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Monday, February 16, 2015

केजरीवाल का डर

मुख्यधारा की राजनीति में केजरीवाल की आमद के बाद देश की राजनीति किस्म-किस्म के प्रतिस्पर्धी डरों से ही गुंथी-बुनी होगीजो कई बदलावों की राह खोलेगा 
ह जीत डराती है, इसे सिर पर मत चढ़ने देना!'' दिल्ली की अद्भुत जीत के बाद अरविंद केजरीवाल ने यह बात सोचकर नहीं कही होगी. यह सहज मध्यवर्गीय प्रतिक्रिया है जो बड़ी सफलता मिलने पर कुछ बिगड़ जाने की आशंका से उपजती है. डर चाहे कितना नकारात्मक हो लेकिन उसकी अपनी ताकत होती है. सियासत की दुनिया में हमेशा कुछ गहरे डर भिदे होते हैं जो रणनीतियों की बुनियाद बनते हैं. केजरीवाल का डर जायज है. उन्हें सिर्फ उनके हिस्से का सकारात्मक जनादेश नहीं मिला है. एक ताजा लहर से ऊब व उफनती उम्मीदों ने उन्हें जोखिम की चोटी पर टांग दिया है. इससे अकेले केजरीवाल ही डरे नहीं हैं, डर दूसरी तरफ भी है. दो साल तक थपेड़े खाने और रगड़ने के बाद अंतत: नई सियासत पूरी ठसक के साथ सत्ता के शिखर तक आ ही गई. पारंपरिक सियासत को इसी का तो डर था. राजनीति की बहसों से परे एक तीसरा डर भी है. लोग अब महसूस करना चाहते हैं कि केजरीवाल, गवर्नेंस व सियासत के भ्रष्ट मॉडल को कितना डरा पाते हैं. दरअसल, डर कितने भी बुरा हों, मुख्यधारा की राजनीति में केजरीवाल की आमद के बाद देश की राजनीति किस्म-किस्म के प्रतिस्पर्धी डरों से ही गुंथी-बुनी होगी, जो कई बदलावों की राह खोलेगा.  
केजरीवाल को क्यों डरना चाहिए? क्योंकि उन्हें सरकार चलानी नहीं बल्कि नई सरकार बनानी है. भारत में सरकारें खूब चलीं लेकिन नई गवर्नेंस का इंतजार खत्म नहीं हुआ. सरकारें, इस चुनाव से उस चुनाव के बीच सिमट गईं इसलिए राजनीति व गवर्नेंस का फर्क धुंधला होता चला गया. केजरीवाल अतीत नहीं पोंछ सकते, वे एक नई गवर्नेंस की उम्मीद के साथ शुरू हुए थे, आंदोलन व सियासत जिसके माध्यम बने. पुरानी राजनीति सत्ता में आने के बाद भी सियासी आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाती, ठीक उसी तरह केजरीवाल 49 दिन के पुराने प्रयोग में आंदोलनकारी आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाए. उम्मीद है कि वे बदले होंगे. उन्हें मिली नसीहतों में यह सबक भी शामिल होगा कि गवर्नेंस की मौजूदा सीमाओं के भीतर नए तौर-तरीके ईजाद करना कतई मुश्किल नहीं है. आम आदमी पार्टी को डरना चाहिए कि उसका भव्य जनादेश नई व कमजोर जमीन पर टिका है. सियासत अमूर्त है, गवर्नेंस जिंदगी को छूती है. यह जनादेश सियासत करने का नहीं, सरकार चलाने का है. पारंपरिक राजनैतिक दलों की जड़ें विचाराधाराओं, परंपरा, परिवार व भौगोलिक विस्तार से पोषण पाती हैं इसलिए चुनावी पराजयों के बावजूद वे फिर उग आते हैं. केजरीवाल के पास ऐसा कुछ भी नहीं है. वे उम्मीदों के शिखर पर खड़े हैं, ताकतवर व प्रतिस्पर्धी राजनीति से मुकाबिल हैं. केजरीवाल को यह डर वाकई महसूस होना चाहिए कि बस एक गलती हुई तो पुनर्मूषकोभव!
केजरीवाल से किसे डरना चाहिए? 2011 का दिसंबर याद करिए जब लोकपाल पर संसद में बहस चल रही थी. राजनीति की मुख्यधारा के सूरमा दहाड़ रहे थे कि परिवर्तनों के सभी रास्ते पारंपरिक राजनीति के दालान से गुजरते हैं. जिसे बदलाव चाहिए, उसे दलीय राजनीति के दलदल में उतर कर दो-दो हाथ करने होंगे. केजरीवाल ने दलगत और चुनावी सियासत के जरिए एक नहीं बल्कि दो बार राजनीति के पारंपरिक डिजाइन से इनकार को मुखर कर दिया. केजरीवाल हाल के दशकों में भारत के सबसे तपे हुए नेता हैं जो स्याही की बौछार और जनता से पिटते हुए, जमीनी आंदोलनों की परिपाटी के जरिए अभूतपूर्व जीत तक आए हैं. केजरीवाल की भव्य विजय, भारतीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत और कांग्रेस के अदृश्य होने के बाद की घटना है. इस विराट जीत को मोदी की लोकप्रियता के शोर के बीच बड़ी खामोशी के साथ गढ़ा गया है. पुराने दलों को केजरीवाल से इसलिए डरना चाहिए क्योंकि राजनीति का यह स्टार्ट अप जबरदस्त जन निवेश से शुरू हो रहा है. केजरीवाल के पास सरकार की सीमाओं के भीतर रह कर वह पारदर्शी गवर्नेंस गढ़ने का प्रचंड बहुमत है, पुरानी राजनीति जिसे रोकती रही है. केजरीवाल का यह डर हमेशा बने रहना चाहिए कि वे पारंपरिक राजनीति की लकीर छोटी कर सकते हैं.
केजरीवाल का डर कैसा होना चाहिए? दिल्ली की आम चर्चाएं यह कहती हैं कि केजरीवाल के पहले 49 दिन भ्रष्टाचार को डराने वाले थे. भ्रष्टाचार का प्रकोप घटा था या नहीं, प्रमाण नहीं मिलता लेकिन लोगों के निजी किस्से और तजुर्बे बताते हैं कि भ्रष्टाचार कम होने की ठोस उम्मीद जरूर बनी थी. इसी उम्मीद ने आम आदमी पार्टी को वापसी का आधार दिया. भारत में तमाम उत्पाद सिर्फ इसलिए महंगे हैं क्योंकि उनकी कीमत में कट-कमीशन का खर्च शामिल है. तमाम स्कूल सिर्फ इसलिए मोटी फीस वसूलते हैं क्योंकि उन्हें खोलने व चलाने की एक अवैध लागत है. विकासशील देशों में भ्रष्टाचार परियोजनाओं की लागत 20 फीसद तक बढ़ाता है और महंगाई को ताकत देता है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भ्रष्टाचार रोकने के लिए डर पैदा कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लोगों के गुस्से से डर लगता है. केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ खौफ बना सके तो उनके बहुत से काम अपने आप सध जाएंगे.
जनता माफ करना जानती है इसलिए तो सत्ता छोड़ने के बाद, दिल्ली में मकान तक न देने वाले लोगों ने केजरीवाल को 67 सीटें दे दीं. लेकिन जनता अब झटपट फैसला करती है, वह पांच साल तक इंतजार नहीं करती, पहले मौके पर ही सजा भी सुना देती है. केजरीवाल प्रतिस्पर्धी राजनीति व बेहद बेसब्र वोटर से मुखातिब हैं, जो नेताओं को डरा कर रखना चाहता है ताकि वे हमेशा वह करें जो उन्होंने कहा है. इस वोटर को आप सैडिस्ट या निर्मम कह सकते हैं लेकिन क्या करेंगे, जनता तो जनार्दन है. उसे मूर्ख समझने की बजाए उससे डरते रहने में ही समझदारी है. शुक्र है कि भारतीय नेताओं में यह समझदारी बढ़ने के सबूत मिलने लगे हैं


Monday, February 2, 2015

दिल्ली दिखायेगी राह

आम आदमी पार्टी की नई राजनीति का छोटा-सा सरकारी तजुर्बा कसैला था लेकिन नौ माह पुरानी केंद्र सरकार के खराब प्रदर्शन ने इस कसैलेपन को छिपाने में केजरीवाल की मदद की है
ह पुरानी सियासत की सबसे बड़ी उलझन है कि उसका अतीत उसकी चुगली खाता है. लोगों के पास पारंपरिक राजनीति के खट्टे तजुर्बों का इतना डाटा है कि वह उम्मीदों की जड़ों को जमने नहीं देता. दूसरी तरफ नई सियासत की मुसीबत यह है कि उसके पास ऐसा अतीत नहीं है जो उसके भविष्य को भरोसेमंद बना सके. ऊपर से उसके टटके और अनगढ़ तौर-तरीके सशंकित कर देते हैं.
दिल्ली मेट्रो में सफर करते, सड़कों पर बतकही को सुनते और चुनाव सर्वेक्षणों को धुनते हुए, मुल्क की राजधानी का विराट असमंजस समझना मुश्किल नहीं है. विराट इसलिए क्योंकि दिल्ली देश की विविधता का सबसे बड़ा सैंपल है. दिल्ली की ऊहापोह बिजली-पानी की बहसों से कहीं गहरे पैठी है. एक नई गवर्नेंस की उम्मीदें नौ महीने बाद, टूट कर चुभने लगी हैं तो दूसरी तरफ 49 दिन की एक बदहवास सरकार का तजुर्बा उम्मीदों की बढ़त को बरजता है. संशय, दरअसल, पुरानी सियासत के साथ चलने बनाम नई राजनीति को एक मौका देने के बीच है, जो चुनावी बहसों के भीतर भिद गया है. दिल्ली के लोग इस असमंजस को वैचारिक आग्रहों, किस्सों, मोहभंगों, उम्मीदों व तजुर्बों में सिंझाते हुए, एक आधे-अधूरे राज्य के चुनाव को भारतीय सियासत का सबसे रोमांचक मुकाबला बनाने जा रहे हैं.   
चुनाव के नतीजों पर उतना अचरज नहीं होगा जितना कि दिल्ली की राजनीति में अरविंद केजरीवाल की वापसी को लेकर होना चाहिए. 49 दिन की बिखरी, बौखलाई और नाटकीय सरकार के बाद आम आदमी पार्टी को इतिहास बन जाना चाहिए था. अल्पजीवी सरकारें नई नहीं हैं लेकिन यह कमउम्र सरकार बेतरह बदहवास थी, जो न तो सियासत को दिशा दे सकी और न गवर्नेंस को. लोकतंत्र में आंदोलनों की अपनी एक गरिमा है और गवर्नेंस की अपनी एक संहिता. केजरीवाल 49 दिन के प्रयोग में दोनों को ही नहीं साध सके. उनकी असफल सरकार को गुजरे लंबा समय भी नहीं बीता है लेकिन केजरीवाल का मजबूत मुकाबले में लौटना अनोखा है. चुनाव सर्वेक्षणों के मुताबिक अगर केजरीवाल शिक्षित और आधुनिक दिल्ली की पहली पसंद हैं तो स्वीकार करना चाहिए कि कहीं कुछ और ऐसा है जो उनकी 49 दिन की सरकार की विफलता को धो-पोंछ रहा है. लगता है कि लोकसभा में भव्य व एकतरफा जनादेश के बावजूद, पुरानी राजनीति के विकल्प की उम्मीद अब भी कसमसा रही है और यही उम्मीद दिल्ली में एक बार फिर जूझ जाना चाहती है. 
आम आदमी पार्टी की नई राजनीति का छोटा-सा सरकारी तजुर्बा कसैला था लेकिन नौ माह पुरानी केंद्र सरकार के कामकाज ने इस कसैलेपन को छिपाने में केजरीवाल की मदद की है. 2014 का लोकसभा चुनाव सियासत के पारंपरिक सुल्तानों की ही जंग था, अलबत्ता मतदाता नए थे, इसलिए चुनावी बदलाव, दरअसल गवर्नेंस में बदलाव की उम्मीदों के तौर पर पेश हो गया. नरेंद्र मोदी भी सियासत के उसी पारंपरिक मॉडल से निकले हैं जिसमें कांग्रेस रची-बसी थी. 2014 का जनादेश गवर्नेंस के उस कांग्रेसी ढांचे के खिलाफ था जो उम्रदराज हो गया था और कोई नतीजे नहीं दे पा रहा था. लेकिन भारी-भरकम सरकार, दलबदल और सत्ता को चुनिंदा हाथों में सहेजती बीजेपी, आज कांग्रेस जितनी ही चर्बीदार है. नई सरकार के पहले नौ माह में गवर्नेंस रत्ती भर नहीं बदली. तभी न तो जमीन पर बदलाव दिख रहे हैं और न ही दूरगामी सूझ. जाहिर है कि दिल्ली के लोग केंद्र की सरकार के सबसे निकट पड़ोसी हैं इसलिए मोहभंग का तापमान यहां ज्यादा है जो न केवल 49 दिन के 'केजरीवाली प्रयोग' की नाकामी को भुलाने में मदद कर रहा है बल्कि नई राजनीति को आजमाने की आकांक्षाओं को ताकत दे रहा है. नई सरकार से उम्मीदों की हरारत ही कम नहीं हुई है, आम आदमी पार्टी भी 49 दिनों की सरकार के बाद काफी बदल गई है. केजरीवाल तजुर्बों से सीखकर बीजेपी और कांग्रेस के तौर-तरीकों में ढल रहे हैं. दंभ, दबदबे, अंतर्विरोध, दलबदल जो पुरानी राजनीति की पहचान थे, अब आम आदमी पार्टी के पास भी हैं जो इसे राजनीति के पारंपरिक मैदान के माहौल में फिट करते हैं. वे अब स्टिंग ऑपरेशनों, अंबानियों को सूली पर टांगने और पलक झपकते क्रांति करने की बात नहीं करते बल्कि पुराने लोकलुभावन तरीकों को नई राजनीति में चतुराई से लपेटने लगे हैं. फिर भी सियासत में उनका नया होना ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है. जरा सोचिए कि भारी जनसमर्थन पर बैठे नरेंद्र मोदी नई राजनीति के मॉडल का कुछ हिस्सा आजमाते या पारर्दिशता के आग्रहों को मजबूती से लागू कर पाए होते तो... किसी विशाल देश के इतिहास में एक राज्य के चुनाव छोटा-सा बदलाव होते हैं लेकिन जब नई और पुरानी राजनीति के बीच सीधा मुकाबला हो तो बात बदल जाती है. गोलिएथ ने अपनी सारी लड़ाइयां विशाल शरीर, भारी कवच और लंबे भाले की बदौलत जीती थीं. गुलेलबाज डेविड से कहीं ज्यादा जंग जीतने का तजुर्बा उसके पास था. इसलिए उसका आत्मविश्वास गलत नहीं था. नियम तो डेविड ने बदल दिए और पासा पलट गया. नई राजनीति के आग्रह दिल्ली का खेल बदल रहे हैं और बीजेपी की पारंपरिक सियासत बेचैन दिखाई दे रही है. यकीनन, दिल्ली के चुनाव का नतीजा केंद्र सरकार पर कोई असर नहीं डालेगा लेकिन इसका नतीजा लोकतंत्र पर बड़ा असर जरूर छोड़ेगा. इस चुनाव में दिल्ली के लोग केवल नई सरकार ही नहीं चुनेंगे बल्कि यह भी तय करेंगे कि दिल्ली पूरी तरह पारंपरिक राजनीति के साथ है या फिर नई राजनीति के किसी छोटे-से स्टार्ट अप में भी, अपने विश्वास का निवेश करना चाहते हैं. दिल्ली का असमंजस निर्णायक है. दिल्ली की बेखुदी बेसबब नहीं है, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.


Monday, December 30, 2013

तीसरे रास्‍तों की रोशनी


मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे, जो थे वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण इस लायक नहीं रहे कि हम उन्‍हें अपना शासक कह सकें।

ब बंधे बंधायें विकल्‍पों के बीच चुनाव को बदलाव मान लिया जाता है, तब परिवर्तन को एक नए मतलब की जरुरत होती है। नए रास्‍तों की खोज भी तब ही शुरु होती है जब मंजिल अपनी जगह बदल लेती है और एक वक्‍त के बाद सुधार भी तो सुधार मांगने लगते हैं। लेकिन परिवर्तन, सुधार और विकल्‍प जैसे घिसे पिटे शब्‍दों को नए सक्रिय अर्थों से भरने के लिए जिंदा कौमें को एक जानदार संक्रमण से गुजरना होता है। ऊबता, झुंझलाता, चिढ़ता, सड़कों पर उतरता, बहसों में उलझता भारत पिछले पांच वर्ष से यही संक्रमण जी रहा है। यह जिद्दोजहद  उन तीसरे रास्‍तों की तलाश ही है, जो राजनीति, समाज व अर्थनीति की दकियानूसी राहों से अलग बदलाव की दूरगामी उम्मीदें जगा सकें। इस बेचैन सफर ने 2013 के अंत में उम्‍मीद की कुछ रोशनियां पैदा कर दी हैं। दिल्‍ली में एक अलग तरह की सरकार राजनीति में तीसरे रास्‍ते का छोटा सा आगाज है। स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं व अदालतों की जुगलबंदी न्‍याय का नया दरवाजा  खोल रही है और नियामक संस्‍थाओं की नई पीढ़ी रुढि़वादी सरकार व बेलगाम बाजार के बीच संतुलन व गवर्नेंस का तीसरा विकल्‍प हैं। इन प्रयोगों के साथ भारत का संक्रमण नए अर्थों की रोशनी से जगमगा उठा है।
किसे अनुमान थी कि आर्थिक-राजनीतिक भ्रष्‍टाचार से लड़ते हुए एक नई पार्टी सत्‍ता तक पहुंच जाएगी। यहां तो किसी राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में भ्रष्टाचार मिटाने रणनीति कभी नहीं लिखी गई। पारदर्शिता तो विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़ देती है इसलिए 2011 की संसदीय बहस में पूरी सियासत एक मुश्‍त लोकपाल को बिसूर रही थी। लेकिन दिल्‍ली के जनादेश की एक घुड़की

Wednesday, December 11, 2013

दिल्‍ली का इंकार


गोलिएथ जैसी भीमकायपुराने वजनदार कवचसे लदीधीमी और लगभग अंधी भारतीय पारंपरिक राजनीति का मुकाबला छोटे लेकिन चुस्त,  सचेतनसक्रिय युवा व मध्‍यवर्गीय डेविड से है 

ह भी दिसंबर ही था। 2011 का दिसंबर। जब लोकपाल पर संसद में बहस के दौरान मुख्‍यधारा की राजनीति को पहली बार खौफजदा, बदहवास और चिढ़ा हुआ देखा गया था। ठीक दो साल बाद वही राजनीति दिल्‍ली के चुनाव नतीजे देखकर आक्रामक विस्‍मय और अनमने स्‍वीकार के साथ खुद से पूछ रही है कि क्‍या परिवर्तन शुरु हो गया है?  लोकपाल बहस में गरजते नेता कह रहे थे कि सारे पुण्य-परिवर्तनों के रास्‍ते पारंपरिक राजनीतिक दलों के दालान से गुजरते हैं। जिसे बदलाव चाहिए उसे दलीय राजनीति के दलदल में उतर कर दो दो हाथ करने चाहिए। रवायती राजनीति एक स्‍वयंसेवी आंदोलन को दलीय सियासत के फार्मेट में आने के लिए इसलिए ललकार रही थी क्‍यों कि उसे लगता था कि इस नक्‍कारखाने में आते ही बदलाव की कोशिश तूती बन जाएगी। आम आदमी पार्टी ने दलीय राजनीति पुराने मॉडल की सीमा में रहते हुए बदलाव की व्‍यापक अपेक्षायें स्‍थापित कर दी हैं और चुनावी सियासत के बावजूद राजनीति की पारंपरिक डिजाइन से इंकार को मुखर कर दिया है। दिल्‍ली में आप की सफलता से नगरीय राजनीति की एक नई धारा शुरु होती है जो तीसरे विकल्‍पों की सालों पुरानी बहस को  नया संदर्भ दे रही है।
देश की कास्‍मोपॉलिटन राजधानी में महज डेढ़ साल साल पुराने दल के हैरतअंगेज चुनावी प्रदर्शन को शीला दीक्षित के प्रति वोटरों के तात्‍कालिक गुस्‍से का इजहार का मानना फिर उसी गलती को दोहराना होगा जो अन्‍ना के आंदोलन के दौरान हुई थी, जब स्वयंसेवी संगठनों के पीछे सड़क पर आए लाखों लोगों ने राजनीति की मुख्यधारा को कोने में टिका दिया लेकिन सियासत के सर रेत