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Monday, December 29, 2014

लोकलुभावनवाद की ‘घर वापसी’

आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी सरकार को सहज व सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है मोदी सरकार भी संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है.
र्म बदल करने वालों का तो पता नहीं लेकिन मोदी सरकार के आर्थिक प्रबंधन की घर वापसी का ऐलान जरूर हो गया है. भारी सरकारी खर्च, केंद्रीय स्कीमों का राज, सरकार का जनलुभावन शृंगार और भारी घाटे के साथ, मोदी सरकार का आर्थिक दर्शन उसी घर में बसने वाला है जिस पर कांग्रेस ने इन्क्लूसिव ग्रोथ का बोर्ड लगा रखा था. मोदी सरकार इसकी जगह सबका साथ, सबका विकास का पोस्टर लगा देगी. नई सरकार का पहला बजट जल्दबाजी में बना था, जो टीम मोदी के वित्तीय और आर्थिक दर्शन को स्पष्ट नहीं करता था लेकिन धर्मांतरण के हड़बोंग के बीच जारी हुई तिमाही आर्थिक समीक्षा ने मोदी सरकार की आर्थिक रणनीति से परदा हटा दिया है. मोदी सरकार दकियानूसी और लोकलुभावन आर्थिक प्रबंधन की तरफ बढ़ रही है, जिसकी एक बड़ी झलक आने वाले बजट में मिल सकती है.
विकास के लिए सरकारी खर्च का पाइप खोलने की सूझ जिस इलहाम के साथ आई है वह और भी ज्यादा चिंताजनक है. समीक्षा ने स्वीकार किया है कि निजी कंपनियां निवेश को तैयार नहीं हैं. नई सरकार आने के बाद निजी निवेश शुरू होना चाहिए था लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी उपक्रम दो लाख करोड़ रु. की नकदी पर बैठे हैं जबकि निजी कंपनियां करीब 4.6 लाख करोड़ रु. की नकदी पर. इसके बाद निजी निवेश न होना दरअसल मेक इन इंडिया की शुरुआती असफलता पर वित्त मंत्रालय की मुहर जैसा है. केंद्र में सरकार बदलने के बाद सारा दारोमदार निजी कंपनियों के निवेश पर था, जिससे रोजगार और ग्रोथ लौटने की उम्मीद बनती थी. लेकिन सरकार को पहले छह माह में ही यह एहसास हो गया है कि निजी निवेश को बढ़ावा देने की ज्यादा कवायद करने की बजाए सरकारी खर्च के पुराने मॉडल की शरण में जाना बेहतर होगा.
भारी सरकारी खर्च की वापसी उत्साहित नहीं करती बल्कि डराती है क्योंकि केंद्र सरकार के भारी खर्च से उभरी विसंगतियों का दर्दनाक अतीत हमारे पास मौजूद है. सरकार के पास उद्योग, पुल, सड़क, बंदरगाह बनाने लायक न तो संसाधन हैं और न मौके. यह काम तो निजी कंपनियों को ही करना है. आम तौर पर सरकारें जब अच्छी गुणवत्ता की ग्रोथ और रोजगार पैदा नहीं कर पातीं तो अपने खर्च को सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों में बढ़ाती हैं, जैसा कि हमने यूपीए राज के पहले चरण की कथित इन्क्लूसिव ग्रोथ में देखा था, जो बाद में बजट, ग्रोथ और निवेश को ले डूबी. मोदी सरकार का खर्च रथ भी उसी पथ पर चलेगा. नई-नई स्कीमों को लेकर मोदी का प्रेम जाहिर हो चुका है. योजना आयोग के पुनर्गठन में पुरानी केंद्रीय स्कीमों को बंद करना फिलहाल एजेंडे पर नहीं है इसलिए एनडीए की नई स्कीमों से सजे इस मोदी के रथ पर कांग्रेस सरकार की स्कीमें पहले से सवार होंगी.
केंद्र सरकार का खर्च अभियान एक कांटेदार गोला है जो अपनी कई नुकीली बर्छियों से जगह-जगह छेद करता है. सरकार का राजस्व सीमित है और औद्योगिक मंदी खत्म होने तक राजस्व में तेज बढ़ोतरी की उम्मीद भी नहीं है. सरकार के सामने भारी खर्च का बिल आने वाला है जिसमें सब्सिडी, वित्त आयोग की सिफारिशों के तहत राज्यों के करों में ज्यादा हिस्सा, केंद्रीय बिक्री कर में हिस्सेदारी का राज्यों का भुगतान और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अंतरिम राहत शामिल होंगे. इसलिए अगले बजट में घाटे की ऊंचाई देखने लायक होगी. ब्याज दरों में कमी के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को कोसने से फायदा नहीं है. अब सरकार जमकर कर्ज लेगी, जिससे ब्याज दरों में कमी के विकल्प बेहद सीमित हो सकते हैं. 
मोदी सरकार के सामने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दो विकल्प थे. एक है सस्ता कर्ज. महंगाई में कमी से इसकी जमीन तैयार हो गई है. बैंकिंग सुधार का साहस और बजट घाटे पर नियंत्रण दो और जरूरतें थीं जो अगर पूरी हो जातीं तो अगले साल से ब्याज दरों में तेज कटौती की शुरुआत हो सकती थी. दूसरा था सरकार का भारी खर्च, जो ऊंचे घाटे, कर्ज व महंगे ब्याज की कीमत पर होगा. अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए सस्ता कर्ज, सरकार के खर्च से बेहतर विकल्प होता है क्योंकि वह निजी उद्यमिता को बढ़ावा देता है, लेकिन मोदी सरकार ने दूसरा विकल्प यानी भारी खर्च का रास्ता चुना है. इससे सरकार का लोकलुभावन मेकअप तो ठीक रहेगा लेकिन घाटे में बढ़ोत्तरी और भ्रष्टाचार व घोटालों का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा. 
मोदी सरकार, वाजपेयी की तरह भगवा ब्रिगेड को आक्रामक सुधारों से जवाब नहीं देना चाहती बल्कि यूपीए की तरह संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है. आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत, संसद में गतिरोध और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी मोदी सरकार को सहज और सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है. आर्थिक समीक्षा इशारा कर रही है कि आने वाला बजट स्कीमों से भरपूर होगा, जो घाटे को नियंत्रित करने का संकल्प नहीं दिखाएगा. उम्मीदों से रची-बुनी, बहुमत की सरकार का इतनी जल्दी ठिठक कर लोकलुभावन हो जाना यकीनन, निराश करता है लेकिन हकीकत यह है कि मोदी सरकार को अपने साहस की सीमाओं का एहसास हो गया है.

अगले साल भारत को 6 फीसदी के आसपास की विकास दर पर मुतमईन होना पड़ सकता है, जो आज की आबादी और विश्व बाजार से एकीकरण की रोशनी में, सत्तर-अस्सी के दशक की 3.5 फीसद ग्रोथ रेट के बराबर ही है, जिसे हिंदू ग्रोथ रेट कहा जाता था. गवर्नेंस बनाम उग्र हिंदुत्व के विराट असमंजस में बलि तो आर्थिक ग्रोथ की ही चढ़ेगी.

Monday, March 4, 2013

अलविदा गेम चेंजर



यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया।

खेद प्रगट का करने इससे भव्‍य तरीका और क्‍या हो सकता है कि एक पूरे बजट को वी आर सॉरी का आयोजन में बदल दिया जाए। यूपीए का दसवां बजट पछतावे की परियोजना है। यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया। प्रायश्चित तो मौन व सर झुकाकर होते हैं और इसलिए बजट से कोई उत्‍साह आवंटित नहीं हुआ। चिदंबरम खुल कर जो नहीं कह सके उसे आंकडों के जरिये बताया गया। यह बजट पिछले एक दशक के ज्‍यादातर लोकलुभावन प्रयोगों को अलविदा कह रहा है। वह स्‍कीमें जिन्‍हें यूपीए कभी गेम चेंजर मानती थी अंतत: जिनके कारण ग्रोथ व वित्‍तीय संतुलन का घोंसला उजड़ गया।

Monday, October 8, 2012

सुधार, दरार और इश्तिहार



श्तिहार एक काम तो बाखूबी करते हैं। दीवार पर उनकी मौजूदगी कुछ वक्‍त के लिए दरारें छिपा लेती है। सियासत इश्तिहारों पर भले झूम जाए मगर बात जब अर्थव्‍यवस्‍था की हो तो इशितहारों में छिपी दरारें ज्‍यादा जोखिम भरी हो जाती हैं। भारत के इश्तिहारी आर्थिक सुधारों ने ग्‍लोबल निवेशकों को रिझाने के बजाय कनफ्यूज कर दिया है। सुर्खियों में चमकने वाले सुधारों के ऐलान, देश की आर्थिक सेहत के आंकड़े सामने आते ही सहम कर चुप हो जाते हैं। केलकर और दीपक पारिख जैसी समितियों की रिपोर्टें तो सरकार की सुधार  वरीयताओं की ही चुगली खाती हैं। सरकार सुधारों के पोस्‍टर से संकट की दरारों को छिपाने में लगी है। सुधार एजेंडे का भारत की ताजा आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल ही हीं दिखता, इसलिए ताजा कोशिशें भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की व्यापक तस्‍वीर को बेहतर करती नजर नहीं आती। उत्‍पादन, ग्रोथ, महंगाई, ब्‍याज दरों, निवेश, खर्च, कर्ज का उठाव, बाजार में मांग और निर्यात के आंकड़ों में उम्‍मीदों की चमक नदारद है। शेयर बाजार में तेजी और रुपये की मजबूती के बावजूद किसी ग्‍लोबल निवेश या रेटिंग एजेंसी ने भारत को लेकर अपने नजरिये में तब्‍दीली नहीं की है।
दरारों की कतार   
वित्‍त मंत्री की घोषणाओं और कैबिनेट से निकली ताजी सुधार सुर्खियों को अगर कोई केलकर समिति की रिपोर्ट में रोशनी में पढ़े तो उत्‍साह धुआं हो जाएगा। केलकर समिति तो कह रही है कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था तूफान में घिरी है। कगार पर टंगी है। भारत 1991 के जैसे संकट की स्थिति में खड़ा है। चालू खाते का घाटा  जो विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी में अंतर दिखाता है, वह जीडीपी के अनुपात में 4.3 प्रतिशत पर है जो कि 1991 से भी ऊंचा स्‍तर है। विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर 1991 जैसे संकट की बात अप्रैल में रिजर्व बैंक गवर्नर डी सुब्‍बाराव ने भी कही थी। ग्‍लोबल वित्‍तीय संकट, भारत के भारी आयात बिल और निवेशकों के अस्थिर रुख के कारण यह दरार बहुत जोखिम भरी है। राजकोषीय संतुलन के मामले में भारत अब गया कि तब

Monday, July 2, 2012

याद हो कि न याद हो


ह जादूगर यकीनन करामाती था। उसने सवाल उछाला। कोई है जो बीता वक्‍त लौटा सके। .. मजमे में सन्‍नाटा खिंच गया। जादूगर ने मेज से यूपीए सरकार के पिछले बजट उठाये और पढ़ना शुरु किया। भारी खर्च वाली स्‍कीमें, अभूतपूर्व घाटेभीमकाय सब्सिडी बिलकिस्‍म किस्‍म के लाइसेंस परमिट राज, प्रतिस्‍पर्धा पर पाबंदी,.... लोग धीरे धीरे पुरानी यादों में उतर गए और अस्‍सी के दशक की समाजवादी सुबहें, सब्सिडीवादी दिन और घाटा भरी शामें जीवंत हो उठीं। यह जादू नही बल्कि सच है। उदार और खुला भारत अब अस्सी छाप नीतियों में घिर गया है। यह सब कुछ सुनियोजित था या इत्तिफाकन हुआ अलबत्‍ता संकटों की इस ढलान से लौटने के लिए भारत को अब बानवे जैसे बड़े सुधारों की जरुरत महसूस होने लगी है। इन सुधारों के लिए प्रधानमंत्री को वह सब कुछ मिटाना होगा जो खुद उनकी अगुआई में पिछले आठ साल में लिखा गया है।
बजट दर बजट
ढहना किसे कहते हैं इसे जानने के लिए हमें 2005-06  की रोशनी में 2011-12 को देखना चाहिए। संकटों के सभी प्रमुख सूचकांक इस समय शिखर छू रहे हैं। जो यूपीए की पहली शुरुआत के वक्‍त अच्‍छे खासे सेहत मंद थे। राजकोषीय घाटा दशक के सर्वोच्‍च स्‍तर पर (जीडीपी के अनुपात में छह फीसद) है और विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का अंतर यानी चालू खाते का घाटा बीस साल के सबसे ऊंचे स्‍तर (4.5 फीसद) पर। ग्रोथ भी दस साल के गर्त में है। राजकोषीय संयम और संतुलित विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत की दो सबसे बडी ताजी सफलतायें थीं, जिन्‍हें हम पूरी तरह गंवा चुके हैं।  ऐसा क्‍यों हुआ इसका जवाब यूपीए के पिछले आठ बजटों में दर्ज है। उदारीकरण के सबसे तपते हुए वर्षों में समाजवादी कोल्‍ड स्‍टोरेज से निकले पिछले बजट ( पांच चिदंबरम चार प्रणव) भारत की आर्थिक बढ़त को कच्‍चा खा गए। बजटों की बुनियाद यूपीए के न्‍यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। वह भारत का पहला राजनीतिक दस्‍तावेज था जिसने देश के आर्थिक संतुलन को मरोड़ कर