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Sunday, September 10, 2017

खर्च करेंगे तो बचेंगे

हम सरकार से सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था में ढलान से तो गाफिल नहीं होंगे.

माना कि सरकार ने टैक्स (जीएसटी) थोपने में कोई मुरव्वत नहीं की फिर भी ढहती अर्थव्यवस्था की मदद की खातिर अब शॉपिंग बैग उठाना ही पड़ेगा.

नोटबंदी के बाद आर्थिक विकास दर क्‍यों 
ढह गई! 

सरकारें जब खुद को सर्वशक्तिमान मान लेती हैं तो नोटबंदी जैसे हादसे होते हैं.

जीडीपी यानी आर्थिक उत्पादन बाजार में उपलब्ध  कुल करेंसी और उस करेंसी के इस्तेमाल (करेंसी इन सर्कुलेशन+वेलॉसिटी ऑफ मनी) की दोस्ती से बनता है. इस फॉर्मूले से हम समझ पाते हैं कि प्रत्येक रुपया कितना आर्थिक उत्पादन (जीडीपी) करता है.

वेलॉसिटी ऑफ मनी यानी रुपए का बार-बार इस्तेमाल खासा दिलचस्प है. एक डॉक्टर ने टैक्सी वाले को सौ रुपए दिए. टैक्सी वाले ने वह सौ रुपए देकर खाना खाया. होटल वाले ने उस सौ रुपए से मोबाइल चार्ज करा लिया और मोबाइल वाला वह सौ रुपए इलाज के लिए वापस उसी डॉक्टर को दे आया. डॉक्टर के पास वापस आने तक वह सौ रुपए, चार सौ रुपए का कारोबार कर चुके थे. 

वेलॉसिटी ऑफ मनी की जटिल गणना में नकद लेन-देन ही नहीं, बैंक अकाउंट से भुगतान और निवेश भी शामिल होता है. नकदी तेजी से हाथ बदलती है, जबकि वित्तीय निवेश धीमे चलते हैं. भारत में मनी की वेलॉसिटी, करेंसी के प्रवाह की तुलना में लगभग आठ गुना ज्यादा है. हर नोट औसतन सात से आठ (ज्यादा भी) बार विनिमय में इस्तेमाल होता है.

सरकार नोट छापकर या उन्हें कागज का टुकड़ा बनाकर (नोटबंदी), करेंसी के प्रवाह को तो नियंत्रित कर सकती है लेकिन सौ रुपए का एक नोट कितनी बार (वेलॉसिटी) इस्तेमाल होगा, इस पर सरकार का कोई बस नहीं है.

मनी की वेलॉसिटी अर्थव्यवस्था में डांडिया नाच की तरह है, जिसमें हर नाचने वाला दूसरे के साथ अपने उत्साह को चटकाता है. वेलॉसिटी खरीद, उपभोग, निवेश से बढ़ती है. यह अर्थव्यवस्था में विश्वास का उत्सव है जिससे मांग बढ़ती है.

सरकारें कभी-कभी ऐसे समाधान लाती हैं जो समस्या से ज्यादा खतरनाक होते हैं. कुछ चूहों को निकालने के लिए पूरे डांडिया पंडाल में नोटबंदी की जहरीली गैस छोड़ दी गई. नाचने वाले निढाल होकर गिर गए. करेंसी के साथ ही वेलॉसिटी भी गई और जीडीपी ढह गया. 

करेंसी तो धीमे-धीमे वापस लौट रही है लेकिन गैस का असर इतना गहरा हुआ कि वेलॉसिटी का डांडिया दोबारा चटकाने यानी खर्च करने का उत्साह खत्म (कंज्यूमर सर्वे-रिजर्व बैंक) हो गया है. आज भी नकदी (करेंसी) की उपलब्धता नोटबंदी के पहले के स्तर से 20 फीसदी कम है. डिजिटल पेमेंट काफी धीमे पड़ गए हैं लेकिन हैरत है कि नकदी की कमी सरकार के लिए नोटबंदी की सफलता है! 

सरकारें अर्थव्यवस्था नहीं चलातीं. भारत का जीडीपी देश के लोगों की मेहनत और उपभोग से बढ़ता है. निजी उपभोग के लिए होने वाला खर्च जीडीपी में 60 फीसदी का हिस्सेदार है. जिन वर्षों में भारत ने सबसे अच्छी विकास दर दर्ज की है, उनमें लोगों का उपभोग खर्च शानदार ऊंचाई पर था. 

पिछले साल नोटबंदी के दौरान, इसी कॉलम में हमने लिखा था कि जीडीपी के अनुपात में नकदी करीब 12 फीसदी है, जिसके अधिकांश हिस्से का इस्तेमाल उपभोग खर्च में होता है. नोटबंदी, जीडीपी की सांस घोंटकर भारत की आर्थिक रफ्तार तोड़ देगी.

नोटबंदी के बाद जीडीपी इसलिए ढहा क्योंकि देश के करोड़ों लोगों ने अपनी खपत सिकोड़ ली. नवंबर के धमाके से पहले, अर्थव्यवस्था की ढलान शुरू हो चुकी थी. नोटबंदी के तत्काल बाद खपत को जीएसटी ने दबोच लिया इसलिए संकट गहरा गया है.

सरकार दो काम करते-करते लगभग थक चुकी है.

·       बजट से खूब खर्च किया गया ताकि किसी तरह ढलान रोकी जा सके लेकिन करोड़ों उपभोक्‍ताओं के उपभोग का विकल्प नहीं है.
·       आर्थिक आंकड़ों को खूब प्रोटीन पिलाया गया ताकि अर्थव्यवस्था को बढ़ता दिखाया जा सके .लेकिन सूरत संवारने में बिगड़ती चली गई.

चीनी दार्शनिक लाओत्सु कहते थे, किसी महान देश में सरकार चलाना छोटी मछली को पकाने जैसा होता है. ज्यादा हस्तक्षेप व्यंजन को बिगाड़ देता है. नोटबंदी में यही हाल हुआ है.

अब जीडीपी को न सस्ता कर्ज उबार सकता है और न सरकारी खर्च और विदेशी निवेश. ढहती अर्थव्यवस्था को हमारे आपके खर्च की जरूरत है. हमारा उत्साह ही इसका इलाज है. 

अपने आर्थिक भविष्य के लिए खर्च करिए.

सरकार के भरोसे मत बैठिए, सरकार अब आपके भरोसे बैठी है.


Wednesday, July 20, 2016

ताकि नजर आए बदलाव

सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है

ह अनायास नहीं था कि मंत्रिपरिषद को फेंटने से ठीक पहले प्रधानमंत्री ने कुछ अखबारों को दिए अपने साक्षात्कार में बेबाकी के साथ कहा कि ''मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा."
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी से ठीक एक सप्ताह पहले सरकार के दो साल पूरे होने का अभियान खत्म हुआ था जो देश बदलने के अभूतपूर्व दावों से भरपूर था. इसमें आंकड़ोंदावोंसूचनाओं की बाढ़-सी आ गई थी लेकिन प्रधानमंत्री ने उन मंत्रियों को ही बदल दिया जो पूरे जोशो-खरोश से यह स्थापित करने में लगे थे कि जो बदलाव 60 साल में नहीं हुएवे दो साल में हो गए हैं.
दरअसल यह फेरबदल बताता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब दिल्ली के लिए नए नहीं रहे. दो साल में उन्होंने सरकार और अपनी टीम के बारे में बहुत कुछ जान-समझ लिया है. उनका एक अपना स्वतंत्र सूचना तंत्र भी है जो उन्हें दावों और हकीकत का फर्क बता रहा है. यह हकीकत पांच घंटे की उस समीक्षा बैठक में भी सामने आई थी जो प्रधानमंत्री ने मंत्रिपरिषद में फेरबदल से ठीक पहले बुलाई थी.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बदलाव ने भले ही सुर्खियां बटोरीं हों लेकिन ताजा फेरबदल का शिकार हुए प्रत्येक मंत्री के पिछले दो साल के कामकाज को करीब से देखिए तो पता चल जाएगावह क्यों बदला गयाग्रामीण विकास मंत्रालय में बदलाव प्रधानमंत्री स्वच्छता मिशन की असफलता से निकला. संसदीय समन्वय में कमी के चलते पूरी संसदीय टीम बदल गई. कॉल ड्रॉप रोकने में असफलता ने संचार मंत्री बदले बल्कि मंत्रालय भी दो-फाड़ हो गया. स्टील और खनन मंत्रालय भी इसी राह चला. कानून और खनन मंत्रालयों के मुखिया बदलने के पीछे भी पिछले दो साल का कामकाज ही है. जहां खराब प्रदर्शन के बावजूद मंत्री जमे रहे हैं तो वहां शायद राजनैतिक मजबूरियां गवर्नेंस के पैमानों पर भारी पड़ी हैं.
अलबत्ता मंत्रालयी विश्लेषणों से परे इस फेरबदल का व्यापक संदेश प्रधानमंत्री के इस साहसी स्वीकार से निकलता है कि बदलाव है तो महसूस होना चाहिए. आज दो साल बाद अगर प्रधानमंत्री उन उम्मीदों को कमजोर होता पा रहे हैं तो हमें यह भी मानना चाहिए कि वे मंत्रिमंडल फेरदबल तक सीमित नहीं रहना चाहेंगे बल्कि उन दूसरी कमजोर कडिय़ों को भी संभालने की कोशिश करेंगेजो बड़े बदलावों को जमीन पर उतरने से रोक रही हैं.
एक ताकतवर पीएमओ की छवि के विपरीत जाकर क्या प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों को अब अधिकारों से लैस करना चाहेंगेकेंद्र सरकार को चलाने का ढंग राज्यों से अलग है. केंद्रीय गवर्नेंस का इतिहास गवाह है कि प्रधानमंत्री मंत्रियों को अधिकारों से लैस करते हैं और मंत्री अपने अधिकारियों को. मंत्रियों को मिली आजादी और अधिकार नीतियां बनाने और नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया तय करने के लिए जरूरी है.
पिछले दो साल में सरकार ने कई नई पहल की हैं लेकिन ज्यादातर फैसले स्कीमों की घोषणा तक सीमित थे. सरकार के महत्वाकांक्षी मिशन वह असर पैदा करने में सफल नहीं हुए जिसकी उम्मीद खुद प्रधानमंत्री को थी. मोबाइल कॉल ड्रॉप डिजिटल इंडिया की चुगली खाते हैंकिसानों की आत्महत्याएं ग्रामोदय को ग्रस लेती हैं या शहरों में बदस्तूर गंदगी स्वच्छता मिशन को दागी कर देती है या नए निवेश की बेरुखी मेक इन इंडिया की चमक छीन लेती है. इस तरह के सभी मिशन पूरक नीतियांप्रक्रियाएं और लक्ष्य मांगते हैंइसलिए नीतियों और व्यवस्थाओं में बदलाव जरूरी है.  
प्रधानमंत्री ने पिछले दो साल में जिस तेवर-तुर्शी के बदलावों का सपना रोपाराज्य सरकारें उसके मुताबिक सक्रिय नहीं नजर आईं. राज्य सरकारें जो मोदी की विकास रणनीति की ताकत हो सकती थींफिलहाल कुछ बड़ा कर गुजरती नहीं दिखीं हैं. कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए तरसती रही थीवह बीजेपी को संयोग से अपने आप मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ,  जब 12 राज्यों  में उस गठबंधन या पार्टी की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है.
देश का लगभग 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले नौ बड़े राज्यों में बीजेपी या उसके सहयोगी दल राज्य कर रहे हैं जो केंद्र सरकार की स्कीमों के क्रियान्वयन के लिए सबसे बेहतर मौका है. लेकिन पिछले दो साल में राज्यों ने प्रधानमंत्री की किसी भी प्रमुख स्कीम के क्रियान्वयन में कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की. मंडी कानून को खत्म करनेनिवेश और कारोबार को सहज करने या खदानों के ई-ऑक्शन जैसे कार्यक्रम बीजेपी शासित राज्यों में भी उस उत्साह के साथ आगे नहीं बढ़े जिसकी उम्मीद थी. 
शिक्षास्वास्थ्यग्रामीण विकासनगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की प्रभावी जिम्मेदारी अब राज्यों के हाथ है. केंद्र सरकार इसके लिए संसाधनों के आवंटन कर रही है. पिछले दो साल में सबसे सीमित विकास इन सामाजिक सेवाओं में दिखा हैजो बीजेपी की राजनैतिक आकांक्षाओं के लिए नुक्सानदेह है. 
इस फेरबदल से आगे बढ़ते हुए अब प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ समन्वय का सक्रिय व प्रभावी ढांचा विकसित करना होगा. नीति आयोग राज्यों से समन्वय और नीतियों की नई व्यवस्था में अभी तक कोई ठोस योगदान नहीं कर सका हैउसे सक्रिय करना जरूरी है. राज्य यदि बढ़-चढ़कर आगे नहीं आए तो केंद्रीय मंत्रालय कोई ठोस असर नहीं छोड़ सकेंगे. 

मंत्रिपरिषद में बदलाव से चुनाव नहीं जीते जाते. सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है. यह अच्छे दिन के संदेश व उम्मीदों से ही जुड़ता है जो नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान का आधार था. शुक्र है कि प्रधानमंत्री को बदलाव नजर न आने की हकीकत का एहसास है इसलिए हमें मानना चाहिए कि सरकार का पुनर्गठन अभी शुरू ही हुआ है. प्रधानमंत्री अपनी टीम के बाद स्कीमोंनीतियों और प्रक्रियाओं को भी बदलेंगे ताकि उपलब्धियां महसूस हो सकेउनका दावा न करना पड़े.

Monday, May 18, 2015

रिटेल का शेर


यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकीजो बुनियादी ढांचेखेतीरोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है.
बीजेपी क्या भारतीय बाजार के सबसे बड़े उदारीकरण को रोकने की जिद छोड़ रही है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुदरा कारोबार के शेर को जगाने की हिम्मत जुटा चुके हैं, जो 125 करोड़ उपभोक्ताओं व 600 अरब डॉलर के कारोबार की ताकत से लैस है और जहां विदेशी व निजी निवेश के बाद पूरी अर्थव्यवस्था में बहुआयामी ग्रोथ का इंजन चालू हो सकता है. अगर खुदरा कारोबार में 51 फीसदी विदेशी निवेश के फैसले पर नई सरकार की सहमति और बीजेपी व उसके सहयोगी दलों के राज्यों की मंजूरी दिखावा नहीं है तो फिर इसे मोदी सरकार की पहली वर्षगांठ का सबसे साहसी तोहफा माना जाना चाहिए.
यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकी, जो बुनियादी ढांचे, खेती, रोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है. रिटेल का उदारीकरण होकर भी नहीं हो सका. पिछली सरकार ने सितंबर 2012 में मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश खोल तो दिया लेकिन बीजेपी के जबरदस्त विरोध के बाद, निवेशकों को इजाजत देने का विकल्प राज्यों पर छोड़ दिया गया था. सियासत इस कदर हो चुकी थी कि किसी राज्य ने आगे बढ़ने की हिम्मत ही नहीं दिखाई.
खुदरा कारोबार में एफडीआइ पर सरकार का यू-टर्न ताजा है क्योंकि इसी अप्रैल में, वाणिज्य व उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमन ने लोकसभा को बताया था कि मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की नीति पर अमल पर कोई फैसला नहीं हुआ है. यह पहलू बदल शायद भूमि अधिग्रहण पर मिली नसीहतों से उपजा है. मोदी स्वीकार कर रहे हैं कि विपक्ष में रहते एक सख्त भूमि अधिग्रहण कानून की वकालत, बीजेपी की गलती थी. ठीक ऐसी ही गलती रिटेल में एफडीआइ के विरोध के जरिए हुई थी जिसे अब ठीक करने का वक्त है.
खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की सीमा 51 फीसदी करने का निर्णय ठीक उन्हीं चुनौतियों की देन था जिनसे अब मोदी सरकार मुकाबिल है. मंदी व बेकारी से परेशान यूपीए सरकार खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश लाना चाहती थी ताकि ग्रोथ का जरिया खुल सके. यह एक क्रांतिकारी उदारीकरण था. इसलिए ग्लोबल छवि भी चमकने वाली थी. मोदी सरकार पिछले एक साल में रोजगारों की एकमुश्त आपूर्ति बढ़ाने या बड़े सुधारों का कौल नहीं दिखा सकी. अलबत्ता अब मौका सामने है. उद्योग मंत्रालय के ताजा दस्तावेज के मुताबिक बीजेपी, उसके सहयोगी दलों व कांग्रेस को मिलाकर राजस्थान, महाराष्ट्र कर्नाटक, आंध्र प्रदेश समेत 12 राज्य खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने पर राजी हैं. समर्थन की ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं बनी थी. यह विदेशी रिटेल कंपनियों को बुलाने का साहस दिखाने का सबसे अच्छा अवसर है.
भारत की उपभोग खपत ही अर्थव्यवस्था का इंजन है जिसके बूते 2004 से 2009 के बीच सबसे तेज ग्रोथ आई थी. रिटेल बाजार के पीछे खेती है, बीच में उद्योग हैं और आगे उपभोक्ता. उपभोग खर्च ही मांग, रोजगार, आय में बढ़त, खर्च व खपत का चक्र तैयार करता है, जो रिटेल की बुनियाद है. रिटेल भारत में रोजगारों का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है जिसमें चार करोड़ लोग लगे हैं. स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय मानता है कि 2022 तक इस क्षेत्र में करीब 5.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा. यह आकलन इस क्षेत्र में विदेशी निवेश से आने वाली ग्रोथ की संभावना पर आधारित नहीं है. बोस्टन कंसल्टिंग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत का खुदरा कारोबार 2020 तक एक खरब डॉलर का हो जाएगा, जो आज 600 अरब डॉलर पर है. खुदरा कारोबार का आधुनिकीकरण, नौकरियों का सबसे बड़ा जरिया हो सकता क्योंकि सप्लाई चेन से लेकर स्टोर तक संगठित रिटेल में सबसे ज्यादा रोजगार बनते हैं. पारंपरिक रिटेल में विदेशी निवेश पर असमंजस के बीच ई-रिटेल के कारण असंगतियां बढ़ रही हैं. ई-रिटेल में टैक्स, निवेश, गुणवत्ता, पारदर्शिता के सवाल तो अपनी जगह हैं ही. इससे डिलीवरी मैन से ज्यादा बेहतर रोजगार भी नहीं निकले हैं.

 रिटेल में नया निवेश, कंस्ट्रक्शन की मांग को वापस लौटा सकता है जो इस समय गहरी मंदी में है और खेती के बाद रोजगारों और मांग का दूसरा बड़ा जरिया है. रिटेल उपभोक्ता उत्पाद उद्योगों के लिए नया बाजार और दसियों तरह की सेवाएं लेकर आता है जो कि मेक इन इंडिया का हिस्सा है. रिटेल का 60 फीसदी हिस्सा खाद्य व ग्रॉसरी का है जो कि प्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़ता है. आधुनिक रिटेल, किसानों और लघु उद्योगों के लिए एक बड़ा बाजार होगा.
 रिटेल को लेकर कुछ नए तथ्य तस्दीक करते हैं कि सरकार इसके सहारे ग्रोथ के इंजन में ईंधन भर सकती है. जीडीपी की नई गणना के मुताबिक, आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार पांच फीसदी से बढ़कर 7.5 फीसदी पहुंचने के पीछे विशाल थोक व खुदरा कारोबार की ग्रोथ है. इस कारोबार के समग्र आकार को जीडीपी गणना का पुराना आंकड़ा पकड़ नहीं पाता था. पुराने पैमाने के तहत थोक व रिटेल कारोबार का, जीडीपी में योगदान नापने के लिए एनएसएसओ के रोजगार सर्वे का इस्तेमाल होता था लेकिन नए फॉर्मूले में सेल टैक्स के आंकड़े को आधार बनाया गया तो पता चला कि थोक व खुदरा कारोबार न केवल अर्थव्यवस्था का 20 फीसदी है बल्कि इसके बढ़ने की रफ्तार जीडीपी की दोगुनी है.
   भूमि अधिग्रहण कानून में बदलावों के विरोध में राहुल-सोनिया के भाषणों को, खुदरा में विदेशी निवेश के खिलाफ अरुण जेटली के भाषण के साथ सुनना बेहतर होगा. इससे यह एहसास हो जाएगा कि भारत की राजनीति चुनाव से चुनाव तक का मौकापरस्त खेल है और कांग्रेस-बीजेपी नीतिगत दूरदर्शिता में बेहद दरिद्र हैं. अलबत्ता फैसले बदलना साहसी राजनीति का प्रमाण भी है. इसलिए प्रधानमंत्री अगर नई सोच का साहस दिखा रहे हैं तो उन्हें भूमि अधिग्रहण के साथ 125 करोड़ लोगों के विशाल खुदरा बाजार के उदारीकण की हिम्मत भी दिखानी चाहिए जो केवल बीजेपी की दकियानूसी सियासत के कारण आगे नहीं बढ़ सका. उनका यह साहस अर्थव्यवस्था की सूरत और सीरत, दोनों बदल सकता है.