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Monday, March 28, 2016

न सर्विस मिली, न हर्जाना


खराब नेटवर्क को ठीक करने के लिए प्रशासनिकतकनीकी और कानूनीतीनों क्षेत्रों से पहल जरूरी थी जो अभी तक नजर नहीं आई और इस बीच ऑपरेटरों ने मामले को अदालत में फंसा दिया.

पके मोबाइल फोन पर क्या पर्याप्त नेटवर्क है? क्या आपको पूरी डाटा स्पीड मिलती है? क्या आपको मोबाइल कंपनियों ने कॉल ड्रॉप हर्जाना देना शुरू किया है? अगर आपके जवाब में हैं, जाहिर है जो होंगे ही, तो इसके लिए सरकार से ज्यादा हम खुद जिम्मेदार हैं. दरअसल, हम भारतीय एक अजीब किस्म के विस्मरण के शिकार हैं. हम अक्सर उन सुर्खियों को भूल जाते हैं जो हमें अपने जेहन में छाप कर रखनी चाहिए क्योंकि ऐसा करना नागरिक और उपभोक्ता होने के नाते हमारे हितों के लिए अनिवार्य है. जब हम ही उन्हें भूल जाते हैं तो सरकार के लिए इन्हें भुलाना और भी सुविधाजनक हो जाता है. इसके बदले वह सियासत में हमें भारत माता की जय जैसी बेसबब बहसें पकड़ा देती है जो हमें कहीं नहीं ले जातीं.

पिछले साल अगस्त में एक बड़ी सुर्खी बनी थी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टेलीकॉम क्षेत्र की समीक्षा बैठक के दौरान कॉल ड्रॉप पर गहरी नाराजगी जताते हुए इसे अर्जेंटली ठीक करने का निर्देश दिया था. पीएमओ से जारी बयान में कहा गया था कि वॉयस नेटवर्क पर कॉल ड्रॉप की समस्या डाटा नेटवर्क तक नहीं जानी चाहिए. हम इस सुर्खी को भूल गए और ट्विटर, फेसबुक पर और टीवी स्टुडियो में बेजा बहसों में उलझ गए. 
कॉल ड्रॉप की समस्या कमजोर डाटा नेटवर्क तक फैल चुकी है जहां 3जी के नाम पर 2जी की स्पीड भी मुश्किल है. मार्च में आए एक नेटवर्क सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत में कॉल ड्रॉप बढ़कर 4.73 फीसदी पर पहुंच रहे हैं जो टीआरएआइ के मानक दो फीसदी और ग्लोबल मानक तीन फीसदी से भी ऊंचा है. इस बीच मोबाइल कंपनियों ने खराब सर्विस पर उपभोक्ताओं को पैसे वापस करने के नियम को मानने से इनकार करते हुए मामले को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा दिया, जहां कमजोर पैरवी और अजीबोगरीब आदेशों के लिए मशहूर टीआरएआइ, पूरे मामले पर कानूनी व तकनीकी अंतर्विरोधों के चलते अदालत की फटकार सुन रही है. यह पेनाल्टी अमल में आने की संभावना फिलहाल कम ही है.
बीते साल इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसे विशाल ग्लोबल अभियानों को शुरू करने वाली सरकार के लिए खराब मोबाइल नेटवर्क इतनी बड़ी समस्या नहीं है जिसे संभालने के लिए संसद में सहमति बनानी पड़े. खराब नेटवर्क को ठीक करने के लिए प्रशासनिक, तकनीकी और कानूनी, तीनों क्षेत्रों से पहल जरूरी थी जो अभी तक नजर नहीं आई और इस बीच ऑपरेटरों ने मामले को अदालत में फंसा दिया.
कॉल ड्रॉप के समाधान के संकल्प में सबसे बड़ी कमी ऑपरेटरों पर सख्ती को लेकर नजर आती है. 2014 में स्पेक्ट्रम नीलामी को अपनी सबसे बड़ी सफलता बताते हुए सरकार ने दावा किया था कि दूरसंचार क्षेत्र अब छलांगे लगाएगा, क्योंकि कंपनियों को पर्याप्त स्पेक्ट्रम मिल गया है. कंपनियां स्पेक्ट्रम आपस में बांट सकती हैं और अपने टावर पर दूसरी कंपनी को जगह दे सकती हैं. पर्याप्त स्पेक्ट्रम के बावजूद अगर कॉल ड्रॉप बढ़ रहे हैं तो उसकी वजह यह है कि कंपनियों ने नेटवर्क में निवेश नहीं किया है. जनवरी 2013-मार्च 2015 के बीच वॉयस नेटवर्क का इस्तेमाल 12 फीसदी बढ़ा लेकिन नेटवर्क (बीटीएस) क्षमता में केवल 8 फीसदी का ही इजाफा हुआ. टीआरएआइ के मुताबिक, पिछले दो साल में 3जी पर डाटा नेटवर्क का इस्तेमाल 252 फीसदी बढ़ा लेकिन कंपनियों ने नेटवर्क में केवल 61 फीसदी की बढ़ोतरी की. सरकार चाहती तो नेटवर्क और उपभोक्ताओं की संख्या के बीच सक्चत संतुलन बनाने के नियम तय कर सकती है. ताकि कंपनियां सिर्फ ग्राहक जुटाने की होड़ में ही न लगी रहें बल्कि नेटवर्क में पर्याप्त निवेश के लिए भी बाध्य हों.
टीआरएआइ खुद मान रही है कि टावरों में कमी कॉल ड्रॉप की बड़ी वजह है. मोबाइल कंपनियों के मुताबिक, नेटवर्क को बेहतर करने और कॉल ड्रॉप रोकने के लिए फिलहाल एक लाख टावरों की जरूरत है. इसमें ज्यादातर टावर महानगरों में चाहिए. अगर सरकार गंभीर होती तो राज्यों के सहयोग से छोटे-छोटे टावरों के लिए कुछ गज जमीन या छतें भी जुटाने का काम महज एक प्रशासनिक आदेश से हो सकता था. 
इसके साथ ही कॉल ड्रॉप समाधान के नए तकनीकी प्रयासों की भी जरूरत है. बाजार में ऐसी तकनीकें उपलब्ध हैं जो इमारतों के भीतर मोबाइल एक्सचेंज जैसी प्रणालियां तैयार कर सकती हैं जो बंद परिसरों में स्पेक्ट्रम की कमजोरी का विकल्प हैं. दुनिया के अन्य शहरों में टेलीकॉम नेटवर्क लैंडलाइन और मोबाइल के बीच संतुलन स्थापित करते हैं ताकि स्पेक्ट्रम की खपत सीमित हो सके. सरकार को लैंडलाइन की वापसी और अंतरपरिसर संचार के लिए नई तकनीकों की पहल करनी चाहिए जो मोबाइल नेटवर्क पर दबाव कम करने के लिए अनिवार्य है.
ऑपरेटरों को दंडात्मक प्रावधानों में कसने के लिए मजबूत कानूनी पेशबंदी जरूरी थी. दूरंसचार क्षेत्र में नियामक व ऑपरेटरों के बीच अदालती लड़ाई का लंबा इतिहास ताकीद करता है कि अक्सर नियामक अपनी कमजोर तैयारियों के कारण हार जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने कॉल ड्रॉप पर पेनाल्टी के आदेश को लेकर टीआरएआइ को ही कठघरे में खड़ा किया है. टीआरएआइ ने कॉल ड्रॉप के लिए पेनाल्टी देने का नियम बना दिया तो दूसरी तरफ बीते नवंबर में अपने एक शोध पत्र में यह भी कह दिया कि खराब नेटवर्क के लिए स्पेक्ट्रम की कमी व टावरों की किल्लत जैसे तकनीकी कारण भी जिम्मेदार हैं. ऑपरेटर अब इस तर्क के सहारे सेवा ठीक करने और खराब सेवा पर दंड भरने से बचने की जुगत में हैं.
नेटवर्क कंजेशन भारत के डिजिटल होने की राह में सबसे बड़ी समस्या होने वाला है लेकिन प्रधानमंत्री के दखल के बावजूद, सरकार, कॉल ड्रॉप खत्म करने की लड़ाई लगभग हार चुकी है. संचार मंत्रालय पूरी तरह मोबाइल ऑपरेटरों के रहमोकरम पर है, जो अदालती लड़ाइयों में हमेशा जीतते रहे हैं. सरकार को हार इसलिए मिली क्योंकि इस समस्या को संभालने में अपेक्षित साहस और गंभीरता नजर नहीं आई. आज हमारे पास न अच्छी सर्विस है और न ही उसके खराब होने पर नुक्सान की भरपाई की व्यवस्था. हम बाजार और सरकार, दोनों के हाथों ठगे गए हैं.  

Monday, April 30, 2012

सफलता की शहादत

ए भारत के महानायक की कथा अब एक त्रासदी की तरफ बढ रही है। महानायक व्‍यक्ति ही हो, यह जरुरी नहीं है। अपने हाथ या जेब में मौजूद उस यंत्र को देखिये जिसे मोबाइल कहते हैं। यह उदार भारत की सबसे बड़ी सफलता और नए इंडिया सबसे अनोखी पहचान है। अफसोस, अब इसकी ट्रेजडी लिखी जा रही है। अगर क्रांतियां अच्‍छी होती हैं तो भारत के ताजा इतिहास में दूरसंचार से ज्‍यादा असरदार क्रांति कोई नहीं दिखती। अगर तकनीकें चमत्‍कारी होती हैं तो फिर इस चमतकार का कोई सानी नहीं है क्‍यों कि इस एकलौते मोबाइल ने करोड़ों की जिंदगी (जीवन पद्धति) से लेकर जेब (आय व कारोबार) तक सब कुछ बदल दिया। और यदि खुले बाजार फायदे का सौदा होते हैं, भारत में दूरसंचार बाजार के उदारीकरण से सफल केस स्‍टडी दुनिया में मिलना मुश्किल है। मगर अब यह पूरी क्रांति, करिशमा और फायदा सर बल खड़ा होने जा रहा है। सस्‍ती दरों और शानदार ग्रोथ से जगमगाती दूरसंचार क्रांति अब जिस तरफ बढ रही है वहां चालीस फीसद तक महंगी फोन कॉल, कम ग्राहक और कमजोर तकनीक वाला बिजनेस मॉडल इसका हमसफर होगा। मनमाने स्‍पेक्‍ट्रम राज और अंदाजिया नियामक (टीआरएआई की प्रस्‍तावित स्‍पेक्‍ट्रम दरें) की कृपा से मोबाइल बाजार की पूरी बाजी ही पलटने वाली है। अरस्‍तू ने ठीक ही लिखा था महानायकों की त्रासदी उनकी अपनी गलतियों निकलती है। दूरसंचार क्षेत्र में गलतियों का स्‍टॉक  तो कभी खत्‍म ही नहीं होता।
दमघोंट नीतियां
भारत अपनी सफलताओ का गला घोंटने में माहिर है। इसका अहसास हमें जल्‍द होगा जब मोबाइल बिल और रिचार्ज करंट मारने लगेगें,  मोबाइल कंपनियां बाजार छोड़ने लगेंगी (रोजगार घटें) और नेटवर्क की क्‍वालिटी खराब होगी। दूरसंचार क्षेत्र में नीतियों का तदर्थवाद और नियामकों के अबूझ तौर तरीके हमें इस मुकाम पर ले आए हैं। पहले भ्रष्‍ट मंत्रियों ने मनमाने कीमत पर स्‍पेक्‍ट्रम बांटा, जब सुप्रीम कोर्ट ने लाइसेंस रद (2जी घोटाला) किये तो टीआरएआई इतनी ऊंची कीमतों पर स्‍पेक्‍ट्रम बेचने की सूझ लेकर आई, कि बाजार का पूरा गणित ही बदल गया है। स्‍पेक्‍ट्रम (वायु तरंगे) मोबाइल संचार का कच्‍चा माल हैं। यह समझना बहुत मुश्किल है कि आखिर सरकार और नियामक मिल कर इस कच्‍चे माल को आज के मुकाबले 13 गुना कीमती पर क्‍यों

Monday, April 16, 2012

आंकड़ों का अधिकार

अंधेरे में निशाना लगाने की विद्या द्रोणाचार्यों और अर्जुनों के बाद समापत हो गई थी। विक्रमादित्‍य का वह अद्भुत सिंहासन भी फिर किसी को नहीं मिला जिस पर बैठने वाला गलत फैसले कर ही नहीं सकता। यही वजह है कि दुनिया नीति निर्माता कई टन आंकडों की रोशनी में नीति का निशाना लगाते हैं और सूझ व शोध के सहारे देश के बेशकीमती संसाधन बांटते हैं ताकि कोई गफलत न हो। दुनिया के हर देश आर्थिक और सामाजिक नीतियों के पीछे भरोसमंद और व्‍यापक आंकड़ों की बुनियाद होती है मगर भारत में ऐसा नहीं होता। भारत में आर्थिक सामाजिक आंकड़ों का पूरा तंत्र इस कदर लचर, बोदा, आधी अधूरी, लेट लतीफ और गैर भरोसमंद है कि इनसे सिर्फ भूमंडलीय बदनामी (औद्योगिक उत्‍पादन व निर्यात के ताजे आंकड़े) निकलती है। इन घटिया आंकड़ों पर जो नीतियां बनती हैं वह गरीबी या बेकारी नहीं हटाती बलिक संसाधन पचाकर भ्रष्‍टाचार को फुला देती है। जब हमारे पास इतना भरोसेमंद आंकड़ा भी नहीं है कि किससे टैक्‍स लिया जाना है और किसे सबिसडी दी जानी है तो रोजगार, खाद्य और शिक्षा के अधिकार बस केवल बर्बादी की गारंटी बन जाते हैं। भरोसेमंद और पारदर्शी आंकडे किसी स्‍वस्‍थ व्‍यवस्‍था का पहला अधिकार हैं, जो पता नहीं हमें मिलेगा भी या नहीं।
रांग नंबर
हंसिये मगर शर्मिंदगी के साथ। पता नहीं हम कितनी ज्‍यादा चीनी और कॉपर कैथोड बनाते हैं इसका सही हिसाब ही नहीं लगता। सरकार ने चीनी का उत्‍पादन 5.81 लाख टन बजाय 13.05 लाख टन मान लिया और जनवरी में औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक में 6.8 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी दर्ज की गई। जब गलती पकड़ी गई और उत्‍पादन वृद्धि दर घटकर 1.1 फीसदी पर आ गई। इसके साथ भारत में आंकड़ों की साख भी ढह गई क्‍यों कि इस आंकड़े से पूरी दुनिया भारत की ग्रोथ नापती है। कॉपर कैथोड के निर्यात का भी खेल निराला था 2011 में इसका निर्यात 444 फीसदी बढता दिखाया गय जिससे निर्यात 9.4 अरब डॉलर उछल गया। बाद में उछाल झूठ निकली और निर्यात का करिश्‍मा जमीन सूंघ गया। दरअसल भारत का पूरा आंकड़ा संग्रह ही मुगल कालीन

Monday, March 22, 2010

सरकार जी! क्या हुआ साख को?

सरकार जी !! आपकी साख को अचानक क्या हो गया है? सरकार तो संज्ञा (व्यक्तिवाचक, भाववाचक, जातिवाचक .. आदि ), सर्वनाम, क्रिया, विशेषण सभी कुछ है, इसलिए फिक्र कुछ ज्यादा है। माहौल और ताजे बदलाव बताते हैं कि इस सर्वशक्तिमान सरकार का जलवा, बाजार में कुछ घट रहा है। सरकार के नवरत्न यानी सार्वजनिक उपक्रम कितने भी बेशकीमती क्यों न हों लेकिन उनके पब्लिक इश्यू को बाजार में ग्राहक नहीं मिलते। बाद में साख बचाने के लिए सरकारी वित्तीय संस्थाओं को मोर्चे पर जूझना पड़ता है। भारत भले ही फोन सेवाओं के लिए मलाईदार बाजार हो, लेकिन दूरसंचार क्षेत्र में नया उदारीकरण दुनिया के टेलीकाम दिग्गजों में कोई दिलचस्पी नहीं जगाता। दूरसंचार तकनीकों की थ्री जी यानी तीसरी पीढ़ी की अगवानी के लिए केवल देसी कंपनियां आगे आती हैं और वह भी अनमने ढंग से। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अर्थात निजी सार्वजनिक भागीदारी का मंत्र किसी को सम्मोहित नहीं करता। पीपीपी के नाम पर सिर्फ कागजी अनुबंध नजर आते हैं, वास्तविक परियोजनाएं नदारद हैं। निजी कंपनियां टेंडर-ठेके लेने में तो इच्छुक हैं, मगर सरकार के साथ मिलकर कुछ बनाने में नहीं। ..याद नहंी पड़ता कि सरकार की इतनी नरम साख पहले कब दिखी थी?
रत्नों के भी ग्राहक नहीं
सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने जब नवरत्नों का आधिकारिक दर्जा दिया था, तब शायद ही उसने इस अंजाम के बारे में सोचा हो। कभी इन रत्नों को खरीदने के लिए निवेशक रुपयों से भरी थैली लिये बाजार में टहलते थे। सार्वजनिकउपक्रमों के शेयरों में निवेश को कमाई में बढ़ोतरी की गारंटी माना जाता था। इनके विनिवेश की चर्चा छिड़ने मात्र से शेयर बाजार बाग-बाग हो जाता था, लेकिन इस बार तो गजब हो गया। एक दो नहीं, बल्कि पांच सरकारी रत्नों के पब्लिक इश्यू शेयर बाजार में ग्राहकों को तरस गए। अंतत: सरकार को जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी जैसे अपने वित्तीय दिग्गजों को मोर्चे पर लगाकर खरीद करानी पड़ी। बात हल्की फुल्की कंपनियों की नहीं, बल्कि देश की सबसे बड़ी ताप बिजली कंपनी एनटीपीसी, पनबिजली कंपनी एनएचपीसी, प्रमुख खनिज कंपनी एनएमडीसी और गांवों में बिजली का नेटवर्क बनाने वाली कंपनी आरईसी जैसे सरकारी जवाहरात की है। सिर्फ आयल इंडिया का इश्यू ही आंशिक सफल हुआ है। ये सरकारी कंपनियां शेयर बाजार की सरताज रही हैं क्योंकि इनके पास सुनिश्चित बाजार, मजबूत बैलेंस शीट अलावा सरकार की साख भी थी। मगर निवेशक तो निजी कंपनियों को ज्यादा भरोसेमंद मान रहे हैं। निजी कंपनियों के पब्लिक इश्यू सफल हो रहे हैं और सरकारी औंधे मुंह गिर रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रम सतलुज जल विद्युत निगम का पब्लिक इश्यू टल चुका है, सेल, इंजीनियर्स इंडिया के इश्यू अधर में हैं और इंडियन आयल के पब्लिक इश्यू के बारे में पता नहीं है। .. सरकार जी, आसार अच्छे नहीं हैं। यही हाल रहा तो इन रत्नों के जरिए अगले साल विनिवेश के मद में 40,000 करोड़ रुपये कैसे आएंगे?
थ्री जी! माफ करिए जी
भारत ने अपना थ्री जी बाजार खोला तो दुनिया के दूरसंचार दिग्गजों ने मुंह मोड़ लिया। होती होगी थ्री जी रोमांचक दूरसंचार तकनीक । मिलती होगी इस पर डाटा, वीडियो की जबर्दस्त स्पीड। चलता होगा इस पर मोबाइल टीवी, मगर दुनिया के दूरसंचार दिग्गज यह सब कुछ देने भारत नहीं आ रहे हैं। उन्हें भारत के उभरते दूरसंचार बाजार ने जरा भी नहंी लुभाया। सरकार पिछले दो वर्षो से थ्री जी रत्न छिपाए बैठी थी। कितनी खींचतान, कितनी लामबंदी! कई बार अंतिम मौके पर आवंटन को टाला गया और जब माल बाजार में बिकने आया तो बड़े ग्राहक नदारद। थ्री जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में विदेशी दिग्गजों की अरुचि यह बताती है कि दूरसंचार क्षेत्र में उदारीकरण को लेकर कहीं न कहीं कुछ समस्या जरूर है। किसी को टू जी लाइसेंस के आवंटनों में उठे विवाद डरा रहे हैं तो किसी को स्पेक्ट्रम की किल्लत। तो किसी को लगता है कि पता नहीं कब नियम बदल जाएं। अब थ्री जी वाली नई तकनीक तो आएगी मगर वही देसी खिलाड़ी सेवा देंगे, जिनकी सेवाओं की गुणवत्ता व नेटवर्क की हालत अब सरदर्द बन चुकी है। सरकार जी ! थ्रीजी से न आपको मोटा राजस्व मिलने की उम्मीद है और न हम यानी उपभोक्ताओं को नई प्रतिस्पर्धा।
पीपीपी की पालकी
पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मतलब विकास के लिए निजी क्षेत्र व सरकार की दोस्ती। ..केंद्र से लेकर राज्यों तक उदारीकरण का यह सबसे नया, सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा असफल नारा है। केंद्र करीब दो साल से पीपीपी की दुकान सजाए बैठा है, लेकिन निजी कंपनियां करीब फटकती तक नहीं। केंद्र को देख कर राज्यों ने भी अपनी दुकान सजा ली, मगर वहां भी ठन ठन गोपाल। दिखाने को कंपनियों ने दर्जनों अनुबंध तो कर लिये हैं, मगर उसके बाद आगे कुछ भी नहीं है। सरकार के दस्तावेजों में सिर्फ पीपीपी अनुबंधों का आंकड़ा चमकता है, वास्तविक निवेश की सूचना नदारद है। केंद्र के स्तर पर बिजली और सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र से दोस्ती दिखती है, लेकिन वह बहुत सीमित है और पीपीपी नहीं बल्कि टेंडरिंग, बीओटी (बिल्ट ओन आपरेट) जैसे वाणिज्यिक अनुबंधों के बूते है। निजी क्षेत्र अभी पीपीपी का गणित समझ नहीं पाया है। कहीं कानून रोड़ा हैं तो कहीं कानून लागू कराने वाले। नियमों का मकड़जाल इतना कठिन है कि कंपनी को टेंडर लेना आसान दिखता है, मगर सरकार के कंधे से कंधा मिलाना मुश्किल। सरकार जी, बताइए तो कि पीपीपी की पालकी उठाने के लिए निजी क्षेत्र कब आगे आएगा?
सरकार की साख में ऐसी कमी अप्रत्याशित है। उम्मीद तो यह थी कि आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों के बाद निवेशक ज्यादा मुतमइन होकर निवेश के लिए उत्सुक होंगे, लेकिन यहां तो उलटा हो गया है। सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण भी जब इस स्थिति की तरफ इशारा करता है तो यह सोचना पड़ता है कि नौकरशाही की सुस्त रफ्तार, नियमों को लेकर अनिश्चितता, जंग लगे कानून और भ्रष्टाचार की फलती-फूलती संस्कृति ने मिलकर कहीं सरकार नाम के मजबूत ब्रांड लोकप्रियता तो नहीं घटा दी है। सरकार जी! गंभीरता से सोचिए.. यह साख का सवाल है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)