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Sunday, May 19, 2019

अबकी बार अलोकप्रिय...



नादेशों में हमेशा एक लोकप्रिय सरकार ही नहीं छिपी होतीकभी-कभी लोग ऐसी सरकार भी चुनते हैं जिसके पास अलोकप्रिय हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. 23 मई को जनादेश का ऊंट चाहे जिस करवट बैठेनई सरकार को सौ दिन के भीतर ही अलोकप्रियता का नीलकंठ बनना पड़ेगा.

अगर हर हाल में सत्ता पाना सबसे बड़ा चुनावी मकसद न होता तो जैसी आर्थिक चुनौतियां व हिमालयी दुविधाएं चौतरफा गुर्रा रही हैं उनके बीच किसी भी नए या पुराने नायक को जहर बुझी कीलों का ताज पहनने से पहले एक बार सोचना पड़ता.

भारत को संभालने की चुनौतियां हमेशा से भारत जितनी ही विशाल रही हैं लेकिन गफलत में मत रहिए, 2019, न तो 2009 है और न ही  2014. यह तो कुछ ऐसा है कि जिसमें अब श्रेय लेने की नहीं बल्कि कठोर फैसलों  से सियासी नुक्सान उठाने की बारी हैकरीब दस साल (मनमोहन-मोदीकी लस्तपस्त विकास दरढांचागत सुधारों के सूखे और आत्मतघाती नीतियों (नोटबंदीके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने नए नायक के लिए कांटों की कई कुर्सियां लिए बैठी है.

■ भारतीय कृषि अधिक पैदावार-कम कीमत के नियमित दुष्चक्र की शिकार हो चुकी हैसरकार कोई भी होजब तक बड़ा सुधार नहीं होताकम कमाई वाले ग्रामीणों को नकद सहायता (डायरेक्ट इनकमदेनी होगीअन्यथा गांवों का गुस्सासंकट में बदल जाएगा. 

■ भारत में निजी कॉर्पोरेट मॉडल लड़खड़ा गया हैपिछले पांच साल में निजी निवेश नहीं बढ़ाकंपनियों पर कर्ज बढ़ा और मुनाफे घटे हैंडूबती कंपनियों (जेटआइडीबीआइको उबारने का दबाव सरकार पर बढ़ रहा है या फिर बैंकों को बकाया कर्ज पर नुक्सान उठाना पड़ रहा है.बाजार में सिमटती प्रतिस्पर्धा और उभरते कार्टेल नए निवेशकों को हतोत्साहित कर रहे हैं.

■ रोजगार की कमी ने आय व बचत सिकोड़ कर खपत तोड़ दी है जिसे बढ़ाए बिना मांग और निवेश नामुमकिन है.

■ सुस्त विकासकमजोर मांग और घटिया जीएसटी के कारण सरकारों (केंद्र व राज्यका खजाना बदहाल हैकेंद्र का राजस्व (2019) में 11 फीसदी गिराबैंकों के पास सरकार को कर्ज देने के लिए पूंजी नहीं है. 2018-19 में रिजर्व बैंक ने 28 खरब रुपए के सरकारी बॉन्ड खरीदेजो सरकार के कुल जारी बॉन्ड का 70 फीसदी है.

■ बैंकों के बकाया कर्ज का समाधान निकलता इससे पहले ही गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसीबैंक कर्ज चुकाने में चूकने लगींकरीब 30 फीसदी एनबीएफसी को बाजार से नई पूंजी मिलना मुश्किल हैइधर 2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी शुरू होने वाली है.

इन पांचों मशीनों को शुरू करने के लिए सरकार को ढेर सारे संसाधन चाहिए ताकि वह किसानों को नकद आय दे सकेबैंकों को नई पूंजी दे सकेथोड़ा बहुत निवेश कर सके जिसकी उंगली पकड़ कर मांग वापस लौटे और यहीं से उसकी विराट दुविधा शुरू होती हैसंसाधनों के लिए नई सरकार को अलोकप्रिय होना ही पड़ेगा.

होने वाला दरअसल यह है कि

■ सब्सिडी (उर्वरकएलपीजीकेरोसिनअन्य स्कीमेंमें कटौती होगी ताकि खर्च बच सकेक्योंकि लोगों को नकद सहायता दी जानी हैजब तक रोजगार नहीं लौटते तब तक यह कटौती लाभार्थियों पर भारी पड़ेगी.

■ सरकारों (खासतौर पर राज्योंको बिजलीपानीट्रांसपोर्ट जैसी सेवाओं की दरें बढ़ानी होंगी ताकि कर्ज और राजस्व का संतुलन ठीक हो सके. 

■ इसके बाद भी सरकारें भरपूर कर्ज उठाएंगीजिसका असर महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के तौर पर दिखेगा.

■ खजाने के आंकड़े बताते हैं कि आने वाली सरकार अपने पहले ही बजट में टैक्स बढ़ाएगीजीएसटी की दरें बढ़ सकती हैसेस लग सकते हैं या फिर इनकम टैक्स  बढे़गा. 

भारतीय अर्थव्यवस्था आम लोगों की खपत पर चलती है और बदकिस्मती यह हैताजा संकट के सभी समाधान यानी नए टैक्स और महंगा कर्ज (मौसमी खतरे जैसे खराब मॉनसूनतेल की कीमतें यानी महंगाईखपत पर ही भारी पड़ेंगेइसलिए मुश्किल भरे अगले दो-तीन वर्षों में सरकारों के लिए भरपूर अलोकप्रियता का खतरा निहित है.

1933 की मंदी के समय मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से कहा था कि अब चुनौती दोहरी हैएकअर्थव्यवस्था को उबारनाऔर दोबड़े और लंबित सुधार लागू करनातत्काल विकास दर के लिए तेज फैसले और नतीजे चाहिए जबकि सुधारों से यह रिकवरी जटिल और धीमी हो जाएगीजिससे लोगों का भरोसा कमजोर पड़ेगा.

लोगों का चुनाव पूरा हो रहा हैअब सरकार को तय करना है कि वह क्या चुनती हैकठोर सुधार या खोखली सियासतअब नई सरकार को तारीफें बटोरने के मौके कम ही मिलेंगे.   

Saturday, May 4, 2019

ताकत की साझेदारी




ब्बे के शुरुआती दशकों में अगर सत्तर की इंदिरा गांधी या आज के नरेंद्र मोदी की तरह बहुमत से लैस कोई प्रधानमंत्री होता तो क्या हमें टी.एनशेषन मिल पाते या भारत के लोग कभी सोच भी पाते कि लोकतंत्र को रौंदते नेताओं को उनकी सीमाएं बताई जा सकती हैं


अगर 1991 के बाद भारत में साझा बहुदलीय सरकारें न होतीं तो क्या हम उन स्वतंत्र नियामकों को देख पातेजिन्हें सरकारों ने अपनी ताकत सौंपी और जिनकी छाया में आर्थिक उदारीकरण सफल हुआ.

क्या भारत का राजनैतिक व आर्थिक लोकतंत्र बहुदलीय सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित हैपिछले ढाई दशक के अद्‍भुत अखिल भारतीय परिवर्तन ने जिस नए समाज का रचना की हैक्या उसे संभालने के लिए साझा सरकारें ही चाहिए?

भारतीय लोकतंत्र का विराट और रहस्यमय रसायन अनोखे तरीके से परिवर्तन को संतुलित करता रहा हैइंद्रधनुषी (महामिलावटी नहींयानी मिलीजुली सरकारों से प्रलय का डर दिखाने वालों को इतिहास से कुछ गुफ्तगू कर लेनी चाहिएसत्तर पार कर चुके भारतीय लोकतंत्र को अब किसी की गर्वीली चेतावनियों की जरूरत नहीं हैउसके पास इतना अनुभव उपलब्ध है जिससे वह अपनी समझ और फैसलों पर गर्व कर सकता है.

1991 से पहले के दौर की एक दलीय बहुमत से लैस ताकतवर इंदिरा और राजीव गांधी की सरकारों के तहत लोकतांत्रिक आर्थिक संस्थाओं ने खासा बुरा वक्त देखा है.

अचरज नहीं कि भारत के आर्थिक और लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे अच्छे दशक बहुमत के दंभ से भरी सरकारों ने नहीं बल्कि समावेशीसाझा सरकारों ने गढ़े. 1991 के बाद भारत ने केवल ढाई दशक के भीतर गरीबी को कम करनेआय बढ़ानेरिकॉर्ड ग्रोथतकनीक के शिखर छूने और दुनिया में खुद स्थापित करने का जो करिश्मा कियाउसकी अगुआई अल्पमत की सरकारों ने की. 

तो क्या भारत के नए आर्थिक लोकतंत्र की सफलता केंद्र की अल्पमत सरकारों में निहित थी? 

स्वतंत्र नियामकों का उदय भारत का सबसे बड़ा सुधार थादरअसलमुक्त बाजार में निवेशकों के भरोसे के लिए दो शर्तें थीं

एक— नीति व नियमन की व्यवस्था पेशेवर विशेषज्ञों के पास होनी चाहिएराजनेताओं के हाथ नहींयानी कि सरकार को अपनी ताकत कम करनी थी ताकि स्वतंत्र नियामक बन सकें.
दो— सरकार को कारोबार से बाहर निकल कर अवसरों का ईमानदार बंटवारा सुनिश्चित करना चाहिए.

उदारीकरण के बाद कई नए रेगुलेटर बने और रिजर्व बैंक जैसी पुरानी संस्थाओं को नई आजादी बख्शी गईताकतवर सेबी के कारण भारतीय शेयर बाजार की साख दिग-दिगंत में गूंज रही हैबीमादूरंसचारखाद्यफार्मास्यूटिकल्स-पेट्रोलियमबीमापेंशनप्रतिस्पर्धा आयोगबिजली...प्रत्येक नए रेगुलेटर के साथ सरकार की ताकत सीमित होती चली गई.

इसी दौरान पहली बार बड़े पैमाने पर सरकारी कंपनियों का निजीकरण हुआयह आर्थिक लोकतंत्र की संस्थाओं का सबसे अच्छा दौर था क्योंकि इन्हीं की जमानत पर दुनिया भर के निवेशक आए.

साझा सरकारें भारत के राजनैतिक लोकतंत्र के लिए भी वरदान थींचुनाव आयोग को मिली नई शक्ति (जिसे बाद में कम कर दिया गयाराज्य सरकारों को लेकर केंद्र की ताकत को सीमित करने वाले और नए कानूनों को प्रेरित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले इसी दौर में आएसबसे क्रांतिकारी बदलाव दसवें से चौदहवें (1995 से 2015) वित्त आयोगों के जरिए हुआ जिन्होंने केंद्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का ढांचा पूरी तरह बदलकर राज्यों की आर्थिक आजादी को नई ताकत दी.

बहुमत की कौन-सी सरकार नियामकों या राज्यों को अधिकार सौंपने पर तैयार होगीमोदी सरकार के पांच साल में एक नया नियामक (रियल एस्टेट रेगुलेटर पिछली सरकार के विधेयक परनहीं बनाउलटे रिजर्व बैंक की ताकत कम कर दी गईचुनाव आयोग मिमियाने लगा और सीएजी अपने दांत डिब्बों में बंद कर चुका हैयहां तक कि आधार जैसे कानून को पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल का इस्तेमाल हुआ.

सरकारें गलत फैसले करती हैं और माफ भी की जाती हैंमुसीबतें उनके फैसलों के अलोकतांत्रिक तरीकों (मसलननोटबंदीसे उपजती हैंइस संदर्भ मेंसाझा सरकारों का रिकॉर्ड एक दल के बहुमत वाली सरकारों से कहीं ज्यादा बेहतर रहा है.

पिछले सात दशक के इतिहास की सबसे बड़ी नसीहत यह है कि एक दलीय बहुमत वाली ताकतवर सरकारें और सशक्त लोकतांत्रिक संस्थाएं एक साथ चल नहीं पा रही हैंजब-जब हमने एक दलीय बहुमत से लैस सरकारें चुनी हैं तो उन्होंने लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन ली है.

नेता तो आते-जाते रहेंगेउभरते भारत को सशक्त लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में ‘‘सरकार को जनता से डरना चाहिएजनता को सरकार से नहीं.’’ 

Saturday, April 27, 2019

संघवाद का इंद्रधनुष


भारत का जनमत अपनी इस ऐतिहासिक दुविधा के एक नए संस्करण से फिर मुखातिब है कि उसे बेहद शक्तिशाली केंद्र सरकार चाहिए या फिर ताकत का संतुलन बनाते राज्य! भारत को भीमकाय अखिल भारतीय दल की सरकार चाहिए या फिर क्षेत्रीय दलों का इंद्रधनुष, जो 1991 के बाद उगा था और 2014 में देश के अधिकांश भूगोल पर 'कमलोदय' के बाद अस्त हो गया.

यह प्रश्न 1991 के बाद से ही भारतीय राजनीति को मथने लगा था कि अब अखिल भारतीय राजनैतिक दल बनने के लिए किसी पार्टी को आखिर करना क्या होगा? एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस का क्षरण हो चुका था. उदारीकरण और निजीकरण के बाद केंद्र सरकार की आर्थिक शक्तियां सीमित हो गईं और राज्यों के अधिकार बढ़ते चले गए. इसके साथ ही खत्म हो गई थीं चुनावों में अखिल भारतीय लहर! फिर क्या बचा था किसी अखिल भारतीय दल के पास जिसे लेकर वह पूरे देश को संबोधित कर सके?

नरेंद्र मोदी के पास विकल्प सीमित थे. राष्ट्रीय सुरक्षा या पाकिस्तान का खौफ हीइकलौता विषय था जिस पर राज्य सरकारें क्या सवाल उठातीं. यह उनके अधिकार में ही नहीं है. भाजपा ने इसका इस्तेमाल राज्यों की अपेक्षाओं की धार कुंद करने में किया और सुरक्षा की खातिर ताकतवर केंद्र की जरूरत को गले से उतारने की कोशिश की है.

अखिल भारतीय पार्टी बनने के लिए किसी भी दल को शक्तिशाली केंद्र सरकार गढ़नी पड़ती है. मोदी को भी 2014 के बाद ऐसा सब कुछ करना पड़ा, मुख्यमंत्री के तौर पर जिससे वे शायद कभी इत्तेफाक नहीं रखते. राज्यों के नजरिये से मोदी राज, उत्तर नेहरू युग की इंदिरा कांग्रेस जैसा ही रहा. राज्यों को बार-बार डराया गया. सरकारें (उत्तराखंड, और अरुणाचल) बरखास्त हुईं जो सुप्रीम कोर्ट की मदद से वापस से लौटीं. केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस कदर राजनैतिक इस्तेमाल हुआ कि तीन राज्य सरकारों ने सीबीआइ के खिलाफ बगावत कर दी. यही नहीं, पिछले साल अप्रैल में दक्षिणी राज्यों ने केंद्र पर संसाधनों के बंटवारे में भेदभाव का आरोप लगाया और वित्त आयोग पर सवाल उठाए.

दरअसल, ‌शक्तिशाली केंद्र बनाम संतुलित ताकत वाले राज्यों की उलझन संविधान जितनी पुरानी है. 1947 में बंटवारे के लिए माउंटबेटन प्लान की घोषणा के तीन दिन के भीतर ही संविधान सभा की उप समिति ने बेहदशक्तिशाली अधिकारों से लैस केंद्र वाली संवैधानिक व्यवस्था की सिफारिश की थी. यह आंबेडकर थे जिन्होंने ताकतवर केंद्र के प्रति संविधान सभा के आग्रह को संतुलित करते हुए ऐसे संविधान पर सहमति बनाई जो संकट के समय केंद्र को ताकत देता था लेकिन आम तौर पर संघीय (राज्यों को संतुलित अधिकार) सिद्धांत पर काम करता था.

शक्तिशाली केंद्र को लेकर अपने आग्रह के बावजूद, संविधान बनने के बाद नेहरू ने अधिकांश मामलों में राज्यों की सलाह ली. उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान राज्यों के 378 पत्र लिखे यानी प्रति 16वें दिन एक चिट्ठी. अचरज नहीं कि संविधान लागू होने के बाद बनने वाली पहली संस्था वित्त आयोग (1951) थी जिसने केंद्र पर राज्य के आर्थिक रिश्तों का स्वरूप तय किया. (संदर्भः बलवीर अरोरा, ग्रेनविल ऑस्टिन, बी.आर. नंदा की किताबें) 

2019 के चुनाव से पहले मोदी इस निष्कर्ष पर पहुंच गए थे कि उन्हें 2014 से बड़ी अखिल भारतीय लहर चाहिए. जो उस सत्ता विरोधी लहर को परास्त कर सके जिस पर सवारी करते हुए वे राज्य दर राज्य जीतते चले गए थे और जो अब गठबंधनों के नेतृत्व में पलट कर उन के खिलाफ खड़ी होने लगी थी. 

गठबंधन सरकारें नई नहीं हैं और न ही उनका प्रदर्शन बुरा रहा है. लेकिन पहली बार देश की सबसे बड़ी पार्टी, जो गठबंधनों के सहारे यहां तक आई है, वह क्षेत्रीय दलों को देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताकर ताकतवर केंद्र के लिए वोट मांग रही है.

दरअसल, मोदी के आने तक अखिल भारतीय लहरें (2014 में भाजपा को केवल 31 फीसदी वोट मिले) इतिहास बन चुकी थीं. वित्तीय अधिकारों के बंटवारे से लेकर चुनावी प्रतिनिधित्व तक शक्तिशाली केंद्र की संकल्पना भी पिघल चुकी है. शुरुआती चुनावों में क्षेत्रीय दलों के पास संसद में लगभग 35 सीटें थीं जो पिछली लोकसभा में 160 हो गईं. इसी क्रम में लोकसभा चुनावों में उनके वोटों का हिस्सा 4 फीसदी से बढ़कर 34 फीसदी पर पहुंच गया.

देश में विकास में राज्यों की भूमिका केंद्र से ज्यादा केंद्रीय हो चुकी है. यही वजह है कि बहुमत की शक्तिशाली सरकार के मुकाबले, सिर्फ पांच साल के भीतर ही भारत का संघवाद उठ कर खड़ा हो रहा है. न चाहते हुए भी यह चुनाव राज्यों की राजनीति पर केंद्रित हो रहा है. भाजपा शासित राज्यों में विपक्ष की वापसी इसकी शुरुआत थी. 23 मई का नतीजा चाहे जो हो लेकिन भारतीय गणतंत्र की नई सरकार शायद उस केंद्र-राज्य संतुलन को वापस हासिल कर लेगी जो 2014 में लड़खड़ा गया था.

Saturday, April 13, 2019

उम्मीदों का तकाजा


ह जुलाई, 2016 थी, कैबिनेट में फेरबदल से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा.’’

उम्मीदों के उफान पर बैठकर सत्ता में पहुंचे मोदी का यह आत्मविश्वास नितांत स्वाभाविक था.

फिर अचानक क्या हुआ?

दो दर्जन से अधिक नई और बड़ी स्कीमों के जरिए भारत में युगांतर की अलख जगाने के बाद मरियल, हताश और बिखरे विपक्ष से मुकाबिल एक सशक्त सरकार तर्क और नतीजों पर नहीं बल्कि राष्ट्रवाद उबाल कर वोट मांग रही है. क्यों सरकार के मूल्यांकन केंद्र में बदलाव महसूस कराने वाली स्कीमें या कार्यक्रम पर नहीं बल्कि एक नाकारा और बदहाल पड़ोसी (पाकिस्तान) से आर-पार करने के नारे हैं?

चुनाव के नतीजों के परे हमें इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि 2014 से देश में बहुत कुछ ऐसा हुआ था जो अभूतपूर्व था जैसे

·       केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार और लोकप्रिय नेतृत्व

·       महंगाई में निरंतर कमी

·       कच्चे तेल की न्यूनतम कीमत यानी कि विदेशी मुद्रा मोर्चे पर आसानी

·       ताजा मंदी से पहले तक विश्वसनीय अर्थव्यवस्था में बेहतर विकास दर

और सबसे महत्वपूर्ण

आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं यानी क्लब फाइव (महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात और कर्नाटक) में तीन राज्यों में उसी दल का शासन था जो केंद्र में भी राज कर रहा है. उभरते हुए तीन राज्य (राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) भी 2018 तक टीम मोदी का हिस्सा थे.

भारत के 11 बड़े राज्य (महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, केरल, बिहार, ओडिशा और संयुक्त आंध्र प्रदेश) 2020 तक देश की जीडीपी में 76 फीसदी के हिस्सेदार होंगे, उनमें सात (मार्च 2018 तक आंध्र प्रदेश) में भाजपा का शासन है. तीन प्रमुख छोटी अर्थव्यवस्थाएं यानी झारखंड, हरियाणा और असम भी भाजपा के नियंत्रण में हैं.

यह ऐसा अवसर था, जिसके लिए पिछली सरकारें तरसती रहीं. उदारीकरण के बाद सुधारों के कई प्रयोग इसी वजह से जमीन नहीं पकड़ सके क्योंकि बड़े और संसाधन संपन्न राज्यों से केंद्र के राजनैतिक रिश्तों में गर्मजोशी नहीं थी.

2017 के बाद राज्यों के चुनाव नतीजे ही सिर्फ इस आशंका को मजबूत नहीं करते बल्कि कुछ और तथ्य भी इसकी पुष्टि करते हैं कि क्यों एक ताकतवर सरकार को अपने कामकाज के बजाए भावनाओं की हवा बांधनी पड़ रही है.

         क्रिसिल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि 2018 में सभी प्रमुख राज्यों की विकास दर उनके पांच साल के औसत से नीचे आ गई. प्रमुख कृषि प्रधान राज्यों में भी खेती विकास दर नरम पड़ी.

         2013 से 18 के बीच तेज विकास दर वाले सभी राज्यों की रोजगार गहन क्षेत्रों (कपड़ा, मैन्युफैक्चरिंग भवन निर्माण) में रोजगारों की वृद्धि दर घट गई. केवल गुजरात और हरियाणा कुछ ठीक-ठाक थे. गुजरात में ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार बढ़े लेकिन इस क्षेत्र में बिक्री की मंदी के ठोस संकेत मिल रहे हैं.

मोदी ने राज्यों को संसाधन देने में कोई कमी नहीं की. वित्त आयोग की सिफारिशों से लेकर जीएसटी के नुक्सान की भरपाई तक केंद्र ने राज्यों को खूब दिया. यहां तक कि योजना आयोग खत्म होने के बाद राज्यों से आवंटन और खर्च का हिसाब मांगने की व्यवस्था भी बंद हो गई.

आंकड़े बताते हैं कि देश का करीब 56-60 फीसदी विकास खर्च (पूंजी खर्च जिससे निर्माण होता है, रोजगार आते हैं) अब राज्यों के हाथ में है. सभी राज्यों के कुल पूंजी खर्च का 90 फीसदी हिस्सा‍ 17 प्रमुख राज्यों के नियंत्रण में है. इनमें दस राज्यों में 2018 तक मोदी की सेना के सूबेदार थे.
क्या अपनीटीम इंडियाकी वजह से मोदी कुछ ऐसा करके नहीं दिखा सके जिससे लोग बदलाव महसूस कर सकें

राष्ट्रवाद तो भाजपा की पारंपरिक राजनैतिक पूंजी है लेकिन 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी 12 फीसदी नया वोट लेकर आए. यह मोदी का वोटर था जो परिवर्तन के अलख और उम्मीदों के उफान के साथ भाजपा के पास आया और पिछड़े-गरीब पश्चिमोत्तर भारत में रिकॉर्ड सफलता का आधार बना.

वह विकासवाद का वोट था जिसे रोके रखने के लिए मौका, माहौल, मौसम तीनों मोदी के माफिक थे. इन्हें जोड़े रखने का जिम्मा मोदी के सूबेदारों पर था, जो चूक गए हैं. चुनाव नतीजे कुछ भी हों लेकिन केंद्र व अधिकांश राज्यों में राजनैतिक संगति का संयोग अब मुश्किल से बनेगा.

2019 में भाजपा की जीत का दारोमदार दरअसलमोदी के वोटरोंपर है जिनके चलते 2014 में भाजपा अपने दम पर बहुमत ले आई. राष्ट्रवाद से इत्तिफाक रखने वाले भाजपा छोड़ कर कहां जा रहे हैं!

Sunday, February 17, 2019

पारदर्शिता का वसंत



दुनिया अपनी लोकतांत्रिक आजादियों के लिए किस पर ज्यादा भरोसा कर सकती है?  

राजनीति पर या बाजार पर?

वक्त बदल रहा है. सियासत और सरकारें शायद अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं जबकि मुनाफे पर टिके होने के बावजूद, मुक्त बाजार अपनी साख की गरज से आजादियों व पारदर्शिता का नया सिपहसालार है.

दो ताजा घटनाक्रमों को देखने पर लगता है कि बाजार ने सियासत को ललकार दिया है. आने वाले चुनाव में झूठ की गर्मी कम होगी.

एकदंभ से भरी सियासत ने बीते सप्ताह भारतीय लोकतंत्र के शिखर यानी संसद की किरकिरी कराई. एक नामालूम से संगठन के उलाहने पर संसद की एक समिति ने ट्विटर के प्रबंधन को तलब कर लिया. शिकायत यह थी कि ट्विटर सरकार समर्थक दक्षिणपंथी संदेशों के साथ भेदभाव करता है. समिति को पता नहीं था कि वह अमेरिकी सोशल नेटवर्क के प्रबंधन को हाजिरी का आदेश नहीं दे सकती. ट्विटर ने मना कर दिया. आदेश की पालकी लौट गई.

दुनिया में बहुतों को महसूस हुआ कि सरकारें सब जगह एक जैसी हैं. स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जद्दोजहद राजनैतिक भूगोल की सीमाओं से परे हो चली है.

दोदेश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं को घर-घर झंडा स्टिकर लगाने के लिए उतार दिया है. मन की गति से चलने वाली संदेश तकनीकों के दौर में कस्बों और शहरों के चिचियाते ट्रैफिक के लिए यह अभियान क्यों? 

संसद को ट्विटर का इनकार और भाजपा का पुराने तरीके का प्रचार बेसबब नहीं है. तकनीक से लैस दुनिया में राजनैतिक संवादों के लिए मुश्किल दौर की शुरुआत हो रही है. यह बात दीगर है कि सियासत के लिए बुरी खबरें स्वाधीनताओं के लिए अच्छी होती हैं.

तकनीक की ताकत, आर्थिक आजादी और ग्लोबल आवाजाही के बीच सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं, जो दोतरफा संवाद की आजादी देते हैं और संदेशों की पावती को प्रमाणित भी करते हैं. लेकिन सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. इसलिए...

1. भारत, नाइजीरिया, यूक्रेन और यूरोपीय समुदाय के लिए फेसबुक ने राजनैतिक विज्ञापनों के नए नियम बना दिए हैं. विदेश की जमीन से विज्ञापन नहीं किए जाएंगे. विज्ञापन के साथ इसके भुगतान का ब्योरा होगा. इनके साथ एक आर्काइव होगा जिसके जरिए लोग राजनैतिक विज्ञापनों के बारे में ज्यादा जानकारी पा सकेंगे. फेसबुक बताएगा कि राजनैतिक विज्ञापनों के पेज किस जगह से संचालित हो रहे हैं. भारत में 30 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं. नए नियम 21 फरवरी से लागू होंगे.

2. व्हाट्सऐप थोक में मैसेज फॉरवर्ड करने की प्रक्रिया बंद कर चुका है. उसने भारतीय राजनैतिक दलों को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने नियम तोड़े तो उनके एकाउंट बंद हो जाएंगे. कंपनी ने 120 करोड़ रु. खर्च कर झूठ का प्रसार रोकने का अभियान चलाया है.

3. ट्विटर अपने शेयर की कीमत में गिरावट का जोखिम उठाकर भी फर्जी एकाउंट बंद कर रहा है. उसने राजनैतिक विज्ञापनों के लिए एक डैशबोर्ड बनाया है जिससे पता चलेगा कि कौन इन पर कितना पैसा खर्च कर रहा है.

4. गूगल भी फेसबुक और ट्विटर जैसे नियमों को लागू करने के अलावा विज्ञापनदाता से चुनाव आयोग का प्रमाणपत्र भी मांगेगा और एक पारदर्शिता रिपोर्ट भी जारी करेगा.

गफलत में रहने की जरूरत नहीं. गूगल, फेसबुक, ट्विटर आदि मुनाफे के लिए काम करते हैं. राजनैतिक विज्ञापनों पर सख्ती से विज्ञापन की मद में कमी से उन्हें भारी कारोबारी नुक्सान होगा. फिर भी सख्ती?

क्योंकि अभिव्यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है. खतरे की शुरुआत किस्म-किस्म के झूठ से हुई थी जो इनके कंधों पर बैठ कर दिग-दिगंत में फैल रहा था. झूठ से लड़ाई करते हुए इन्हें पता चला कि इसकी सप्लाई चेन तो पूरी दुनिया में सियासत के पास है. ये बाजार अगर कुटिल सियासत और झूठ से बोलने की आजादी को नहीं बचा सके तो इनका धंधा तो बंद हुआ समझिए.

एक झटके में ही नेता सड़क पर आ गए हैं. जनसंचार की जगह जनसंपर्क की वापसी हो रही है. क्या चुनाव आयोग भी सोशल नेटवर्कों की पारदर्शिता से कुछ सीखना चाहेगा?

तकनीक मूलत: मूल्य निरपेक्ष है. इस्तेमाल से यह अच्छी या बुरी बनती है. रसायन-परमाणु के बाद सोशल नेटवर्किंग ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार अपने इस्तेमाल के नियम तय कर रहा है ताकि कोई सिरफिरा नेता लोकतंत्रों को गैसीय कत्लखाने में न बदल दे. 

स्वागत कीजिए, पारदर्शिता के इस सोशल वसंत का!