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Thursday, April 22, 2010

बजट की षटपदी (एक) : कर कथा

यह अर्थार्थ स्‍तंभ का हिस्‍सा नहीं है लेकिन इसे एक तरह से अर्थार्थ भी माना जा सकता है। बजट के भीतर कर और खर्च के दो अलग-अलग दिलचस्‍प जगत हैं। बजट की इस अंतर्जगत की यात्रा पर दैनिक जागरण में दो चरणों मे प्रकाशित छह खबरों को लेकर कई स्‍नेही पाठकों काफी उत्‍सुकता दिखाई थी इसलिए लगा कि बजट की इस दिलचस्‍प दुनिया का ब्‍योरा सबसे बांट लिया जाए। सो बजट की यह षटपदी आप सबके सामने प्रस्‍तुत है। खुद ही देख लीजिये कि हमारी सरकारें कैसे कर लगाती है और कैसे खर्च करती हैं।

बेदर्द बजट -1

वही पीठ और वही चाबुक, बार-बार.. लगातार
· -आजमाई हुई सूइयां : दस साल में पांच सरचार्ज और पांच सेस
· उत्पाद शुल्क दरें यानी पहाड़ का मौसम
· -एफबीटी और मैट नए हथियार
(अंशुमान तिवारी) अगर दुनिया में टैक्स से बड़ी कोई सचाई नहीं है!! (बकौल चा‌र्ल्स डिकेंस) तो सच यह भी है कि भारत में न तो करों के चाबुक बदले हैं और न उन्हें सहने वाली पीठ। बदलते रहे हैं तो सिर्फ बजट व वित्त मंत्री। सरचार्ज और सेस वित्त मंत्रियों की पसंदीदा सूइयां हैं, जिन्हें पिछले दस बजटों में चार बार घोंपकर अर्थव्यवस्था से अचानक राजस्व निकाला गया है। पेट्रोल-डीजल से तीन बार नया सेस वसूला गया है। और उत्पाद शुल्क तो वित्त मंत्रियों के हाथ का खिलौना हैं। जिस वित्त मंत्री ने जब जैसे चाहा इन्हें निचोड़ लिया। पिछले एक दशक में सिर्फ मैट और एफबीटी करों के दो नए चाबुक थे, जिन्होंने बहुतों को लहूलुहान किया है।
बजट भाषणों में अक्सर होने वाली कर दरों की निरंतरता की वकालत अक्सर होती है, लेकिन पछले दस बजटों को एक साथ देखें तो समझ में आ जाता है कि कर ढांचे में और कुछ हो या न हो मगर निरंतरता तो कतई नहीं है। सिर्फ सरचार्ज और सेस ही नहीं, बल्कि लाभांश वितरण कर और मैट की दरें भी एक से अधिक बार बदली गई हैं।
उत्पाद शुल्क का खिलौना
बजट उत्पाद शुल्क के कारण इतने रोमांचक होते हैं। कोई नहीं जानता कि एक्साइज ड्यूटी में अगले साल क्या होने वाला है। सिर्फ वर्ष 1999 से लेकर 2003-04 तक उत्पाद शुल्क का ढांचा दो बार पूरी तरह उलट गया। तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा वर्ष 1999-2000 में उत्पाद शुल्क की तीन मूल्यानुसार दरों (8,16,24) से शुरू हुए। अगले साल तीनों का विलय कर 16 फीसदी की एक सेनवैट दर बन गई, लेकिन साथ ही विशेष उत्पाद शुल्क की तीन (8,16,24) दरें पैदा हो गई। अगले साल तीनों विशेष दरें भी 16 फीसदी की एक दर में समा गई। और जब राजग सरकार का आखिरी बजट आया तो तीनों पुरानी दरें एक बार फिर बहाल हो गई। इसे देखने के बाद भारत में निवेश करने वाला लंबी योजना बनाए भी तो कैसे?
सर पर चढ़ कर चार्ज
वह वित्त मंत्री ही क्या जो सरचार्ज न लगाए? पिछले दस साल में यह इंजेक्शन चार बार लगा है और खासी ताकत के साथ। राजग सरकार का पहला बजट व्यक्तिगत व कंपनी आयकर पर 10 फीसदी और सीमा शुल्क पर भी इतना ही सरचार्ज लेकर आया। अगले साल ऊंची आय वालों के लिए सरचार्ज को 15 फीसदी कर दिया गया। वर्ष 2001-02 में सरचार्ज वापस हो गया, लेकिन अगले ही साल राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता करते हुए बजट ने 5 फीसदी सरचार्ज की सूई फिर लगा दी गई। अपने अंतिम बजट में राजग सरकार ने आठ लाख से ऊपर की आय वालों पर 10 फीसदी का सरचार्ज लगाकर अपनी पारी पूरी की।
तेल का तेल
पेट्रोल-डीजल है तो राजस्व की क्या चिंता। पिछले दस सालों में वित्त मंत्रियों ने तीन बार पेट्रोल, डीजल आदि पर उपकर (सेस) लगाए हैं। यह जानते हुए भी कि इनकी बढ़ी कीमतें महंगाई बढ़ाती हैं। सिन्हा ने पहले बजट में डीजल पर एक रुपये प्रति लीटर का सेस लगाया था। दो साल बाद कच्चे तेल पर सेस बढ़ा और पेट्रोल पर भी सरचार्ज लग गया। वर्ष 2005-06 में चिदंबरम ने भी पेट्रोल-डीजल पर 50 पैसे प्रति लीटर का सेस लगाया था।
कर बिना लाभांश कैसा?
यह भी वित्त मंत्रियों का पसंदीदा कर रहा है। पिछले दस बजटों में चार बार इसका इस्तेमाल हुआ। एक बार सिन्हा ने इसे 10 से बढ़ाकर 20 फीसदी किया, मगर अगले ही साल घटाकर 10 फीसदी कर दिया तो चिदंबरम ने एक बार इसे 12.5 फीसदी किया और दूसरी बार 15 फीसदी कर दिया गया।
सिर्फ यही नहीं पिछले दस बजटों में दो बार शिक्षा उपकर लगा है। जबकि जीरो टैक्स कंपनियों पर मैट लगाकर और मैट बढ़ाकर वित्त मंत्रियों ने खजाने की सूरत संभाली है।
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बेदर्द बजट -2
किसी ने नहीं छोड़ा, मगर सिन्हा जी ने ज्यादा निचोड़ा
· -टैक्स के मामले में सिन्हा के चार बजट, चिदंबरम के पांच बजटों पर दोगुने भारी
· -पिछले दस बजटों में लगे कुल 50 हजार करोड़ रुपये के नए कर
(अंशुमान तिवारी) अगर टैक्स किसी सभ्य समाज का सदस्य होने की फीस (बकौल फ्रेंकलिन रूजवेल्ट) है तो अपनी पीठ ठोंकिए, क्योंकि पिछली दो सरकारों ने आपसे यह फीस बखूबी वसूली है। पिछले दस बजटों में लगे नए टैक्सों का गणित औसतन पांच हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष बैठता है। करीब एक दशक में दो अलग-अलग सरकारों के वित्त मंत्रियों ने नए टैक्स लगाकर या कर दरें बढ़ाकर हमारी आपकी जेब से करीब 50 हजार करोड़ रुपये निकाले हैं। बात अगर निकली है तो यह भी बताते चलें कि सबसे ज्यादा कर लगाने का तमगा राजग और उसके वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के नाम है। उनकी सरमायेदारी में आए बजटों में कर लगे नहीं, बल्कि बरसे हैं। नए करों के पैमाने पर यशवंत सिन्हा के चार बजट, पी. चिंदबरम के पांच बजटों पर दोगुना से ज्यादा भारी हैं।
टैक्स बजट का असली दर्द हैं। कम ज्यादा हो सकता है, लेकिन यह भेंट देने में कोई वित्त मंत्री नहीं चूकता। पिछले दस साल के बजटों का एक दिलचस्प हिसाब- किताब उस पुरानी यहूदी कहावत के माफिक है, कर बगैर बारिश के बढ़ते हैं। ध्यान रहे कि यह बात उन नए या अतिरिक्त करों की है, जो किसी बजट में पुराने करों के अलावा लगाए जाते हैं।
राजग सरकार के वित्त मंत्री के तौर पर यशवंत सिन्हा ने अपने चार बजटों में 33 हजार 400 करोड़ रुपये के नए टैक्स लगाए, जबकि चिदंबरम के खाते में पांच बजटों में 17 हजार करोड़ रुपये के टैक्स दर्ज हैं। यह आंकड़ा वित्त मंत्रियों के बजट भाषणों पर आधारित है, जिसमें वह बताते हैं कि उनके कर प्रस्तावों से कितनी अतिरिक्त राशि खजाने को मिलने जा रही है।
वर्ष 1999-2000 से लेकर 2003-04 अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार के पांच बजटों में चार यशवंत सिन्हा ने पेश किए थे, जबकि अगले पांच बजट संप्रग के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने। राजग के कार्यकाल का आखिरी बजट जसवंत सिंह लाए थे। राजग के सभी बजटों को यदि एक कतार में रखा जाए तो वह करीब 36 हजार 694 करोड़ रुपये के टैक्स की सरकार थी। राजग की सरकार ने तो चुनाव से पहले के आखिरी पूर्ण बजट यानी 2003-04 में भी 3 हजार 294 करोड़ रुपये के कर लगाए थे।
राजग के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा निर्विवाद रूप से कर लगाने की मुहिम में चैम्पियन हैं। बात वर्ष 2002-03 के बजट की है। यह पिछले एक दशक में सबसे अधिक टैक्स वाला बजट था। इसमें 12 हजार 700 करोड़ रुपये के कर लगाए गए। उनके चार बजटों में सबसे कम टैक्स वाला बजट 2001-02 का था, मगर उस बजट में भी 4 हजार 677 करोड़ रुपये का कर लगा था। खास बात यह है कि राजग सरकार के बजट में अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष दोनों कर बढ़े थे। इसमें भी प्रत्यक्ष करों यानी आयकर का बोझ कुछ ज्यादा था।
चिदंबरम की बजट मशीन ने करदाताओं का तेल अपेक्षाकृत कुछ कम निकाला है, लेकिन बख्शा उन्होंने भी नहीं। उन्होंने वर्ष 2005-06 और 2006-07 में हर साल 6 हजार करोड़ रुपये के कर लगाए। चिदंबरम ने आखिरी बजट को करों के बोझ से मुक्त कर दिया था, अलबत्ता संप्रग की दूसरी पारी के पहले बजट में इस साल जुलाई में प्रणब दादा ने 2 हजार करोड़ रुपये के अतिक्ति टैक्स लगाने का इंतजाम किया था।
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यशवंत सिन्हा : 'बजट आर्थिक नीतियों व आय व्यय का सालाना दस्तावेज होता है, जो उस समय की परिस्थितियों को देखकर बनाया जाता है। .. हमारे बजटों को भारी कर वाले बजट कहना ठीक नहीं होगा। दरअसल उन पर टैक्स बढ़ा जो छूट ले रहे थे या कम दरों पर कर दे रहे थे। सबसे जरूरी है- बजट का संतुलन, जो हमने किया था। एक असंतुलित बजट का खामियाजा देश व लोगों को भुगतना पड़ता है।'
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बेदर्द बजट -2
टैक्स ने जितना काटा, उतना बढ़ा घाटा
-भारी टैक्स वाले बजटों को लगी करधारकों की बद्दुआ, कर बढ़े तो बढ़ा घाटा भी
-मगर जब अर्थव्यवस्था हुई खुशहाल तो खजाना भी मालामाल
(अंशुमान तिवारी) यह टैक्स के कोड़े खाने वालों की बद्दुआ है या फिर वित्त मंत्रियों की अंधी गणित, लेकिन करों की कैंची से बजटों का घाटा कम नहीं हुआ है। पिछले दस बजटों में अधिकांश बार ऐसा हुआ है कि जब-जब कर बढ़े हैं, घाटा भी बढ़ गया है। घाटा दरअसल तेज आर्थिक विकास दर के सहारे ही कम हुआ है यानी अगर अर्थव्यवस्था खुशहाल तो सरकार की तिजोरी भी मालामाल।
वित्त मंत्री नए कर सिर्फ इसलिए लगाते हैं ताकि घाटा कम हो सके। पिछले एक दशक के सभी बजट भाषण पढ़ जाइए, हर वित्त मंत्री ने नए कर लगाते हुए यही सफाई दी है कि इससे घाटा कम किया जाएगा, लेकिन अगर आंकड़ों के भीतर उतर कर देखा जाए तो तस्वीर कुछ जुदा ही दिखती है। जिस साल भी नए कर लगाकर घाटा कम करने की जुगत भिड़ाई गई है, उसी साल के संशोधित आंकड़ों में घाटा बजट अनुमानों को चिढ़ाता हुआ नजर आया है।
वर्ष 1999-2000 से 2003-04 तक के सभी बजट जबर्दस्त टैक्स के बजट थे, लेकिन अचरज होता है कि यही बजट भारी घाटे के भी थे। इन पांच बजटों में पहले चार में (जीडीपी के अनुपात) में राजकोषीय घाटा 5.1 फीसदी से 5.9 फीसदी तक रहा, जो कि कर लगाने वाले वित्त मंत्रियों के अपने बजट अनुमानों को सर के बल खड़ा कर रहा था। सिर्फ 2003-2004 के बजट में यह पांच फीसदी से मामूली नीचे आया। इधर बाद के पांच बजट अपेक्षाकृत सीमित टैक्स के थे और इस दौरान घाटा 3.1 से 4.5 फीसदी के बीच रहा। पिछले वित्त मंत्री चिदंबरम का गणित आखिरी साल बिगड़ा जब राजकोषीय घाटा अचानक छह फीसदी हो गया।
नए करों का बोझ और घाटे का रिश्ता पिछले कई बजटों की कलई खोल देता है। राजग के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने वर्ष 2002-03 के बजट में 12 हजार 700 करोड़ रुपये के नए टैक्स लगाए थे, लेकिन उस बजट में राजकोषीय घाटा रहा 5.9 फीसदी पर। जबकि कर लगाते हुए सिन्हा ने 5.3 फीसदी का लक्ष्य तय किया था। इससे बुरा हाल हुआ वर्ष 1999-2000 के बजट का, जब भारी टैक्सों के बावजूद घाटा जीडीपी के अनुपात में चार फीसदी के मुकाबले 5.6 फीसदी रहा। सिर्फ जिस एक वर्ष (2003-04) में घाटा बजट अनुमान से नीचे रहा है, वह वर्ष 8.5 फीसदी की तेज आर्थिक विकास दर का था।
यहीं बजट का दूसरा दिलचस्प पहलू सामने आता है कि खजाने की हालत कर लगाने से नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के बेहतर होने से सुधरी है। पिछले एक दशक के दूसरे पांच बजट इसकी नजीर हैं। इन पांचों बजटों में दिलचस्प यह है कि चिदंबरम ने लगातार दो साल (2005-06, 2006-07) में प्रति वर्ष 6 हजार करोड़ रुपये के अतिरिक्त कर लगाए, लेकिन दोनों वर्षो में राजकोषीय घाटा बजट अनुमान से नीचे रहा। यह दोनों वर्ष दरअसल पिछले एक दशक में सबसे तेज आर्थिक विकास दर यानी 9.5 और 9.7 फीसदी के थे।
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Monday, February 8, 2010

बजट की बर्छियां

मंदी के जख्म भरने लगे हैं न? तो आइए कुछ नई चोट खाने की तैयारी करें। बजट तो यूं भी स्पंज में छिपी पिनों की तरह होते हैं, ऊपर से गुदगुदे व मुलायम और भीतर से नुकीले, छेद देने वाले। मगर इस बजट के मुलायम स्पंज में तो नश्तर छिपे हो सकते हैं। पिछले एक माह के भीतर बजट की तैयारियों के तेवर चौंकाने वाले ढंग से बदल गए हैं। बात तो यहां से शुरू हुई थी कि मंदी से मुकाबले का साहस दिखाने वाली अर्थव्यवस्था की पीठ पर शाबासी की थपकियां दी जाएंगी, पर अब तो कुछ डरावना होता दिख रहा है। मौका भी है दस्तूर भी और तर्क भी। पांच साल तक राज करने के जनादेश को माथे पर चिपकाए वित्त मंत्री को फिलहाल किसी राजनीतिक नुकसान की फिक्र नहीं करनी है। दूसरी तरफ घाटे के घातक आंकड़े उन्हें सख्त होने का आधार दे रहे हैं। यानी कि इशारे अच्छे नहीं हैं। ऐसा लगता है मानो वित्त मंत्री बर्छियों पर धार रख रहे हैं। दस के बरस का बजट करों के नए बोझ वाला, तेल की जलन वाला और महंगाई के नए नाखूनों वाला बजट हो सकता है यानी कि ऊह, आह, आउच! !.. वाला बजट।
करों की कटार
कमजोर याददाश्त जरूरी है, नहीं तो बहुत मुश्किल हो सकती है। जरा याद तो करिए कि कौन सा बजट करों की कील चुभाए बिना गुजरा है? बजट हमेशा नए करों की कटारों से भरे रहे हैं। यह बात अलग है कि वित्त मंत्रियों ने कभी उन्हें दिखाकर चुभाया है तो कभी छिपाकर। यकीन नहीं होता तो यह आंकड़ा देखिए इस दशक के पहले बजट यानी 1999-2000 के बजट से लेकर दशक 2009-10 तक के बजट तक कुल 55,694 करोड़ रुपये के नए कर लगाए गए हैं। यहां तक कि चुनाव के वर्षो में भी करों में ऐसे बदलाव किए गए हैं जो बाद में चुभे हैं। पिछले दस सालों का हर बजट (08-09 के बजट को छोड़कर) कम से कम 2,000 करोड़ रुपये और अधिकतम 12,000 करोड़ रुपये तक का कर लगाता रहा है। इस तथ्य के बाद सपनीले बनाम डरावने बजटों की बहस बेमानी हो जाती है। इन करों के तुक पर तर्क वितर्क हो सकता है, लेकिन करों की कटार बजट की म्यान में हमेशा छिपी रही है। जो कंपनियों से लेकर कंज्यूमर तक और उद्योगपतियों से लेकर आम करदाताओं तक को काटती रही है। यह बजट कुछ ज्यादा ही पैनी कटार लेकर आ सकता है। बजट को करीब से देख रहे लोग बीते साल से सूंघ रहे थे कि दस का बजट सताने वाला होगा, ताजी सूचनाओं के बाद ये आशंकाएं मजबूत हो चली हैं। वित्त मंत्री को न तो दूरसंचार कंपनियों से राजस्व मिला और न सरकारी कंपनियों में सरकार का हिस्सा बेचकर। घाटा ऐतिहासिक शिखर पर पहुंचने वाला है। दादा कितने उदार कांग्रेसी क्यों न हों, लेकिन आखिर राजकोषीय जिम्मेदारी भी तो कोई चीज है? आने वाले बजट में वह इस जिम्मेदारी को हमारे साथ कायदे से बांट सकते हैं। आने वाला बजट न केवल मंदी के दौरान दी गई कर रियायतें वापस लेगा यानी कि करों का बोझ बढ़ाएगा, बल्कि नए करों के सहारे खजाने की सूरत ठीक करने की जुगत भी तलाशेगा। ऐसी स्थितियों में वित्त मंत्रियों ने अक्सर सरचार्ज, सेस और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क या अतिरिक्त सीमा शुल्क की अदृश्य कटारें चलाई हैं और काफी खून बहाया है। संभल कर रहिएगा, वित्त मंत्री इन कटारों की धार कोर दुरुस्त कर रहे हैं।
तेल बुझे तीर
कभी आपने यह सोचा है कि आखिर पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ने के तीर बजट के साथ ही क्यों चलते हैं? बजट से ठीक पहले ही तेल कंपनियां क्यों रोती हैं, पेट्रोलियम मंत्रालय उनके स्यापे पर मुहर क्यों लगाता है और क्यों बजट की चुभन के साथ तेल की जलन बोनस में मिल जाती है? दरअसल यह एक रहस्यमय सरकारी दांव है। बजट से ठीक पहले तेल कीमतों का मुद्दा उठाना सबके माफिक बैठता है। सरकार के सामने दो विकल्प होते हैं या तो कीमतें बढ़ाएं या फिर तेल कंपनियों के लिए आयात व उत्पाद शुल्क घटाएं। अगर उदारता दिखाने का मौका हुआ तो शुल्क दरें घट जाती हैं और अगर खजाने की हालत खराब हुई तो कीमतें बढ़ जाती हैं। पेट्रो कीमतों के मामले में बरसों बरस से यही होता आया है। तेल कंपनियां व उनके रहनुमा पेट्रोलियम मंत्रालय को अब यह मालूम हो गया है कि उनका मनचाहा सिर्फ फरवरी में हो सकता है। यह महीना वित्त मंत्रियों के लिए भी माफिक बैठता है, क्योंकि वह भारी खर्च वाली स्कीमों के जयगान के बीच सफाई से यह काम कर जाते हैं और कुछ वक्त बाद सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। रही बात तेल मूल्य निर्धारण की नीति ठीक करने की तो उस पर बहस व कमेटियों के लिए पूरा साल पड़ा है। यह तो वक्त बताएगा कि तेल बुझे तीर बजट से पहले छूटेंगे, बजट में या बजट के बाद, लेकिन दर्द का पूरा पैकेज एक साथ अगले कुछ हफ्तों में आने वाला है।
महंगाई का मूसल
इससे पहले तक हम अक्सर बजट के बाद ही यह जान पाते थे कि बजट महंगाई की कीलें कम करेगा या बढ़ाएगा, लेकिन यह बजट तो आने से पहले ही यह संकेत दे रहा है कि इससे महंगाई की आग को हवा और घी दोनों मिलेंगे। कैसे? इशारे इस बात के हैं कि वित्त मंत्री पिछले साल दी गई कर रियायतें वापस लेने वाले हैं। यह सभी रियायतें अप्रत्यक्ष करों यानी उत्पाद व सीमा शुल्कों से संबंधित थीं। मतलब यह कि आने वाले बजट में कई महत्वपूर्ण उत्पादों पर अप्रत्यक्ष कर बढेंगे। अप्रत्यक्ष कर का बढ़ना हमेशा महंगाई बढ़ाता है, क्योंकि कंपनियां बढ़े हुए बोझ को उपभोक्ताओं के साथ बांटती हैं। यानी कि महंगाई को पहला प्रोत्साहन तो दरअसल प्रोत्साहन पैकेज की वापसी से ही मिल जाएगा। साथ ही महंगाई की आग में पेट्रोल भी पड़ने वाला है यानी कि पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ने वाली हैं। यह महंगाई की कीलों को आग में तपाने जैसा है। इसके बाद बची खुची कसर सरकार का घाटा पूरा कर देगा। सरकार को अगले साल बाजार से अभूतपूर्व कर्ज लेना होगा। जो कि बाजार में मुद्रा आपूर्ति बढ़ाएगा और महंगाई के कंधे से अपना कंधा मिलाएगा।
करों की कटार के साथ तेल बुझे तीर और ऊपर से महंगाई.. लगता है कि जैसे बजट घायल करने के सभी इंतजामों से लैस होकर आ रहा है। दरअसल मंदी के होम में सरकार ने अपने हाथ बुरी तरह जला लिये हैं। वह अब आपके मलहम नहीं लगाएगी, बल्कि आपसे मलहम लेकर अपनी चोटों का इलाज करेगी। लगता नहीं कि यह बजट अर्थव्यवस्था की समस्याओं के इलाज का बजट होगा, बल्कि ज्यादा संभावना इस बात की है कि इस बजट से सरकार अपने खजाने का इलाज करेगी। जब-जब सरकारों के खजाने बिगड़े हैं तो लोगों ने अपनी बचत और कमाई की कुर्बानी दी है, यह कुर्बानी इस बार भी मांगी जा सकती है अर्थात नया बजट तोहफे देने वाला नहीं, बल्कि तकलीफ देने वाला हो सकता है।

अन्‍यर्थ
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच) SATORI