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Sunday, March 19, 2023

इसी का तो खतरा था


 

 

कानपुर के दीपू घरेलू खपत की सामानों के डिस्‍ट्रीब्‍यूटर हैं. बीते पांच छह महीने में हर सप्‍ताह जब उनका मुनीम उन्‍हें हिसाब दिखाता है उलझन में पड़ जाते हैं. ज्‍यादातर सामानों की बिक्री बढ़ नहीं रही है. कुछ की बिक्री घट रही है और कई सामानों की मांग जिद्दी की तरह एक ही जगह अड़ गई है, बढ़ ही नहीं रही.

दीपू हर सप्‍ताह कंपनियों के एजेंट को यह हाल बताते हैं कंपनियां अगली खेप में कीमत बढ़ा देती हैं या पैकिंग में माल घटा देती हैं. दीपू के कमीशन में कमी नहीं हुई मगर मगर बिक्री टर्नओवर नहीं बढ़ रहा. ज्‍यादा बिक्री पर इंसेटिव लेने का मामला अब ठन ठन गोपाल है. कोविड के बाद बाजार खुलते ही दीपू ने तीन लडकों की  डिलीवरी टीम बनाई थी, अब दो को हटा दिया है. नए दुकानदार नहीं जुड़ रहे और नए आर्डर मिल रहे हैं.

दीपू की डिलीवरी टीम में एक लड़का बचा है जिसके साथ वह खुद माल पहुंचाते हैं. वसूली करते हैं. उधारी लंबी हो रही है.

 

दीपू जैसा हाल अगर आपने अपने आसपास सुना हो तो समझ‍िये कि आप अर्थशास्‍त्र की हकीकत के करीब पहुंच गए हैं. दीपू का रोजनामचा और बैलेंस शीट अर्थशास्‍त्र‍ियों के अध्‍ययन का विषय होनी चाहिए. आर्थ‍िक सिद्धांतों में जिस स्‍टैगफ्लेशन का जिक्र होता है, उसकी पूरी व्‍यंजन विध‍ि दीपू के हिसाबी पर्चे में है. स्‍टैगफ्लेशन की खिचड़ी महंगाई, मांग में कमी और बेरोजगारी से बनती है. स्‍टैगफ्लेशन के स्‍टैग का मतलब है विकास दर में स्‍थिरता. यह मंदी नहीं है मगर ग्रोथ भी नहीं. तरक्‍की बस पंचर कार की तरह ठहर जाती है. फ्लेशन यानी इन्‍फेलशन यानी महंगाई.

दुनिया की सबसे जिद्दी आर्थ‍िक बीमारी है यह. जिसमें कमाई नहीं बढती, लागत और कीमतें बढ़ती जाती हैं. दुनिया के बैंकर इतना मंदी से नहीं डरते. मंदी को सस्‍ते कर्ज की खुराक से दूर किया जा सकता है लेक‍िन स्‍टैगफ्लेशन का इलाज नहीं मिलता. सस्‍ता कर्ज महंगाई बढता और महंगा कर्ज मंदी.

मांग और महंगाई 

शायद आपको लगता होगा कि बाजार में माल तो बिक रहा है. जीएसटी बढने के आंकडे तो कहीं से महंगाई के असर नहीं बताते तो फिर यह स्‍टैगफ्लेशन कहां से आ रही है. महंगाई से मांग गिरने के असर को लेकर अक्‍सर तगड़ी बहस चलती है क्‍यों कि पैमाइश जरा मुश्‍क‍िल है. भारत में तो इस वक्‍त इतने परस्‍पर विरोधी तथ्‍य तैर रहे हैं कि तय करना मुश्‍क‍िल है कि महंगाई का असर है भी या नहीं.

इसके लिए आंकड़ो को कुछ दूसरे नजरिये से देखते हैं. अर्थव्‍यवस्‍था में हमेशा बड़ी तस्‍वीर ही पूरी तस्‍वीर होती है और अब हमारे पास महंगाई से मांग टूटने के कुछ ठोस तथ्‍य हैं. बजट की तरफ बढ़ते हुए इन्‍हें देखना जरुरी है

 महंगाई ने मांग खाई

खपत और उत्‍पादन का रिश्‍ता नापने के लिए सबसे व्‍यावहारिक बाजार उपभोक्‍ता उत्‍पादों का है. इस वर्ग में हर तरह के उपभोक्‍ता शामिल है, चाय मंजन , मसालों से लेकर सीमेंट और कारों तक. हर माह जारीहोने वाला औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक इनके उत्‍पादन में कमी या बढत की जानकारी देती है.

अप्रैल से अक्‍टूबर 2022 के दौरान कंज्‍यूमर ड्यूरेबल्‍स के उत्‍पादन में 6.6 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई इसमें इलेक्‍ट्रानिक्‍स उत्‍पाद से लेकर कारें तक शामिल हैं 2021 में यहां करीब 30.4 फीसदी की बढ़त हुई थी. कंज्‍यूमर नॉन ड्यूरे‍बल्‍स यानी साबुल मंजन, बिस्‍क‍िट आदि के उत्‍पादन तो अप्रैल अक्‍टूबर 2022 में सिकुड़कर -4.2 फीसदी रह गई जो बीते साल इसी दौरान 7.2 फीसदी बढ़ी थी

यही तो बडे वर्ग हैं जहां महंगाई से मांग का सीधा रिश्‍ता दिखता है. बैंक ऑफ बडोदा के एक ताजा अध्‍ययन में महंगाई और मांग के रिश्‍ते को करीब से पढा गया है.

औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक और महंगाई के आंकडों को एक साथ देखने पर करीब 20 से अध‍िक उत्‍पाद एसे मिलते हैं महंगाई के कारण जिनकी मांग में कमी आई जिसके कारण उत्‍पादन में गिरावट दर्ज हुई

उर्वरकों का किस्‍सा दिलचस्‍प है सरकार की सब्‍स‍िडी के बावजूद इस साल महंगाई के कारण उर्वरक की मांग टूटी. गिरावट दर्ज हुई पोटाश और फास्‍फेट वर्ग के उर्वरक में, जहां सब्‍स‍िडी नही मिलती नतीजतन 2021 में कीमतों की बढ़त 3.2 फीसदी थी 2022 में 12.1 फीसदी हो गई. महंगाई के कारण खरीफ मौसम में बुवाई के बढ़ने के बावजूद उर्वर‍क की बिक्री अप्रैल से अक्‍टूबर 2022 में करीब 5.5 फीसदी कम रही.  

स्‍टील की कीमतों में 2022 में महंगाई का रफ्तार धीमी तो पड़ी लेक‍िन दहाई के अंक में थी इसलिए बिक्री में केवल 11.7 फीसदी बढ़ी जो 2021 में 28 फीसदी बढ़ी थी.

खाद्य सामानों में मक्‍खन, घी, केक, बिस्‍किट, चॉकलेट चाय, कॉफी, कपडे, फुटवियर में महंगाई ने 5 से 12.5 फीसदी तक की बढ़त दिखाई तो बिक्री ने तेज गोता लगाया.

मक्‍खन, केक, लिनेन फुटवियर की बिक्री तो नकारात्‍मक हो गई.

ठीक इसी तरह अप्रैल अक्‍टूबर 2022 में सीमेंट और ज्‍यूलरी की बिक्री में तेज गिरावट आई जिसकी वजह यहां 6 से सात फीसदी की महंगाई थी.

महंगाई के बावजूद

महंगाई से न प्रभावित होने वालों सामानों की सूची बहुत छोटी है. यानी एसे उत्‍पाद जिनकी बिक्री बढ़ी जबकि इनकी कीमतें भी बढ़ी थीं. इसमें सब्‍स‍िडी वाली उर्वरक यानी यूरि‍या और डीएपी है. इसके अलावा आइसक्रीम, डिटर्जेंट, टूथपेस्‍ट और मोबाइल फोन हैं. हालांकि त्‍योहारी मौसम खत्म होने यानी अक्‍टूबर के बाद मोबाइल की बिक्री घटने के संकेत भी मिलने लगे थे.

 

बैंक ऑफ बडोदा के इस अध्‍ययन में कुछ उत्‍पाद एसे भी मिले हैं जिनकी बिक्री का महंगाई से रिश्‍ता स्‍पष्‍ट नहीं होता. जैसे कि कारें, ट्रैक्‍टर, दोपहिया-तिपहिया वाहन और कंप्‍यूटर. इन सबकी कीमतें बढ़ी लेकिन दिसंबर तक कारों की बिक्री ने सारा पुराना घाटा पाट दिया. 2018 के बाद सबसे ज्‍यादा कारें बिकीं.

बजट की पृष्‍ठभूमि

2022-23 में कुल उत्‍पादन में कमी नजर आने की एक वजह 2021 में तेज बिक्री रही थी जिसे बेसइ इफेक्‍ट कहते हैं लेक‍िन आंकड़ो को करीब से देखने पर महंगाई और मांग का रिश्‍ता साफ दिख जाता है.

इससे यह भी जाहिर होता है कि सरकार का जीएसटी संग्रह महंगाई के कारण बढ़ रहा है, बिक्री बढ़ने के कारण नहीं. महंगाई के कारण जीएसटी संग्रह बढ़ने के सबूत पहले से मिल रहे हैं.

स्‍टैगफ्लेशन की रोशनी में बजट गणित पेचीदा हो गई है. अर्थव्‍यवस्‍था के चार प्रमुख भागीदार हैं. पहला है उत्‍पादक, दूसरा है उपभोक्‍ता  तीसरे हैं रोजगार और चौथी है सरकार  

महंगाई और लागत बढ़ने के साथ उत्‍पादकों ने अपनी गणित बदल ली. कानपुर के दीपू को महंगा माल मिल रहा है क्‍यों कि मांग में कमी के साथ कंपनियां क्रमश: कीमतें अपने न्‍यूनतम मार्जिन सुनश्‍च‍ित कर रही हैं. वितरकों के कमीशन सुरक्षति हैं लेक‍िन कारोबार में बढ़त नहीं है.


दूसरी तरफ उपभोक्‍ता है. इस माहौल ने उनकी खपत का नजरिया बदल दिया है. तभी तो जरुरी चीजों की मांग गिरी है. रिजर्व बैंक का ताजा कंज्‍यूमर कान्‍फीडेंस सर्वे बताता है कि ज्‍यादातर उभोक्‍ता अगले एक साल तक गैर जरुरी सामान पर खर्च नहीं करना चाहता है. जरुरी सामानों पर भी उनके खर्च में बड़ी बढ़त नहीं होगी. यही वजह है दीपू को नए दुकानदार नहीं मिल रहे और पुराने दुकानदार आर्डर बढ़ा नहीं रहे हैं.   

अप्रैल से दिसंबर के बीच भारत में बेरोजगारी दर 7 फीसदी से ऊपर रही है. दिसंबर में शहरी बेरोजगारी दस फीसदी से ऊपर निकल गई. गांवों में भी काम नहीं. स्‍टैगफ्लेशन का सबूत यही है. रोजगार इसलिए टूट रहे हैं क्‍यों कि कंपनियों ने नई क्षमताओं में निवेश रोक दिया और उत्‍पादन को घटाकर मांग से हिसाब से समायोजित क‍िया है. इस सूरत में नौकर‍ियां आना तो दूर खत्‍म होने की कतार लगी है. श्रम बाजार में काम के लिए लोग हैं मगर काम कहां है. दीपू ने भी बेकारी बढाने में अपनी योगदान किया है. अपने टीम के दो लड़के हटा दिये.

अगर इस वित्‍त वर्ष में भारत की जीडीपी दर 6.9 फीसदी भी रहती है तो भी बीते तीन साल में भारत की औसत विकास दर केवल 2.8 फीसदी रहेगी जो कि बीते तीन साल की औसत विकास दर यानी 5.7 फीसदी का आधी है

अर्थात भारत का सकल घरेलू उत्‍पादन या बीते 36 महीनों में तीन फीसदी की दर से भी नहीं बढ़ा है. इसी का सीधा असर हमें खपत पर दिख रहा है. वित्‍त वर्ष 2024 की विकास दर अगर छह फीसदी से नीचे रहती है तो फिर चार साल तक देश के लोगों की कमाई में कोई खास बढ़त नजर नहीं आएगी. यही वजह है कि अब माना जा रहा है कि यदि 2023 में महंगाई 6 फीसदी से नीचे आ भी गई तो भी लोगों के पास कमाई नहीं होगी जिससे मांग को तेज बढ़त मिल सके. मांग के बि‍ना कंपनियां नया निवेश नहीं करेंगी तो रोजगार कहां बनेंगे. विकास दर के गिरने के साथ सरकार के लिए जीएसटी संग्रह में तेजी बनाये रखना मुश्‍क‍िल होगा.

यही तो जिद्दी स्‍टैगफ्लेशन है जो दीपू की बैलेंस शीट पर दस्‍तखत कर चुकी है. सरकार को अब कुछ और ही करना होगा क्‍यों कि महंगाई कम होने मात्र से मांग के तुरंत लौटने की उम्‍मीद नहीं है.

कमाई बढेगी तभी शायद बात बनेगी

 

 

Friday, May 27, 2022

सबसे सनसनीखेज मोड़

 


 

नाइट श्‍यामलन की मास्‍टर पीस फ‍िल्‍म सिक्‍थ सेंस (1999) एक बच्‍चे की कहानी है जिसे मरे हुए लोगों के प्रेत दिखते हैं. मशहूर अभिनेता ब्रूस विलिस इसमें मनोच‍िक‍ित्‍सक बने हैं जो इस बच्‍चे का इलाज करता है दर्शकों को अंत में पता चलता है कि मनोवैज्ञान‍िक डॉक्‍टर खुद में एक प्रेत है जो मर चुका है और उसे खुद इसका पता नहीं है. फिल्‍ के एंटी क्‍लाइमेक्‍स ने उस वक्‍त सनसनी फैला दी थी

सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले से जीएसटी की कहानी में सनसनीखेज मोड आ गया है जो जीएसटी काउंसिल जो केंद्र राज्‍य संबंधों में ताकत की नई पहचान थी, सुप्रीम कोर्ट ने उसके अधिकारों सीमि‍त करते हुए राज्‍यों को नई ताकत दे दी है. अब एक तरफ राज्‍यों पर पेट्रोल डीजल पर वैट घटाकर महंगाई कम करने दबाव है दूसरी तरफ राज्‍य सरकारें अदालत से मिली नई ताकत के दम पर अपनी तरह से टैक्‍स लगाने की जुगत में हैं क्‍यों कि जून के बाद राज्‍य कों केंद्र से मिलने वाला जीएसटी हर्जाना बंद हो जाएगा

2017 में जब भारत के तमाम राज्‍य टैक्‍स लगाने के अधिकारों को छोड़कर जीएसटी पर सहमत हो रहे थे, तब यह सवाल खुलकर बहस में नहीं आया अध‍िकांश राज्‍य, तो औद्योग‍िक  उत्‍पादों  और सेवाओं उपभोक्‍ता हैं, उत्‍पादक राज्‍यों की संख्‍या  सीमित हैं. तो इनके बीच एकजुटता तक कब तक चलेगी. महाराष्‍ट्र और  बिहार इस टैक्‍स प्रणाली से  अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं की जरुरतों के साथ कब तक न्‍याय पाएंगे?

अलबत्‍ता  जीएसटी की शुरुआत के वक्‍त यह तय हो गया था कि जब तक केंद्र सरकार राज्‍यों को जीएसटी होने वाले नुकसान की भरपाई करती रहेगी. , यह एकजुटता बनी रहेगी. नुकसान की भरपाई की स्‍कीम इस साल जून से बंद हो जाएगी. इसलिए दरारें उभरना तय है 

 

कोविड वाली मंदी से जीएसटी की एकजुटता को पहला झटका लगा था. केंद्र सरकार राज्‍यों को हर्जाने का भुगतान नहीं कर पाई. बड़ी रार मची. अंतत: केंद्र ने राज्‍यों के कर्ज लेने की सीमा बढ़ाई.  मतलब यह कि जो संसाधन राजस्‍व के तौर पर मिलने थे वह कर्ज बनकर मिले. इस कर्ज ने राज्‍यों की हालत और खराब कर दी.

इसलिए जब राज्‍यों को पेट्रोल डीजल सस्‍ता करने की राय दी जा रही तब  वित्‍त मंत्रालय व जीएसटी काउंस‍िल इस उधेड़बुन में थे कि जीएसटी की क्षत‍िपूर्ति‍ बंद करने पर राज्‍यों को सहमत कैसे किया जाएगा? कमजोर अर्थव्‍यवस्‍था वाले राज्‍यों का क्‍या होगा?

बकौल वित्‍त आयोग जीएसटी से केंद्र व राज्‍य को करीब 4 लाख करोड़ का  सालाना नुकसान हो रहा है. जीएसटी में भी प्रभावी टैक्‍स दर 11.4 फीसदी है जिसे बढ़ाकर 14 फीसदी किया जाना है, जो रेवेन्‍यू न्‍यूट्रल रेट है यानी इस पर सरकारों को नुकसान नहीं होगा.

जीएसटी काउंसिल 143 जरुरी उत्‍पादों टैक्‍स दर 18 फीसदी से 28 फीसदी करने पर विचार कर रही है ताकि राजस्‍व बढ़ाया जा सके.

 

इस हकीकत के बीच यह सवाल दिलचस्‍प हो गया है कि क्‍या केंद्रीय एक्‍साइज ड्यूटी में कमी के बाद राज्‍य सरकारें पेट्रोल डीजल पर टैक्‍स घटा पाएंगी? कुछ तथ्‍य पेशेनजर हैं

- 2018 से 2022 के बीच पेट्रो उत्‍पादों से केंद्र सरकार का राजस्‍व करीब 50 फीसदी बढ़ा लेक‍िन राज्‍यों के राजस्‍व में केवल 35 फीसदी की बढ़त हुई. यानी केंद्र की कमाई ज्‍यादा थी

-    2016 से 2022 के बीच केंद्र का कुल टैक्‍स संग्रह करीब 100 फीसदी बढ़ा लेक‍िन राज्‍यों इस संग्रह में हिस्‍सा केवल 66 फीसदी बढ़ा.  केंद्र के राजस्‍व सेस और सरचार्ज का हिस्सा 2012 में 10.4 फीसद से बढ़कर 2021 में 19.9 फीसद हो गया है. यह राजस्‍व राज्‍यों के साथ बांटा नहीं जाता है. नतीजतन राज्‍यों ने जीएसटी के दायर से से बाहर रखेग गए  उत्‍पाद व सेवाओं मसलन पेट्रो उत्‍पाद , वाहन, भूमि पंजीकरण आदि पर बार बार टैक्‍स बढ़ाया है    

-    केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी के लिए वित्‍त आयेाग के नए फार्मूले से केंद्रीय करों में आठ राज्यों (आंध्रअसमकर्नाटककेरलतमिलनाडुओडिशातेलंगाना और उत्तर प्रदेश) का हिस्सा 24 से लेकर 118 (कर्नाटक) फीसद तक घट सकता है (इंडिया रेटिंग्‍स रिपोर्ट)   

-    केंद्र से ज्‍यादा अनुदान के लिए राज्‍यों को शि‍क्षाबिजली और खेती में बेहतर प्रदर्शन करना होगा.  इसके लिए बजटों से खर्च बढ़ानाप पडेगा.

-    कोविड की मंदी के बाद राज्यों का कुल कर्ज जीडीपी के अनुपात में 31 फीसदी की र‍िकार्ड ऊंचाई पर है. पंजाब, बंगाल, आंध्र , केरल, राजस्‍थान जैसे राज्‍यों का कर्ज इन राज्‍यों जीडीपी (जीएसडीपी)  के अनुपात में 38 से 53 फीसदी तक है.

 भारत में केंद्र और राज्‍यों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के ताजा हालात तो बता रहे हैं  

-    जीएसटी की हर्जाना बंद होने से जीएसटी दरें बढ़ेंगी. केंद्र के बाद राज्‍यों ने पेट्रोल डीजल सस्‍ता किया तो जीएसटी की दरों में बेतहाशा बढ़ोत्‍तरी का खतरा है. जो खपत को कम करेगा

-    केंद्र और राज्‍यों का सकल कर्ज जीडीपी के अनुपात 100 फीसदी हो चुका है. ब्‍याज दर बढ़ रही है, अब राज्‍यों 8 फीसदी पर भी कर्ज मिलना मुश्‍क‍िल है

 

भारत का संघवाद बड़ी कश्‍मकश से बना था.  इतिहासकार ग्रेनविल ऑस्‍ट‍िन ल‍िखते हैं क‍ि यह बंटवारे के डर का असर था कि 3 जून 1947 को भारत के बंटवारे लिए माउंटबेटन प्लान की घोषणा के तीन दिन के भीतर ही भारतीय संविधान सभा की उप समिति ने बेहद ‌शक्तिशाली अधिकारों से लैस केंद्र वाली संवैधानिक व्यवस्था की सिफारिश कर दी.

1946 से 1950 के बीच संविधान सभा में, केंद्र बनाम राज्‍य के अध‍िकारों पर लंबी बहस चली. (बलवीर अरोराग्रेनविल ऑस्टिन और बी.आरनंदा की किताबें) यह डा. आंबेडकर थे जिन्‍होंने ताकतवर केंद्र के प्रति संविधान सभा के आग्रह को संतुलित करते हुए ऐसे ढांचे पर सहमति बनाई जो संकट के समय केंद्र को ताकत देता था लेकिन आम तौर पर संघीय (राज्यों को संतुलित अधिकारसिद्धांत पर काम करता था.

संविधान लागू होने के बाद बनने वाली पहली संस्था वित्त आयोग (1951) थी जो आर्थि‍क असमानता के बीच केंद्र व राज्‍य के बीच टैक्‍स व संसाधनों के न्‍यायसंगत बंटवारा करती है  

2017 में भारत के आर्थ‍िक संघवाद के नए अवतार में राज्‍यों ने टैक्‍स लगाने के अध‍िकार जीएसटी काउंसिल को सौंप दिये थे. महंगाई महामारी और मंदी  इस सहकारी संघवाद पर पर भारी पड़ रही थी इस बीच  सुप्रीम कोर्ट जीएसटी की व्‍यवस्‍था में राज्‍यों को नई ताकत दे  दी है. तो क्‍या श्‍यामलन की फिल्‍म स‍िक्‍स्‍थ सेंस की तर्ज पर जीएसटी के मंच पर  केंद्र राज्‍य का रिश्‍तों का एंटी क्‍लाइमेक्‍स आने वाला है?

 

Friday, December 13, 2019

महंगाई वाली मंदी



महंगाई झेलना चाहते हैं या मंदी? अपनी तकलीफ चुन लीजिए. फिलहाल तो दोनों ही बढ़ने वाली हैं.

रिजर्व बैंक के अनुसार, अगले तीन माह में जेबतराश महंगाई बढ़ेगी. और इस साल की दूसरी तिमाही में विकास दर 4.5 फीसद इस ढलान का अंतिम छोर नहीं है. अगले छह माह में मंदी गहराएगी. इस साल पांच फीसद की विकास दर भी नामुमकिन है.

बचत, खपत और निवेश में कमी से बनी यह मंदी जितनी उलझन भरी है, महंगाई उससे कम पेचीदा नहीं है. महंगाई के छिलके उतारने पर ही समझ में आता है कि रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कमी रोक कर अब मंदी से लड़ाई का बीड़ा सरकार की तरफ बढ़ा दिया है और दूसरी तरफ सरकार यह समझ ही नहीं पा रही है कि कौन-सी महंगाई अच्छी है और कौन-सी बुरी या कि मंदी और महंगाई की इस जोड़ी को तोड़ा कैसे जाए?

 अक्तूबर के महीने में थोक महंगाई 40 महीने के न्यूनतम स्तर पर (0.16 फीसद) थी, जबकि खुदरा महंगाई 16 महीने के सर्वोच्च स्तर 4.6 फीसद पर. थोक महंगाई उत्पादकों के स्तर पर कीमतों की नापजोख है जबकि खुदरा महंगाई उपभोक्ताओं की जेब पर असर की पैमाइश करती है.
थोक महंगाई में रिकाॅर्ड कमी मांग टूटने का सबूत है जिसके कारण  उत्पादक (किसान और उद्योग) कीमतें नहीं बढ़ा पा रहे हैं. इस साल रबी मौसम तक कृषिऔर खाद्य उत्पादों की कीमतें लागत से कम थीं. पिछले कई महीनों से मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों की कीमतें नहीं बढ़ी हैं.

दूसरी तरफ, खुदरा यानी उपभोक्ता महंगाई इस साल जनवरी से बढ़ने लगी थी जो अब सरकार को डराने वाले स्तर तक गई.

थोक महंगाई खपत में मंदी का सबूत है और खुदरा महंगाई महंगी होती खपत का. दोनों का एक साथ प्रकट होना मांग और आपूर्ति दोनों में ढांचागत दिक्कतों का दुर्लभ दुर्योग है

·       महंगाई का दूसरा पेच यह है कि आपूर्ति की दिक्कतों के कारण फलों-सब्जियों वाली खाद्य महंगाई बढ़ रही है जबकि मांग में कमी के कारण घरेलू खपत के सामान, सेवाओं, भवन निर्माण, संचार कीमतों में बढ़ोतरी नहीं हुई है यानी उत्पादकों के लाभ नहीं बढ़ रहे हैं.

·       शहरी और ग्रामीण महंगाई का अंतर एक और बड़ी चुनौती है. अक्तूबर के महीने में गांवों में खाद्य महंगाई बढ़ने की दर 6.4 फीसद थी जबकि शहरों में 10.5 फीसद.

·       महंगाई की पैमाइश का एक और चेहरा उलझन को कई गुना बढ़ाता है. केयर रेटिंग्स के एक ताजा अध्ययन के अनुसार, पिछले वित्त वर्ष में भारत के 19 राज्यों में उपभोक्ता महंगाई, राष्ट्रीय औसत से ज्यादा रही जबकि 11 राज्यों में रिजर्व बैंक के आदर्श पैमाने (4 फीसद) से ऊपर थी, यानी कि हमारे पड़ोस की महंगाई, देश की महंगाई से बिल्कुल अलग है.

मंदी की रोशनी में, महंगाई के अंतर्विरोध ने अर्थव्यवस्था को कठिन विकल्पों की स्थिति में ला खड़ा किया है. पूरा उत्पादन क्षेत्र मंदी का शिकार है. इसमें किसान और उद्योग, दोनों शामिल हैं. 2014 से 2019 के बीच खेती में कमाई बढ़ने की रफ्तार इससे पहले के दशक की तुलना में आधी रही थी. किसान और उद्योग, दोनों नजरिये से कीमतें बढ़ना जरूरी है क्योंकि अब आय रोजगार बढ़े बगैर खपत का पहिया घूम नहीं सकता. अचरज नहीं कि मंदी के बावजूद मोबाइल बिल और कुछ कारों की कीमत में इजाफा शुरू हो गया है.

नगरीय उपभोक्ताओं के लिए इस परिदृश्य में तकलीफ दिखती है. खासतौर पर रोजगार देने वाले उद्योगों में मंदी के कारण नई नौकरियां बंद हैं और वेतन में बढ़त भी. ऐसी हालत में भोजन की महंगाई जिंदगी की मुसीबतों में इजाफा करेगी.

महंगाई या कीमतों में बढ़ोतरी भारत में संवेदनशील पैमाना है. इस पर उत्पादकों का भविष्य भी टिका है और खपत का भी. भारत के कृषिबाजार में अधिकांश कीमतें सरकार तय करती है. घटिया वितरण तंत्र, बाजार के फायदे किसानों तक नहीं पहुंचने देता. दूसरी तरफ, भारी टैक्स, पूंजी की कमी और ऊर्जा की ऊंची लागत के कारण उद्योगों का मार्जिन सीमित है इसलिए कारोबारी लाभ मांग और मूल्य, दोनों में बढ़ोतरी से आते हैं.

सरकारों के अनावश्यक हस्तक्षेप ने बाजार को बिगाड़ दिया है. हाल के वर्षों में भारत में न्यूनतम महंगाई के बाद भी मांग नहीं बढ़ी. अब नीतियों का असंतुलन दम घोंट रहा है. फसलों की मांग-आपूर्ति पर कोई दूरगामी नीति है और उद्योगों पर टैक्स की. सरकार कभी प्याज के ताबड़तोड़ आयात की तरफ दौड़ पड़ती है जिससे फसल बाजार का संतुलन बिगड़ता है तो कभी कंपनियों पर टैक्स के नियमों में अप्रत्याशि बदलाव कर देती है. जैसे कि पहले कॉर्पोरेट टैक्स घटाकर घाटा बढ़ाया गया, अब जीएसटी बढ़ाने की तैयारी हो रही है.

मंदी के विभिन्न संस्करणों में मंदी और महंगाई की जोड़ी (स्टैगफ्लेशन) सबसे जटिल है. बेकारी और महंगी जिंदगी की यह जहरीली जोड़ी भारतीय अर्थव्यवस्था को घेर रही है. सरकार को जल्द ही तय करना होगा कि वह महंगाई को बढ़ने देकर मंदी से उबारेगी या मंदी को बढ़ने देगी. चुनाव कठिन है लेकिन इस आग के दरिया में डूब कर जाना ही होगा और कोई सहज विकल्प नहीं है.