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Sunday, March 19, 2023

डर के आगे जीत है


 

 

इटली के धुर पश्‍च‍िम में सुरम्‍य टस्‍कनी में एक बंदरहगार शहर है ल‍िवोनो

यूरोप के बंदरगाहों पर कारोबारियों की पुरानी खतो किताबत में लिवोनो के बारे में एक अनोखी जानकारी सामने आई

17वीं सदी में  ल‍िवोनो एक मुक्‍त बंदरगाह था. यह शहर यहूदी कारोबार‍ियों का गढ़ था यह शहर जो भूमध्‍यसागर के जरिये पूरी दुनिया में कारोबार करते थे

इन्‍हीं कारोबा‍र‍ियों था इसाक इर्गास एंड सिल्‍वेरा ट्रेड‍िंग हाउस. यह इटली के और यूरोप के अमीरों के लिए भारतीय हीरे मंगाता था

इर्गास एंड सिल्‍वेरा ठीक वैसे ही काम करते थे जैसे आज की राल्‍स रायस कार कंपनी करती है जो ग्राहक का आर्डर आने के बाद उसकी जरुरत और मांग पर राल्‍स रायस कार तैयार करती है.

ल‍िवोनो के यहूदी कारोबारियों के इतिहास का अध्‍ययन करने वाले इतालवी विद्वान फ्रैनेस्‍का टिवोलाटो लिखते हैं कि इर्गास एंड सिल्‍वेरा भारत ग्राहकों की पसंद के आधार पर भारत में हीरे तैयार करने का ऑर्डर भेजते थे. भारतीय व्‍यापारी इटली की मुद्रा लीरा में भुगतान नहीं लेते थे. उन्‍हें मूंगे या सोना चांदी में भुगतान चाहिए थे

इर्गास एंड सिल्‍वेरा मूंगे या सोने चांदी को लिस्‍बन (पुर्तगाल) भेजते थे जहां से बडे जहाज ऑर्डर और पेमेंट लेकर भारत के लिए निकलते थे. मानसूनी हवाओं का मौसम बनते ही लिस्‍बन में जहाज पाल चढाने लगते थे. हीरों के ऑर्डर इन जहाजों के भारत रवाना होने से पहले नहीं पहुंचे तो फिर हीरा मिल पाने की उम्‍मीद नहीं थी.

डच और पुर्तगाली जहाज एक साल की यात्रा के बाद भारत आते थे जहां कारोबारी मूंगे और सोना चांदी को परखकर हीरे देते थे. जहाजों को वापस लिस्‍बन लौटने में फिर एक साल लगता था. यानी अगर तूफान आदि में जहाज न डूबा तो करीब दो साल बाद यूरोप के अमीरों को उनका सामान मिलता था. फिर भी यह दशकों तक यह कारोबार जारी रहा

भारत के सोने की चिड़‍िया था मगर वह बनी कैसे?

भारत में सोने खदानों का कोई इतिहास नहीं है ?

इस सवाल का जवाब लिवोनो के दस्‍तावेजों से  मिलता है.  14 ईसवी के बाद यूरोप और खासतौर पर रोम को भारत के मसालो और रत्‍नो की की लत लग गई थी. रोम के लोग विलास‍िता पर इतना खर्च करते थे  सम्राट टिबेर‍ियस को कहना पडा कि रोमन लोग अपने स्‍वाद और विलास‍िता के कारण देश का खजाना खाली करने लगे हैं. यूरोप की संपत्‍त‍ि भारत आने का यह यह क्रम 17 वीं 18 वीं सदी तक चलता रहा.

18 वीं सदी की शुरुआत में पुर्तगाली अफ्रीका और फिर लैट‍िन अमेरिका से सोना हासिल करने लगे थे. इतिहास के साक्ष्‍य बताते हैं कि 1712 से 1755 के बीच हर साल करीब दस टन सोना लिस्‍बन से एश‍िया खासतौर पर भारत आता था  जिसके बदले जाते थे मसाले, रत्‍न और कपड़े.

यानी भारत को सोने की च‍िड़‍िया के बनाने वाला सोना न तो भारत में निकला था और न लूट से आया था. भारत की समग्र एतिहासिक समृद्ध‍ि केवल विदेशी कारोबार की देन थी.

आज जब भारत में व्‍यापार के उदारीकरण, विदेशी निवेश और व्‍यापार समझौतों को लेकर असमंजस और विरोध देखते हैं तो अनायास ही सवाल कौंधता है कि हम अपने इतिहास क्‍या कुछ भी सीख पाते हैं. क्‍यों कि अगर सीख पाए होते मुक्‍त व्‍यापार संध‍ियों की तरफ वापसी में दस साल न लगते.

 

एक दशक का नुकसान

आखि‍री व्‍यापार समझौता फरवरी 2011 में मलेश‍िया के साथ हुआ था. 2014 में आई सरकार सात साल तक संरंक्षणवाद के खोल में घुस गई इसलिए अगला समझौता के दस साल बाद फरवरी 2022 में अमीरात के साथ हुआ. इस दौरान दुनिया में व्‍यापार की जहाज के बहुत आगे निकल गए.  कोविड के आने तक दुनिया में व्‍यापार का आकार दोगुना हो गया था.

 भारत जिस वक्‍त अपने दरवाजे बंद कर रहा था यानी 2013 के बाद मुक्‍त व्‍यापार से पीछे हटने के फैसले हुए उसके के बाद दशकों में दुनिया की व्‍यापार वृद्ध‍ि दर  तेजी से बढ़ी. अंकटाड की 2021 इंटरनेशनल ट्रेड रिपोर्ट बताती है कि कोविड आने तक दुनिया व्‍यापार में विकसति और विकासशील देशों का का हिस्‍सा लगभग बराबर हो गया था. चीन और रुस के ब्रिक्‍स देश इस बाजार में बड़े हिस्‍सेदार हो गए थे जबकि भारत बड़ा आयातक बनकर उभरा था

 देर आयद मगर दुरुस्‍त नहीं

बाजार बंद रखने का सबसे बडा नुकसान हुआ है. यह कई अलग अलग आंकड़ों में दिखता है निर्यात की दुनिया जरा पेचीदा है. इसमें अन्‍य देशों से तुलना करने कई पैमाने हैं. जैसे कि कि दुनिया के निर्यात में भारत का हिस्‍सा अभी भी केवल 2 फीसदी है. इसमें भी सामनों यानी मर्चेंडाइज निर्यात में हिस्‍सेदारी तो दो फीसदी से भी कम है. सामानों का निर्यात निवेश और उत्‍पादन का जरिया होता है.

विश्‍व न‍िर्यात में चीन अमेरिका और जर्मनी का हिस्‍सा 15,8 और 7 फीसदी है. छोटी सी अर्थव्‍यवस्‍था वाला सिंगापुर भी दुन‍िया के निर्यात हिस्‍सेदारी में भारत से ऊपर है. निर्यात को अपनी ताकत बना रहे इंडोनेश‍िया मलेश‍िया वियतनाम जैसे देश भारत के आसपास ही है. मगर एक बड़ा फर्क यह है कि इनकी

जीडीपी के अनुपात में  निर्यात 45 से 100 फीसदी तक हैं. दुनिया के 130 देशों में निर्यात जीडीपी का अनुपात औसत 43 फीसदी है भारत में यह औसत आधा करीब 20 फीसदी है. 

निर्यात के ह‍िसाब का एक और पहलू यह है कि किस देश के निर्यात  में मूल्‍य और मात्रा का अनुपात क्‍या है. आमतौर पर खन‍िज और कच्‍चे माल का निर्यात करने वाले देशों के निर्यात की मात्रा ज्‍यादा होती है. यह उस देश में निवेश और वैल्‍यूएडीशन की कमी का प्रमाण है. भारत के मात्रा और मूल्‍य दोनों में पेट्रो उत्‍पादों का नि‍र्यात सबसे बड1ा है लेक‍िन इसमें आयातित कच्‍चे माल बडा हिस्‍सा है

इसके अलावा ज्‍यादातर निर्यात खन‍िज या चावल, गेहूं आद‍ि कमॉडिटी का है. मैन्‍युफैक्‍चरिंग निर्यात तेजी से नहीं बढे हैं. बि‍जली का सामान प्रमुख फैक्‍ट्री निर्यात है. मोबाइल फोन का निर्यात ताजी भर्ती हैं लेक‍िन यहां आयाति‍त पुर्जों पर निर्भरता काफी ज्‍यादा है.

पिछले दशकों में निर्यात का ढांचा पूरी तरह बदल गया है. श्रम गहन (कपडा, रत्न जेवरात और चमड़ा) निर्यात पिछड़ रहे हैं. भारत ने रिफाइनिंग और इलेक्ट्रानिक्स में कुछ बढ़त ली है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है और प्रतिस्पर्धा गहरी है.

कपड़ा या परिधान उद्योग इसका उदाहरण है जो करीब 4.5 करोड लोगों को रोजगार देता है और निर्यात में 15 फीसदी हिस्सा रखता है. 2000 से 2010 के दौरान वि‍श्व कपडा निर्यात में चीन ने अपना हिस्सा दोगुना (18 से 36%) कर लिया जबकि भारत के केवल 3 फीसदी से 3.2 फीसदी पर पहुंच सका. 2016 तक बंग्लादेश (6.4%) वियतनाम (5.5%) भारत (4%) को काफी पीछे छोड़ चुके थे.

शुक्र है समझ तो आया

इस सवाल का जवाब सरकार ने कभी नहीं दिया कि आख‍िर जब दुनिया को निर्यात बढ रहा तो हमने व्‍यापार समझौते करने के क्‍यों बंद कर दिये. भारत के ग्‍लोबलाइजेशन का विरोध करने वाले कभी यह नहीं बता पाए कि आख‍िर व्‍यापार समझौतों से नुकसान क्‍या हुआ

दुनिया के करीब 13 देशों साथ भारत के मुक्‍त व्‍यापार समझौते और 6 देशों के साथ वरीयक व्‍यापार संध‍ियां इस समय सक्रिय हैं. आरसीईपी में भारत संभावनाओं का आकलन करने वाली भल्ला समिति ने आंकड़ों के साथ बताया है कि सभी मुक्त  व्यापार  समझौते  भारत  के  लिए  बेहद  फायदेमंद रहे हैंइनके  तहत  आयात और निर्यात  ढांचा संतुलित है  यानी कच्चे माल का निर्यात और उपभोक्ता उत्पादों का आयात बेहद सीमित है.

जैसे कि 2009  आस‍ियान के साथ भारत का एफटीए सबसे सफल रहा है. फ‍िलि‍प्‍स कैपटिल की एक ताज रिपोर्ट बताती है कि देश के कुल निर्यात आस‍ियान का हिस्‍सा करीब 10 फीसदी है. आस‍ियान में सिंगापुर, मलेश‍िया इंडोनेश‍िया और वियतनाम सबसे बड़े भागीदार है. अब चीन की अगुआई वाले महाकाय संध‍ि आरसीईपी में इन देशों के शामिल होने के बाद भारत के निर्यात में चुनौती मिलेगी क्‍यों इस संध‍ि के देशों के बीच सीमा शुल्‍क रहित मुक्‍त व्‍यापार की शुरुआत हो रही है.

2004 का साफ्टा संधि जो दक्ष‍िण एश‍िया देशों साथ हुई उसकी हिस्‍सेदारी कुल निर्यात में 8 फीसदी है. यहां बंग्‍लादेश सबसे बडा भागीदार है.

 

कोरिया के साथ व्‍यापार संधि में निर्यात बढ़ रहा है लेक‍िन भारत जापान मुक्‍त व्‍यापार संध‍ि से निर्यात को बहुत फायदा नहीं हुआ. जापान जैसी विकस‍ित अर्थव्‍यवस्‍था को भारत का निर्यात बहुत सीमि‍त है.

अमीरात के साथ मुक्‍त व्‍यापार समझौते के साथ दरवाजे फिर खुले हैं. यह भारत का तीसरा सबसे बडा व्‍यापार भागीदार है लेक‍िन निर्यात में बड़ा हिस्‍सा मिन‍िरल आयल , रिफाइनरी उत्‍पाद, रत्‍न -आभूषण और बिजली मशीनरी तक सीमित है.  इस समझौते के निर्यात का दायरा बड़ा होने की संभावना है

इसी तरह आस्‍ट्रेल‍िया जो भारत के न‍िर्यात भागीदारों की सूची में 14 वें नंबर पर है. उसके साथ ताजा समझौते के बाद  दवा, इंजीन‍ियर‍िंग चमड़े के निर्यात बढ़ने की संभावना है.

व्‍यापार समझौते सक्रिय होने और उनके फायदे मिलने में लंबा वक्‍त लगता है. भारत में इस राह पर चलने के असमंजस में पूरा एक दशक निकाल द‍िया है वियतनाम ने बीते 10 सालों में 15 मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) किये हैं जबकि 20 शीर्ष व्‍यापार भागीदारों में कवेल सात देशों के साथ भारत के मुक्‍त व्‍यापर समझौते हैं. बंगलादेश, इंडोनेश‍िया और वियतनाम से व्‍यापार में वरीयता मिलती है.  यूके कनाडा और यूरोपीय समुदाय के साथ बातचीत अभी शुरु हुई है

मौका भी जरुरत भी

वक्‍त भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को फिर एक बडे निर्णायक मोड़ पर ले आया है. बीते दो दशक की कोश‍िशों के बावजूद भारत में मैन्‍युफैक्‍चरिग में बहुत बड़ा निवेश नहीं हुआ. रोजगारों में बड़ा हिस्‍सा सेवाओं से ही आया फैक्‍ट्र‍ियों से नहीं. 2011 के बाद आम लोगों की कमाई में बढ़त धीमी पडती गई इसलिए जीडीपी में उपभोग चार्च का हिस्‍सा अर्से से 55 -60 फीसदी के बीच सीमित है.

अब भारत को अगर पूंजी निवेश बढ़ाना है तो उसे अपेन घरेलू बाजार में मांग चाहिए. मांग के लिए चाहिए रोजगार और वेतन में बढ़त.

मेकेंजी की रिपोर्ट बताती है कि  करीब छह करोड़ नए बेरोजगारों और खेती से बाहर निकलने वाले तीन करोड़ लोगों को काम देने के लिए भारत को 2030 तक करीब नौ करोड़ नए रोजगार बनाने होंगे. यदि श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी का असंतुलन दूर किया जाना है तो इनमें करीब 5.5 करोड़ अति‍रिक्त रोजगार महिलाओं को देने होंगे

2030 तक नौ करोड रोजगारों का मतलब है 2023 से अगले सात वर्ष में हर साल करीब 1.2 करोड़ रोजगारों का सृजन. यह लक्ष्य कितना बड़ा है इसे तथ्य की रोशनी में समझा जा सकता है कि 2012 से 2018 के बीच भारत में हर साल केवल 40 लाख गैर कृषि‍ रोजगार बन पाए हैं.

कृषि से इतर बड़े पैमाने पर   रोजगार (2030 तक नौ करोड़ गैर कृषि‍ रोजगार) पैदा करने के लिए अर्थव्यवस्था को सालाना औसतन 9 फीसद की दर से बढ़ना होगा. अगले तीन चार वर्षों में यह विकास दर कम से 10 से 11 फीसदी होनी चाहिए. 

 

यह विकास दर अकेले घरेलू मांग की दम पर हासिल नहीं हो सकती. भारत को ग्‍लोकल रणनीति चाहिए. जिसमें जीडीपी में निर्यात का हिस्‍सा कम से कम वक्‍त में दोगुना यानी 40 फीसदी करना होगा. मैन्‍युफैक्‍चरिंग का पहिया दुनिया के बाजार की ताकत चाहिए.

इस रणनीति के पक्ष में दो पहलू हैं

एक – रुस और चीन के ताजा रिश्‍तों के बाद अमेरिका और यूरोप के बाजारों में चीन को लेकर सतर्कता बढ़ रही है. यहां के बाजारों में भारत को नए अवसर मिल सकते हैं.

दूसरा – संयोग से भारत की मुद्रा यानी रुपया गिरावट के साथ भरपूर प्रतिस्‍पर्धात्‍मक हो गया है

आईएमएफ का मानना है कि भारत अगर ग्‍लोबलाइजेशन की नई मुहिम शुरु करे तो निर्यात को अगले दशक में निवेश और रोजगार का दूसरा इंजन बनाया जा सकता है.

भारत के लिए आत्मनिर्भरता का नया मतलब यह है कि दुनिया की जरुरत के हिसाब, दुनिया की शर्त पर उत्‍पादन करना. यही तो वह सूझ थी जिससे भारत सोने की चिड़‍िया बना था तो अब बाजार खोलने में डर किस बात का है?

 

 

Thursday, March 10, 2022

वो सदी आ गई !

 


यह फरवरी 2022 का पहला हफ्ता था.  रुसी राष्‍ट्रपति ब्‍लादीम‍िर पुत‍िन
, बेलारुस के साथ सैन्‍य अभ्‍यास के बहाने यूक्रेन पर यलग़ार की तैयार‍ियां परख रहे थे. ठीक उसी वक्‍त सुदूर पूर्व के  दक्ष‍िण कोर‍िया में आरसीईपी (रीजनल कंप्रहेसिव कोऑपरेटिव पार्टन‍रशि‍प) प्रभावी हो गई, यानी की द‍ुन‍िया की दसवीं अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व के सबसे बड़े व्‍यापार समूह को लागू कर चुकी थी. 2022 की शुरुआत में महामारी का मारा यूरोप खून खच्‍चर और महंगाई के  डर से अधमरा हुआ जा रहा था तब   एश‍िया की नई तस्‍वीर फलक पर उभरने लगी थी.

कोरोना वायरस के नए संस्‍करण ऑम‍िक्रॉन के हल्‍ले के बावजूद, चीन की अगुआई वाली इस व्‍यापार संध‍ि का उद्घाटन इतना तेज तर्रार रहा कि  अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि जो बाइडेन को कहना पड़ा कि वह भी एक नए व्‍यापार गठजोड़ की कोशि‍श शुरु कर रहे हैं. पिछले अमेरिकी मुखि‍या डोनल्‍ड ट्रंप ने  टीपीपी यानी ट्रांस पैस‍िफि‍क पार्टनरशि‍प के प्रयासों को कचरे के डब्‍बे में फेंक दिया था जो आरसीईपी के लिए चुनौती बन सकती थी.

याद रहे क‍ि इसी भारत इसी आरसीईपी  से बाहर निकल आया था . यह दोनों बड़ी अर्थव्‍यवस्‍थायें इस समझौते का हिस्‍सा नहीं हैं. चाहे न चाहे लेकि‍न चीन इस कारवां सबसे अगले रथ पर सवार हो गया है .

आरसईपी के आंकड़ों की रोशनी में एश‍िया एक नया परिभाषा के साथ उभर आया है आस‍ियान के दस देश (ब्रुनेई, कंबोड‍िया, इंडोनेश‍िया, थाईलैंड, लाओस, मलेश‍िया, म्‍यान्‍मार, फिलीपींस, सिंगापुर, वियतनाम) इसका हिस्‍सा हैं जबकि आस्‍ट्रेल‍िया, चीन, जापान, न्‍यूजीलैंड और दक्ष‍िण कोर‍िया इसके एफटीए पार्टनर हैं. यह चीन का पहला बहुतक्षीय व्‍यापार समझौता है.

दुनिया की करीब 30 फीसदी आबादी, 30 फीसदी जीडीपी और 28 फीसदी व्‍यापार इस समझौते के प्रभाव क्षेत्र में है.  विश्‍व व्‍यापार में हिस्‍सेदारी के पैमाने  इसके करीब पहुंचने वाले व्‍यापार समझौते में अमेरिका कनाडा मैक्‍स‍िको (28%) और यूरोपीय समुदाय (17.9%) हैं

आरसीईपी के 15 सदस्‍य देशों ने अंतर समूह व्‍यापार के लिए 90 फीसदी उत्‍पादों पर सीमा शुल्‍क शून्‍य कर दि‍या है..यानी  कोई कस्‍टम ड्यूटी नहीं. संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के व्‍यापार संगठन अंकटाड ने बताया है कि इस समझौते से 2030 तक आरसीईपी क्षेत्र में निर्यात में करीब 42 अरब डॉलर की बढ़ोत्‍तरी होगी. यह समझौता अगले आठ वर्ष में ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था में 200 अरब डॉलर का सालाना योगदान करने लगेगा. क्‍या यूरोप यह सुन पा रहा है कि बकौल अंकटाड,  अपने आकार और व्‍यापार वैव‍िध्‍य के कारण आरसीईपी  दुन‍िया में व्‍यापार का नया केंद्र होने वाला है. 

आप इसे चीन की दबंगई कहें, अमेरिका की जिद या  भारत का  स्‍वनिर्मित भ्रम लेकिन आरसीईपी और एशि‍या की सदी का उदय एक साथ हो रहा है. वही सदी जिसका जिक्र हम दशकों से नेताओं भाषणों में सुनते आए हैं.  एश‍िया की वह सदी यकीनन अब आ पहुंची है  

यह है नया एश‍िया

एश‍िया की आर्थिक ताकत बढ़ने की गणना 2010 से शुरु हो गई थी, गरीबी पिछड़पेन और आय व‍िि‍वधता के बावजूद एश‍िया ने यूरोप और अमेरिका की जगह दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्रीय स्‍थान लेना शुरु कर दिया था. महामारी के बाद जो आंकडे आए हैं, दुन‍िया की आर्थ‍िक धुरी बदलने की तरफ इशारा करते हैं.

कोविड के इस तूफान का सबसे मजबूती से सामना एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं ने कि‍या. आईएमफ का आकलन बताता है कि महामारी के दौरान 2020 में दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍थायें करीब 3.2 फीसदी सि‍कुड़ी लेक‍िन एशि‍या की ढलान  केवल 1.5 फीसदी थी. एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं की वापसी भी तेज थी जुलाई में 2021 में आईएमएफ ने बताया क‍ि 2021 में  एश‍िया  7.5 फीसदी की दर से और 2022 में 6.4 फीसदी की दर से विकास कर करेगा जबकि‍ दुनिया की विकास दर 6 और 4.9 फीसदी रहेगी.

2020 में महामारी के दौरान दुनिया का व्‍यापार 5 फीसदी सिकुड़ गया लेक‍िन ग्‍लोबल व्‍यापार में एश‍िया का हिस्‍सा 60 फीसदी पर कायम रहा यानी नुकसान यूरोप अमेरिका को ज्‍यादा हुआ. 

2021 में आस‍ियान  चीन का सबसे बड़ा कारोबारी भागीदार बन गया है. इस भागीदारी की ताकत  2019 में मेकेंजी की एक रिपोर्ट से समझी जा सकती  है. एश‍िया का 60 फीसदी व्‍यापार  और 59 फीसदी विदेशी निवेश अंतरक्षेत्रीय  है. चीन से कंपन‍ियों के पलायन के दावों की गर्द अब बैठ चुकी है. 2021 में यूरोपीय  और अमेरिकी चैम्‍बर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 80-90 फीसदी कंपन‍ियां चीन छोड़ कर नहीं जाना चाहती. आरसीईपी ने इस पलायन का अध्‍याय बंद कर दिया है क्‍यों कि अध‍िकांश बाजार शुल्‍क मुक्‍त या डयूटी फ्री हो गए  हैं. इन कंपनियों  ज्‍यादातर उत्‍पादन अंतरक्षेत्रीय बाजार में बिकता  है

बात पुरानी है

एशिया की यह नई ताकत एक दशक पहले बनना शुरु हुई थी. मेकेंजी सह‍ित कई अलग अलग सर्वे  2018 में ही बता चुके थे  कि ग्‍लोबल टेक्‍नोलॉजी व्‍यापार के पैमानेां पर  एश‍िया  सबसे तेज दौड़ रहा है.  टेक्‍नोलॉजी राजस्‍व की अंतरराष्‍ट्रीय विकास दर में 52 फीसदी, स्‍टार्ट अफ फंड‍िंग में 43 फीसदी, शोध विकास फंड‍िंग में 51 फीसदी और पेटेंट में 87 फीसदी ह‍िस्‍सा अब एश‍िया का है.

ब्‍लूमबर्ग इन्‍नोवेशन इंडेक्‍स 2021  के तहत कोरिया दुनिया के 60 सबसे इन्‍नोवेटिव देशों की सूची में पहले स्‍थान पर है. अमेरिका शीर्ष दस से बाहर हो गया है. यही वजह है कि   महामारी के बाद न्‍यू इकोनॉमी में एश‍िया के दांव बड़े हो रहे हैं. शोध और विज्ञान का पुराना गुरु जापान जाग रहा है. मार्च 2022 तक जापान में एक विशाल यून‍िवर्स‍िटी इनडाउमेंट फंड काम करने लगेगा  जो करीब 90 अरब डॉलर की शोध पर‍ियोजनाओं को वित्‍तीय मदद देगा. चीन में अब शोध व विकास की क्षमतायें विश्‍व स्‍तर पर पहुंचने के आकलन लगातार आ रहे हैं.

अलबत्‍ता एश‍िया की सदी का सबसे कीमती  आंकड़ा यहां है. अगले एक दशक दुनिया की आधी खपत मांग एश‍िया के उपभोक्‍ताओं से आएगी. मेंकेंजी सहित कई संस्‍थाओं के अध्‍ययन बताते हैं क‍ि यह उपभोक्‍ता बाजार कंपनियों के लिए करीब 10 अरब डॉलर का अवसर है.  क्‍यों क‍ि 2030 तक एश‍िया की करीब 70 फीसदी आबादी उपभोक्‍ता समूह का हिस्‍सा होगी यानी कि वे 11 डॉलर ( 900 रुपये) प्रति द‍िन खर्च कर रहे होंगे. सन 2000 यह प्रतिशित 15 पर था. अगले एक दशक में 80 फीसदी मांग मध्‍यम व उच्‍च आय वर्ग की खपत से निकलेगी. 2030 तक करी 40 फीसदी मांग ड‍िजटिल नैटिव तैयार करेंगे.

दुनिया की कंपनियां इस बदलाव को करीब से पढ़ती रही हैं . कोवडि  से पहले एक दशक में प्रति दो डॉलर के नए विश्‍व निवेश में एक डॉलर एश‍िया में गया था और प्रत्‍येक तीन डॉलर में से एक चीन में लगाया गया. 2020 में दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में  एशि‍या से आए राजस्‍व का हि‍स्‍सा करीब 43 फीसदी था अलबत्‍ता इस मुकाल पर  एश‍िया का सबसे बड़ी कमजोरी भी उभर आती है

सबसे बड़ी दरार  

एश‍िया की कंपन‍ियों के मुनाफे पश्‍च‍ित की कंपनी से  कम हैं. 2005 से 2017 के बीच दुन‍िया में कारपोरेट घाटों में एश‍िया की कंपनियों का हिस्‍सा सबसे बड़ा था. यही हाल संकट में फंसी कंपनियों के सूचकांकों का है एश‍िया की करीब 24 फीसदी कंपन‍ियां ग्‍लोबल कंपन‍ियों के इकनॉमिक प्रॉफि‍ट सूचकांक में सबसे नीचे हैं. शीर्ष में केवल 14 फीसदी कंपन‍ियां एश‍िया से आती हैं. एश‍िया के पास एप्‍पल, जीएम, बॉश, गूगल, यूनीलीवर, नेस्‍ले, फाइजर जैसे चैम्‍पियन नहीं हैं.

शायद यही वजह थी  एश‍िया के मुल्‍कों की कंपन‍ियों ने सरकारों की ह‍िम्मत बढ़ाई और वे आरसीईपी के जहाज पर सवार  हो गए.  अगली सदी अगर एश‍िया की है तो कंपन‍ियों को इसकी अगुआई करनी है. मुक्‍त  व्‍यापार की विटामिन से लागत घटेगी, बाजार बढ़ेगा और शायद अगले एक दशक में एश‍िया में पास भी ग्‍लोबल चैम्‍प‍ियन होंगे.

आपसी रिश्‍ते तय और अपने लोगों के भव‍िष्‍य को सुरक्ष‍ित के करने के मामलों में यूरोप के सनकी और दंभ भरे नेताओं की तुलना में में एश‍िया के छोटे देशों ने ज्‍यादा समझदारी दि‍खाई है यही वजह है कि आरसीईपी के तहत  चीन जापान व कोरिया एक साथ आए हैं यह इन तीनों प्रत‍िस्‍पि‍र्ध‍ियों का यह पहला कूटनीतिक, व्‍यापार‍िक गठजोड़ है. यूरोप जब जंग के मैदान से लौटेगा तब उसे मंदी के अंधेरे को दूर करने के लिए बाजार की  एश‍िया से रोशनी मांगनी  पड़ेगी.

भारतीय राजनीति दक‍ियानूसी बहसों का नशा किये हुए है जबकि  इस नई उड़ान की पायलट की सीट चीन ने संभाल ली है. भारत के नेताओं को पता चले क‍ि, वह एश‍िया की जिस सदी के नेतृत्‍व का गाल बजाते रहते हैं. वह सदी  शुरु होती है अब ...  

Thursday, November 19, 2020

कारवां गुजर गया...

 


कहते हैं कि अमेजन वाले जेफ बेजोस और चीन के पास बदलती दुनिया की सबसे बेहतर समझ है. वे न सिर्फ यह जानते हैं कि क्या बदलने वाला है बल्कि यह भी जानते हैं कि क्या नहीं बदलेगा.

बेजोस ने एक बार कहा था कि कुछ भी बदल जाए लेकिन कोई उत्पादों को महंगा करने या डिलिवरी की रफ्तार धीमी करने को नहीं कहेगा. लगभग ऐसा ही ग्लोबलाइजेशन के साथ है जिससे आर्थिक तरक्की तो क्या, कोविड का इलाज भी असंभव है. चीन ने यह सच वक्त रहते भांप लिया है.

दुनिया जब तक यह समझ पाती कि डोनाल्ड ट्रंप की विदाई उस व्यापार व्यवस्था से इनकार भी है जो दुनिया को कछुओं की तरह अपने खोल में सिमटने यानी बाजार बंद करने के लिए प्रेरित कर रही थी, तब तक चीन ने विश्व व्यापार व्यवस्था का तख्ता पलट कर ग्लोबलाइजेशन के नए कमांडर की कुर्सी संभाल ली.

चीन, पहली बार किसी व्यापार समूह का हिस्सा बना है. आरसीईपी (रीजन कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) जीडीपी के आधार पर दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक (30 फीसद आबादी) गुट है, जिसमें दक्षिण-पूर्व एशिया (आसियान) के देश, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड के अलावा एशिया की पहली (चीन), दूसरी (जापान) और चौथी (कोरिया) सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं. आरसीईपी अगले दस साल में आपसी व्यापार में 90 फीसद सामान पर इंपोर्ट ड‍्यूटी पूरी तरह खत्म कर देगा.

आरसीईपी के गठन का मतलब है कि

चीन जो विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में सबसे देर से दाखिल हुआ था, उसने उदारीकरण को ग्लोबल कूटनीति की मुख्य धारा में फिर बिठा दिया है. मुक्त व्यापार की बिसात पर आरसीईपी चीन के लिए बड़ा मजबूत दांव होने वाला है.

अमेरिका के नेतृत्व में ट्रांस पैसिफिक संधि‍, (ट्रंप ने जिसे छोड़ दिया था) को दुनिया की सबसे बड़ा आर्थिक व्यापारिक समूह बनना था. आरसीईपी के अब अमेरिका, लैटिन अमेरिका, कनाडा और यूरोप को अपनी संधिखड़ी करनी ही होगी.

छह साल तक वार्ताओं में शामिल रहने के बाद, बीते नवंबर में भारत ने अचानक इस महासंधिको पीठ दिखा दी. फायदा किसे हुआ यह पता नहीं लेकिन सरकार को यह जरूर मालूम था कि आरसीईपी जैसे बड़े व्यापारिक गुट का हिस्सा बनने पर भारत के जीडीपी में करीब एक फीसद, निवेश में 1.22 फीसद और निजी खपत में 0.73 फीसद  की बढ़ोतरी हो सकती थी (सुरजीत भल्ला समिति 2019). वजह यह कि आरसीईपीमें शामिल आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) हैं. इन समझौतों के बाद (आर्थिक समीक्षा 2015-16) इन देशों से भारतीय व्यापार 50 फीसद बढ़ा. निर्यात में बढ़ोतरी तो 25 फीसद से ज्यादा रही.

आत्मनिर्भरता के हिमायती स्वदेशीचिंतकमान रहे थे कि भारत के निकलने से आरसीईपी बैठ जाएगा पर किसी ने हमारा इंतजार नहीं किया. यही लोग अब कह रहे हैं कि धीर धरो, आरसीईपी में शामिल देशों से भारत के व्यापार समझौतों पर इस महासंधिका असर नहीं होगा. जबकि हकीकत यह है कि आरसीईपी के सदस्य दोतरफा और बहुपक्षीय व्यापार में अलग-अलग नियम नहीं अपनाएंगे. दस साल में यह पूरी तरह मुक्त व्यापार (ड‍्यूटी फ्री) क्षेत्र होगा. भारत को चीन से निकलने वाली कंपनियों की अगवानी की उम्मीद है लेकिन तमाम प्रोत्साहनों के चलते वे अब इस समझौते के सदस्यों को वरीयता देंगी. यानी कि भारत के और ज्यादा अलग-थलग पड़ने का खतरा है.

आरसीईपी के साथ उदार बाजार (ग्लोबाइलाइजेशन) पर भरोसा लौट रहा है. कारोबारी हित जापान और चीन को एक मंच पर ले आए हैं. नई व्यापार संधियां बनने में लंबा वक्त लेती हैं इसलिए आरसीईपी फिलहाल अगले एक दशक तक दुनिया में बहुपक्षीय व्यापार का सबसे ताकतवर समूह रहेगा. ‍

भविष्य जब डराता है तो लोग सबसे अच्छे दिन वापस पाना चाहते हैं. जीडीपी में बढ़त, गरीबी में कमी, नई तकनीकें, अंतरराष्ट्रीय संपर्क ताजा इतिहास में सबसे अच्छे दिन हैं जो ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण ने गढ़े थे. आज कोविड वैक्सीन और दवा पर अंतरराष्ट्रीय विनिमय इसी की देन है.

बीते दो दशक में मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन ने भारत की विकास दर में करीब पांच फीसद का इजाफा किया. यानी गरीबी घटाने वाली ग्रोथ काचमत्कारदुनिया से हमारी साझेदारी का नतीजा था. इसे दोहराने के लिए अब हमें पहले से दोहरी मेहनत करनी होगी.

आरसीईपी को भारत की नहीं बल्किबल्कि भारत को दुनिया के बाजार की ज्यादा जरूरत है. कोविड की मंदी के बाद घरेलू मांग के सहारे 6 फीसद की विकास दर भी नामुमकिन है. अब विदेशी बाजारों के लिए उत्पादन (निर्यात) के बिना अर्थव्यवस्था खड़ी नहीं हो सकती.

एशिया में मुक्त व्यापार का कारवां, भारत को छोड़कर चीन की अगुआई में नई व्यवस्था की तरफ बढ़ गया है. भारत को इस में अपनी जगह बनानी होगी, उसकी शर्तों पर व्यवस्था नहीं बदलेगी.

Friday, May 8, 2020

...मगर इंतजार है



व‍िक्रम की पीठ पर सेट होते ही वेताल ने सवाल दागा, हे राजन! जब दुनिया की कंपनियां चीन से निकल कर दूसरे ठिकाने तलाश रहीं हैं तब दिल्ली की सरकार कछुए की तरह विदेशी निवेश पर पाबंदियों के खोल में क्यों दुबक गई? जापान तो इन्हें लुभाने के लिए एक पैकेज ले आया है और जब सरकार इन्हें बुलाना चाहती है तो उसकी वैचारिक रसोई के आर्थिक सलाहकार चीन के टरबाइन से बनी बिजली से चार्ज हुए चीनी मोबाइल लेकर विदेशी निवेशकों को डरा क्यों रहे हैं?

विक्रम ने कहा कि हे पुराने प्रेत! आत्मनिर्भरता के सभी मतलब बदल चुके हैं. इससे पहले कि तुम उड़ जाओ, श्मशान से आते-जाते, मुझे आने वाली दुनिया की झलक मिली है. उसका वृत्तांत ध्यान लगाकर सुनो.

कोविड की धमक से पहले ही दुनिया में नए चीन की तलाश शुरू हो चुकी थी. चीन में महंगी होती मजदूरी से कंपनियां पहले ही परेशान थीं. इस बीच अमेरिका से व्यापार युद्ध के बाद इंपोर्ट ्यूटी बढ़ने से डरी कंपनियों ने चीन से डेरा उठाना शुरू कर दिया था. 2018 तक चीन में विदेशी निवेश बढ़ने की सालाना गति घटकर 15 फीसद से नीचे (2009 में 25 फीसद-अंकटाड) गई थी.

कोविड के कहर के बाद भगदड़ तेज होने की आशंका के बीच उद्योग अब समझ चुके हैं कि कोई एक मुल्क अकेला नया चीन नहीं हो सकता जो एक साथ सस्ते श्रम, बुनियादी ढांचे और कम लागत की सुविधा दे सके. इसलिए अब दुनिया में कई छोटे-छोटे चीन होंगे जहां ये कंपनियां अपना नया ठिकाना बनाएंगी.

चीन से कंपनियों के संभावित पलायन पर रोबो बैंक का अध्ययन (कोविड से ठीक पहले) बताता है कि ऑटोमोटिव, खिलौने, कंप्यूटर रोबोटिक्स, इलेक्ट्रॉ निक्स, पैकेजिं, टेक्नोलॉजी हार्डवेयर, फुटवियर, गारमेंट कंपनियां दुनिया के अन्य देशों में जाना चाहती हैं. अमेरिकन चैम्बर के मुताबिक, करीब 25 फीसद अमेरिकी कंपनियां दक्षि पूर्व एशिया में रहना चाहती हैं जबकि 8-10 फीसद अन्य देशों में जाएंगी.

चीन से बाहर इस निवेश के संभावित देशों की सूची में मलेशिया, ताईवान, थाईलैंड, वियतनाम, भारत, सिंगापुर, फिलीपींस, इंडोनेशिया, दक्षि कोरिया, जापान, श्रीलंका, मंगोलिया, कंबोडिया, लाओस, पाकिस्तान, म्यांमार और बंगलादेश शामिल हैं.

चीन से कंपनियों का प्रवास चार पैमानों पर निर्भर होगा.

मेजबानों के निर्यात ढांचे की चीन के साथ समानता. इस पैमाने पर वियतनाम, थाईलैंड, कोरिया, ताईवान, मलेशिया, फिलीपींस के बाद भारत का नंबर आता है

चीन के मुकाबले श्रम लागत में कमी के पैमाने पर मंगोलिया, बंगलादेश, श्रीलंका, कंबोडिया सबसे आकर्षक हैं. भारत इनके बाद है लेकि थाईलैंड, मलेशिया और फिलीपींस से सस्ता है.

कारोबार की आसानी में सिंगापुर, कोरिया, ताईवान, मलेशिया और थाईलैंड सबसे आगे हैं, भारत इस सूची में काफी पीछे है

नियामक तंत्र की गुणवत्ता के मामले में भारत की रैंकिंग बेहतर है. दक्षिय एशिया के अन्य प्रमुख लोकतंत्र इसी के आसपास हैं

ग्लोबल एजेंसी नोमुरा की ताजा रिपोर्ट कहती है कि चीन से निकलने वाली कंपनियों में केवल एक-दो ही भारत की तरफ रुख करेंगी. भारत निवेश लाने की होड़ में आगे इसलिए नहीं है क्योंकि

■ चीन से सस्ती श्रम लागत के बावजूद इंस्पेक्टर राज चरम पर है कोविड वाली बेकारी के बाद श्रम कानूनों को उदार करना बेहद कठिन होने वाला है

■ स्वदेशी के दबाव और देशी कंपनियों की लामबंदी के बाद कई उत्पादों पर इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाकर भारत ने आयात को महंगा और खुद को प्रतिस्पर्धा से बाहर कर लिया है

■ निर्यात और आरसीईपी में भारत के प्रवेश पर सरकारी समिति की रिपोर्ट बताती है कि भारत में उदारीकरण सिमट रहा है. ग्लोबल इकोनॉमिक फ्रीडम इंडेक्स के 186 देशों में भारत 129वें नंबर पर है. ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, जिन उद्योगों में सरकार का दखल ज्यादा है वही सबसे ज्यादा पिछडे़ हैं. कोविड के बाद इंस्पेक्टर राज बढ़ने का खतरा है

सरकार के वैचारिक सलाहकारों को आत्मनिर्भरता की नई परिभाषा पचाने में दिक्कत हो रही है. उनको लगता है कि अपनी जरूरत भर का निर्माण और आयात सीमित रखना ही आत्मनिर्भरता है, जबकि अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी सहित दुनिया में जो मुल्क आत्मनिर्भर हैं वह अपनी जरूरत से ज्यादा उत्पादन करते हैं. अब आत्मनिर्भरता का मतलब भरपूर उत्पादन और विदेशी मुद्रा भंडार की ताकत है इसी से किसी देश की करेंसी की साख और पूंजी की आपूर्ति तय होती है.

चीन से उखड़ती कंपनियां भारत के बाजार में सिर्फ माल बेचने नहीं आएंगी. वे यहां नया चीन बनाना चाहेंग जहां से पूरी दुनिया में निर्यात हो सके. जैसे चीन की मोबाइल हैंडसेट कंपनियों के आने के बाद भारत का इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात बढ़ गया. यह कंपनियां तगड़ी सौदेबाजी करेंगी, चौतरफा उदारीकरण और पूरी तरह मुक्त बाजार उनकी प्रमुख शर्तें होंगी. 

अब वही जीतेगा जो खुल कर खेलेगा.