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Monday, September 4, 2017

हस्ती कायम रहे हमारी


शंख और लिखित परम तपस्वी ऋषि थे. दोनों सगे भाई. एक दिन लिखितशंख के आश्रम पर पहुंचे. शंख कहीं गए हुए थे. भूखे लिखितआश्रम के वृक्षों से फल तोड़कर खाने लगे. इतने में शंख आ गए. उन्होंने फल तोडऩे से पहले किसी की अनुमति ली थी लिखित ?
लिखित निरुत्तर थे.

शंख ने कहायह चोरी है. आपको राजा सुद्युम्न से दंड मांगने जाना होगा. 

लिखित दरबार में पहुंचे और पूरा प्रकरण बताकर दंड देने की याचना की. राजा ने कहाअपराध को मैं क्षमा करता हूं. लिखित ने कहानहींमुझे दंड भुगतना ही होगा.

ऋषि के आग्रह पर राजा ने उनके दोनों हाथ कटवा दिएजो चोरी के अपराध की सजा थी.

हाथ गंवाकर लिखित पुनः शंख के पास पहुंचे. शंख ने उन्हें नदी में स्नान और तप करने के लिए कहा और (जैसा कि मिथकों में होता है) स्नान करते ही लिखित के हाथ वापस आ गए.

लिखित फिर शंख के पास आए और पूछा कि जब आप अपने तप से मुझे पवित्र कर सकते थे तो फिर दंड क्यों

शंख ने कहा कि हम तपस्वी हैंलोग हमें आदर्श मानते हैं इसलिए हमारा छोटा-सा अपराध भी क्षम्य नहीं है. रही बात दंड की तो वह मेरा अधिकार नहीं है इसलिए आपको राजा के पास भेजा.

महाभारत के शांति पर्व की यह कथा इसके बाद शंख और लिखित के बारे में कुछ नहीं कहती बल्कि यह बताती है कि न्याय के मानकों पर ऋषि को भी सजा देने वाला राजा सुद्युम्न सशरीर स्वर्ग चला गया.

यह कहानी व्यास ने युधिष्ठिर को सुनाई थी जो युद्ध के बाद न्यायधर्म के अंतर्गत यह सीख रहे थे किः
एकः जो समाज में जितना ऊंचा हैउसका अपराध उतना ही बड़ा होता है.
दोः अपराधी ऋषि को भी सजा देने वाला राजा पूज्य  होता है.

गुरमीत सिंह पर अदालत के फैसले को गौर से पढऩा चाहिए. पूरे निर्णय में विस्मय से भरा क्षोभ गूंजता है. मानो कहना चाहता हो कि संत और बलात्कार! यह कैसे सहन हो सकता हैधर्म को जीवन मूल्य और न्याय मानने वाले समाज के लिए यह बर्दाश्त करना असंभव है कि उसके अनन्य विश्वास का कर्णधार कोई संत यौनाचारी भी हो सकता है.

इंसाफ करना सबसे कठिन तब होता है जब समाज के विश्वास के शिखर पर बैठा कोई व्यक्ति कठघरे में होता है. आसान नहीं रहा होगा एक दंभी-लंपट संत पर फैसला करना जो लाखों भोले अनुयायियों और राजनैतिक रसूख की ताकत से डकारता हुआ न्याय को मरोडऩा चाहता था. फैसले के बाद हिंसा की आशंका को जानते हुए भीन्यायाधीश गुरमीत को सजा इसलिए दे पाए क्योंकि वे उस बेचैनी को सुन पा रहे थे जो हमें एक धार्मिक समाज के रूप में शर्मिंदा कर रही थी.

क्या भारत की अदालतें लंपट साधुओं के प्रति अतिरिक्त कठोर हो रही हैंलोकप्रियता के शिखर पर बैठे लोगों के अपराध को लेकर अदालतें ज्यादा ही आक्रामक हैंयदि हकीकत में ऐसा है तो हमें स्वयं पर गर्व करना चाहिए. यही तो वह बात है जिसकी वजह से हस्ती मिटती नहीं हमारी. कहीं न कहींकोई न कोई आगे आकर हमें उम्मीद का दीया पकड़ा जाता है.  

यदि बलात्कारी बाबाओं या उच्च पदस्थ अपराधियों को लेकर अदालतें बेरहम हो रही हैं तो यह न्याय व्यवस्था में एक गुणात्मक बदलाव है जिसे लाने के लिए हमें सड़क पर मोमबत्तियां नहीं जलानी पड़ीं.

अदालतों की सक्रियता पर चिंतित होने की बजाए यह जानना बेहतर होगा कि 21वीं सदी में चर्च की सबसे बड़ी उलझन दरअसल यौन कुंठित व बलात्कारी बिशप और पुजारी हैं. इसी साल जून में पोप फ्रांसिस के वित्तीय सलाहकार और वेटिकन के एक सर्वोच्च कार्डिंनल जॉर्ज पेल को मेलबर्न की अदालत ने यौन अपराधों (जब वे ऑस्ट्रेलिया के आर्कबिशप थे) में सजा सुनाई है. कैथोलिक चर्च में यौन और बाल शोषण के मामले लगातार सुर्खियों में है. इस तरह की करीब 2000 शिकायतों पर लंबे समय से बैठा वेटिकन लंबे अरसे से पश्चिमी प्रेस के निशाने पर है.

चर्च भारत की अदालतों से कुछ सीखना चाहेगा?

वैसेभारत की अदालतें एक तरह का प्रायश्चित भी कर रही हैं. अपराधी और भ्रष्ट राजनेताओं पर उन्होंने इतनी सख्ती नहीं की थी. अपराधी संतों के मामले में यह गलती नहीं दोहराई जा रही है.

क्या राजनेता लंपट गुरुओं से दूरी बनाएंगेक्या समाज सेवा दिखाकर अवैध साम्राज्य बनाने वाले बाबा-फकीरों को रोकने के लिए कानून बनेगाक्या हिंदुत्व के पुरोधा भारतीय आध्यात्मिकता को कलंकित करने वालों से सहज भारतीयों की रक्षा करेंगे?

पता नहीं!

लेकिन गुरमीत हम सब आम लोगों को यह बड़ी नसीहत दे कर जेल गया है कि  

अनुयायियों की भीड़ गुरु की पवित्रता की गारंटी नहीं है.




Monday, August 22, 2016

बुरे दिन इंसाफ के


सरकार और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की राजनीतिक लड़ाई ने न्याय व्यवस्था को  निचले स्तर तक बंधक बना लिया है.

राजनैतिक बहसें चलती रहनी चाहिए. लोकतंत्र के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन को नए सिरे से नापते रहने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन ये बहसें इतनी बड़ी और लंबी नहीं होनी चाहिए कि व्यवस्था रुक जाए और आम लोग सैद्धांतिक टकरावों के बोझ तले दबकर मरने लगें. भारत में न्यायपालिका और विधायिका के टकराव में अब लगभग यही स्थिति है. बौद्धिक मनोरंजन के लिए हम इसे न्यायिक सक्रियता या लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच संतुलन की बहस कह सकते हैं. अलबत्ता तल्ख हकीकत यह है कि भारत में न्याय का बुनियादी अधिकार राजनेताओं और न्यायमूर्तियों के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई में फंस गया है और अफसोस कि लड़ाई हद से ज्यादा लंबी खिंच रही है.
आजादी के समारोह के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने सीधे प्रधानमंत्री से ही जजों की नियुक्ति में देरी की कैफियत पूछ ली. फिर भारत में क्रिकेट के तमामों विवादों के गढ़ बीसीसीआइ के अध्यक्ष और बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर ने क्रिकेट बोर्ड में पारदर्शिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को न केवल चुनौती दी बल्कि सीधे मुख्य न्यायाधीश की नीयत पर सवाल उठा दिया. यह दोनों घटनाएं बताती हैं कि पिछले साल न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) पर सुप्रीम कोर्ट के इनकार के बाद विधायिका और न्यायपालिका के बीच अविश्वास कितना गहरा चुका है.  
ताजा टकराव की शुरुआत कांग्रेस ने की थी, जो भ्रष्टाचार पर अदालतों की सख्ती से परेशान थी. यूपीए सरकार के नेतृत्व में राज्यसभा ने 2013 में न्यायिक नियुक्ति आयोग (जेएसी) विधेयक मंजूर किया था जो जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम (सुप्रीम कोर्ट नियंत्रित) की स्थापना करता था. इस विधेयक का बीजेपी ने विरोध किया था. 15वीं लोकसभा भंग होने के कारण विधेयक निष्प्रभावी हो गया. सत्ता में आने के बाद एनडीए ने अदालतों में नियुक्ति पर नियंत्रण की कांग्रेसी मुहिम को अपनाने में खासी तेजी दिखाई.
कांग्रेस पहले से साथ थी, इसलिए नए एनजेएसी विधेयक पर राजनैतिक सहमति बन गई. आयोग के गठन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और अदालत व सरकार के अधिकारों को लेकर कड़वाहट भरी जिरह के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल अक्तूबर में न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी को खारिज कर सरकार को नई न्यायिक नियुक्तियों के लिए एक प्रकिया बनाने का निर्देश दिया.
इस फैसले के बाद नई नियुक्तियां शुरू होनी चाहिए थीं लेकिन टकराव का दूसरा चरण एनजेएसी पर अदालत के निर्णय के बाद शुरू हुआ. सरकार जजों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की सिफारिशों को खारिज करने का विशेषाधिकार अपने पास रखना चाहती है और इसे नियुक्ति की प्रक्रिया में शामिल कराना चाहती है. जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट इससे सहमत नहीं होगा. इसी के चलते हाइकोर्ट में 75 जजों की लंबित नियुक्ति का प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास लंबित है जबकि हाइकोर्ट में अलग-अलग स्तरों पर करीब 400 न्यायिक पद खाली पड़े हैं.
इंडिया टुडे के 11 मई के अंक में प्रकाशित शोध एजेंसी ''क्ष'" के निष्कर्षों के मुताबिक, अदालतों में तीन करोड़ मामले लंबित हैं. निचली अदालतों में मुकदमे औसतन छह साल और हाइकोर्ट में तीन साल लेते हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट जाने पर 13 वर्ष लग जाते हैं. न्याय मांगने वाले, धीमी सुनवाई के कारण अदालतों में सालाना 30,000 करोड़ रु. खर्च करते हैं.
न्यायाधीशों की कमी ऐतिहासिक है. मुख्य न्यायाधीश ठाकुर ने मई में ओडिशा हाइकोर्ट के एक कार्यक्रम में कहा था कि लंबित मामलों को निबटाने के लिए 70,000 जजों की जरूरत है, जबकि उपलब्ध जजों की संख्या केवल 18,000 है. पटना, कोलकाता, हैदराबाद के हाइकोर्ट में जज प्रति दिन 109 से 149 मामलों की सुनवाई करते हैं यानी औसत दो मिनट में एक सुनवाई पूरी.
दक्ष के इस सर्वे को पढ़ते हुए न्यायिक सक्रियता की बहस बेमानी लगती है. पांच-छह साल में शायद एक या दो मुकदमे ही ऐसे होते होंगे जिनमें विधायिका और न्यायपालिका के अधिकारों के संतुलन पर असर पड़ता हो. देश में 66 फीसदी मामले जमीन विवादों से जुड़े हैं और शेष मामले बुनियादी अधिकारों को हासिल करने या अपराध पीड़ितों के हैं जिन्हें लेकर संविधान और कानून में कोई अस्पष्टता नहीं है.
अदालतों और सरकार के एक दूसरे पर शक और अधिकारों में दखल की लड़ाई भारतीय लोकतंत्र जितनी ऐतिहासिक हो चली है और इसमें सरकारों के बदलने से कोई फर्क नहीं आया है. पिछले 70 साल में न्यायपालिका का अधिकांश समय सरकारों के साथ राजनैतिक टकरावों में ही बीता है. नेहरू के दौर में संपत्ति के अधिकार को लेकर अदालती फैसले से लेकर इंदिरा गांधी के दौर में संसद की सीमाएं तय करने वाले निर्णय और इमरजेंसी तक शायद ही कभी ऐसा हुआ, जब लंबे समय तक सरकार और अदालतों ने एकजुट होकर काम किया है.
इस लंबे इतिहास के बावजूद टकराव का ताजा अंक इसलिए ज्यादा परेशान करता है कि क्योंकि लोग पहले से ज्यादा जागरूक हैं. भ्रष्टाचार मानवाधिकार छीन रहा है और सरकार के प्रति अविश्वास व राजनीति से मोहभंग के कारण लोकतांत्रिक अधिकार और सेवा के तौर पर न्याय की मांग सबसे ज्यादा है.
अदालतों में लंबित मामलों की रोशनी में भारत में न्याय की चुनौती संवैधानिक और कानूनी नहीं है बल्कि यह बुनियादी ढांचे, श्रम शक्ति और व्यवस्था की चुनौती है जिसे दूर करने के लिए राजनैतिक बहस नहीं, संसाधन, जज और तकनीक चाहिए. लेकिन सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे समय से चल रही सैद्धांतिक खींचतान ने न्याय व्यवस्था को  निचले स्तर तक बंधक बना लिया है.
राजनेताओं और अदालतों को खुद से यह जरूर पूछना चाहिए कि उनके अधिकारों की बहस क्या इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके चलते लोगों को बुनियादी न्याय मिलना ही बंद हो जाए? क्या हम इन बहसों को करते हुए भी उन लाखों लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं कर सकते, जिन्हें सरकारें और जज बदलने से फर्क नहीं पड़ता. अलबत्ता अदालतों में एडिय़ां घिसते-घिसते उनकी जिंदगी खत्म होती जा रही है.



Tuesday, January 5, 2016

आकस्मिकता के विरुद्ध


अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए.

भारत में जान-माल यकीनन महफूज हैं लेकिन कारोबारी भविष्य सुरक्षित रहने की गारंटी नहीं है. पता नहीं कि सरकारें या अदालतें कल सुबह नीतियों के ऊंट को किस करवट तैरा देंगी इसलिए धंधे में नीतिगत जोखिमों का इंतजाम जरूरी रखिएगा, भले ही सेवा या उत्पाद कुछ महंगे हो जाएं. यह झुंझलाई हुई टिप्पणी एक बड़े निवेशक की थी जो हाल में भारत में नीतियों की अनिश्चितता को बिसूर रहा था. अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए. नीतियों की अनिश्चितता केवल उद्यमियों की मुसीबत नहीं है. युवाओं से लेकर अगले कदम उठाने तक को उत्सुक नौकरीपेशा और सामान्य उपभोक्ताओं से लेकर रिटायर्ड तक, किसी को नहीं मालूम है कि कौन-सी नीति कब रंग बदल देगी और उन्हें उसके असर से बचने का इंतजाम तलाशना होगा.
दिल्ली की सड़कों पर ऑड-इवेन का नियम तय करते समय क्या दिल्ली सरकार ने कंपनियों से पूछा था कि वे अपने कर्मचारियों की आवाजाही को कैसे समायोजित करेंगी? इससे उनके संचालन कारोबार और विदेशी ग्राहकों को होने वाली असुविधाओं का क्या होगा? बड़ी डीजल कारों को बंद करते हुए क्या सुप्रीम कोर्ट ने यह समझने की कोशिश की थी कि पिछले पांच साल में ऑटो कंपनियों ने डीजल तकनीक में कितना निवेश किया है. केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद बाजार में दीवाली मना रहे निवेशकों को इस बात का इलहाम ही नहीं था कि उन्हें टैक्स के नोटिस उस समय मिलेंगे जब वे नई व स्थायी टैक्स नीति की अपेक्षा कर रहे थे. ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लंबी है जिन्होंने भारत को सरकारी खतरों से भरा ऐसा देश बना दिया है जहां नीतियों की करवटों का अंदाज मौसम के अनुमान से भी कठिन है.
लोकतंत्र बदलाव से भरपूर होते हैं लेकिन बड़े देशों में दूरदर्शी स्थिरता की दरकार भी होती है. भारत इस समय सरकारी नीतियों को लेकर सबसे जोखिम भरा देश हो चला है. यह असमंजस इसलिए ज्यादा खलता है क्योंकि जनता ने अपने जनादेश में कोई असमंजस नहीं छोड़ा था. पिछले दो वर्षों के लगभग सभी जनादेश दो-टूक तौर पर स्थायी सरकारों के पक्ष में रहे और जो परोक्ष रूप से सरकारों से स्थायी और दूरदर्शी नीतियों की अपेक्षा रखते थे. अलबत्ता स्वच्छ भारत जैसे नए टैक्स हों या सरकारों के यू-टर्न या फिर चलती नीतियों में अधकचरे परिवर्तन हों, पूरी गवर्नेंस एक खास किस्म के तदर्थवाद से भर गई है.
गवर्नेंस का यह तदर्थवाद चार स्तरों पर सक्रिय है और गहरे नुक्सान पैदा कर रहा है. पहला&आर्थिक नीतियों में संभाव्य निरंतरता सबसे स्पष्ट होनी चाहिए लेकिन आयकर, सेवाकर, औद्योगिक आयकर से जुड़ी नीतियों में परिवर्तन आए दिन होते हैं. जीएसटी को लेकर असमंजस स्थायी है. आयकर कानून में बदलाव की तैयार रिपोर्ट (शोम समिति) को रद्दी का टोकरा दिखाकर नई नीति की तैयारी शुरू हो गई है. कोयला, पेट्रोलियम, दूरसंचार, बैंकिंग जैसे कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां अगले सुधारों का पता नहीं है. इस तरह की अनिश्चितता निवेशकों को जोखिम लेने से रोकती है.
दूसरा क्षेत्र सामाजिक नीतियों व सेवाओं से जुड़ा है, जहां लोगों की जिंदगी प्रभावित हो रही है. मसलन, मोबाइल कॉल ड्राप को ही लें. मोबाइल नेटवर्क खराब होने पर कंपनियों पर जुर्माने का प्रावधान हुआ था लेकिन कंपनियां अदालत से स्टे ले आईं. अब सब कुछ ठहर गया है. सामाजिक क्षेत्रों में निर्माणाधीन नीतियों का अंत ही नहीं दिखता. आज अगर छात्र अपने भविष्य की योजना बनाना चाहें तो उन्हें यह पता नहीं है कि आने वाले पांच साल में शिक्षा का परिदृश्य क्या होगा या किस पढ़ाई से रोजगार मिलेगा.
नीतियों की अनिश्चितता के तीसरे हलके में वे अनोखे यू-टर्न हैं जो नई सरकारों ने लिए और फिर सफर को बीच में छोड़ में दिया. आधार कार्ड पर अदालती खिचखिच और कानून की कमी से लेकर ग्रामीण रोजगार जैसे क्षेत्रों में नीतियों का बड़ा शून्य इसलिए दिखता है, क्योंकि पिछली सरकार की नीतियां बंद हैं और नई बन नहीं पाईं. एक बड़ी अनिश्चितता योजना आयोग के जाने और नया विकल्प न बन पाने को लेकर आई है. जिसने मंत्रालयों व राज्यों के बीच खर्च के बंटवारे और नीतियों की मॉनिटरिंग को लेकर बड़ा खालीपन तैयार कर दिया है.
नीतिगत अनिश्चितता का चौथा पहलू अदालतें हैं, जो किसी समस्या के वर्तमान पर निर्णय सुनाती हैं लेकिन उसके गहरे असर भविष्य पर होते हैं. अगर सरकारें नीतियों के साथ तैयार हों तो शायद अदालतें कारों की बिक्री पर रोक, प्रदूषण कम करने, नदियां साफ करने, गरीबों को भोजन देने या पुलिस को सुधारने जैसे आदेश देकर कार्यपालिका की भूमिका में नहीं आएंगी बल्कि अधिकारों पर न्याय देंगी.
भारत में आर्थिक उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन का एक पूरा दौर बीतने के बाद गवर्नेंस की नसीहतों के साथ दीर्घकालीन नीतियों की जरूरत थी. लेकिन सरकार की सुस्त चाल, पिछली नीतियों पर यू-टर्न, छोटे-मोटे दबावों और राजनैतिक आग्रह एवं अदालतों की सक्रियता के कारण नीतिगत अनिर्णय उभर आया है. कांग्रेस की दस साल की सरकार एक खास किस्म की शिथिलता से भर गई थी लेकिन सुधारों की अगली पीढिय़ों का वादा करते हुए सत्ता में आई मोदी सरकार नीतियों का असमंजस और अस्थिरता और बढ़ा देगी, इसका अनुमान नहीं था.

चुनाव पश्चिम के लोकतंत्रों में भी होते हैं. वहां राजनैतिक दलों के वैर भी कमजोर नहीं होते लेकिन नीतियों का माहौल इतना अस्थिर नहीं होता. अगर नीतियां बदली भी जाती हैं तो उन पर प्रभावित पक्षों से लंबी चर्चा होती है, भारत की तरह अहम फैसले लागू नहीं किए जाते हैं. नीतिगत दूरदर्शिता, समस्याओं से सबसे बड़ा बचाव है. लेकिन जैसा कि मशहूर डैनिश दार्शनिक सोरेन कीर्केगार्द कहते थे कि मूर्ख बनने के दो तरीके हैं एक झूठ पर भरोसा किया जाए और दूसरा सच पर विश्वास न किया जाए. भारत की गवर्नेंस व नीतिगत पिलपिलेपन के कारण लोग इन दोनों तरीकों से मूर्ख बन रहे हैं. क्या नया साल हमें नीतिगत आकस्मिकता से निजात दिला पाएगा? संकल्प करने में क्या हर्ज है.

Monday, October 21, 2013

संक्रमण की रोशनी

राजनीतिक सुधारों का एक नया दौर अनोखे तरीके से उतर आया है और कुछ जटिल आर्थिक सुधारों की बरसों पुरानी हिचक भी बस यूं ही टूट गई है। भारत का ताजा संक्रमण अचानक व अटपटे ढंग से सार्थक हो चला है।  
सुधार हमेशा लंबी तैयारियों, बड़े बहस मुबाहिसों या विशेषज्ञ समितियों से ही नहीं निकलते। भारत में गुस्‍साते राजनेता, झगड़ती संवैधानिक संस्‍थायें, आर्थिक संकटों के सिलसिले, सिविल सोसाइटी की जिद और खदबदाता समाज क्रांतिकारी सुधारों को जन्‍म दे रहा है। पिछले दो साल की घटनाओं ने भारत को संक्रमण से गुजरते एक अनिश्चित देश में बदल दिया था लेकिन कुछ ताजा राजनीतिक आर्थिक फैसलों से इस संक्रमण में सकारात्‍मक बदलावों की चमक उभर आई है। राजनीतिक सुधारों का एक नया दौर अनोखे व अपारंपरिक तरीके से अचानक उतर आया है और कुछ जटिल आर्थिक सुधारों की बरसों पुरानी हिचक भी बस यूं ही टूट गई है।  दागी नेताओं को बचाने वाले बकवास अध्‍यादेश की वापसी और चुनाव में प्रत्‍याशियों को नकारने के अधिकार जैसे फैसले अप्रत्‍याशित मंचों से निकलकर लागू हो गए और ठीक इसी तरह बेहद अस्थिर माहौल के बीच सब्सिडी राज के खात्‍मे और नए नियामक राज शुरुआत हो गई। यह भारत की ताजा अराजकता में एक रचनात्‍मक टर्निंग प्‍वाइंट है।
भारत में ग्रोथ का पहिया इसलिए नहीं पंक्‍चर नहीं हुआ कि बाजार सूख गया था बल्कि मंदी इस‍लिए आई क्‍यों कि राजनीति के मनमानेपन ने आर्थिक नीतियों को संदेह से भर दिया है।   उद्योगों को यह पता ही नहीं है कि कब सरकार के किस फैसले से उनकी कारोबारी योजनायें चौपट हो जांएगी। निवेशकों की बेरुखी के बाद अब निवेश की राह का सबसे बडा कांटा