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Monday, June 29, 2015

इकबाल का सवाल

मोदी सरकार के कई मिथक अचानक टूटने लगे हैं। बाहर से भव्‍य फिल्‍म सेट की तरह दिखती सरकार में पर्दे के पीछे यूपीए जैसी अपारदर्शिता और नीति शून्यता झांकने लगी है.
ई सरकार का मंत्रिमंडल बेदम है. उम्मीद है, सरकार आगे निराश नहीं करेगी.'' मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के अगले ही दिन अंतरराष्ट्रीय निवेश फर्म क्रेडिट सुइस की यह टिप्पणी बहुतों को अखर गई थी. निष्कर्ष तथ्यसंगत था लेकिन टिप्पणी कुछ जल्दबाजी में की गई लगती थी. अलबत्ता बीते सप्ताह एक बड़े विदेशी निवेशक ने दो-टूक अंदाज में मुझसे पूछा कि मोदी सरकार का प्लान बी क्या है? तो मुझे अचरज नहीं हुआ क्योंकि सियासी से लेकर कॉर्पोरेट गलियारों तक यह प्रश्न कुलबुलाने लगा है कि क्या नरेंद्र मोदी के लिए अपनी सरकार की बड़ी सर्जरी करने का वक्त आ गया है. यह सवाल केवल सरकार के कमजोर प्रदर्शन से ही प्रेरित नहीं है. सुषमा-वसुंधरा के ललित प्रेम, स्मृति ईरानी की मूर्धन्यता के विवाद और सरकार व पार्टी पर मोदी-शाह के इकबाल को लेकर असमंजस की गूंज भी इस सवाल में सुनी जा सकती है.
मोदी सरकार का एक साल पूरा होने तक यह सच लगभग पच गया था कि अपेक्षाओं व मंशा के मुकाबले नतीजे कमजोर रहे हैं. लेकिन यह आशंका किसी को नहीं थी कि नई सरकार कोई ठोस बदलाव महसूस कराए बिना अपने शैशव में ही उन विवादों में उलझ जाएगी जो न केवल गवर्नेंस के उत्साह निगल सकते हैं, बल्कि जिनके चलते सरकार और बीजेपी में नरेंद्र मोदी व अमित शाह का दबदबा भी दांव पर लग जाएगा.
पिछले एक साल में मोदी सरकार के दो चेहरे दिखे हैं. एक चेहरा भव्य और शानदार आयोजनों व प्रभावी संवाद की रणनीतियों का है.  लेकिन इसके विपरीत दूसरा चेहरा गवर्नेंस में ठोस यथास्थिति का है जो पिघल नहीं सकी. यह ठहराव खुद प्रधानमंत्री को भी बेचैन कर रहा है. सरकार की इस बेचैनी को तथ्यों में बांधा जा सकता है. मसलन, नौकरशाही में फेरबदल को लीजिए. पिछले 12 माह में केंद्र की नौकरशाही में तीन बड़े फेरबदल हो चुके हैं. यह उठापटक, सरकार चलाने में असमंजस की नजीर है. मोदी सरकार ब्यूरोक्रेसी को स्थिर और स्वतंत्र बनाना चाहती है जबकि ताबड़तोड़ फेरबदल ने उलटा ही असर किया है. ठीक इसी तरह क्रियान्वयन की चुनौतियों के चलते, तमाम बड़ी घोषणाओं के लक्ष्य व प्रावधान बदल दिए गए हैं. अगर वन रैंक वन पेंशन, खाद्य महंगाई, उच्च पदों पर पारदर्शिता जैसे बड़े चुनावी वादों पर किरकिरी को इसमें जोड़ लिया जाए तो महसूस करना मुश्किल नहीं है कि ढलान सामने है और वापसी के लिए सरकार की सूरत व सीरत में साहसी बदलाव करने होंगे, क्योंकि अभी चार साल गुजारने हैं.
नरेंद्र मोदी अब अपनी सरकार की सर्जरी किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते. मंत्रिमंडल के पहले पुनर्गठन तक यह बात साफ हो गई थी कि तजुर्बे व पेशेवर लोगों की कमी के कारण टीम मोदी अपेक्षाओं के मुकाबले बेहद लचर है. पिछले एक साल का रिपोर्ट कार्ड इस बात की ताकीद करता है कि ज्यादातर मंत्री कोई असर नहीं छोड़ सके हैं. वजह चाहे मंत्रियों की अक्षमता हो या उन्हें अधिकार न मिलना, लेकिन मोदी का मंत्रिमंडल उनकी मंशाओं को जमीन पर उतारने में नाकाम रहा है. महत्वपूर्ण संस्थाओं में खाली शीर्ष पद बताते हैं कि एक साल बाद भी सरकार का आकार पूरा नहीं हो सका है. अगर मोदी अगले तीन माह में अपने मंत्रिमंडल में अकर्मण्यता का बोझ कम नहीं करते तो नीति शून्यता और कमजोर गवर्नेंस की तोहमतें उनका इंतजार कर रही हैं.
मोदी भले ही सलाह न सुनने के लिए जाने जाते हों लेकिन अब उन्हें अर्थव्यवस्था, विदेश नीति से लेकर अपने भाषणों तक के लिए थिंक टैंक और सलाहकारों की जरूरत है जो सरकार को नीतियों, कार्यक्रमों और कानूनों की नई सूझ दे सकें. नई पैकेजिंग में यूपीए की स्कीमों के दोहराव के कारण बड़े-बड़े मिशन छोटे नतीजे भी नहीं दे पा रहे हैं और असफलताएं बढऩे लगी हैं. मोदी सरकार को क्रियान्वयन के ढांचे में भी सूझबूझ भरे बदलावों की जरूरत है जिसके लिए उसे पेशेवरों की समझ पर भरोसा करना होगा जैसा कि दुनिया के अन्य देशों में होता है.
नरेंद्र मोदी अपनी सरकार और पार्टी में नैतिकता व पारदर्शिता के ऊंचे मानदंडों से समझौते का जोखिम नहीं ले सकते, क्योंकि उनकी सरकार को मिले जनादेश की पृष्ठभूमि अलग है. वसुंधरा, सुषमा, स्मृति, पंकजा के मामले बीजेपी से ज्यादा मोदी की राजनीति के लिए निर्णायक हैं. इन मामलों ने मोदी को दोहरी चोट पहुंचाई है. एक तो उनकी साफ-सुथरी सरकार अब दागी हो गई है. दूसरा, पद न छोडऩे पर अड़े नेता मोदी-शाह के नियंत्रण को चुनौती दे रहे हैं. गवर्नेंस और पारदर्शिता के मामले में मोदी की चुनौतियां मनमोहन से ज्यादा बड़ी हैं. मनमोहन के दौर में भ्रष्टाचार व नीति शून्यता की तोहमतें गठबंधन की मजबूरियों पर मढ़ी जा सकती थीं. यही वजह थी कि यूपीए सरकार के कलंक का बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी के खाते में गया. अलबत्ता बीजेपी में तो सरकार और पार्टी दोनों मोदी में ही समाहित हैं और उनकी अपनी ही पार्टी के नेता दागी हो रहे हैं. इसलिए सभी तोहमतें सिर्फ मोदी के खाते में दर्ज होंगी.
मुसीबत यह है कि नई सरकार के कई मिथक अचानक एक साथ टूटने लगे हैं. मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर मोदी की सख्त पकड़ की दंतकथाओं के विपरीत वरिष्ठ मंत्री व मुख्यमंत्री दागी होते दिख रहे हैं, जबकि जन संवाद की जबरदस्त रणनीतियों के बावजूद ठोस नतीजों की अनुपस्थिति लोगों को निराश कर रही है. सरकार एक साल के भीतर ही फिल्म सेट की तरह दिखने लगी है जिसमें बाहर भव्यता है लेकिन पीछे यूपीए जैसी अपारदर्शिता और नीति शून्यता बजबजा रही है.

मोदी जिस तरीके से बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में उभरे और चुनाव जीते हैं, उसमें उनकी राजनैतिक सफलता का सारा दारोमदार उनकी गवर्नेंस की कामयाबी पर है. यदि सरकार असफल या दागी हुई तो पार्टी पर उनके इकबाल का पानी भी टिकाऊ साबित नहीं होगा. सरकार को लेकर बेचैनी बढऩे लगी है लेकिन भरोसा अभी कायम है. नरेंद्र मोदी को कुछ दो टूक ही करना होगा, उनके लिए बीच का कोई रास्ता नहीं है. सरकार व पार्टी में साहसी बदलावों में अब अगर देरी हुई तो मोदी को अगले चार साल तक एक ऐसी रक्षात्मक सरकार चलाने पर मजबूर होना होगा जो विपक्ष के हमलों के सामने अपने तेवर गंवाती चली जाएगी. यकीनन, नरेंद्र मोदी एक कमजोर व लिजलिजी सरकार का नेतृत्व कभी नहीं करना चाहेंगे.

Tuesday, June 9, 2015

नीयत, नतीजे और नियति


नरेंद्र मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे 

राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन, सड़कें बुहारती वीआईपी छवियों के पाखंड से आगे नहीं बढ़ सका. सौ से अधिक सांसद तो आदर्श ग्राम योजना में गांव तक नहीं चुन सके और चुने हुए गांवों में कुछ बदला भी नहीं. जन धन में 15.59 करोड़ खाते खुले, लोगों ने 16,918 करोड़ रु. जमा भी किए लेकिन केवल 160 लोगों को बीमा और 8,000 लोगों को ओवरड्राफ्ट (महज 2,500 रु.) मिला. वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि औद्योगिक निवेश नहीं बढ़ रहा है जो मेक इन इंडिया पर परोक्ष टिप्पणी थी. यह फेहरिस्त सरकार की असफलताओं की नहीं बल्कि बड़े इरादों के शुरुआत में ही ठिठक जाने की है. मोदी सरकार के एक साल की अनेक शुरुआतें उसी दलदल में धंस गई हैं जिसमें फंसकर पिछले कई प्रयोग बरबाद हुए हैं. स्कीमों के डिजाइन में खामी, क्रियान्वयन तंत्र की कमजोरी, दूरगामी सोच की कमी और स्पष्ट लक्ष्यों का अभाव भारतीय गवर्नेंस की बुनियादी चुनौती है. मोदी को इसी गवर्नेंस में सुधार का जनादेश मिला था. उन्होंने इसमें सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और स्कीमें थोप दीं. यही वजह है कि पहले ही साल में नतीजों की शून्यता, नीयत की भव्यता पर भारी पड़ गई है.
सरकार के एक साल के कामकाज का ब्योरा बनाते हुए केंद्र सरकार के मंत्रालय खासी मुश्किल से दो-चार थे. सरकारी मंत्रालयों को ऐसी उपलब्धियां मुश्किल से मिल पा रही थीं जिन्हें आंकड़ों के साथ स्थापित किया जा सके. कोयला खदानों और स्पेक्ट्रम आवंटन (जो सरकार के सामान्य कामकाज का हिस्सा है) को छोड़कर मंत्रालयों के पास बताने के लिए कुछ ठोस इसलिए नहीं था, क्योंकि तमाम इरादों और घोषणाओं के बावजूद सरकार एक ऐसी स्कीम या सुधार को तरस गई जिसकी उपलब्धि सहज ही महसूस कराई जा सके. मोदी सरकार के सभी अभियानों और स्कीमों की एक सरसरी पड़ताल किसी को भी यह एहसास करा देगी कि स्कीमें न केवल कामचलाऊ ढंग से गढ़ी गईं बल्कि बनाते समय यह भी नहीं देखा गया कि इस तरह के पिछले प्रयोग क्यों और कैसे विफल हुए हैं. सबसे बड़ा अचरज इस बात का है कि एक से अधिक कार्यक्रम ऐसे हैं जिनके साथ न तो क्रियान्यवन योजना है और न लक्ष्य. इसलिए प्रचार का पानी उतरते ही स्कीमें चर्चा से भी बाहर हो गईं. स्वच्छता मिशन का हाल देखने लायक है, जो सड़कों की तो छोड़िए, प्रचार से भी बाहर है. जन उत्साह से जुड़े एक कीमती अभियान को सरकार का तदर्थवाद और अदूरदर्शिता ले डूबी. एक साल में इस मिशन के लिए संसाधन जुटना तो दूर, रणनीति व लक्ष्य भी तय नहीं हो सके. पूरा साल बीत गया है और सरकार विभिन्न एजेंसियों खास तौर पर स्थानीय निकायों को भी मिशन से नहीं जोड़ सकी. नगर निगमों के राजस्व को चुस्त करने की रणनीति के अभाव में गंदगी अपनी जगह वापस मुस्तैद हो गई है जबकि झाड़ू लगाती हुई छवियां नेताओं के घरों में सजी हैं. अब सरकार में कई लोग यह मानने लगे हैं कि इस मिशन से बहुत उम्मीद करना बेकार है. सरकार की सर्वाधिक प्रचारित स्कीम जन धन दूरदर्शिता और सूझबूझ की कमी का शिकार हुई है. यह स्कीम उन लोगों के वित्तीय व्यवहार से तालमेल नहीं बिठा पाई जिनके लिए यह बनी है. 50 फीसदी खाते तो निष्क्रिय हैं, दुर्घटना बीमा और ओवरड्राफ्ट ने कोई उत्साह नहीं जगाया. जब खातों में पैसा नहीं है तो रुपे कार्ड का कोई काम भी नहीं है. स्कीम के नियमों के मुताबिक, पूरा मध्यवर्ग जन धन से बाहर है. दूसरी तरफ, नई बीमा स्कीमें बताती हैं कि पिछले प्रयोगों की असफलता से कुछ नहीं सीखा गया. इन स्कीमों को लागू करने वाला प्रशासनिक तंत्र, बजटीय सहायता और लक्ष्य तो नदारद हैं ही, स्कीमों के प्रावधानों में गहरी विसंगतियां हैं. इनसे मिलने वाले लाभ इतने सीमित हैं (मसलन बीस साल तक योगदान के बाद 60 साल की उम्र पर 1,000 से 5,000 रु. प्रति माह की पेंशन) कि लोगों में उत्साह जगना मुश्किल है. इनके डिजाइन इन्हें लोकप्रिय होने से रोकते हैं जबकि इनकी असंगतियां इन्हें बीमा कंपनियों के लिए बेहतर कारोबारी विकल्प नहीं बनातीं. अपने मौजूदा ढांचे में प्रधानमंत्री का जनसुरक्षा पैकेज लगभग उन्हीं विसंगतियों से लैस है, आम आदमी बीमा, जन श्री, वरिष्ठ पेंशन और स्वावलंबन जैसी करीब आधा दर्जन स्कीमें जिनका शिकार हुई हैं.
मेक इन इंडिया, आदर्श ग्राम, डिजिटल इंडिया जैसे बड़े अभियान भी साल भर के भीतर घिसटने लगे हैं तो इसकी वजह कमजोर मंशा नहीं बल्कि तदर्थ तैयारियां हैं. स्कीमें, मिशन और अभियान न केवल तैयारियों और गठन में कमजोर थे बल्कि इन्हें उसी प्रणाली से लागू कराया गया जिसकी असफलता असंदिग्ध है. अब बारह माह बीतने के बाद सरकार में यह एहसास घर करने लगा है कि न केवल पिछली सरकार की स्कीमों को अपनाया गया है बल्कि गवर्नेंस की खामियों को कॉपी-पेस्ट कर लिया गया है इसलिए सरकार के महत्वाकांक्षी अभियान असहज करने वाले नतीजों की तरफ बढ़ रहे हैं.
नरेंद्र मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे जिसमें अव्वल तो अच्छी पहल ही मुश्किल है और अगर हो भी जाए तो यह तंत्र उसे निगल जाता है. लेकिन मोदी सरकार ने तो हर महीने एक नई स्कीम और मिशन उछाल दिया जिसे संभालने और चलाने का ढांचा भी तैयार नहीं था. 'मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' से लोगों ने यही समझा था कि मोदी चुस्त और नतीजे देने वाली सरकार की बात कर रहे हैं, लेकिन एक साल में उनकी ज्यादातर स्कीमों और मिशनों ने मैक्सिमम गवर्नमेंट यानी नई नौकरशाही खड़ी कर दी है और नतीजे उतने ही कमजोर हैं, जितने कांग्रेस के दौर में होते थे. स्कीमों या मिशनों की विफलता नई नहीं है. मुश्किल यह है कि मोदी सरकार के इरादे जिस भव्यता के साथ पेश हुए हैं, उनकी विफलताएं भी उतनी ही भव्य हो सकती हैं. नरेंद्र मोदी को अब किस्म-किस्म की स्कीम व मिशन की दीवानगी छोड़कर गवर्नेंस सुधारने और नतीजे दिखाने का मिशन शुरू करना होगा नहीं तो मोहभंग की भव्यता को संभालना, उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.

Tuesday, April 14, 2015

कैंसर के पैरोकार

तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश हर राजनीतिक दल ने की है.

भारत में यह अपने तरह की पहली घटना थी जब एक संसदीय समिति के सदस्य किसी उद्योग के लिए खुली लॉबीइंग कर रहे थे और उद्योग भी कुख्यात तंबाकू का. बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर न केवल अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे हैं बल्कि बीड़ी पीने-पिलाने की खुली वकालत भी कर रहे थे. अलबत्ता सबसे ज्यादा शर्मनाक यह था कि सरकार ने इस संसदीय समिति की बात मान ली और तंबाकू से खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का काम रोक दिया. दिलचस्प है कि सांसदों की यह लामबंदी बीड़ी तंबाकू की बिक्री रोकने के खिलाफ नहीं थी बल्कि महज सिगरेट के पैकेट पर कैंसर की चेतावनी का आकार बड़ा (40 से 85 फीसद) करने के विरोध में थी. बस इतने पर ही सरकार झुक गई और फैसले पर अमल रोक दिया गया. संसदीय समिति के सदस्यों और बीड़ी किंग सांसद के बयानों पर सवाल उठने के बाद प्रधानमंत्री के ''गंभीर'' होने की बात सुनी तो गई लेकिन यह लेख लिखे जाने तक न तो सरकार ने सिगरेट की पैकिंग पर चेतावनी का आकार बढ़ाने की अधिसूचना जारी की और न ही बीड़ी सुल्तान को संसदीय समिति (सबऑडिर्नेट लेजिसलेशन) से हटाया गया है. नशीली दवाओं पर मन की बातों और किस्म-किस्म की नैतिक शिक्षाओं के बीच तंबाकू पर सरकार क्या कदम उठाएगी, यह तो पता नहीं. अलबत्ता तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर जरूर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश लगभग हर राजनीतिक दल ने की है. सरकारी फाइलों तक निजी कंपनियों के कारिंदों की पहुंच के ताजे मामलों की तुलना में बीड़ी प्रसंग कई कदम आगे का है जहां कंपनियों के प्रवर्तक जनप्रतिनिधि के रूप में खुद अपने लिए ही कानून बना रहे हैं. तंबाकू, जिसका घातक होना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित है, जब उसके पक्ष में खुले आम लामबंदी हो सकती है तो अन्य उद्योगों से जुड़ी नीतियों को लेकर कई गुना संदेह लाजिमी है. बीड़ी तंबाकू प्रकरण केंद्र सरकार की नीतियों से जुड़ा है. जब प्रधानमंत्री की नाक के नीचे यह हाल है तो राज्यों की नीतियां किस तरह बनती होंगी इसका सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है.
भारत में उद्योगपति सांसद और कारोबारी नेताओं का ताना-बाना बहुत बड़ा है. बीड़ी उद्योगपति सांसद जैसे दूसरे उदाहरण भी हमारे सामने हैं. 'जनसेवा' के साथ उनकी कारोबारी तरक्की हमें खुली आंखों से दिख सकती है लेकिन इसे स्थापित करना मुश्किल है. पारदर्शिता के लिए पैमाने तय करने की जरूरत होती है. भारत की पूरी सियासत ने गहरी मिलीभगत के साथ राजनीति और कारोबार के रिश्तों की कभी कोई साफ परिभाषा तय ही नहीं होने दी. नतीजतन नेता कारोबार गठजोड़ महसूस तो होता है पर पैमाइश नहीं हो पाती. हालांकि पूरी दुनिया हम जैसी नहीं है. जिन देशों में इस गठजोड़ को नापने की कोशिश की गई है वहां नतीजों ने होश उड़ा दिए हैं.
अमेरिका के ओपन डाटा रिसर्च, जर्नलिज्म और स्वयंसेवी संगठन, सनलाइट फाउंडेशन ने पिछले साल नवंबर में एक शोध जारी किया था जो अमेरिका में कंपनी राजनीति गठजोड़ का सबसे सनसनीखेज खुलासा था. यह शोध साबित करता है कि अमेरिका में राजनीतिक रूप से सक्रिय 200 शीर्ष कंपनियों ने राजनीतिक दलों को चंदा देने और लॉबीइंग (अमेरिकी कानून के मुताबिक लॉबीइंग पर खर्च बताना जरूरी ) पर 2007 से 2012 के बीच 5.8 अरब डॉलर खर्च किए (http://bit.ly/vvvDvIw) और बदले में उन्हें सरकार से 4.4 खरब डॉलर का कारोबार और फायदे हासिल हुए. सनलाइट फाउंडेशन ने एक साल तक कंपनियों, चंदे, चुनाव आदि के करीब 1.4 करोड़ दस्तावेज खंगालने के बाद पाया कि पड़ताल के दायरे में आने वाली कंपनियों ने अपने कुल खर्च का लगभग 26 फीसद हिस्सा सियासत में निवेश किया. सनलाइट फाउंडेशन ने इसे फिक्स्ड फॉरच्यूंस कहा यानी सियासत में निवेश और मुनाफे की गारंटी.

भारत में अगर इस तरह की बेबाक पड़ताल हो तो नतीजे हमें अवाक कर देंगे. मुंबई की ब्रोकरेज फर्म एक्विबट कैपिटल ने राजनीतिक संपर्क वाली 75 कंपनियों को शामिल करते हुए पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों का इंडेक्स बनाया था जो यह बताता था कि 2009 से 2010 के मध्य तक इन कंपनियों के शेयरों में तेजी ने मुंबई शेयर बाजार के प्रमुख सूचकांक बीएसई 500 को पछाड़ दिया. अलबत्ता 2010 में घोटालों पर कैग की रिपोर्ट आने के बाद यह सूचकांक तेजी से टूट कर अक्तूबर 2013 में तलहटी पर आ गया. राजनीतिक रसूख वाली कंपनियों के सूचकांक ने जनवरी 2014 से बढ़त और अप्रैल 2014 से तेज उछाल दिखाई है. तब तक भारत में नई सरकार के आसार स्पष्ट हो गए थे.
भारत में नेता कारोबार गठजोड़ की बात तो नेताओं के वित्तीय निवेश और राज्यों में सरकारी ठेकों की बंदरबांट के तथ्यों तक जानी चाहिए लेकिन यहां सनलाइट फाउंडेशन जैसी पड़ताल या पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों के साम्राज्य को ही पूरी तरह समझना मुश्किल है. भारत के पास राजनीतिक पारदर्शिता का ककहरा भी नहीं है. हम न तो राजनीतिक दलों के चंदे का पूरा ब्योरा जान सकते हैं और न ही कंपनियों के खातों से यह पता चलता है कि उन्होंने किस पार्टी को कितना पैसा दिया. इस हमाम में सबको एक जैसा रहना अच्छा लगता है.
अचरज नहीं हुआ कि बीजेपी ने अपने बीड़ी (क्रोनी) कैपटलिज्म को हितों में टकराव कहते हुए हल्की-फुल्की चेतावनी देकर टाल दिया. सिगरेट पैकिंग पर चेतावनी के खिलाफ सांसदों की लामबंदी और बीजेपी के बड़े नेताओं की चुप्पी सिर्फ यही नहीं बताती कि बीजेपी पारदर्शी राजनीति के उतनी ही खिलाफ है जितनी कि कांग्रेस और अन्य दल. ज्यादा हैरत इस बात पर है कि जब नेताओं और मंत्रियों पर प्रधानमंत्री की निगरानी किस्सागोई में बदल चुकी हो तो तंबाकू उद्योग के लिए कानून बनाने का काम बीड़ी निर्माता को कैसे मिल जाता है? यकीनन, सरकार के पहले एक साल में बड़े दाग नहीं दिखे हैं लेकिन दाग न दिखने का मतलब यह नहीं है कि दाग हैं ही नहीं. चेतने का मौका है क्योंकि अगर एक बार दाग खुले तो बढ़ते चले जाएंगे.