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Sunday, August 20, 2017

ऑक्सीजन की कमी



ऑक्सीजन चाहिए 
तो सवालों को रोपते-उगाते रहिए.
लोकतंत्र को ऑक्सीजन इसी हरियाली से मिलती है. सवाल जितने लहलहाएंगे, गहरे, घने और छतनार होते जाएंगे, लोकतंत्र का प्राण उतना ही शक्तिशाली हो जाएगा.


देखिए न, ऑक्सीजन (सवालों) की कमी ने गोरखपुर में बच्चों का दम घोंट दिया. पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन्सेफलाइटिस को रोकने को लेकर योगी आदित्यनाथ की गंभीरता संसद के रिकॉर्ड में दर्ज है लेकिन जो काम वे अपने पूरे संसदीय जीवन के दौरान लगातार करते रहे, उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद वह काम धीमा पड़ा और बंद हो गया.

यह काम था सरकार और उसकी व्यवस्था पर सवाल उठाने का. उत्तर प्रदेश के पूरब में मच्छरों से उपजी महामारी हर साल आती है. योगी आदित्यनाथ निरंतर इससे निबटने की तैयारियों पर सवाल उठाकर दिल्ली को जगाते थे. उन्हें इन सवालों की ताकत अखबारों और लोगों की प्रतिक्रियाओं से मिलती थी. इससे गफलतों पर निगाहें रहती थीं, चिकित्सा तंत्र को रह-रहकर झिंझोड़ा जाता था और व्यवस्था को इस हद तक सोने नहीं दिया जाता था कि मरीजों को ऑक्सीजन देना ही भूल जाए.

सरकार बदलने के बाद न तो जापानी बुखार के मच्छर मरे, न पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंदगी कम हुई और न ही अस्पताल सुधरे लेकिन इन्सेफलाइटिस से जुड़े सवालों की ऑक्सीजन कम हो गई. नतीजाः 60 बच्चे हांफ कर मर गए. हैरानी इस बात पर थी कि बच्चों की मौत के बाद अपनी पहली प्रेस वार्ता में, मुख्यमंत्री उन्हीं सवालों पर खफा थे जिन्हें लेकर वे हर साल दिल्ली जाते थे.

नमूने और भी हैं. रेलवे को ही लें. पिछली भूलों से सीखकर व्यवस्था को बेहतर करना एक नियमित प्रक्रिया है. पिछले तीन साल से रेलवे में कुछ सेवाएं सुधरीं लेकिन साथ ही कई पहलुओं पर अंधेरा बढ़ गया जिन पर सवालों की रोशनी पडऩी चाहिए थी लेकिन प्रश्नों को लेकर बहुत सहजता नहीं दिखी. फिर आई रेलवे में कैटरिंग, सफाई, विद्युतीकरण की बदहाली पर सीएजी की ताजा रिपोर्ट, जिसने पूरे गुलाबी प्रचार अभियान को उलट दिया. 

नोटबंदी के दौरान जब लोग इसके असर और क्रियान्यवयन पर सवाल उठा रहे थे, तब उन सवालों से नाराज होने वाले बहुतेरे थे. अब आठ माह बाद इस कवायद के रिपोर्ट कार्ड में जब केवल बचत निकालने के लिए बैंकों की कतार में मरने वालों के नाम नजर आ रहे हैं तो उन सवालों को याद किया जा रहा है.

सवालों की कोई राजनैतिक पार्टी नहीं होती. प्रश्न पूछना फैशन नहीं है. व्यवस्था पर सवाल किसी भी गवर्नेंस की बुनियादी जरूरत है. भाजपा की पिछली सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री इसे दिलचस्प ढंग से आजमाते थे. यदि उनका विभाग खबरों से बाहर हो जाए तो वे पत्रकारों से पूछते थे, क्या हमारे यहां सब अमन-चैन है? वे कहते थे कि मैं अंतर्यामी तो हूं नहीं जो अपने हर दफ्तर और कर्मचारी को देख सकूं. सवाल और आलोचनाएं ही मेरी राजनैतिक ताकत हैं जिनके जरिए मैं व्यवस्था को ठीक कर सकता हूं.

आदित्यनाथ योगी हो सकते हैं लेकिन वे अंतर्यामी हरगिज नहीं हैं. वे गोरखपुर में बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज जाकर भी यह नहीं जान पाए कि वहां पिछले कई हफ्तों से ऑक्सीजन की कमी है. प्राण वायु की सप्लाई के लिए चिट्ठियां फाइलों में टहल रही हैं और बच्चों की मौत बढ़ती जा रही हैं, जबकि इस क्षेत्र के सांसद के तौर पर उनके पास यह सारी जानकारियां रहतीं थीं और इन्हीं पर सवाल उठाकर वे केंद्र और प्रदेश सरकार को जगाते थे.

गोरखपुर की घटना से पूरा देश सदमे में है.भाजपा और सरकार भी कम असहज नहीं हैं. नेता और अधिकारी अब यह कहते मिलने लगे हैं कि जिन्हें फैसला लेना है, उनके पास सही सूचनाएं नहीं पहुंच रही हैं. सवालों से परहेज और आलोचनाओं से डर पूरी व्यवस्था को अनजाने खतरों की तरफ ढकेल देता है. 

कुर्सी को तो वही सुनाया जाएगा जो वह सुनना चाहती है. सरकारें हमेशा अपना प्रचार करती हैं और लोकतंत्र की अन्य संस्थाएं हमेशा उस पर सवाल उठाती हैं. यही सवाल नेताओं को जड़ों से कटने से बचाकर, उनके राजनैतिक जोखिम को कम करते हैं. 

भारत का संविधान लिखने वाली सभा ने अध्यक्षीय लोकतंत्र की तुलना में संसदीय लोकतंत्र को शायद इस वजह से भी चुना था, क्योंकि यह सत्ता के सबसे बड़े हाकिम से भी सवाल पूछने की छूट देता है. लोकतंत्र के वेस्टमिंस्टर मॉडल में संसद में प्रश्न काल की परंपरा है जिसमें प्रधानमंत्री भी मंत्री के रूप में सवालों के प्रति जवाबदेह है. अध्यक्षीय लोकतंत्र में इस तरह की परंपरा नहीं है.

सवालों को उगने से मत रोकिए, नहीं तो पता नहीं कितनों का दम घुट जाएगा. सयानों ने भी हमें सिखाया था कि कोई प्रश्न मूर्खतापूर्ण नहीं होता, क्योंकि मूर्ख कभी सवाल नहीं पूछते.


Tuesday, April 14, 2015

कैंसर के पैरोकार

तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश हर राजनीतिक दल ने की है.

भारत में यह अपने तरह की पहली घटना थी जब एक संसदीय समिति के सदस्य किसी उद्योग के लिए खुली लॉबीइंग कर रहे थे और उद्योग भी कुख्यात तंबाकू का. बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर न केवल अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे हैं बल्कि बीड़ी पीने-पिलाने की खुली वकालत भी कर रहे थे. अलबत्ता सबसे ज्यादा शर्मनाक यह था कि सरकार ने इस संसदीय समिति की बात मान ली और तंबाकू से खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का काम रोक दिया. दिलचस्प है कि सांसदों की यह लामबंदी बीड़ी तंबाकू की बिक्री रोकने के खिलाफ नहीं थी बल्कि महज सिगरेट के पैकेट पर कैंसर की चेतावनी का आकार बड़ा (40 से 85 फीसद) करने के विरोध में थी. बस इतने पर ही सरकार झुक गई और फैसले पर अमल रोक दिया गया. संसदीय समिति के सदस्यों और बीड़ी किंग सांसद के बयानों पर सवाल उठने के बाद प्रधानमंत्री के ''गंभीर'' होने की बात सुनी तो गई लेकिन यह लेख लिखे जाने तक न तो सरकार ने सिगरेट की पैकिंग पर चेतावनी का आकार बढ़ाने की अधिसूचना जारी की और न ही बीड़ी सुल्तान को संसदीय समिति (सबऑडिर्नेट लेजिसलेशन) से हटाया गया है. नशीली दवाओं पर मन की बातों और किस्म-किस्म की नैतिक शिक्षाओं के बीच तंबाकू पर सरकार क्या कदम उठाएगी, यह तो पता नहीं. अलबत्ता तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर जरूर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश लगभग हर राजनीतिक दल ने की है. सरकारी फाइलों तक निजी कंपनियों के कारिंदों की पहुंच के ताजे मामलों की तुलना में बीड़ी प्रसंग कई कदम आगे का है जहां कंपनियों के प्रवर्तक जनप्रतिनिधि के रूप में खुद अपने लिए ही कानून बना रहे हैं. तंबाकू, जिसका घातक होना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित है, जब उसके पक्ष में खुले आम लामबंदी हो सकती है तो अन्य उद्योगों से जुड़ी नीतियों को लेकर कई गुना संदेह लाजिमी है. बीड़ी तंबाकू प्रकरण केंद्र सरकार की नीतियों से जुड़ा है. जब प्रधानमंत्री की नाक के नीचे यह हाल है तो राज्यों की नीतियां किस तरह बनती होंगी इसका सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है.
भारत में उद्योगपति सांसद और कारोबारी नेताओं का ताना-बाना बहुत बड़ा है. बीड़ी उद्योगपति सांसद जैसे दूसरे उदाहरण भी हमारे सामने हैं. 'जनसेवा' के साथ उनकी कारोबारी तरक्की हमें खुली आंखों से दिख सकती है लेकिन इसे स्थापित करना मुश्किल है. पारदर्शिता के लिए पैमाने तय करने की जरूरत होती है. भारत की पूरी सियासत ने गहरी मिलीभगत के साथ राजनीति और कारोबार के रिश्तों की कभी कोई साफ परिभाषा तय ही नहीं होने दी. नतीजतन नेता कारोबार गठजोड़ महसूस तो होता है पर पैमाइश नहीं हो पाती. हालांकि पूरी दुनिया हम जैसी नहीं है. जिन देशों में इस गठजोड़ को नापने की कोशिश की गई है वहां नतीजों ने होश उड़ा दिए हैं.
अमेरिका के ओपन डाटा रिसर्च, जर्नलिज्म और स्वयंसेवी संगठन, सनलाइट फाउंडेशन ने पिछले साल नवंबर में एक शोध जारी किया था जो अमेरिका में कंपनी राजनीति गठजोड़ का सबसे सनसनीखेज खुलासा था. यह शोध साबित करता है कि अमेरिका में राजनीतिक रूप से सक्रिय 200 शीर्ष कंपनियों ने राजनीतिक दलों को चंदा देने और लॉबीइंग (अमेरिकी कानून के मुताबिक लॉबीइंग पर खर्च बताना जरूरी ) पर 2007 से 2012 के बीच 5.8 अरब डॉलर खर्च किए (http://bit.ly/vvvDvIw) और बदले में उन्हें सरकार से 4.4 खरब डॉलर का कारोबार और फायदे हासिल हुए. सनलाइट फाउंडेशन ने एक साल तक कंपनियों, चंदे, चुनाव आदि के करीब 1.4 करोड़ दस्तावेज खंगालने के बाद पाया कि पड़ताल के दायरे में आने वाली कंपनियों ने अपने कुल खर्च का लगभग 26 फीसद हिस्सा सियासत में निवेश किया. सनलाइट फाउंडेशन ने इसे फिक्स्ड फॉरच्यूंस कहा यानी सियासत में निवेश और मुनाफे की गारंटी.

भारत में अगर इस तरह की बेबाक पड़ताल हो तो नतीजे हमें अवाक कर देंगे. मुंबई की ब्रोकरेज फर्म एक्विबट कैपिटल ने राजनीतिक संपर्क वाली 75 कंपनियों को शामिल करते हुए पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों का इंडेक्स बनाया था जो यह बताता था कि 2009 से 2010 के मध्य तक इन कंपनियों के शेयरों में तेजी ने मुंबई शेयर बाजार के प्रमुख सूचकांक बीएसई 500 को पछाड़ दिया. अलबत्ता 2010 में घोटालों पर कैग की रिपोर्ट आने के बाद यह सूचकांक तेजी से टूट कर अक्तूबर 2013 में तलहटी पर आ गया. राजनीतिक रसूख वाली कंपनियों के सूचकांक ने जनवरी 2014 से बढ़त और अप्रैल 2014 से तेज उछाल दिखाई है. तब तक भारत में नई सरकार के आसार स्पष्ट हो गए थे.
भारत में नेता कारोबार गठजोड़ की बात तो नेताओं के वित्तीय निवेश और राज्यों में सरकारी ठेकों की बंदरबांट के तथ्यों तक जानी चाहिए लेकिन यहां सनलाइट फाउंडेशन जैसी पड़ताल या पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों के साम्राज्य को ही पूरी तरह समझना मुश्किल है. भारत के पास राजनीतिक पारदर्शिता का ककहरा भी नहीं है. हम न तो राजनीतिक दलों के चंदे का पूरा ब्योरा जान सकते हैं और न ही कंपनियों के खातों से यह पता चलता है कि उन्होंने किस पार्टी को कितना पैसा दिया. इस हमाम में सबको एक जैसा रहना अच्छा लगता है.
अचरज नहीं हुआ कि बीजेपी ने अपने बीड़ी (क्रोनी) कैपटलिज्म को हितों में टकराव कहते हुए हल्की-फुल्की चेतावनी देकर टाल दिया. सिगरेट पैकिंग पर चेतावनी के खिलाफ सांसदों की लामबंदी और बीजेपी के बड़े नेताओं की चुप्पी सिर्फ यही नहीं बताती कि बीजेपी पारदर्शी राजनीति के उतनी ही खिलाफ है जितनी कि कांग्रेस और अन्य दल. ज्यादा हैरत इस बात पर है कि जब नेताओं और मंत्रियों पर प्रधानमंत्री की निगरानी किस्सागोई में बदल चुकी हो तो तंबाकू उद्योग के लिए कानून बनाने का काम बीड़ी निर्माता को कैसे मिल जाता है? यकीनन, सरकार के पहले एक साल में बड़े दाग नहीं दिखे हैं लेकिन दाग न दिखने का मतलब यह नहीं है कि दाग हैं ही नहीं. चेतने का मौका है क्योंकि अगर एक बार दाग खुले तो बढ़ते चले जाएंगे.