Showing posts with label Raghuram rajan. Show all posts
Showing posts with label Raghuram rajan. Show all posts

Wednesday, August 3, 2016

आगेे और महंगाई है !


अच्‍छे मानसून के बावजूद, कई दूसरे कारणों के चलते अगले दो वर्षों में महंगाई  की चुनौती समाप्‍त होने वाली नहीं है। 

देश में महंगाई पर अक्सर चर्चा शुरू हो जाती हैलेकिन जब सरकार कोई अच्छे फैसले करती है तो उसका कोई जिक्र नहीं करता." ------ 22 जुलाई को गोरखपुर की रैली में यह कहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति और आर्थिक प्रबंधन की सबसे पुरानी दुविधा को स्वीकार कर रहे थेजिसने किसी प्रधानमंत्री का पीछा नहीं छोड़ा. कई अच्छी शुरुआतों के बावजूद महंगाई ने ''अच्छे दिन" के राजनैतिक संदेश को बुरी तरह तोड़ा है. पिछले दो साल में सरकार महंगाई पर नियंत्रण की नई सूझ या रणनीति लेकर सामने नहीं आ सकी जबकि अंतरराष्ट्रीय माहौल (कच्चे तेल और जिंसों की घटती कीमतें) भारत के माफिक रहा है. सरकार की चुनौती यह है कि अच्छे मॉनसून के बावजूद अगले दो वर्षों में टैक्सबाजारमौद्रिक नीति के मोर्चे पर ऐसा बहुत कुछ होने वाला हैजो महंगाई की दुविधा को बढ़ाएगा.
भारत के फसली इलाकों में बारिश की पहली बौछारों के बीच उपभोक्ता महंगाई झुलसने लगी है. जून में उपभोक्ता कीमतें सात फीसदी का आंकड़ा पार करते हुए 22 माह के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गईं. अच्छे मॉनसून की छाया में महंगाई का जिक्र अटपटा नहीं लगना चाहिए. महंगाई का ताजा इतिहास (2008 के बाद) गवाह है कि सफल मॉनूसनों ने खाद्य महंगाई पर नियंत्रण करने में कोई प्रभावी मदद नहीं की है अलबत्ता खराब मॉनसून के कारण मुश्किलें बढ़ जरूर जाती हैं. पिछले पांच साल में भारत में महंगाई के सबसे खराब दौर बेहतर मॉनसूनों की छाया में आए हैं. इसलिए मॉनसून से महंगाई में तात्कालिक राहत के अलावा दीर्घकालीन उम्मीदें जोडऩा तर्कसंगत नहीं है.
भारत की महंगाई जटिलजिद्दी और बहुआयामी हो चुकी है. नया नमूना महंगाई के ताजा आंकड़े हैं. आम तौर पर खाद्य उत्पादों की मूल्य वृद्धि को शहरी चुनौती माना जाता है लेकिन मई के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण इलाकों में महंगाई बढऩे की रफ्तार शहरों से ज्यादा तेज थी. खेती के संकट और ग्रामीण इलाकों में मजदूरी दर में गिरावट के बीच ग्रामीण महंगाई के तेवर राजनीति के लिए डरावने हैं.
अच्छे मॉनसून के बावजूद तीन ऐसी बड़ी वजह हैं जिनके चलते अगले दो साल महंगाई के लिए चुनौती पूर्ण हो सकते हैं.
सबसे पहला कारण सरकारी कर्मचारियों के वेतन में प्रस्तावित बढ़ोतरी है. इंडिया रेटिंग का आकलन है कि वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद खपत में 45,100 करोड़ रु. की बढ़ोतरी होगी. प्रत्यक्ष रूप से यह फैसला मांग बढ़ाएगालेकिन इससे महंगाई को ताकत भी मिलेगी जो पहले ही बढ़त की ओर है. जैसे ही राज्यों में वेतन बढ़ेगामांग व महंगाई दोनों में एक साथ और तेज बढ़त नजर आएगी.
रघुराम राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक महंगाई पर अतिरिक्त रूप से सख्त था और ब्याज दरों को ऊंचा रखते हुए बाजार में मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा था. केंद्रीय बैंक का यह नजरिया दिल्ली में वित्त मंत्रालय को बहुत रास नहीं आया. राजन की विदाई के साथ ही भारत में ब्याज दरें तय करने का पैमाना बदल रहा है. अब एक मौद्रिक समिति महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को निर्धारित करेगी. राजन के नजरिए से असहमत सरकार आने वाले कुछ महीनों में उदार मौद्रिक नीति पर जोर देगी. मौद्रिक नीति के बदले हुए पैमानों से ब्याज दरें कम हों या न हों लेकिन महंगाई को ईंधन मिलना तय है.
तीसरी बड़ी चुनौती बढ़ते टैक्स की है. पिछले तीन बजटों में टैक्स लगातार बढ़ेजिनका सीधा असर जेब पर हुआ. रेल किराएफोन बिलइंटरनेटस्कूल फीस की दरों में बढ़ोतरी इनके अलावा थी. इन सबने मिलकर पिछले दो साल में जिंदगी जीने की लागत में बड़ा इजाफा किया. जीएसटी को लेकर सबसे बड़ी दुविधा या आशंका यही है कि यदि राज्यों और केंद्र के राजस्व की फिक्र की गई तो जीएसटी दर ऊंची रहेंगी. जीएसटी की तरफ बढ़ते हुए सरकार को लगातार सर्विस टैक्स की दर बढ़ानी होगीजिसकी चुभन पहले से ही बढ़ी हुई है.
महंगाई पर नियंत्रण की नई और प्रभावी रणनीति को लेकर नई सरकार से उम्मीदों का पैमाना काफी ऊंचा था. इसकी वजह यह थी कि मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नई सूझ लेकर आने वाले थे. मांग (मुद्रा का प्रवाह) सिकोड़ कर महंगाई पर नियंत्रण के पुराने तरीकों के बदले मोदी को आपूर्ति बढ़ाकर महंगाई रोकने वाले स्कूल का समर्थक माना गया था.
याद करना जरूरी है कि मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर एक समिति की अध्यक्षता की थीजो महंगाई नियंत्रण के तरीके सुझाने के लिए बनी थी. उसने 2011 में तत्कालीन सरकार को 20 सिफारिशें और 64 सूत्रीय कार्ययोजना सौंपी थीजो आपूर्ति बढ़ाने के सिद्धांत पर आधारित थी. समिति ने सुझाया था कि खाद्य उत्पादों की अंतरराज्यीय आपूर्ति बढ़ाने के लिए मंडी कानून को खत्म करना अनिवार्य है. मोदी समिति भारतीय खाद्य निगम को तीन हिस्सों में बांट कर खरीदभंडार और वितरण को अलग करने के पक्ष में थी. इस समिति की तीसरी महत्वपूर्ण राय कृषि बाजार का व्यापक उदारीकरण करने पर केंद्रित थी.
दिलचस्प है कि पिछले ढाई साल में खुद मोदी सरकार इनमें एक भी सिफारिश को सक्रिय नहीं कर पाई. सरकार ने सत्ता में आते ही मंडी (एपीएमसी ऐक्ट) कानून को खत्म करने या उदार बनाने की कोशिश की थी लेकिन इसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी भाव नहीं दिया. एनडीए सरकार ने पूर्व खाद्य मंत्री और बीजेपी नेता शांता कुमार के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी जिसने एफसीआइ के विभाजन व पुनर्गठन को खारिज कर दिया और खाद्य प्रबंधन व आपूर्ति तंत्र में सुधार जहां का तहां ठहर गया. 
मोदी सरकार यदि लोगों के ''न की बात" समझ रही है तो उसे बाजार में आपूर्ति बढ़ाने वाले सुधार शुरू करने होंगे.अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमतों में गिरावट उनकी मदद को तैयार है. 
दरअसलमौसमी महंगाई उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जितनी इस अपेक्षा का स्थायी हो जाना कि महंगाई कभी कम नहीं हो सकती. भारत में इस अंतर्धारणा ने महंगाई नियंत्रण की हर कोशिश के धुर्रे बिखेर दिए हैं. इस धारणा को तोडऩे की रणनीति तैयार करना जरूरी है अन्यथा मोदी सरकार को महंगाई के राजनैतिक व चुनावी नुक्सानों के लिए तैयार रहना होगाजो सरकार के पुरानी होने के साथ बढ़ते जाएंगे.

Tuesday, June 28, 2016

रघुराम राजन और मध्‍य वर्ग


क्‍या रघुराम राजन मौद्रिक नीति को उन लोगों की तरफ मुखातिब कर रहे थे जो कर्ज तो नहीं लेते लेकिन मौद्रिक नीति से बुरी तरह से प्रभावित जरूर होते हैं. 
घुराम राजन क्या भारतीय मध्य वर्ग का बैंकर बनने की कोशिश कर रहे थे? क्या वे ऐसी मौद्रिक नीति बनाने की  कोशिश में लगे थे जो बहुसंख्यक मध्य वर्ग की जरूरतों को तवज्जो देती हो? क्या लोकलुभावन और संवेदनशील दिखने वाली सरकार, दरअसल कर्ज लेने वालों के प्रति अतिरिक्त उदार हो चली है या फिर राजन कुछ ज्यादा ही जनवादी हो गए थे? क्या राजन मुट्ठीभर कर्ज लेने वालों के बजाए लाखों बैंक जमाकर्ताओं और उपभोक्ताओं का प्रवक्ता बनने की कोशिश कर रहे थे? क्या बड़े बैंक कर्जदारों और उन्हें बचाने वाले बैंकरों के प्रति राजन की निर्ममता उन्हें ऐसा केंद्रीय बैंकर बना रही थी जो भारत में उद्योग-नेता गठजोड़ के माफिक नहीं था?
अब तक हमने मौद्रिक नीति पर बहुसंख्यकों के मतलब वाली बहस कभी नहीं की है. हमारी चर्चाएं कर्ज की आपूर्ति और ब्याज दरों में कमी-बेशी से बाहर कभी नहीं निकलतीं, जो सीमित लोगों की चिंता है. भारतीय बैंकिंग और मौद्रिक नीति के प्रभाव को व्यापक दायरे में देखने के बाद महसूस होता है कि शायद राजन इस नीति को उन लोगों की तरफ मुखातिब कर रहे थे जो कर्ज तो नहीं लेते लेकिन मौद्रिक नीति से बुरी तरह से प्रभावित जरूर होते हैं. 
राजन के पूर्ववर्ती गवर्नर सुब्बा राव इस बात पर अचरज में थे कि उनके बाल तो कम हो रहे हैं लेकिन बाल कटाने की लागत बढ़ती जाती है. राजन ने महंगाई की उलझन को पकडऩे की कोशिश की, जो औसत भारतीय मध्य वर्ग की सबसे बड़ी मुसीबत है. महंगाई नियंत्रण किसी भी केंद्रीय बैंक का पहला कर्तव्य है. इस काम के लिए ब्याज दरों में कमी-बेशी के जरिए मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित किया जाता है ताकि बाजार में कम चीजों के पीछे ज्यादा रुपया न दौड़े और कीमतें यानी महंगाई काबू में रहे. 
राजन से पहले तक ब्याज दरें तय करने के लिए थोक महंगाई को आधार बनाया जाता था और जीडीपी ग्रोथ की जरूरत को लक्ष्य किया जाता था. यह फॉर्मूला उस महंगाई को रोकता ही नहीं था, जो हमारी जेब काटती है. राजन ने ब्याज दरें तय करने के फॉर्मूले को खुदरा महंगाई से जोड़ दिया, जो ज्यादा पारदर्शी और स्थायी था. इसे वित्तीय बाजार ने भी स्वीकार किया.
फॉर्मूला बदलने के साथ रिजर्व बैंक ने सरकार को बाध्य किया कि ब्याज दरों में कमी के लिए उपभोक्ता महंगाई को कम किया जाए. कर्ज पर ब्याज दरें कम होने का सबसे ज्यादा फायदा सरकार को होता है जो बैंकों से सबसे ज्यादा कर्ज लेती है. यह नीति सरकार को फालतू के खर्च घटाकर कर्ज कार्यक्रम (राजकोषीय घाटे) को सीमित रखने पर भी बाध्य करती थी जो बाजार में कर्ज की मांग को प्रभावित करता है. पिछले तीन साल के आंकड़े बताते हैं कि उपभोक्ता महंगाई भी घटी और सरकार ने घाटे पर भी काबू किया.
राजन ने अपने एक भाषण में महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को समझाने के लिए दोसे का उदाहरण दिया था. मतलब यह कि महंगाई बढ़ती रहे और ब्याज दरें कम की जाएं तो पेंशनर और जमाकर्ताओं के लिए दोसे खरीदने की क्षमता सीमित होती चली जाती है. यह उदाहरण उन्हें पहला ऐसा केंद्रीय बैंकर बनाता है जो बैंकिंग ढांचे में जमाकर्ताओं के हितों को कर्ज लेने वालों के बराबर तरजीह दे रहे थे. जाहिर है कि बैंक में जमा रखने वाले लोगों की संक्चया कर्ज लेने वालों के मुकाबले बहुत बड़ी है. जमा ही बैंकिंग का आधार है.
राजन जमाकर्ताओं को सकारात्मक रिटर्न (महंगाई दर-जमा ब्याज दर) देने के हिमायती थे. उन्होंने सुझाया था कि सरकार को अपने एक साल के कर्जों पर महंगाई दर से दो फीसदी ज्यादा ब्याज देना चाहिए ताकि जमा पर ब्याज दरें तर्कसंगत रहें. यह राय वित्त मंत्रालय को नहीं भाई, जिसने इसी मार्च में छोटी बचतों पर ब्याज दरें कम की हैं. उल्लेखनीय है कि राजन के गवर्नर बनने के कुछ माह बाद जनवरी 2014 से जमा पर रियल टर्म रिटर्न सकारात्मक हो गए थे.
हम भले ही बैंकों के मामले में कर्ज और ब्याज से आगे कुछ न सोचते हों लेकिन भारत में बैंकिंग की हकीकत में बिल्कुल फर्क है. यहां 45 फीसदी वयस्क आबादी के पास बैंक खाते नहीं हैं यानी कि वह बैंकिंग के दायरे से बाहर हैं. केवल 6.4 फीसदी वयस्क ऐसे हैं जिन्होंने किसी वित्तीय संस्थान से कर्ज लिया है. (वर्ल्ड बैंक ग्लोबल फिनडेक्स डाटाबेस 2014) इनमें भी उपभोक्ता कर्ज लेने वालों की संख्या और उनके कर्जों के आकार बहुत सीमित है.
दरअसल, भारत में कर्ज का वास्तविक संसार बड़े उद्योगों का है. ब्याज दरों में चैथाई फीसदी की कटौती से आम उपभोक्ता की मासिक किस्त कुछ सौ रुपए घटती है लेकिन कर्ज के सबसे बड़े ग्राहकों यानी उद्योगों और सरकार के लिए यह कमी करोड़ों रु. का मामला है. रिजर्व बैंक के आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि पिछले साल 31 मार्च तक सरकारी बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज का एक-तिहाई हिस्सा केवल 30 कर्जदारों के नाम था. पांच प्रमुख सरकारी बैंकों के करीब 4.87 लाख करोड़ रु. के कर्ज सिर्फ 44 कर्जदारों के खाते में दर्ज हैं और यह सभी औसत 5,000 करोड़ रु. के ऊपर के कर्जदार हैं. इस कर्ज की वसूली के बिना बैंकों की लागत घटना और कर्ज सस्ता होना नामुमकिन है. समझना मुश्किल नहीं है कि राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक ने बड़े कर्जदारों से वसूली और बैंकों की सफाई का जो अभियान चलाया, वह किसे परेशान कर रहा होगा.
राजन के विरोधी उन्हें अमेरिका से प्रभावित बताते हैं लेकिन अमेरिका में उपभोग के लिए भी कर्ज लिया जाता है, वहां महंगाई कोई मुद्दा नहीं है और वहां सस्ता कर्ज ही सब कुछ है. इसके उलट भारत की बैंकिंग जमाकर्ताओं की है, जिनके लिए बैंक बैलेंस पर रिटर्न और महंगाई सबसे बड़ी चिंता है.
राजन की मौद्रिक कोशिशों को भारत के बैंकिंग परिदृश्य के संदर्भ में देखने के बाद यह सवाल पीछा नहीं छोड़ता कि क्या रघुराम राजन मध्य वर्ग के हितों को मौद्रिक नीति का स्थायी कारक बनाना चाहते थे जबकि उन्हें हटाने की मुहिम छेडऩे वाले कुछ और ही चाह रहे थे?
ध्यान रहे कि केंद्र सरकार मौद्रिक नीति को तय करने के नए पैमाने जारी करने वाली है. यदि वह जमाकर्ताओं से ज्यादा कर्ज लेने वालों के पक्ष में हुए तो हमारे कई संदेह सही साबित हो सकते हैं.

Tuesday, June 7, 2016

अब की बार बैंक बीमार


बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है.

भारतीय बैंकों के कुल फंसे हुए कर्ज अब 13 लाख करोड़ रुपए से ऊपर हैं जो न्यूजीलैंड, केन्या, ओमान, उरुग्वे जैसे देशों के जीडीपी से भी ज्यादा है. सुनते थे कि चीन की बैंकिंग बुरे हाल में है लेकिन बैंकों के कर्ज संकट के पैमाने पर एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के बैंकों की हालत सबसे ज्यादा खराब है. प्रमुख सरकारी बैंकों के वित्तीय नतीजे बताते हैं कि 25 में से 15 सरकारी बैंकों का मुनाफा डूब गया है. बैंकिंग उद्योग का ताजा घाटा अब 23,000 करोड़ रुपए से ऊपर है, जबकि बैंक पिछले साल इसी दौरान मुनाफे में थे.

मोदी सरकार अपनी सालगिरह के उत्सव और गुलाबी आंकड़ों की चाहे जो धूमधाम करे लेकिन यकीन मानिए, बैंकिंग के संकट ने इस जश्न में खलल डाल दिया है. भारतीय बैंकों की हालत अब देसी निवेशकों की ही नहीं बल्कि ग्लोबल चिंता का सबब है और इसे सुधारने में नाकामी पिछले दो साल में मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता है. कमजोर होते और दरकते बैंक ब्याज दरों में कमी की राह रोक रहे हैं. बैंकों पर टिकी मोदी सरकार की कई बड़ी स्कीमें भी इस संकट के कारण जहां की तहां खड़ी हैं.

वित्त मंत्रालय, बैंकिंग क्षेत्र और शेयर बाजार को टटोलने पर भारतीय बैंकिंग में लगातार बढ़ रहे संकट के कई अनकहे किस्से सुनने को मिलते हैं, जो ताजा आंकड़ों से पुष्ट होते हैं. बैंकों की ताजा वित्तीय सूरतेहाल (2015-16 की आखिरी तिमाही) के मुताबिक, केवल पिछले एक साल में ही बैंकों का फंसा हुआ कर्ज यानी बैड लोन (एनपीए) 3.09 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 5.08 लाख करोड़ रुपए पर पहुंच गया. अकेले मार्च की तिमाही में ही बैंकों का एनपीए 1.5 लाख करोड़ रुपए बढ़ा है. सरकारी बैंकों का एनपीए अब शेयर बाजार में उनके मूल्य से 1.5 गुना है. यानी अगर किसी ने ऐसे बैंक में निवेश किया है तो वह प्रत्येक 100 रुपए के निवेश पर 150 रुपए का एनपीए ढो रहा है.

बैंकों के इलाज के लिए सरकार नहीं बल्कि रिजर्व बैंक ने कोशिश की है. एनपीए को लेकर सरकार की तरफ से ठोस रणनीति की नामौजूदगी में रिजर्व बैंक ने पिछले साल से बैंकों की बैलेंस शीट साफ करने का अभियान शुरू किया, जिसके तहत बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले अपनी कुछ राशि अलग से सुरक्षित (प्रॉविजनिंग) रखनी होती है. इस फैसले से एनपीए घटना शुरू हुआ है लेकिन  इसका तात्कालिक नतीजा यह है कि 25 में से 15 प्रमुख सरकारी बैंक घाटे के भंवर में घिर गए हैं. मार्च की तिमाही के दौरान भारी घाटा दर्ज करने वाले बैंकों में पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक ऑफ इंडिया जैसे बड़े बैंक शामिल हैं. देश के सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक का मुनाफा भी बुरी तरह टूटा है. यह सफाई अभियान कुछ और समय तक चलने की उम्मीद है यानी बैंकों को फंसे हुए कर्जों के बदले और मुनाफा गंवाना होगा. लिहाजा, अगले छह माह तक बैंकों की हालत सुधरने वाली नहीं है.

महंगे कर्ज को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन को कठघरे में खड़ा करने वालों से बैंकों की बैलेंस शीट पर एक नजर डालने की उम्मीद जरूर की जानी चाहिए. मई में कर्ज की मांग घटकर दस फीसदी से भी नीचे आ गई जो सबूत है कि बैंकों को नया कारोबार नहीं मिल रहा है. बैंकों में जमा की ग्रोथ रेट पांच दशक के न्यूनतम स्तर पर है. एनपीए के कारण बैंकिंग उद्योग का पूंजी आधार सिकुड़ गया है. दरअसल, ऊंची ब्याज दरों की वजह रिजर्व बैंक की महंगाई नियंत्रण नीति नहीं है, बैंकों की बदहाली ही ब्याज दरों में कमी को रोक रही है.

बैंकों की हालत दो साल में देश बदलने के दावों की चुगली खाती है. सरकार सूझ और साहस के साथ इस संकट से मुकाबिल नहीं हो सकी. पिछले साल अगस्त में आया बैंकिंग सुधार कार्यक्रम इंद्रधनुष बैंक कर्जों और घाटे की आंधी में उड़ गया. यह कार्यक्रम बैंकों के संकट को गहराई से समझने में नाकाम रहा. बैंकों के फंसे कर्जों को उनकी बैलेंस शीट से बाहर करने की जुगत चाहिए, लेकिन उसके लिए सरकार हिम्मत नहीं जुटा सकी. बैंकों का पूंजी आधार इतनी तेजी से गिरा है कि बजट से बैंकों में पैसा डालने (कैपिटलाइजेशन) से भी बात बनने की उम्मीद नहीं है.

यह समझ से परे था कि जब सरकारी बैंक पिछले कई दशकों की सबसे बुरी वित्तीय हालत में हैं तो सरकार ने अपने प्रमुख लोकलुभावन मिशन बैंकों पर लाद दिए. बैंकिंग का ऐसा इस्तेमाल सत्तर-अस्सी के दशक में होता था जब लोन मेले लगाए जाते थे. पिछले दो साल में शुरू हुई लगभग आधा दर्जन योजनाएं बड़े सरकारी बैंकों पर केंद्रित हैं. मुद्रा बैंक, स्टार्ट-अप इंडिया, सोने के बदले कर्ज तो सीधे कर्ज बांटने से जुड़ी हैं जबकि जन धन, बीमा योजनाएं और डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर सेवाओं में बैंकिंग नेटवर्क का इस्तेमाल होगा जिसकी अपनी लागत है. आज अगर मोदी सरकार की कई स्कीमों के जमीनी असर नहीं दिख रहे हैं तो उसकी वजह यह है कि बैंकों की वित्तीय हालत इन्हें लागू करने लायक है ही नहीं.

आइएमएफ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत के सरकारी बैंकों की हालत ज्यादा खराब है. 3 मई को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत में कुल (ग्रॉस) लोन में नॉन-परफॉर्मिंग एसेट का हिस्सा अन्य एशियन देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है. कुल बैंक कर्ज के अनुपात में 6 फीसदी एनपीए के साथ भारत अब मलेशिया, इंडोनिशया और जापान ही नहीं, चीन से भी आगे है.


अच्छे मॉनसून से विकास दर में तेजी की संभावना है. इसे सस्ते कर्जों और मजबूत बैंकिंग का सहारा चाहिए, लोकलुभावन स्कीमों का नहीं. सरकार को दो साल के जश्न से बाहर निकलकर ठोस बैंकिंग सुधार करने होंगे, जिनसे वह अभी तक बचती रही है. बैंकिंग संकट अगर और गहराया तो यह ग्रोथ की उम्मीदों पर तो भारी पड़ेगा ही, साथ ही भारत के वित्तीय तंत्र की साख को भी ले डूबेगा, जो फिलहाल दुनिया के कई बड़े मुल्कों से बेहतर है.

Monday, December 1, 2014

छह महीने और तीन प्रतीक


सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है. सरकार के छह माह नहीं बीते हैं बल्कि प्रधानमंत्री के पास केवल साढ़े चार साल बचे हैं 

मोदी सरकार के पहले मंत्रिमंडल विस्तार, अडानी की विवादित ऑस्ट्रेलियाई परियोजना को स्टेट बैंक से कर्ज की मंजूरी और ‘‘प्रागैतिहासिक’’ किसान विकास पत्र की वापसी के बीच क्या रिश्ता है? यह तीनों ही नई सरकार और उसके प्रभाव क्षेत्र के सबसे बड़े फैसलों में एक हैं, अलबत्ता इन्हें आपस में जोडऩे वाला तथ्य कुछ दूसरा ही है. इनके जरिए सरकार चलाने का वही दकियानूसी मॉडल वापस लौटता दिख रहा है, जिसे बदलने की उम्मीद और संकल्पों के साथ नई सरकार सत्ता में आई थी और उपरोक्त तीनों फैसले अपने अपने क्षेत्रों में नई बयार का प्रतीक बन सकते थे.
बड़े बदलावों की साख तभी बनती है जब बदलाव करने वाले उस परिवर्तन का हिस्सा बन जाते हैं. मोदी सरकार के पहले मंत्रिमंडल विस्तार ने नई गवर्नेंस में बड़े बदलाव की उम्मीद को छोटा कर दिया. बड़े मंत्रिमंडलों का आविष्कार गठबंधन की राजनीति के लिए हुआ था. महाकाय मंत्रिमंडल न तो सक्षम होते हैं और न ही सुविधाजनक. बस, इनके जरिए सहयोगी दलों के बीच सत्ता को बांटकर सरकार के ढुलकने का खतरा घटाया जाता था. नरेंद्र मोदी गठबंधनों की राजनीति की विदाई के साथ सत्ता में आए थे. उनके सामने न तो, कई दलों को खपाने की अटल बिहारी वाजपेयी जैसी मजबूरियां थीं न ही मनमोहन सिंह जैसी राजनैतिक बाध्यताएं, जब राजनैतिक शक्ति 10 जनपथ में बसती थी. सरकार और पार्टी पर जबरदस्त नियंत्रण से लैस मोदी के पास एक चुस्त और चपल टीम बनाने का पूरा मौका था. 
मनमोहन सिंह कई विभाग और बड़ी नौकरशाही छोड़कर गए थे, मोदी सरकार में भी नए विभागों के जन्म की बधाई बजी है. कुछ विभागों में तो एक मंत्री के लायक भी काम नहीं है जबकि कुछ विभाग चुनिंदा स्कीमें चलाने वाली एजेंसी बन गए हैं. कांग्रेस राज ने मनरेगा, सर्वशिक्षा जैसी स्कीमों से एक नई समानांतर नौकरशाही गढ़ी थी, वह भी जस-की-तस है. दरअसल, स्वच्छता मिशन, आदर्श ग्राम, जनधन जैसी कुछ बड़ी स्कीमें ही सरकार का झंडा लेकर चल रही हैं, ठीक इसी तरह चुनिंदा स्कीमों का राज यूपीए की पहचान था. अब वित्त मंत्री, विभागों के खर्चे काट रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री ने सरकार का आकार बढ़ा दिया है. लोग कांग्रेस की ‘‘मैक्सिमम’’ गवर्नेंस को ‘‘मिनिमम’’ होते देखना चाहते थे, एक नई ‘‘मेगा’’ गवर्नेंस तो कतई नहीं.
बीजेपी इतिहास का पुनर्लेखन करना चाहती है, लेकिन इसके लिए हर जगह इतिहास से दुलार जरूरी तो नहीं है? किसान विकास पत्र 1 अप्रैल, 1988 को जन्मा था जब बहुत बड़ी आबादी के पास बैंक खाते नहीं थे और निवेश के विकल्प केवल डाकघर तक सीमित थे. अगर बचतों पर राकेश मोहन समिति की सिफारिशें लागू हो जातीं, तो इसे 2004 में ही विश्राम मिल गया होता. रिजर्व बैंक की डिप्टी गवर्नर श्यामला गोपीनाथ की जिन सिफारिशों पर 2011 में यह स्कीम बंद हुई थी उनमें केवल किसान विकास पत्र के मनी लॉन्ड्रिंग में इस्तेमाल का ही जिक्र नहीं था बल्कि समिति ने यह भी कहा था कि भारत की युवा आबादी को बचत के लिए नए आधुनिक रास्ते चाहिए, प्रागैतिहासिक तरीके नहीं.
किसान विकास पत्र से काले धन की जमाखोरी बढ़ेगी या नहीं, यह बात फिर कभी, फिलहाल तो इस 26 साल पुराने प्रयोग की वापसी सरकार में नई सूझ की जबरदस्त कमी का प्रतीक बनकर उभरी है. नए नए वित्तीय उपकरणों के इस दौर में वित्त मंत्रालय, रिजर्व बैंक और तमाम विशेषज्ञ मिलकर एक आधुनिक बचत स्कीम का आविष्कार तक नहीं कर सके. बचत को बढ़ावा देने के लिए उन्हें उस उपकरण को वापस अमल में लाना पड़ा जिसे हर तरह से इतिहास का हिस्सा होना चाहिए था क्योंकि यह उन लोगों के लिए बना था जिनके पास बैंक खाते नहीं थे. अब तो लोगों के पास जन धन के खाते हैं न?
‘‘भारत का सिस्टम बड़ी कंपनियों के हक में है. मंदी के दौरान किस बड़े कॉर्पोरेट को अपना घर बेचना पड़ा?’’ वर्गीज कुरियन लेक्चर (रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, आणंद-25 नवंबर) में रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन की बेबाकी उस पुरानी बैंकिंग की तरफ संकेत था, जहां से अडानी की ऑस्ट्रेलियाई कोयला खदान परियोजना को कर्ज की मंजूरी निकली थी. इस परियोजना को कर्ज देने के लिए स्टेट बैंक का अपना आकलन हो सकता है तो दूसरी तरफ उन छह ग्लोबल बैंकों के भी आकलन हैं जो इसे कर्ज देने को जोखिम भरा मानते हैं.
वित्तीय बहस से परे, सवाल बैंकिंग में कामकाज के उन अपारदर्शी तौर तरीकों का है जिसके कारण रिजर्व बैंक को यह कहना पड़ा कि बैंक फंसे हुए कर्जे छिपाते हैं, बड़े कर्जदारों पर कोई कार्रवाई नहीं होती जबकि छोटा कर्जदार पिस जाता है. भारत की बैंकिंग गंभीर संकट में है, इसे अपारदर्शिता और कॉर्पोरेट बैंकर गठजोड़ ने पैदा किया है, जो बैंकों को डुबाने की कगार पर ले आया है. ग्रोथ के लिए सस्ता कर्ज चाहिए, जिसके लिए पारदर्शी और सेहतमंद बैंक अनिवार्य हैं. मोदी सरकार ने पहले छह माह में भारतीय बैंकिंग में परिवर्तन का कौल नहीं दिखाया, अलबत्ता देश के सबसे बड़े बैंक ने विवादित बैंकिंग को जारी रखने का संकल्प जरूर जाहिर कर दिया.

मोदी पिछले तीन दशक में भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनके पास किसी भी परिवर्तन को साकार करने का समर्थन उपलब्ध है लेकिन बदलाव के बड़े मौकों पर परंपरा और यथास्थितिवाद का लौट आना निराशाजनक है. मोदी प्रतीकों के महारथी हैं. उनके पहले छह माह प्रभावी प्रतीक गढऩे में ही बीते हैं लेकिन नई गवर्नेंस, फैसलों की सूझ और पारदर्शिता का भरोसा जगाने वाले ठोस प्रतीकों का इंतजार अभी तक बना हुआ है. सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है. सरकार के छह माह नहीं बीते हैं बल्कि प्रधानमंत्री के पास केवल साढ़े चार साल बचे हैं और वक्त की रफ्तार उम्मीदों का ईंधन तेजी से खत्म कर रही है.
http://aajtak.intoday.in/story/six-months-and-three-symbols-1-789686.html

Monday, January 27, 2014

मौद्रिक रोमांच

काले धन व महंगाई  की बहसों में रिजर्व बैंक ने धमाकेदार इंट्री ली है। वह काली अर्थव्‍यवस्‍था से निबटने के लिए अपने तरीके आजमा रहा है और महंगाई से बेफिक्र राजनीति को नए फार्मूलों में बांध रहा है।

रिजर्व बैंक जैसा कोई केंद्रीय नियामक जब राजनीतिक व व्‍यवस्‍थागत चुनौतियों से अपने तरीके जूझने लगता है तो सियासत के कबूतरों के बीच बिल्लियां दौड़ जाती हैं। रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन ने यही किया है। 2005 से पहले के सभी करेंसी नोट का प्रचलन समाप्‍त करने के साथ रिजर्व बैंक ने काला धन को रोकने की बहस को मौद्रिक रोमांच से भर दिया है। जबकि दूसरी तरफ ब्‍याज दरें तय करने के लिए थोक की जगह खुदरा महंगाई को आधार बनाने की तैयारी शुरु हो गई है जो न केवल मौद्रिक व्‍यवस्‍था में एक बड़ा क्रांतिकारी बदलाव है बल्कि इसके बाद उपभोक्‍ता महंगाई पर नियंत्रण अगले कई वर्षों तक देश का सबसे बड़ा आर्थिक राजनीतिक सवाल बन जाएगा। यह कदम उस वक्‍त सामने आए हैं जब काले धन के सबसे बड़े उत्‍सव यानी आम चुनाव की तैयारी चल रही है और भारी महंगाई की तोहमतें सियासत का दम घोंट रही हैं। दोनों फैसलों का फलित यह है कि देश में कर्ज लंबे समय तक महंगा रहेगा। यानी कि आर्थिक पारदर्शिता में बढ़त और महंगाई में कमी के बिना सस्‍ते कर्ज की उम्‍मीद बेमानी है।