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Sunday, October 11, 2015

बदलते संवादों का जोखिम


मोदी समझना होगा कि अगर विमर्श बदलें तो लोगों की राय और सियासत बदलने में वक्त नहीं लगता.
यूपीए सरकार की बड़ी विफलता शायद यह नहीं थी कि उसने फैसले नहीं किए. फैसले तो हुए ही थे तभी तो मोदी सरकार यूपीए मॉडल से आगे नहीं बढ़ पा रही है. मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी नाकामी यह थी कि वे नकारात्मक संवादों की सुनामी को थाम नहीं सके, जिसने अंततः सरकार को चकनाचूर कर दिया. नरेंद्र मोदी सरकार भी इसी घाट पर फिसल रही है. मोदी को सबसे ज्यादा चिंता इस बात की करनी चाहिए कि उनकी सरकार अपनी भोर में ही उन विभाजक और सांप्रदायिक संवादों पर चर्चा से घिर गई है, जिनसे वाजपेयी सरकार अपनी प्रौढ़ावस्था में रू-ब-रू हुई थी और अंततः लोकप्रियता गंवा बैठी.
भारत में नई सरकार से जुड़ी विमर्श बदलने की आहट न्यूयॉर्क, सैनफ्रांसिस्को और बोस्टन के फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट तक सुनी जा सकती है, जहां भारत में सुधार की संभावनाओं पर करोड़ों डॉलर लगा चुके निवेशक बैठते हैं. कठोर सुधारों की अनुपस्थिति से खीझे इन निवेशकों को उन्माद भरे आयोजन और ज्यादा डरा रहे हैं. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में भाषण के लिए न्यूयॉर्क पहुंचे (6 अक्तूबर, 2015) वित्त मंत्री अरुण जेटली दादरी की घटना पर यूं ही परेशान नहीं दिखे, उन्हें निवेशकों की इस झुंझलाहट का बाकायदा एहसास हुआ है.
सरकार को लेकर दो-दो नकारात्मक संवाद एक साथ जड़ पकडऩे लगे हैं. उग्र हिंदुत्व का वेताल बीजेपी की पीठ पर हमेशा से सवार रहा है जो सुशासन के निर्गुण, निराकार आह्वानों को पीछे धकेल कर आगे आने लगा है, जबकि दूसरी तरफ सरकार में कुछ ठोस न हो पाने या जमीन पर बदलाव नजर न आने के आकलन मुखर हो रहे हैं जो सुधार शून्यता के एहसास को गाढ़ा करते हैं.
सरकार के संवादों को सकारात्मक बनाए रखने में विफलता का क्षोभ मोदी के भाषणों में झलकता है. अमेरिका जाने से पहले अपनी जनसभाओं में मोदी विकास के थमने के लिए कांग्रेस को कोस रहे थे जबकि अमेरिका में उनके भाषण, 16 माह की गवर्नेंस की बजाए भावनात्मक व राष्ट्रवादी मुद्दों पर केंद्रित रहे जो उत्साह बनाए रखने की कोशिशों का हिस्सा थे. मोदी के इन प्रयासों के बावजूद सरकार का विराट प्रचार तंत्र उम्मीद भरी बहसों को थाम पाने में चूक रहा है. प्रतिबंधों की दीवानी राज्य सरकारें, विकास और सुधार की चर्चा को ध्वस्त कर रही हैं जबकि काम में सुस्ती को लेकर नौकरशाही पर ठीकरा फोड़ते केंद्रीय मंत्री (नितिन गडकरी) सरकार की विवशता की नजीर बन रहे हैं.
संवादों का मिजाज बदलने की दो वजहें साफ दिखती हैं. पहली यह कि मोदी का चुनाव अभियान शानदार तैयारियों की मिसाल भले ही रहा लेकिन बीजेपी गवर्नेंस के लिए तैयार नहीं थी. भूमि अधिग्रहण, जीएसटी, वन रैंक, वन पेंशन और विदेश में काले धन जैसे मुद्दों पर फजीहत साबित करती है कि चुनावों से पहले कोई तैयारी नहीं की गई और सत्ता में आने के बाद भी जटिल फैसलों पर संवाद या क्रमशः प्रगति साबित करने का कोई तंत्र विकसित नहीं हुआ. 
दूसरी वजह शायद यह है कि मोदी अपनी गवर्नेंस को बताने के लिए प्रभावी प्रतीक चुनने में चूक गए हैं. पिछले 16 माह में सरकार ने कम से कम दो दर्जन नई पहल (मिशन, स्कीम, आदि) की हैं लेकिन इनमें से कोई भी प्रयोग महसूस करने लायक बदलाव नहीं दे सका. सरकार की सभी पहल प्रतीकात्मक और राज्यस्तरीय हैं जिनके पीछे ठोस कार्यान्वयन का ढांचा नहीं है और राज्यों से समन्वय नदारद है.
वाजपेयी का कार्यकाल कई मामलों में मोदी के लिए नसीहत और नजीर बन सकता है. वाजपेयी भी तीन अल्पजीवी सरकारों के बाद उम्मीदों के उफान पर बैठ कर सत्ता में आए थे और उग्र हिंदुत्व का खतरा उनकी सरकार को भी था. वाजपेयी ने विमर्श को विकास पर केंद्रित रखने और उग्र हिंदुत्व से दूरी बनाने के लिए गवर्नेंस के लक्ष्यों का रोड मैप पहले ही तय कर दिया था जिनके सहारे, 2001 में शिला पूजन और राम मंदिर आंदोलन का बिगुल बजने तक सरकार कई सुधारात्मक कदम उठा चुकी थी. मोदी की मुसीबत यह है कि वे न तो सुधारों और गवर्नेंस की ठोस मंजिलें तय कर पाए हैं जिनके आसपास दूरगामी उम्मीद की चर्चाएं हो सकें और न ही उन्होंने वाजपेयी की तरह बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं और निर्माणों को चुना जो गवर्नेंस के जोरदार आगाज का परचम उठा सकें. मोदी ने अपेक्षाओं को पंख लगा दिए हैं, एक-तरफा संवादों की नीति चुनी है और स्कीमों के कछुओं पर सवारी की है, इसलिए कुछ न बदलने का शोर तेज होने लगा है.
24 दिसंबर, 2014 को इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि मोदी को उग्र हिंदुत्व की लपट से बचने के लिए अपनी गवर्नेंस के व्यावहारिक लक्ष्य तय करने होंगे, नहीं तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे. मोदी का ताजा असमंजस 2001 के वाजपेयी जैसा है, तमाम सुधारों के बावजूद वाजपेयी उग्र हिंदुत्व के आग्रहों की चपेट से बच नहीं सके. 2001 में अयोध्या को लेकर सरकार व विहिप के बीच मोर्चा खुला था. 2002 की शुरुआत होने तक, शिला पूजन को लेकर टकराव, तनाव बढ़ा, गोधरा में ट्रेन जली, गुजरात के दंगे हुए और माहौल विषाक्त हो गया. वाजपेयी ने 2002 और '03 में आर्थिक सुधारों की भरसक कोशिश की. 2003 के अंत में तीन विधानसभाएं भी जीतीं लेकिन देश को सबसे अच्छी गवर्नेंस व सबसे तेज ग्रोथ देने वाली सरकार 2004 में वापस नहीं लौटी. 2002 के सांप्रदायिक तनाव से उभरा विमर्श वाजपेयी सरकार की बेजोड़ परफॉर्मेंस को निगल गया था.

यकीनन, लोकतंत्र में फैसलों में अपनी एक गति है, लेकिन सरकार से जुड़े संवादों में सकारात्मकता अनिवार्य है. ताजा नकारात्मक संवाद, मोहभंग की तरफ बढ़ें इससे पहले मोदी को उग्र हिंदुत्व को खारिज करना होगा और अपेक्षाओं को तर्कसंगत करते हुए उम्मीदों को जगाने वाली ठोस चर्चा की तरफ लौटना होगा. भारत में इस समय शायद ही कोई दूसरा नेता ऐसा होगा जो मोदी से बेहतर इस बात को समझ सकता हो कि अगर विमर्श बदलें तो लोगों की राय और सियासत बदलने में वक्त नहीं लगता.

Saturday, September 19, 2015

कमजोरी में बदलती ताकत


बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की सरकारों ने विकास को तो छोड़िएविकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.


बीजेपी शासित राज्यों का मुख्यमंत्री होने के अलावा आनंदीबेन पटेल, देवेंद्र फड़ऩवीस, मनोहर लाल खट्टर, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के बीच एक और बड़ी समानता है. ये सभी मिलकर गुड गवर्नेंस और प्रगतिगामी राजनीति की उस चर्चा को पटरी से उतारने में अब सक्रिय भूमिका निभाने लगे हैं जो मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद शुरू हुई थी. दरअसल, राज्यों को नई गवर्नेंस का सूत्रधार होना चाहिए था, वे अचानक मोदी मॉडल की सबसे कमजोर कड़ी बन रहे हैं.
कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए बुरी तरह तरसती रही, वह बीजेपी को यूं ही मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ, जब 11 राज्यों  में उस गठबंधन की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है. बात केवल राजनैतिक समन्वय की ही नहीं है, विकास की संभावनाओं के पैमाने पर भी मोदी के पास शायद सबसे अच्छी टीम है.
राज्यों में विकास के पिछले आंकड़ों और मौजूदा सुविधाओं को आधार बनाते हुए मैकेंजी ने अपने एक अध्ययन में राज्यों की विकास की क्षमताओं को आंका है. देश के 12 राज्य  (दिल्ली, चंडीगढ़, गोआ, पुदुचेरी, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, केरल, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उतराखंड) देश का 50 फीसदी जीडीपी संभालते हैं, जिनमें देश के 58 फीसदी उपभोक्ता बसते हैं. इन 12 राज्यों में पांच में बीजेपी और सहयोगी दलों की सरकार देश का लगभग 25 फीसद जीडीपी संभाल रही हैं. तेज संभावनाओं के अगले पायदान पर आने वाले सात राज्यों (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, बंगाल, ओडिसा) को शामिल कर लिया जाए तो 19 में नौ बड़े राज्य और देश का लगभग 40 फीसद जीडीपी बीजेपी व उसके सहयोगी दलों की सरकार के हवाले है. मैकेंजी ने आगे जाकर 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले 65 शहरी जिलों को भी पहचाना है. इनमें भी एक बड़ी संख्या बीजेपी के नियंत्रण वाली स्थानीय सरकारों की है.
आदर्श स्थिति में यह विकास की सबसे अच्छी बिसात होनी चाहिए थी. कम से कम इन राज्यों, उद्योग क्लस्टर और शहरी जिलों के सहारे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी अभियान जमीन पर उतरने चाहिए थे, लेकिन पिछले 15 महीनों में इन राज्यों गुड गवर्नेंस के एजेंडे को भटकाने में कोई कमी नहीं छोड़ी. मध्य प्रदेश में हर कुर्सी के नीचे घोटाला निकलता है. महाराष्ट्र सरकार ने घोटालों से शुरुआत की और प्रतिबंधों को गवर्नेंस बना लिया. हरियाणा में विकास की चर्चाएं पाबंदियों और स्कूलों में गीता पढ़ाने जैसी उपलब्धियों में बदल गई हैं. दिलचस्प है कि राज्यों ने भले ही केंद्र की नई शुरुआतों को तवज्जो न दी हो लेकिन बड़े प्रचार अभियानों में केंद्र के मॉडल को अपनाने में देरी नहीं की.
उद्योगपतियों के साथ प्रधानमंत्री की ताजा बैठक में यह बात उभरी कि कारोबार को सहज करने के अभियान राज्यों की दहलीज पर दम तोड़ रहे हैं. औद्योगिक व कारोबारी मंजूरियों को आसान व एकमुश्त बनाने का अभियान पिछड़ गया है. वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि कारोबार को सहज बनाना एक हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है जबकि मेक इन इंडिया की शुरुआत करते समय सरकार ने सभी मंजूरियों को एकमुश्त करने के लिए एक साल का समय रखा था. केंद्र सरकार के अधिकारी अब इसके लिए कम से कम तीन साल का समय मांग रहे हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि औरों को तो छोड़िए, बीजेपी शासित राज्यों ने भी इस अभियान को भाव नहीं दिया.
मेक इन इंडिया ही नहीं, मंडी कानून बदलने को लेकर बीजेपी के अपने ही राज्यों ने केंद्र की नहीं सुनी. डिजिटल इंडिया पर राज्य ठंडे हैं. आदर्श ग्राम और स्वच्छता मिशन जैसे अभियानों में कैमरा परस्ती छवियों के अलावा राज्यों की सक्रियता नहीं है. प्रशासनिक सुधार, राज्य के उपक्रमों का विनिवेश और पारदर्शिता बढ़ाने वाले फैसलों की बजाए राज्यों ने सरकारी नियंत्रण बढ़ाने और लोकलुभावन स्कीमों के मॉडल चुने हैं जो निवेशकों और युवा आबादी की उम्मीदों से कम मेल खाते हैं.  
मोदी सरकार ने इस साल के बजट के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, नगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की जिम्मेदारी पूरी तरह राज्यों को सौंप दी और केंद्र को केवल संसाधन आवंटन तक सीमित कर लिया. इसका नतीजा है कि 15 महीने में शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में सबसे बड़ा शून्य दिख रहा है. सामाजिक सेवाओं में केंद्र परोक्ष भूमिका निभाना चाहता है जबकि राज्यों के पास संसाधनों की नहीं बल्कि नीतिगत क्षमताओं की कमी है. इसलिए शिक्षा, सेहत, ग्रामीण विकास में क्षमताओं का विकास और विस्तार पिछड़ गया है. बीजेपी के नेता भी मान रहे हैं कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को पूरी तरह राज्यों पर छोडऩे के राजनैतिक नुक्सान होने वाले हैं.
मोदी के सत्ता में आने से पहले और बाद में बनी राज्य सरकारें अपेक्षाओं की कसौटी पर कमजोर पड़ रही हैं, जबकि कुछ बड़े राज्य या तो केंद्र से रिश्तों में हाशिए पर हैं या फिर चुनाव की तैयारी शुरू कर रहे हैं. पूरे देश में करीब दस प्रमुख राज्य ऐसे हैं जिनकी सरकारों के पास समय, संसाधन और संभावनाएं मौजूद हैं और इनमें अधिकांश बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की हैं. इंडिया ब्रांड और अभियानों को नतीजों से सजाने का दारोमदार इन्हीं पर है लेकिन किस्म-किस्म के प्रतिबंधों और अहम फैसलों की दीवानी इन सरकारों ने विकास को तो छोड़िए, विकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.
चुनावी राजनीति का कोई अंत नहीं है. 2016 का चुनाव कार्यक्रम इस साल से ज्यादा बड़ा है. प्रधानमंत्री को चुनावी राजनीति से अलग अपनी गवर्नेंस के मॉडल को नए  सिरे से फिट करना होगा और राज्यों को बड़ी व ठोस योजनाओं से बांधना होगा नहीं तो बिहार चुनाव का नतीजा चाहे जो हो, लेकिन अगर राज्य सरकारें चूकीं तो निवेश, विकास और रोजगार की रणनीतियां बुरी तरह उलटी पड़ जाएंगी.

Monday, December 16, 2013

जनादेश के चैम्पियन


courtesy - Mint 
बहस अब यह नहीं है कि देश के लिए विकास का मॉडल क्‍या है अब तो यह तय होगा कि किस राज्‍य के    विकास का मॉडल पूरे देश के लिए मुफीद है।

राज्‍यों के कामयाब क्षत्रपों को भारत में सत्‍ता का शिखर शायद इसलिए नसीब नहीं हुआ क्‍यों कि पारंपरिक राजनीति एक अमूर्त राष्‍ट्रीय महानायकवाद पर केंद्रित थी जो प्रशासनिक सफलता के रिकार्ड या तजुर्बे को कोई तरजीह नहीं देता था। कद्दावर राजनीतिक नेतृत्‍व की प्रशासनिक कामयाबी को गर्वनेंस व विकास की जमीन पर नापने का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए किसी सफलतम मुख्‍यमंत्री के भी प्रधानमंत्री बनने की कोई गारंटी भी नहीं थी। सभी दलों के मुख्‍यमंत्रियों को पिछले दो दशकों के आर्थिक सुधार व मध्‍य वर्ग के उभार का आभारी होना चाहिए जिसने  पहली बार गवर्नेंस व विकास को वोटरों के इंकार व स्‍वीकार का आधार बना दिया और प्रशासनिक प्रदर्शन के सहारे मुख्‍यमंत्रियों को राष्‍ट्रीय नेतृत्‍व की तरफ बढ़ने का मौका दिया। इस नए बदलाव की रोशनी में दिल्‍ली, मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान व छत्‍तीसगढ़ का जनादेश न केवल विकास और गवर्नेंस की राजनीति के नए अर्थ खोलता है और बल्कि संघीय राजनीति के एक नए दौर का संकेत भी देता है।
चारों राज्‍यों का जनादेश, विकास से वोट की थ्‍योरी में दिलचस्‍प मोड़ है। विकास की सियासत का नया मुहावरा चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्‍व में नब्‍बे के दशक के अंत में आंध्र से उठा था। नायडू तो 2004 में कुर्सी से उतर गए लेकिन 1999 से 2003 के बीच राज्‍यों के क्षत्रप पहली बार विकास की राजनीति पर गंभीर

Monday, January 30, 2012

सियासत चुनेंगे या सरकार

प्रकाश सिंह बादल कह सकते हैं पुल सड़कें गिनिये, पारदर्शिता के सवालों में क्‍या रखा है! मायावती कहेंगी कि स्थिरता दी न, दागी मंत्रियों को क्‍यों बिसूरते हैं। राहुल बोलेंगे घोटालों की फिक्र छोडि़ये, मनरेगा और सस्‍ता मोबाइल मिल तो रहा है न। खंडूरी बतायेंगे कि ग्रोथ देखिये, भ्रष्‍टाचार को क्‍या रोना। सियासत समझा रही है कि भ्रष्‍टाचार के पेड़ों पर सर मत फोडि़ये, तरक्‍की के आम खाइये। वोटरों का असमंजस लाजिमी है। तरक्‍की की रोशनी में स्‍याह और सफेद का फर्क धुंधला गया है क्‍यों कि ग्रोथ की अखिल भारतीय छलांगों का असर हर जगह है। ऊपर से जब चुनाव घोषणापत्रों की अच्‍छे अच्‍छे वादे एक ही टकसाल से निकले हों तो नीतियों की क्‍वालिटी में फर्क और भी मुश्किल हो जाता है। तो वोट किस आधार पर गिरे ? चतुर सुजान वोटर ऐसे माहौल में नेताओं की गुणवत्‍ता पर फैसला करते हैं यानी कि यानी सियासत नहीं बल्कि गवर्नेंस का चुनाव। पंजाब, उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तराखंड तो वैसे भी ग्रोथ के नहीं बल्कि गवर्नेंस के मारे हैं। यहां की तरक्‍की खराब गवर्नेंस के कारण दागी और सीमित रह गई है। इसलिए इम्‍तहान तो वोटरों की प्रगतिशीलता का है, क्‍यों कि सियासत की जात तो बदलने से रही। पंजाब और उत्‍तराखंड के वोटर आज अपने लोकतांत्रिक प्रताप का इस्‍तेमाल करते हुए क्‍या यह ध्‍यान रखेंगे कि उनके सामने नीतियों की नहीं बल्कि लायक नेताओं की कमी है।
तरक्‍की का कमीशन
चालाक सियासत ने वोटरों की अपेक्षाओं के मुताबिक अपने भ्रष्‍टाचार को समायोजित कर लिया है। पिछले दो दशकों के खुलेपन जनता को तरक्‍की के लिए लिए बेचैन कर दिया नतीजतन नब्‍बे के दशक में कई सरकारें उड़ीं तो लौटी ही नहीं या फिर दस-दस साल बाद वापसी हुई। अपेक्षाओं इस तूफान ने नेताओं को सड़क, पुल, बिजली, शहर जैसे विकास के पैमानों पर गंभीर होने के लिए मजबूर किया। वक्‍त ने साथ दिया क्‍यों कि यही दौर भारत में तेज ग्रोथ का था। ग्रोथ अपने साथ ससती पूंजी (ईजी मनी), बढ़ती आय व उपभोक्‍ता खर्च और निजी निवेश व कारोबार में वृद्धि लेकर आई। पिछले पांच साल में हर राज्‍य का राजस्‍व में अभूतपूर्व बढ़ोत्‍तरी हुई है, इसलिए सरकारों के खर्च भी बढ़े। जिसने विकास की उम्‍मीदों पर काम करने के लिए संसाधनों की किल्‍लत नहीं रही। बेहतरी का यह मौसम सियासत के लिए भ्रष्‍टाचार का बसंत , निजी कंपनियां निवेश करती हैं मगर सबकी एक कीमत है जो सियासत वसूलती है। ग्रोथ के एक रुपये से कालिख का दो रुपया निकलता है, इसलिए पिछले एक दशक में ग्रोथ जितनी बढ़ी है गवर्नेंस उतनी गिरी है। सस्‍ते मोबाइल से लेकर चमकते शहरों तक विकास का हर प्रतिमान राजनीतिक भ्रष्‍टाचार का बेधड़क व पुख्‍ता बिजनेस मॉडल है इसलिए टिकट लेने लेकर चुनाव लड़ने तक सियासत में निवेश और कमाई का अचूक हिसाब लगाया जाता है। शुक्र है कि विकास की चमक के बावजूद हम सियासत के इस प्रॉफिट-लॉस अकाउंट को समझने लगे हैं।

Monday, January 16, 2012

नेता जी से पूछिये ?

मुझे मालूम है कि मेरी उम्र के लोग राजनीति में दिलचस्‍पी नहीं लेते, मगर मैं जानना चाहता हूं कि सत्‍ता में आने के बाद आप मेरी जिंदगी में क्‍या फर्क पैदा करेंगे क्‍यों कि अपनी जिंदगी तो आप जी चुके हैं।.... बाइस साल के युवक ने जब यह सवाल दागा तो अमेरिकी संसद के निचले सदन के पूर्व स्‍पीकर व रिपब्लिकन प्रतयाशी 68 वर्षीय न्‍यूटन गिंगरिख को काठ मार गया। वाकया बीते सप्‍ताह न्‍यू हैम्‍पशायर की एक चुनाव सभा का है। जरा सोचिये कि यदि राहुलों, मुलायमों, मायावतियों, बादलों, उमा भारतीयों आदि की रैली में भी कोई ऐसा ही सवाल पूछ दे तो ??... तो, नेता जी के जिंदाबादी उसे विपक्ष का कारिंदा मान कर हाथ सेंकते हुए रैली से बाहर धकिया देंगे। न्‍यू हैम्‍पशायर जैसे सवाल तो नवाशहर, नैनीताल, हाथरस और हमीरपुर में भी तैर रहे हैं जो उदारीकरण के बीस सालों में ज्‍यादा पेचीदा हो गए हैं। इनकी रोशनी में उत्‍तर प्रदेश व पंजाब की चुनावी चिल्‍ल पों दकियानूसी नजर आती है। आजादी के बाद मतदाताओं की चौथी पीढ़ी, इन चुनावों में, सियासत की पहली या बमुश्किल दूसरी पीढ़ी को चुनेगी। नए वोटर देख रहे है कि नेताओं की यह दूसरी पीढी सियासत में पुरखों से ज्‍यादा रुढिवादी हैं, इसलिए नौ फीसदी ग्रोथ की बहस, नौ फीसदी आरक्षण की कलाबाजी में गुम हो गई है। फिर भी इन खुर्राट समीकरणबाज नेताओं से यह पूछना हमारा हक है कि उनकी सियासत से उत्‍तर प्रदेश और पंजाब के अगले दस सालों के लिए क्‍या उम्‍मीद निकलती है।
उत्‍तर प्रदेश – पाठा बनाम नोएडा   
पिछले कुछ वर्षों में ग्रोथ की हवा पर बैठ कर उड़ीसा, उत्‍तराखंड व जम्‍मू कश्‍मीर ने भी सात से नौ फीसदी की छलांगे मारी हैं मगर उत्‍तर प्रदेश के कस बल तो छह फीसदी की ग्रोथ पर ही ढीले हो गए। वजह यह कि आंकड़ों ने नीचे छिपा एक जटिल, मरियल, कुरुप व बेडौल उत्‍तर प्रदेश ग्रोथ की टांग खींच रहा है। इस यूपी की चुनौती गाजियाबाद बनाम गाजीपुर या लखनऊ बनाम मऊ की है। यहां कालाहांडी जैसा बांदा, कनाट प्‍लेस जैसे नोएडा को बिसूरता है। 45 से 85000 की प्रति व्‍यक्ति आय वाले चुनिंदा समृद्ध जिलों (गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ, आगरा आदि) में पूरा प्रदेश आकर धंस जाना चाहता है। एक राजय की सीमा के भीतर आबादी का यह प्रवास हैरतंगेज है जो यूपी के शहरों की जान निकाल रहा है। नेताओं से पूछना चाहिए कि शेष भारत जब उपज बढ़ाने की बहस में जुटा है तब यूपी की 35 फीसदी जमीन में एक बार से ज्‍यादा बुवाई (क्रॉपिंग इंटेसिटी) क्‍यों नहीं(कुछ शहरों की) और विकास (अधिकांश पिछड़ापन) के बीच फंस कर चिर गया है। इसके घुटनों में अगले एक दशक की जरुरतों का बोझ उठाने की ताकत ही नहीं बची है मगर सियासत इसे आरक्षण की अफीम चटा रही है।