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Monday, March 21, 2016

नौकरियों के बाजार में आरक्षण


जातीय आरक्षण की समीक्षा पर सरकार का इनकारदरअसलबीजेपी और संघ के बीच सैद्धांतिक असहमतियों का प्रस्थान बिंदु है


सके लिए राजनैतिक पंडित होने की जरूरत नहीं है कि बिहार के चुनाव में बड़े नुक्सान के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जातीय आरक्षण की समीक्षा की बहस क्यों शुरू की ताज्जुब संघ के डिजाइन पर नहीं बल्कि इस बात पर है कि सरकार ने रेत में सिर धंसा दिया और एक जरूरी बहस की गर्दन संसद के भीतर ही मरोड़ दी जबकि कोई हिम्मती सरकार इसे एक मौका बनाकर सकारात्मक बहस की शुरुआत कर सकती थी. संघ का सुझाव उसके व्यापक धार्मिक-सांस्कृतिक एजेंडे से जुड़ता है, जो विवादित है, लेकिन इसके बाद भी हरियाणा के जाट व गुजरात के पाटीदार आंदोलन की आक्रामकता और समृद्ध तबकों को आरक्षण के लाभ की रोशनी में, कोई भी संघ के तर्क से सहमत होगा कि जातीय आरक्षण की समीक्षा पर चर्चा तो शुरू होनी ही चाहिए. खास तौर पर उस वक्त जब देश के पास ताजा आर्थिक जातीय गणना के आंकड़े मौजूद हैं, जिन पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है.
 जातीय आरक्षण में यथास्थिति बनाए रखने के आग्रह हमेशा  ताकतवर रहे हैं, जिनकी वजह से बीजेपी और सरकार को संघ का सुझाव खारिज करना पड़ा. जातीय आरक्षण की समीक्षा पर सरकार का इनकार, दरअसल, बीजेपी और संघ के बीच सैद्धांतिक असहमतियों का प्रस्थान बिंदु है जो संघ के सांस्कृतिक एजेंडे को बीजेपी की राजनीति के रसायन से अलग करता है. आर्थिक व धार्मिक (राम मंदिर) एजेंडे पर ठीक इसी तरह की असहमतियां अटल बिहारी वाजपेयी व संघ के बीच देखी गई थीं.
सरकार भले ही इनकार करे लेकिन आरक्षण की समीक्षा की बहस शुरू हो चुकी है जो जातीय पहचान की नहीं बल्कि रोजगार के बाजार की है. इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करेगा कि आरक्षण ने चुनी हुई संस्थाओं (पंचायत से विधायिका तक) और राजनैतिक पदों पर जातीय प्रतिनिधित्व को सफलतापूर्वक संतुलित किया है और इस आरक्षण को जारी रखने में आपत्ति भी नहीं है. आरक्षण की असली जमीनी जद्दोजहद तो सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी को लेकर है. अगर रोजगारों के बाजार को बढ़ाया जाए तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बेसिर-पैर की दीवानगी को संभाला जा सकता है.
आरक्षण की बहस के इस गैर-राजनैतिक संदर्भ को समझने के लिए रोजगारों के बाजार को समझना जरूरी है. भारत में रोजगार के भरोसेमंद आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं इसलिए आरक्षण जैसी सुविधाओं के ऐतिहासिक लाभ की पड़ताल मुश्किल है. फिर भी जो आंकड़े (वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और आर्थिक समीक्षा 2015-16) मिलते हैं उनके मुताबिक, नौकरीपेशा लोगों की कुल संख्या केवल 4.9 करोड़ है जो 1.28 अरब की आबादी में बेकारी की भयावहता का प्रमाण है. इनमें 94 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में नियोजित हैं, जबकि केवल चार फीसदी लोग संगठित क्षेत्र में हैं जिसमें सरकारी व निजी, दोनों तरह के रोजगार शामिल हैं. ताजा आर्थिक समीक्षा बताती है कि 2012 में संगठित क्षेत्र में कुल 2.95 करोड़ लोग काम कर रहे थे, जिनमें 1.76 करोड़ लोग सरकारी क्षेत्र में थे. 
सरकारी रोजगारों के इस छोटे से आंकड़े में केंद्र व राज्य की नौकरियां शामिल हैं. केंद्र सरकार में रेलवे, सेना और बैंक सबसे बड़े रोजगार हब हैं लेकिन इनमें किसी की नौकरियों की संख्या इतनी भी नहीं है कि वह 10 फीसदी आवेदनों को भी जगह दे सके. केंद्र सरकार की नौकरियों में करीब 60 फीसदी पद ग्रुप सी और करीब 29 फीसदी पद ग्रुप डी के हैं जो सरकारी नौकरियों में सबसे निचले वेतन वर्ग हैं. सरकारी क्षेत्र की शेष नौकरियां राज्यों में हैं और वहां भी नौकरियों का ढांचा लगभग केंद्र सरकार जैसा है.
इस आंकड़े से यह समझना जरूरी है कि आरक्षण का पूरा संघर्ष, दो करोड़ से भी कम नौकरियों के लिए है जिनमें अधिकांश नौकरियां ग्रुप सी व डी की हैं जिनके कारण वर्षों से इतनी राजनीति हो रही है. गौर तलब है कि सरकारों का आकार कम हो रहा है जिसके साथ ही नौकरियां घटती जानी हैं. आर्थिक समीक्षा बताती है कि सरकारी नौकरियों में बढ़ोतरी की गति एक फीसदी से भी कम है, जबकि संगठित निजी क्षेत्र में नौकरियों के बढऩे की रफ्तार 5.6 फीसदी रही है. लेकिन संगठित (सरकारी व निजी) क्षेत्र केवल छह फीसदी रोजगार देता है इसलिए रोजगार बाजार में इस हिस्से की घट-बढ़ कोई बड़ा फर्क पैदा नहीं करती.
सबसे ज्यादा रोजगार असंगठित क्षेत्र में हैं जिसका ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है अलबत्ता इतना जरूर पता है कि असंगठित क्षेत्र जैसे व्यापार व रिटेल, लघु उद्योग, परिवहन, भवन निर्माण, दसियों की तरह की सेवाएं भारत में किसी भी सरकारी तंत्र से ज्यादा रोजगार दे रहे हैं. यह सभी कारोबार भारत के विशाल जीविका तंत्र (लाइवलीहुड नेटवर्क) का हिस्सा हैं जो अपनी ग्रोथ के साथ रोजगार भी पैदा करते हैं.  

नौकरियां बढ़ाने के लिए भारत में विशाल जीविका तंत्र को विस्तृत करना होगा जिसके लिए भारतीय बाजार को और खोलना जरूरी है क्योंकि भारत में नौकरियां या जीविका अंततः निजी क्षेत्र से ही आनी हैं. यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण की बहस को कायदे से शुरू करना चाहता है तो उसे इस तथ्य पर सहमत होना होगा कि भारत में व्यापक निजीकरण, निवेश और विदेशी निवेश की जरूरत है ताकि रोजगार का बाजार बढ़ सके और मुट्ठीभर सरकारी नौकरियों के आरक्षण की सियासत बंद हो सके, जो अंततः उन तबकों को ही मिलती हैं जो कतार में आगे खड़े हैं. 

Monday, September 30, 2013

नेताओं के कबीले


चुनाव की तरफ बढ़ते नेता अपराधियों की अगुआई और खून खच्‍चर वाली कबीलाई सियासत के हिंसक आग्रह से भर गए हैं जो बदलते समाज को न समझ पाने की कुंठा व हताशा से उपजा है।

भारत के नेताओं को समाज को बांटने पर नहीं बल्कि इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि वे समाज के विघटन की नई तकनीकें ईजाद नहीं कर सके हैं। किसी भी देश की सियासत समाज को बांटे बिना नहीं सधती। एक समान राजनीतिक विचारधारा वाले समाज सिर्फ तानाशाहों के मातहत बंधते हैं इसलिए दुनिया के लोकतंत्रों की चतुर सियासत ने सत्‍ता पाने के लिए अपने आधुनिक होते समाजों में राजनीतिक प्रतिस्‍पर्धा की नई रचनात्‍मक तकनीकें गढ़ी हैं जो नस्‍लों, जातियों व वर्गों में पहचान, अधिकार व प्रगति के नए सपने रोपती हैं। लेकिन भारत की मौजूदा सियासत तो मजहबी बंटवारे की तरफ वापस लौट रही है, जो राजनीतिक विघटन का सबसे भोंडा तरीका है। इससे तो सत्‍तर अस्सी दशक वाले नेता अच्‍छे थे जो समाज के जातीय ताने बाने से संवाद की मेहनत करते थे और राजनीति को नुमाइंदगी व अधिकारों की उम्‍मीदों से जोड़ते थे। जडों से उखड़े नेताओं की मौजूदा पीढ़ी भारत के बदलते व आधुनिक समाज को समझने की जहमत नहीं उठाना चाहती। उसे तो अपराधियों की अगुआई और खून खच्‍चर वाली कबीलाई सियासत के जरिये चुनावों की कर्मनाशा तैरना आसान लगने लगा है। 
चुनावी लाभ के लिए सांप्रदायिक हिंसा दरअसल एक संस्‍थागत दंगा प्रणाली की देन हैं, जो उत्‍तर प्रदेश सहित कई राज्‍यों में सक्रिय हो चुकी है। भारत की सांप्रदायिक हिंसा के सबसे नामचीन अध्‍येता प्रो. पॉल आर ब्रास  ने मेरठ  में 1961 व 1982 के दंगों में पहली बार संगठित सियासी मंतव्‍य पहचाने थे और इसे इंस्‍टीट्यूशनल रॉयट सिस्‍टम कहा था। क्‍यों कि उन दंगो के बाद हुए विधानसभा व नगर निकायों के चुनाव के