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Friday, May 10, 2019

नतीजा, जो आ गया !





अंतरिम बजट के आंकड़े गढ़ने तक मोदी सरकार को यह एहसास हो गया था कि अर्थव्यवस्था की पूंछ पकड़कर लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार नहीं होगी. नतीजतन, पांच साल तक न्यू इंडिया का बिगुल बजाने के बाद नरेंद्र मोदी पाकिस्तान से आर-पार के नाम पर चुनाव मैदान में उतर गए.

मार्च में चुनावी राष्ट्रवाद का पारा चढ़ने तक अर्थव्यवस्था में अच्छे दिनों के दुर्दिन शुरू हो गए थे और बाजार मुतमइन हो चुके थे कि चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन

एक अंतरिम बजट में सरकार ने आंकड़ों की जो खिचड़ी पकाई है, वह जल्द ही सड़ जाएगी. सरकार की कमाई घटेगी और घाटा धर दबोचेगा.

दो आर्थिक आंकड़ों को चमकाने की हजार कोशिशों के बावजूद 2019 की आखिरी तिमाही में विकास दर गिरेगी और नरेंद्र मोदी पिछले पांच साल की सबसे खराब अर्थव्यवस्था के साथ वोट मांगने निकलेंगे. (संदर्भ पिछले अर्थात्)

सबसे तेज झटका
चौथे चरण का मतदान खत्म होने तक सरकारी राजस्व में रिकॉर्ड गिरावट दर्ज हो गई और वित्त मंत्रालय ने मान लिया कि अर्थव्यवस्था मंदी में है...अलबत्ता यह किसी ने नहीं सोचा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा इंजन भी थमने लगेगा.

निर्यात, सरकार का खर्च, निजी निवेश और खपतइन चार इंजनों पर चलती है भारतीय अर्थव्यवस्था. इनमें खपत यानी आम लोगों का खर्च सबसे बड़ी ताकत है. निर्यात पहले से मृतप्राय था. बीते दिसंबर में निजी और सरकारी कंपनियों का निवेश 14 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया था. घाटे की मारी सरकार ने 2018-19 की आखिरी तिमाही में खर्च भी काट दिया. इन सबके बीच खर्च-खपत ही था जो अर्थव्यवस्था को ढुलका रहा था अलबत्ता चुनाव के गर्द--गुबार के बीच बाजार को जब यह नजर आया कि मांग की कमी मकानों से लेकर कार और मोटरसाइकिल से होते हुए साबुन, तेल, मंजन तक फैल गई है, तो खौफ लाजिमी था. खपत में गिरावट ऐसा झटका है जिसके लिए अर्थव्यवस्था हरगिज तैयार नहीं है.

क्यों गिरी खपत

पिछले ढाई दशक में पहली बार भारत में खपत गिर रही है यानी कि 135 करोड़ लोगों की अर्थव्यवस्था (पीपीपी) की सबसे मजबूत बुनियाद डगमगा रही है! क्यों?

उपभोग या खपत के दो हिस्से हैं और दोनों एक साथ टूट गए हैं.

पहला है वह उपभोग जो कर्ज के सहारे बढ़ता है, इसमें ऑटोमोबाइल और हाउसिंग प्रमुख हैं. बकाया कर्ज से दबे बैंक उद्योगों को नया कर्ज देने की हालत में पहले से ही नहीं थे अलबत्ता नोटबंदी के दौरान बैंकों में बड़ी मात्रा में जो धन जमा हुआ था उसका बड़ा हिस्सा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) को कर्ज के तौर पर मिला. तभी तो 2016 से 2018 के बीच ऑटो लोन में एनबीएफसी का हिस्सा 77 फीसद हो गया. लेकिन यह मांग सिर्फ कर्ज के कारण बढ़ी, तेज विकास के कारण नहीं.

इस साल कई बड़ी एनबीएफसी के वित्तीय संकट में फंसने के बाद कर्ज की पाइपलाइन पूरी तरह बंद हो गई इसलिए बाजार को गुलजार करने वाली खपत टूट गई है. मकानों की मांग पहले से ही गर्त में बैठी है इसलिए कर्ज आधारित खपत लौटने में वक्त लगेगा.

उपभोग का दूसरा हिस्सा कमाई या बचत पर आधारित है जिसमें उपभोक्ता उत्पाद, खाद्य, कपड़े आदि आते हैं. अगर आम लोगों की वित्तीय बचतों के आंकड़े पर गौर फरमाया जाए तो साबुन, तेल, मंजन की मांग कम होने की वजह उसमें मिल जाएगी. 2011 में लोगों की वित्तीय बचत जीडीपी के अनुपात में 9.9 फीसदी थी जो 2018 में 6.6 फीसदी रह गई. यानी कि कमाई में कमी के कारण लोग खपत घटाने को मजबूर हैं.

2013-18 के बीच अचल संपत्ति यानी मकानों की कीमतें स्थिर रही हैं लेकिन कुल बचत के अनुपात में भौतिक बचत गिरना मकानों की मांग न बढ़ने का सबूत है. सोने के आयात व मांग में कमी भी इसी क्रम में है

पिछले पांच साल की तथाकथित तेज विकास दर के बीच रिकॉर्ड बेकारी का असर समझना जरूरी है. दुनिया के विभिन्न देशों का तजुर्बा बताता है कि जो देश तेज विकास दर के दौरान पर्याप्त रोजगार नहीं बनाते, उनके यहां बचत दर गिरती जाती है जो अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिए विस्फोटक है. सनद रहे कि 2017 में भारत में आम लोगों की कुल बचत दर बीस साल के सबसे निचले स्तर (जीडीपी के अनुपात में 17 फीसदी) पर आ गई थी.

चुनाव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन मोदी सरकार के कामकाज का सबसे बड़ा नतीजा आ गया है. अर्थव्यवस्था के आंकड़े रहस्य नहीं हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था आय-बचत-खपत-निवेश में समन्वित गिरावट के दुष्चक्र की तरफ खिसक रही है. विकास दर का आकलन घटाए जाने का दौर शुरू हो चुका है, सबसे बड़ी चिंता यह है कि नई सरकार आने पर कोई जादू नहीं होने वाला है. चुनाव की आंधी तो 23 मई को थम जाएगी लेकिन आर्थिक संकट के थपेड़े हमें लंबे समय तक बेहाल रखेंगे.

Tuesday, June 13, 2017

नोटबंदी और जीएसटी




जीएसटी और नोटबंदी में इतने गहरे अंतविरोध क्‍यों हैं ?
 

सोने की उत्पादक उपयोगिता (डिमेरिट या सिन प्रोडक्ट) नहीं है. सोने पर कम टैक्स एक  भारी सब्सिडी है जो देश के केवल दो फीसदी समृद्ध लोगों को मिलती है: आर्थिक समीक्षा 2015-16

वित्त मंत्री अरुण जेटली जब आम खपत की चीजों पर भारी टैक्स के बदले सोने पर तीन फीसदी और हीरे (अनगढ़) पर केवल 0.25 फीसदी जीएसटी लगाने का ऐलान कर रहे थे, तब शायद सबसे ज्यादा असहज स्थिति में सरकार के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मïण्यम रहे होंगे जिन्होंने बीते साल ही सोने पर नगण्य टैक्स की नीति को सूट-बूट की सरकारों के माफिक कहा था.

वैसे, नोटबंदी के पैरोकारों की जमात, जीएसटी पर सुब्रह्मïण्यम से ज्यादा असमंजस में है. जीएसटी नोटबंदी के पावनउद्देश्यों को सिर के बल खड़ा कर रहा है. नकद से दूर हटती अर्थव्यवस्था वित्तीय निवेशों (बॉन्ड, बीमा, शेयर, बैंक जमा) के लिए प्रोत्साहन और सोने व जमीन जैसे निवेशों पर सख्ती चाहती थी ताकि काले धन की खपत के रास्ते बंद हो सकें. लेकिन सोना सरकार का नूरे-नजर है. अचल संपत्ति जीएसटी से बाहर है और वित्तीय निवेशों पर टैक्स बढ़ गया है.

भारत में अधिकांश निजी संपत्ति भौतिक निवेशों में केंद्रित है. सोना और अचल संपत्ति इनमें प्रमुख हैं. क्रेडिट सुईस की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट (2016) बताती है कि भारत में 86 फीसदी निजी संपत्ति सोना या जमीन में केंद्रित है, वित्तीय निवेश का हिस्सा 15 फीसदी से भी कम है. अमेरिका में लगभग 72, जापान में 53 और ब्रिटेन में 51 फीसदी निजी संपîत्ति शेयर, बैंक बचत, बॉन्ड, बीमा के रूप में हैं.

नोटबंदी का सबसे सार्थक अगला कदम यही होना चाहिए था कि लोगों को सोना और जमीन में निवेश की आदत छोडऩे और वित्तीय निवेश के लिए प्रेरित किया जाए. सोना और जमीन हर तरह की कालिख पचा लेते हैं जबकि वित्तीय निवेशों की निगरानी आसान है.

सोने-हीरे पर जीएसटी का पाखंड दूर से चमकता है. गोल्ड क्रोनिज्म और सोना बेचने-खरीदने वालों की राजनीति इतनी ताकतवर थी कि सोना, हीरा, जेवरों पर केवल तीन फीसदी जीएसटी लगाया गया. इन महंगी खरीदों को विशेष दर्जा देने के लिए जीएसटी की नई दर भी ईजाद की गई.

भारत में सोने की 80 फीसदी खपत केवल 20 फीसदी जनता तक केंद्रित है. इनमें बड़े खरीदार आबादी का दो फीसदी हैं यानी कि कम टैक्स का फायदा केवल दो फीसदी लोगों को मिलेगा.

जानना जरूरी है कि दवा पर सोने से चार गुना या 12 फीसदी और उपभोक्ता सामान पर छह से नौ गुना ज्यादा जीएसटी लगेगा. हमें भूलना नहीं चाहिए कि 2015 में सरकार गोल्ड मॉनेटाइजेशन स्कीम लाई थी. तब प्रधानमंत्री ने लोगों से सोने का मोह छोडऩे को कहा था.

यदि वह आह्वान सही था तो सोने पर अधिकतम जीएसटी लगना चाहिए था ताकि लोग सोना खरीदने की बजाए गोल्ड बॉन्ड में निवेश करने को प्रेरित होते. अलबत्ता न्यूनतम टैक्स के साथ जीएसटी ने सोने को निवेश का सबसे आकर्षक विकल्प बना कर नोटबंदी के संकल्प को सिर के बल खड़ा कर दिया है.

काले धन को खपाने का सबसे बड़ा स्रोत यानी अचल संपत्ति जीएसटी से बाहर है. अगर जीएसटी वित्तीय पारदर्शिता का सबसे बड़ा अभियान है, तो जमीन-मकान के सौदों के जीएसटी के दायरे में होना ही चाहिए था.

पूरे देश में अचल संपत्ति रजिस्ट्रेशन और सर्किल दरें एक समान बनाकर रियल एस्टेट का कॉमन नेशनल मार्केट बनाना जरूरी है. जमीन-मकान की हर खरीद-फरोख्त पर डिजिटल निगरानी के बिना काले धन के इस्तेमाल पर रोक नामुमकिन है. अचल संपत्ति प्रत्येक कारोबार में आर्थिक  लागत का हिस्सा है, इस पर टैक्स क्रेडिट क्यों नहीं होना चाहिए?

राज्यों ने राजस्व को सुरक्षित रखने की गरज से अचल संपत्ति को दागी सौदों का बाजार बनाए रखना मुनासिब समझा. असंगति देखिए कि मकानों की बिक्री पर सर्विस टैक्स है लेकिन जमीन-मकान के सौदे जीएसटी से बाहर रहेंगे.

जीएसटी में नोटबंदी के शीर्षासन की एक और तस्वीर मिलती है. इस क्रांतिकारीसुधार के बाद वित्तीय सेवाओं पर सर्विस टैक्स 15 से बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगा यानी कि वित्तीय निवेश महंगा हो जाएगा. जीएसटी के बाद म्युचुअल फंड मैनेजमेंट चार्ज बढ़ जाएगा. बीमा पर जीएसटी भारी पड़ेगा. जीएसटी से शेयर ब्रोकरेज तो महंगा हो ही जाएगा.

नोटबंदी और जीएसटी दोनों एक ही टकसाल से निकले हैं.

लेकिन तय करना मुश्किल है कि नोटबंदी के मकसद ज्यादा पवित्र थे या फिर जीएसटी के उद्देश्य ज्यादा कीमती हैं?

या फिर सरकार में एक हाथ को दूसरे हाथ का पता ही नहीं है. 


Monday, November 21, 2011

बचा, बचा के !


कुछ पता चला आपको ? आपकी बचत का पूरा हिसाब कि‍ताब ही बदल गया है। छोडि़ये भी डाक घर जमा व प्रॉविडेंट फंड पर ब्यापज दर में मामूली बढ़ोत्तरी के ताजे तोहफे को। सरकार की कृपा से, अब छोटी बचतों में पाई पाई जोड़कर भविष्य को बेखटक बनाने का जुगाड़ पेचीदा और अनिश्चित होने वाला है। गारंटीड ब्याज या रिटर्न, सुरक्षा, सुविधा और कर रियायत वाली डाक घर बचत स्कीमों की दुनिया में बाजार घुस आया है। यानी कि इन पर रिटर्न का पहाडा नए सिरे से पढ़ना होगा।  छोटी बचतों में पिछले कई दशकों का, यह  सबसे बडा बदलाव है। जिसके आम लोगों की बचत का कारवां एक ऐसे सफर पर चल पड़ा है जहां अच्छे रिटर्न की गारंटी तो नहीं है अलबत्ता निर्मम बाजार की चपेट में आने का खतरा भरपूर है।
सारे घर के
इस दीवाली से लेकर बीते सप्ता‍ह तक सरकार ने बचतों में सारे घर के बदल दिये हैं। भारत में आम लोगो की छोटी बचत के दो ही ठिकाने हैं बैंकों की जमा (बचत बैंक और मियादी जमा यानी फिक्स्‍ड डिपॉजिट) और लघु बचत स्कींमें। ताजा बदलाव के दायरे में यह दोनों क्षेत्र आ गए हैं। बैंकों को जमा पर बयाज दर तय करने की छूट मिल गई जबकि लघु बचत स्कीमों का पूरा हुलिया ही बदल गया। 1873, 1959, 1968 और 1981 के बचत बैंक, प्रॉविडेंट फंड व बचत स्की म कानूनों के तहत आने वाले लघु बचत परिवार में आठ सदस्‍य हैं, जो डाक घर में रहते हैं।