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Monday, September 12, 2022

मेरी रेवड़ी अच्‍छी उसकी खराब,

 




मैं हमेशा सच बोलता हूं अगर मैं झूठ भी बोल रहा हूं तब भी वह सच ही है.

भारत की राजनीति आजकल रेवड़‍ियों यानी लोकलुभान अर्थशास्‍त्र पर एसे  ही अंतरविरोधी बयानों से हमारा मनोरंजन कर रही है.

वैसे ऊपर वाला संवाद प्रस‍िद्ध हॉलीवुड फिल्‍म स्‍कारफेस (1983) का है. ब्रायन डी पाल्‍मा की इस फिल्‍म में अल पचीनो ने  गैंगस्‍टर टोनी मोंटाना का बेजोड़ अभिनय किया था. इस फिल्‍म ने गैंगस्‍टर थीम पर बने  सिनेमा को  कई पीढ़‍ियों तक प्रभावित कि‍या.

सरकार के अंतरव‍िरोध देख‍िये

नीति आयोग ने बीते साल  कहा कि खाद्य सब्‍सिडी का बिल कम करने के लिए  राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के लाभार्थ‍ियों की संख्‍या को करीब 90 करोड से घटाकर 72 करोड पर लाना चाहिए. इससे सालाना 47229 करोड़ रुपये बचेंगे.

दूसरा, इसी साल जून में नीति आयोग ने कहा कि इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों पर सरकारी की सब्‍सि‍डी 2031 तक जारी रहनी चाहिए. ताकि बैटरी की लागत कम हो सके.च्

आप कौन की सब्‍सि‍डी चुनेंगे?

इस वर्ष अप्रैल में केंद्र ने राज्‍यों को सुझाया कि कर्ज और सब्‍स‍िडी कम करने के लिए  सरकारी  सेवाओं को महंगा किया जाना चाहिए.

मगर घाटा तो केंद्र का भी कम नहीं है तो उद्योगों को करीब 1.11 लाख करोड़ रुपये की टैक्‍स रियायतें क्‍यों दी गईं ?

कौन सी रेवड़ी विटामिन है कौन सी रिश्‍वत?

68000 करोड़ रुपये की सालाना किसान सम्‍मान न‍िधि‍ को किस वर्ग में रखा जाए?

14 उद्योगों को 1.97 करोड़ रुपये के जो प्रोडक्‍शन लिंक्‍ड इंसेट‍िव हैं उनको क्‍या मानेंगे हम ?

रेवड‍ियों का बजट

वित्‍त वर्ष 2022-23  में केंद्र सरकार का सब्‍स‍िडी बिल करीब 4.33 लाख करोड़ होगा. इनके अलावा करीब 730 केंद्रीय योजनाओं पर  इस याल 11.81 लाख करोड़ खर्च होंगे. इनमें से कई के रेवड़ि‍त्‍वपर बहस हो सकती है.

केंद्र प्रयोजित योजनायें दूसरा मद हैं जिन्‍हें केंद्र की मदद से राज्‍य लागू करते हैं. इस साल के बजट में इनकी संख्‍या 130 से घटकर 70 रह गई है लेक‍िन आवंटन बीते साल के 3.83 लाख करोड़ रुपये से बढकर 4.42 लाख करोड़ रुपये हो गया है.

राज्‍यों में रेवड़ी छाप योजनाओं की रैली होती रहती है.  इनसे अलग  2020-21 में राज्‍यों का करीब 2.38 लाख करोड़ रुपये स्‍पष्‍ट रुप से सब्‍स‍िडी के वर्ग आता था जो  2018-19 के मुकाबले करीब 12.7 फीसदी बढ़ा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार  बीते बरस राज्‍यों के राजस्‍व में केवल एक फीसदी की बढ़त हुई. राज्‍यों के  राजस्‍व में सब्सिडी का हिस्‍सा अब बढ़कर 19.2 फीसदी हो गया है  

कितना फायदा कितना नुकसान

मुफ्त तोहफे बांटने की बहसें जब उरुज़ पर आती हैं तो किसी सब्‍स‍िडी को उससे मिलने वाले फायदे से मापने का तर्क दिया जाता है.

2016 में एनआईपीएफपी ने अपने एक अध्‍ययन में बताया था कि खाद्य शि‍क्षा और स्‍वास्‍थ्‍य के अलावा सभी सब्‍स‍िडी अनुचित हैं. वही सोशल ट्रांसफर उचित हैं जिनसे मांग और बढ़ती हो.  इस पुराने अध्‍ययन के अनुसार 2015-16 में समग्र गैर जरुरी (नॉन मेरिट)  सब्‍स‍िडी जीडीपी के अनुपात में 4.5 फीसदी थीं. कुल सब्‍स‍िडी में इनका हिस्‍सा आधे से ज्‍यादा है और राज्‍यों में इनकी भरमार है.

आर्थ‍िक समीक्षा (2016-17) बताती है कि करीब 40 फीसदी लक्षित लोगों को राशन प्रणाली और 65 फीसदी जरूरतमंदों को मनरेगा का लाभ नहीं मिलता. छह प्रमुख स्कीमों (आवास योजनासर्व शिक्षामिड डे मीलग्राम सड़कमनरेगास्वच्छ भारत) के सबसे कम फायदे उन जिलों को मिले जहां सबसे ज्यादा गरीब आबादी थी.  

यदि शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य को सामाजिक जरुरत मान लिया जाए तो उसके नाम पर लग रहे टैक्‍स  और सेस के बावजूद अधि‍कांश आबादी निजी क्षेत्र से शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य खरीदती है.

सनद रहे कि कंपनियों को मिलने वाली टैक्‍स रियायते, सब्‍स‍िडी की गणनाओं में शामिल नहीं की जातीं.

ब‍िजली का स्‍यापा

ि‍बजली सब्‍स‍िडी भारत का सबसे विद्रूप सच है. उदय स्‍कीम के तहत ज्‍यादातर राज्‍य बिजली बिलों की व्‍यवस्‍था सुधारने  और वितरण घटाने के लक्ष्‍य नहीं पा सके. 31 राज्‍यों और केंद्रशास‍ित प्रदेशों में 2019 के बाद से ब‍िजली की आपूर्ति लागत में सीधी बढत दर्ज की गई.

बिजली दरों का ढांचा पूरी तरह सब्‍स‍िडी केंद्रि‍त है. इसमें सीधी सब्‍स‍िडी भी है उद्योगों पर भारी टैरिफ लगाकर बाकी दरों को कम रखने वाली क्रॉस सब्‍स‍िडी भी.  27 राज्‍यों ने 2020-21 में करीब 1.32 लाख करोड़ रुपये की बिजली सब्‍स‍िडी दी, इसमें 75 फीसदी सब्‍स‍िडी किसानों के नाम पर है.

बिजली वितरण कंपनियां (डिस्‍कॉम) 2.38 लाख करोड की बकायेदारी में दबी हैं. इन्‍हें यह  पैसा बिजली बनाने वाली कंपनियों को देना है. डिस्‍कॉम के खातों में सबसे बड़ी बकायेदारी राज्‍य सरकारों की है जिनके कहने पर वह सस्‍ती बिजली बांट कर चुनावी संभावनायें चमकाती हैं

तो होना क्‍या चाहिए

सरकार रेवड़‍ियों पर बहस चाहती है तो सबसे पहले   केंद्रीय और राज्‍य स्‍कीमों, सब्‍स‍िडी और कंपनियों को मिलने वाली रियायतों की पारदर्शी कॉस्‍ट बेनीफ‍िट एनाल‍िसिस हो  ताकि पता चला कि किस स्‍कीम और सब्‍स‍िडी से किस लाभार्थी वर्ग को ि‍कतना फायदा हुआ.

और जवाब मिल सकें इन सवालों के

कि क्‍या किसानों को सस्‍ती खाद, सस्‍ती बिजली, सस्‍ता कर्ज और एमएसपी सब देना जरुरी है?

सरकारी स्‍कीमों से शिक्षा स्‍वास्‍थ्‍य या किसी दूसरी सेवा की गुणवत्‍ता और फायदों में कितना इजाफा हुआ ?

कंपनियों को मिलने वाली किस टैक्‍स रियायत से कितने रोजगार आए?

अगर सस्‍ती श‍िक्षा और मुफ्त किताबें रेवडी नहीं हैं तो डिजिटल शिक्षा के लिए लैपटॉप या मोबाइल रेवड़ी क्‍यों माने जाएं?

इस सालाना  विश्‍लेषण के आधार पर जरुरी और गैर जरुरी सब्‍स‍िडी  के नियम तय किये जा सकते हैं.

इस गणना के बाद राज्‍यों के लिए राजकोषीय घाटे की तर्ज  रेवड़ी खर्च की सीमा तय की जा सकती है.  राज्‍य सरकारें बजट नियमों के तहत तय करें कि उन्‍हें क्‍या देना है और क्‍या नहीं.

सनद रहे‍ कि कमाना और बचाना तो हमारे लिए जरुरी है संप्रभु सरकारें पैसा छाप सकती हैं, टैक्‍स थोप सकती हैं  और बैंकों से हमारी जमा निकाल कर मनमाना खर्च कर सकती है . यही वजह है कि भारत के बजट दशकों के सब्‍स‍िडी के  एनीमल फॉर्म (जॉर्ज ऑरवेल) में भटक रहे हैं जहां "All animals are equal, but some are more equal than others. इस सबके बीच  सुप्रीम कोर्ट की कृपा से अगर देश को इतना भी पता चल जाए कि कौन सा सरकारी दया रेवड़ी है और कौन सी रियायत वैक्‍सीन तो कम से कम हमारे ज़हन तो साफ हो जाएंगे.

 

 

 

Friday, May 1, 2020

अगली जंग के नायक


ताली-थाली और दीया-मोमबत्ती से होते हुए कोविड लॉकडाउन का तीसरा सप्ताह आने तक केंद्र सरकार को अपनी सीमाओं का अहसास होने लगा था. यही मौका था जब भारतीय संविधानसभा की वह जद्दोजेहद कारगर नजर आने लगीजिसके तहत राज्यों को पर्याप्त शक्तियों से लैस किया गया थाआजादी के बाद सबसे बडे़ संकट में भारत के राज्य अमेरिका की तरह वहां के राष्ट्रपति का ‌सिरदर्द नहीं बने थे बल्कि संघीय ढांचे की ताकत के साथ महामारी से लड़ाई में केंद्र से आगे खडे़ थे.
नतीजतनलॉकडाउन लगाते समय राज्यों की उपेक्षा करने वाला  केंद्रइसमें ढील से पहले उनसे मशविरे पर मजबूर हुआ और  अंतत: कोविड से जंग को पूरी तरह राज्यों और वहां भी सबसे  निचली प्रशासनिक इकाइयों के हाथ सौंप दिया गया.

महामारी की इस अंधी सुरंग के बाद कोई सपनीला बसंत हमारा  इंतजार नहीं कर रहा हैबल्कि आगे मंदी की खड़ी चढ़ाई है जो  महामारी से ज्यादा दर्दनाक और लंबी होगीउसे जीतने के लिए  जीतने का मंत्रकोविड से लड़ाई ने ही दिया है यानी कि मंदी से जंग की अगुआई राज्यों को सौंपनी होगी.

संयोग से हमारे पास कुछ ऐसे तजुर्बे हैं जो पिछले ढाई दशकों के विकास में राज्यों की मौन लेकिन निर्णायक भूमिका की गवाही देतेहैं.

•1997 से 2014 तक भारत में निजी निवेश का स्वर्ण काल था.  वह राजनीति का सबसे अच्छा वक्त नहीं थाकेंद्र में ढीली-ढाली सरकारें थींराज्यों से राजनैतिक समन्वय ध्वस्त था लेकिन निवेश के लिए राज्यों की होड़ ने रिकॉर्ड बना दिएभारत की सभी भव्य उद्येाग निवेश कथाएं उसी दौर में लिखी गईंराज्यों की  विकास दर दशकीय आधार पर डेढ़ से दोगुना बढ़ गईजिसका  असर देश के जीडीपी की चमक में नजर आया.

• तब की कमजोर केंद्र सरकारों के तहत ताकतवर राज्यों ने सुधारों का अपनी तरह से इस्तेमाल किया और उद्यमिता को ताकत दी 2019-20 आर्थिक समीक्षा के अनुसार, 2006 से नोटबंदी के पहले तक देश में नई इकाइयों की संख्या  (पंजीकरण)45,000 से 1.25 लाख पहुंच गईइनमें सेवा क्षेत्र में  सबसे ज्यादा नई इकाइयां (करीब छह गुना बढ़तआईं जो स्थानीयअर्थव्यवस्थाओं की मांग पर केंद्रित थी.

• सशक्त राज्यों के चलते वित्त आयोगों ने केंद्र और राज्यों के   वित्तीय रिश्तों का नक्शा बदलाविकास के साथ राज्यों का अपना राजस्व भी बढ़ाकेंद्रीय बजट बढ़ेनतीजतन 2011 से 2019 के बीच (इक्राराज्यों का विकास खर्च 1.7 लाख करोड़ रुपए बढ़कर छह लाख करोड़ रुपए हो गयाकरीब 83 फीसद पूंजी खर्च की कमान अब 15 राज्यों के पास है. 

महामारी के बाद निवेश का पहिया,राजस्व की चरखी और रोजगारोंकी मशीन चलाने के लिए केंद्र की नई रणनीति में राज्य केंद्रीय होंगेआर्थिक सुधारों का जो नया दौर अब शुरू होगा (कोई विकल्प नहीं हैउसका नेतृत्व हर हाल में राज्य ही करेंगे.

राज्यों को जीएसटी के अंतर्गत निवेश आकर्षित करने के लिए  टैक्स छूट देने की छूट मिलनी चाहिए ताकि राज्यों के बीच होड़़  शुरू हो सकेयही वह प्रतिस्पर्धा है जिसकी रोशनी में मुख्यमंत्रियों का चेहरा देखकर निवेशक आएतब उद्योग मेले कम थे लेकि निवेश ज्यादा था क्योंकि राज्य टैक्सजमीनसेवा दरों में तरह-तरह की सहूलत दे सकते थेप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर इसे कौन जानता होगाहालांकि उनके केंद्र में आने के बाद राज्यों की ऐसी आजादियां लगभग छिन गईं

कोविड के कहर के बाद वित्त आयोग को केंद्र-राज्य वित्तीय रिश्तों का नया प्रारूप बनाना होगाउसे ध्यान रखना होगा कि राज्य 8-9 फीसद  ब्याज पर कर्ज उठा रहे हैं 
जो रेपो रेट का दोगुना है और होम-कार लोन से महंगा
राज्यों को केंद्रीय स्कीमों के मकड़जाल ने मुक्त करनेसीधे  आवंटन करने और घाटे नियंत्रित करने की नई सीमाओं में बांधना होगाराज्यों का बॉन्ड बाजार शुरू करना होगा ताकि वह पारदर्शी हो सके और अपनी साख बेहतर कर सस्ता कर्ज ले सकें

पिछले 25 वर्षों में राज्यों में उपक्रमों और सेवाओं का निजीकरणनहीं हुआनियामक नहीं बनेसंस्थागत सुधार नहीं हुएकेंद्र को  यह क्षमताएं विकसित करने में उनकी मदद करनी होगीउनके  ट्रेजरी संचालन चुस्त और बजटों का मानकीकरण करना होगा

अचरज नहीं कि अगर भीमराव आंबेडकर  होते तो विभाजन से  डरी संविधानसभा (नेहरू भीएक बेहद ताकतवर केंद्र वाला  संविधान हमें सौंप देती और तब शायद हम इस महामारी से ऐसी लड़ाई नहीं लड़ पा रहे होतेआंबेडकर ने संविधानसभा को संघीय ढांचे और राज्यों को ताकत  अधिकार देने पर राजी किया और  संविधान के जन्म के तत्काल बाद अपनी देखरेख में 1951 में वित्तआयोग का गठन भी कराया जो हर पांच साल पर राज्य  केंद्र केआर्थि रिश्तों का स्वरूप तय करता है.

संविधान ने जिस समृद्ध संघीय ढांचे की राह दिखाई थी उस पर चलने का वक्त  गया हैकेंद्र को अपनी शक्तियां सीमित करनीहोंगीनई आर्थि स्वतंत्रता के साथ राज्य ही हमें इस गहरी मंदी निकाल पाएंगे.