्लियां बिखेर दीं। फेड  का ऑपरेशन ट्विस्‍ट, तीसरी दुनिया के मुद्रा बाजार में कोहराम की वजह बन गया। अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने देश को मंदी से उबारने के लिए में छोटी अवधि के बांड बेचकर लंबी अवधि के बांड खरीदने का फैसला किया। यह फैसला बाजार में डॉलर छोडकर मुद्रा प्रवाह बढाने की उम्‍मीदों से ठीक उलटा था। जिसका असर डॉलर को मजबूती की रुप में सामने आया। अमेरिकी मुद्रा की नई मांग निकली और भारत, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील के केद्रीय बैंक जब तक बाजार का बदला मिजाज समझ पाते तब तक इनकी मुद्रायें डॉलर के मुकाबले चारो खाने चित्‍त

Monday, September 26, 2011

वो रही मंदी !

डा नाज था हमें अपने विश्‍व बैंकों, आईएमएफों, जी 20, जी 8, आसियान, यूरोपीय समुदाय, संयुक्‍त राष्‍ट्र की ताकत पर !! बड़ा भरोसा था अपने ओबामाओं, कैमरुनों, मर्केलों, सरकोजी, जिंताओ, पुतिन, नाडा, मनमोहनों की समझ पर !!..मगर किसी ने कुछ भी नहीं किया। सबकी आंखों के सामने मंदी दुनिया का दरवाजा सूंघने लगी है। उत्‍पादन में चौतरफा गिरावट, सरकारों की साख का जुलूस, डूबते बैंक और वित्‍तीय तंत्र की पेचीदा समस्‍यायें ! विश्‍वव्‍यापी मंदी के हरकारे जगह जगह दौड़ गए हैं। ... मंदी के डर से ज्‍यादा बड़ा खौफ यह है कि बहुपक्षीय संस्‍थाओं और कद्दावर नेताओं से सजी दुनिया का राजनीतिक व आर्थिक नेतृत्‍व उपायों में दीवालिया है। यह पहला मौका है जब इतने भयानक संकट को से निबटने के लिए रणनीति बनाना तो दूर  दुनिया के नेता साझा साहस भी नहीं दिखा रहे हैं। यह अभूतपूर्व विवशता, दुनिया को दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद सबसे भयानक आर्थिक भविष्‍य की तरफ और तेजी से धकेल रही है।
मंदी पर मंदी
मंदी की आमद भांपने के लिए ज्‍योतिषी होने की जरुरत नहीं है। आईएमएफ बता रहा है कि दुनिया की विकास दर कम से कम आधा फीसदी घटेगी। अमेरिका में बमुश्किल 1.5 फीसदी की ग्रोथ रहेगी जो अमेरिकी पैमानों पर शत प्रतिशत मंदी है। पूरा यूरो क्षेत्र अगर मिलकर 1.6 फीसदी की रफ्तार दिखा सके तो अचरज होगा। जापान में उत्‍पादन की विकास दर शून्‍य हो सकती है। यूरो जोन में कंपनियों के लिए ऑर्डर करीब 2.1 फीसदी घट गए हैं। यूरो मु्द्रा का इस्‍तेमाल करने वाले 17 देशों में सेवा व मैन्‍युफैक्‍चरिंग सूचकांक दो साल के न्‍यूनतम

Monday, May 23, 2011

अब तो ग्रोथ पर बन आई

मुंबई में रिजर्व बैंक की छत से एक कौए ने ब्याज दरें बढ़ने के ऐलान के साथ महंगाई से डराने वाली प्रभाती सुनाई, तो दिल्ली में वित्त मंत्रालय की मुंडेर पर बैठे दूसरे कौए ने पेट्रो कीमतों में बढ़ोत्तडरी की हांक लगाते हुए कहा कि यह कैसी रही भाई? ... यह सुनकर स्टॉक एक्सचेंज की छत पर बैठा एक दिलजला कौआ चीखा, चुप करो अब तो ग्रोथ पर बन आई। यकीनन, अब भारत के तेज आर्थिक विकास पर बन आई है। महंगाई ने सात साल में कमाई गई सबसे कीमती पूंजी पर दांत गड़ा दिये हैं। तमाम संकटों के बावजूद टिकी रही हमारी चहेती ग्रोथ अब खतरे में है। रिजर्व बैंक कह चुका है कि महंगाई अब विकास को खायेगी। सरकार भी ग्रोथ बचाने के बजाय महंगाई बढ़ाने (पेट्रो मूल्य वृद्धि) में मुब्तिला है। ग्रोथ, बढ़ती कमाई और रोजगार के  सहारे ही पिछले तीन साल से महंगाई को झेल रहे थे लेकिन मगर हम महंगाई को अपनी तरक्की खाते देखेंगे। दहाई की (दस फीसदी) की विकास दर का ख्वाब चूर होने के करीब है।
हारने की रणनीति
हम दुनिया की सबसे ज्यादा महंगाई वाली अर्थव्यवस्थाओं में एक है और यह हाल के इतिहास का सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई है। महंगाई के इन वर्षों में चुनाव न आते तो शायद सरकारें महंगाई से निचुडते आम लोगों को ठेंगे पर ही रखतीं। क्यों कि महंगाई से मुकाबला सियासत की गणित के तहत हुआ है। तभी तो बंगाल में वोट पड़ते पेट्रोल पांच रुपये बढ़ गया। बढ़ोत्तंरी अगर क्रमश: होती तो शायद दर्द कुछ कम रहता। पिछले तीन साल की महंगाई ने केंद्र के आर्थिक प्रबंधकों की दरिद्र दूरदर्शिता को उघाड़ दिया है। ताजा महंगाई ने हमें 2008-09 में पकड़ा था। याद कीजिये कि तब से प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, योजना आयोग के मुखिया, रिजर्व बैंक गवर्नर आदि ने कितनी बार यह नहीं कहा कि तीन माह में महंगाई काबू में होगी मगर तीन माह खत्म होने से पहले ही इन्हों ने अपनी बात वापस चबा कर निगल

Monday, March 7, 2011

बजट तो कच्चा है जी !

अथार्थ
गरबत्ती का बांस, क्रूड पाम स्टीरियन, लैक्टोज, टैनिंग एंजाइन, सैनेटरी नैपकिन, रॉ सिल्क पर टैक्स ......! वित्त मंत्री मानो पिछली सदी के आठवें दशक का बजट पेश कर रहे थे। ऐसे ही तो होते हैं आपके जमाने में बाप के जमाने के बजट। हकीकत से दूर, अस्त व्यस्त और उबाऊ। राजनीति, आर्थिक संतुलन और सुधार तीनों ही मोर्चों पर बिखरा 2011-12 का बजट सरकार की बदहवासी का आंकड़ाशुदा निबंध है। महंगाई की आग में 11300 करोड़ रुपये के नए अप्रत्यक्ष करों का पेट्रोल झोंकने वाले इस बजट और क्‍या उम्मीद की जा सकती है। इससे तो कांग्रेस की राजनीति नहीं सधेगी क्यों कि इसने सजीली आम आदमी स्कीमों पर खर्च का गला बुरी तरह घोंट कर सोनिया सरकार (एनएसी) के राजनीतिक आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा कर दिया है। सब्सिडी व खर्च की हकीकत से दूर घाटे में कमी के हवाई किले बनाने वाले इस बजट का आर्थिक हिसाब किताब भी बहुत कच्चा है। और रही बात सुधारों की तो उनकी चर्चा से भी परहेज है। प्रणव दा ने अपना पूरा तजुर्बा उद्योगों के बजट पूर्व ज्ञापनों पर लगाया और कारपोरेट कर में रियायत देकर शेयर बाजार से 600 अंकों में उछाल की सलामी ले ली। ... लगता है कि जैसे बजट का यही शॉर्ट कट मकसद था।
महंगाई : बढऩा तय
इस बजट ने महंगाई और सरकार में दोस्ती और गाढ़ी कर दी है। अगले वर्ष के लिए 11300 करोड़ रुपये और पिछले बजट में 45000 करोड़ रुपये नए अप्रत्यक्ष करों के बाद महंगाई अगर फाड़ खाये तो क्या अचरज है। चतुर वित्त मंत्री ने महंगाई के नाखूनों को पैना करने का इंतजाम छिपकर किया है। जिन 130 नए उत्पादों को एक्साइज ड्यूटी के दायरे में लाया गया है उससे पेंसिल से लेकर मोमबत्ती तक दैनिक खपत वाली

Monday, February 28, 2011

भरोसे का बजट खाता

अर्थार्थ
ज बजट है।. मत कहियेगा कि सालाना रवायत है। यह बजट के बिल्कुल अनोखे माहौल और नए संदर्भों की रोशनी में आ रहा है। याद कीजिये कि हमेशा आंकड़े बुदबुदाने वाली सरकारी आर्थिक समीक्षा पहले ऐसा कब बोली थी “ध्यान रखना होगा कि हमारी नीतियां चोरी करने वालों के लिए सुविधाजनक न बन जाएं। या ईमानदारी और विश्वसनीयता नैतिक मूल्य ही नहीं आर्थिक विकास के लिए भी जरुरी हैं ” (आर्थिक समीक्षा 2010-11, पेज 39 व 41) ....मतलब यह कि बजट को लेकर देश की नब्ज इस समय कुछ दूसरे ढंग धड़क रही है। इस बजट का इंतजार सुहानी अपेक्षाओं (रियायतों की) के बीच नहीं बल्कि एक खास बेचैनी के साथ हो रहा है। यह बैचनी आर्थिक उलझनों की नहीं बल्कि नैतिक चुनौतियों की है। देश यह जानने को कतई बेसब्र नहीं है कि ग्रोथ या राजकोषीय घाटे का क्या होगा बल्कि यह जानने को व्याकुल है कि व्यवस्था में विश्वास के उस घाटे का क्या होगा जो पिछले कुछ महीनों में सरकार की साख (गवर्नेंस डेफशिट) गिरने के कारण बढ़ा है। इस बार बजट का संदेश उसके संख्या (आंकड़ा) पक्ष से नहीं बल्कि उसके विचार पक्ष से निकलेगा।
बिखरा भरोसा
महंगाई से बुरी है यह धारणा कि सरकार महंगाई नहीं रोक सकती। आर्थिक समीक्षा इशारा करती है कि महंगाई के सामने सरकार का समर्पण लोगों को ज्याोदा परेशान कर रहा है। ग्रोथ के घोड़े पर सवार एक हिस्सा आबादी के लिए महंगाई बेसबब हो सकती है, मगर नीचे के सबसे गरीब लोग महंगाई से लड़ाई हार रहे हैं। इसलिए देश को ऐक ऐसी सरकार दिखनी चाहिए जो महंगाई के साथ जी जान से जूझ रही हो। बढ़ती कीमतों के कारण गरीब विकास के फायदे गंवा रहे हैं और समावेशी विकास या इन्क्लूसिव ग्रोथ का पूरा दर्शन एक खास किस्म के अविश्वास

Monday, February 14, 2011

सबसे बड़ा घाटा

अथार्थ
स बजट में अगर वित्तस मंत्री दस फीसदी विकास दर का दम भरें तो पलट कर खुद से यह सवाल जरुर पूछियेगा कि आखिर पांच फीसदी (सुधारों से पहले यानी 1989-90) से साढ़े आठ फीसदी तक आने में हम इतने हांफ क्यों गए हैं। ग्रोथ की छोटी सी चढ़ाई चढ़ने में ही गला क्यों सूख गया है, दो दशकों में सिर्फ तीन-चार फीसदी की छलांग इतनी भारी पड़ी कि कदम ही लड़खड़ा गए हैं। अचानक सब कुछ अनियंत्रित व अराजक सा होने लगा है। जमीन से लेकर अंतरिक्ष (एसबैंड) तक घोटालों की पांत खड़ी है। मांग महंगाई में बदलकर मुसीबत बन गई है। नियम, कानूनों और          व्यवस्था की वाट लग गई है। शेयर बाजार अब तेज विकास का आंकड़ा देखकर नाचता नहीं बल्कि कालेधन की चर्चा और महंगाई से डर कर डूब जाता है। यह बदहवासी बदकिस्मंती नहीं बावजह और बाकायदा है। दरअसल विकास की रफ्तार सुधारों पर ही भारी पड़ी है अर्थव्यंवस्था छलांग मारकर आगे निकल गई और सुधार बीच राह में छूट ही नहीं बल्कि बैठ भी गए। आर्थिक सुधारों का खाता जबर्दस्त घाटे ( रिफॉर्म डेफिशिट) में है इसलिए बजट को अब विकास की रफ्तार से पहले इस सबसे बड़े घाटे यानी सुधारों की बैलेंस शीट बात करनी चाहिए। क्यों कि सुधारों का बजट बिगड़ने से उम्मींद टूटती है।
सुधारों का अंधकार
बीस साल की तेज वृद्धि दर अब उन रास्तों पर फंस रही है जहां हमेशा से सुधारों का घना अंधेरा है। भारत अब आपूर्ति के पहलू पर गंभीर समस्याओं में घिरा है यह समस्या रोटी दाल से लेकर उद्योगों के कच्चे माल तक की है। खेती में सुधारों की अनुपस्थिति का अंधेरा सबसे घना है। कृषि उत्पादो की आपूर्ति की कमी ने महंगाई को जिद्दी और अनियंत्रित बना दिया है। अगर बजट सुधारों पर आधारित होगा तो यह पूरी ताकत के साथ खेती में सुधार शुरु करेगा। खेती में अब सिर्फ आवंटन बढ़ाने या

Monday, February 7, 2011

बड़े मौके का बजट

अर्थार्थ
चहत्तर साल के प्रणव मुखर्जी इकसठ साल के गणतंत्र को जब नया बजट देंगे तब भारत की नई अर्थव्यवस्था पूरमपूर बीस की हो जाएगी। ... है न गजब की कॉकटेल। हो सकता है कि महंगाई को बिसूरते, थॉमसों, राजाओं और कलमाडि़यों को कोसते या सरकार की हालत पर हंसते हुए आप भूल जाएं कि अट्ठाइस फरवरी को भारत का एक बहुत खास बजट आने वाला है। बजट यकीनन रवायती होते हैं लेकिन यह बजट बड़े मौके का है। यह बजट भारत के नए आर्थिक इंकलाब (उदारीकरण) का तीसरा दशक शुरु करेगा। यह बजट नए दशक की पहली पंचवर्षीय योजना की भूमिका बनायेगा जो उदारीकरण के बाद सबसे अनोखी चुनौतियों से मुकाबिल होगी क्यों कि खेत से लेकर कारखानों और सरकार से लेकर व्या पार तक अब उलझनें सिर्फ ग्रोथ लाने की नहीं बल्कि ग्रोथ को संभालने, बांटने और बेदाग रखने की भी हैं। हम एक जटिल व बहुआयामी अर्थव्यवस्था हो चुके हैं, जिसमें मोटे पैमानों (ग्रोथ, राजकोषीय संतुलन) पर तो ठीकठाक दिखती तस्वी्र के पीछे कई तरह जोखिम व उलझने भरी पडी हैं। इसलिए एक रवायती सबके लिए सबकुछ वाला फ्री साइज बजट उतना अहम नहीं है जितना कि उस बजट के भीतर छिपे कई छोटे छोटे बजट। देश इस दशकारंभ बजट को नहीं बलिक इसके भीतर छिपे बजटों को देखना चाहेगा, जहां घाटा बिल्कुल अलग किस्म का है।
ग्रोथ : रखरखाव का बजट
वित्त मंत्री को अब ग्रोथ की नहीं बलिक ग्रोथ के रखरखाव और गुणवत्ता की चिंता करनी है। बीस साल की आर्थिक वृद्धि ऊंची आय, असमानता, असंतुलन, निवेश, तेज उतपादन, भ्रष्टाचार, उपेक्षा, अवसर यानी सभी गुणों व दुर्गुणों के साथ मौजूद है। मांग के साथ महंगाई मौजूद है और आपूर्ति के साथ बुनियादी ढांचे की किल्लत लागत चौतरफा बढ़ रही है और ग्रोथ की दौड़ मे पिछड़ गए कुछ अहम क्षेत्र आर्थिक वृद्धि की टांग खींचने लगे हैं। कायदे से वित्त मंत्री को महंगाई से निबटने का बजट ठीक करते नजर आना चाहिए। महंगाई भारत की ग्रोथ कथा में खलनायक बनने वाली है। इस आफत को  टालने के लिए खेती को जगाना जरुरी है। यानी कि इस बजट को पूरी तरह

Monday, January 3, 2011

ग्रोथ की सोन चिडि़या

अर्थार्थ 2011
दुनिया अपने कंधे सिकोड़ कर और भौहें नचाकर अगर हमसे यह पूछे कि हमारे पास डॉलर है ! यूरो है ! विकसित होने का दर्जा है! बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं ! ताकत हैं! हथियार हैं! दबदबा है !!.... तुम्हा़रे पास क्या् है ??? ... तो भारत क्या कहेगा ? यही न कि कि (बतर्ज फिल्म दीवार) हमारे पास ग्रोथ है !!! भारत के इस जवाब पर दुनिया बगले झांकेगी क्यों कि हमारा यह संजीदा फख्र और सकुचता हुआ आत्मविश्वास बहुत ठोस है। ग्रोथ यानी आर्थिक विकास नाम की बेशकीमती और नायाब सोन चिडि़या अब भारत के आंगन में फुदक रही है। यह बेहद दुर्लभ पक्षी भारत की जवान (युवा कार्यशील आबादी) आबो-हवा और भरपूर बचत के स्वा्दिष्ट चुग्गे पर लट्टू है। विकास, युवा आबादी और बचत की यह रोशनी अगर ताजा दुनिया पर डाली जाए एक अनोखी उम्मीद चमक जाती है। अमेरिका यूरोप और जापान इसके लिए ही तो सब कुछ लुटाने को तैयार हैं क्यों कि तेज विकास उनका संग छोड़ चुका है, बचत की आदत छूट गई है और आबादी बुढ़ा ( खासतौर पर यूरोप) रही है। दूसरी तरफ भारत ग्रोथ, यूथ और सेविंग के अद्भुत रसायन को लेकर उदारीकरण के तीसरे दशक में प्रवेश