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Monday, May 6, 2013

महंगाई का ग्लोबल बाजार


 इन्‍फेलशन बनाम  डिफ्लेशन की बहस हमेशा, दोनों की गुणवत्‍ता व संतुलन पर ही खत्‍म होती है जो अब ग्‍लोबल स्‍तर पर बिगड़ गया है। 


बीते सप्‍ताह जब सोना औंधे मुंह गिर रहा था और भारत में इसके मुरीदों की बांछें खिल रही थीं तब विकसित देशों में निवेशक ठंडा पसीना छोड़ रहे थे। सोने के साथ, अन्‍य धातुयें व कच्‍चा तेल जैसे ढहा उसे देखकर यूरोप अब डिफ्लेशन के खौफ से बेजार हो रहा है। मुद्रास्‍फीति के विपरीत डिफ्लेशन यानी अपस्‍फीति मांग, कीमतों में बढोत्‍तरी व मुनाफे खा जाती है। यूरोप में इसकी आहट के बाद अब दुनिया सस्‍ते व महंगे बाजारों में बंट गई हैं। यूरोप, अमेरिका व जापान जरा सी महंगाई बढ़ने के लिए तरस रहे हैं ताकि मांग बढे। मांग तो भारत व चीन भी चाहिए लेकिन वह महंगाई में कमी के लिए बेताब हैं, ताकि लोग खर्च करने की जगह बना सकें। यूरोप, अमेरिका व जापान के केंद्रीय बैंकों ने डिफ्लेशन थामने के लिए बाजार में पूंजी का पाइप खोल दिया है तो महंगाई से डरे भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी मुट्ठी खोलने से मना कर दिया है। ग्‍लोबल बाजारों के इस ब्रांड न्‍यू परिदृश्‍य में एक तरफ सस्‍ती पूंजी मूसलाधार बरस रही है, तो दूसरी तरफ कम लागत वाली पूंजी का जबर्दस्‍त सूखा है। यह एक नया असंतुलन है जो संभावनाओं व समस्‍याओं का अगला चरण हो सकता है।
यह बहस पुरानी है कि कीमतों का बढ़ना बुरा है या कम होना। वैसे इन्‍फेलशन बनाम  डिफ्लेशन की बहस हमेशा, दोनों की गुणवत्‍ता व संतुलन पर ही खत्‍म होती है जो अब ग्‍लोबल स्‍तर पर बिगड़ गया है। उत्‍पादन, प्रतिस्‍पर्धा या तकनीक बढ़ने से कीमतों कम होना अच्‍छा है। ठीक इसी तरह मांग व खपत बढने से कीमतों में कुछ बढोत्‍तरी आर्थिक सेहत के लिए

Monday, April 15, 2013

तीसरी ताकत की वापसी



शिंजो एबे ग्‍लोबल बाजारों के लिए सबसे कीमती नेता हैं। दुनिया की तीसरी आर्थिक ताकत यदि जागती है तो ग्‍लोबल बाजारों का नक्‍शा ही बदल जाएगा। विश्‍व की आर्थिक मुख्‍यधारा में जापान की वापसी बहुत मायने रखती है।

कोई दूसरा मौका होता तो जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे दुनिया में धिक्‍कारे जा रहे होते। लोग उन्‍हें जिद्दी और मौद्रिक तानाशाह कहते क्‍यों कि विश्‍व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था और चौथा सबसे निर्यातक, जब निर्यात बढ़ाने के लिए अपनी मुद्रा का अवमूल्‍यन करने लगे तो मंदी के दौर किसे सुहायेगा। लेकिन हठी व दो टूक शिंजों इस समय दुनिया के सबसे हिम्मती राजनेता बन गए हैं। उन्‍होंने येन के अवमूल्‍यन के साथ जापान की पंद्रह साल पुरानी जिद्दी मंदी के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है और मुद्रा कमजोरी को ताकत बनाने में हिचक रहे अमेरिका व यूरोप को नेतृत्‍व दे दिया है। परंपरावादी, जटिल और राजनीतिक अस्थिरता भरे जापान में सस्‍ता येन, महंगाई और मुक्‍त आयात जैसे रास्‍ते वर्जित हैं अलबत्‍ता शिंजों की एबेनॉमिक्‍स ने इन्‍हीं को अपनाकर जापानी आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा कर दिया है। यहां से मुद्राओं के ग्‍लोबल अवमूल्‍यन यानी मुद्रा संघर्ष की शुरुआत हो सकती है लेकिन दुनिया को डर नहीं है क्‍यों कि शिंजो मंदी से उबरने की सूझ लेकर आए हैं।
याद करना मुश्किल है कि जापान से अच्‍छी आर्थिक खबर आखिरी बार कब सुनी गई थी। पंद्रह साल में पांच मंदियों का मारा जापान डिफ्लेशन यानी अपस्‍फीति  का शिकार है। वहां कीमतें बढती ही नहीं, इसलिए मांग व मुनाफों में कोई ग्रोथ नहीं है। बीते दो दशक में चौतरफा ग्रोथ के बावजूद जापान की सुस्‍ती नहीं टूटी। 1992 में जापान ने भी, आज के सपेन या आयरलैंड की तरह कर्ज संकट