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Monday, September 9, 2013

मंदी से बड़ी चुनौती


मध्‍य पूर्व के तेल और अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता, पूरी दुनिया की ऐतिहासिक विवशता है। इनके समाधान के बिना दुनिया के बाजार स्‍वस्‍थ व स्‍वतंत्र नहीं हो सकते।

साहस, समझदारी व सूझबूझ से महामंदी तो टाली जा सकती है लेकिन ऐतिहासिक विवशताओं का समाधान नहीं हो सकता। सीरिया और अमेरिकी मौद्रिक नी‍ति में संभावित बदलावों ने ग्‍लोबल बाजारों को इस हकीकत का अहसास कर दिया है कि अरब देशों का तेल व अमेरिका का डॉलर, मंदी से बड़ी चुनौतियां हैं, और मध्‍य पूर्व के सिरफिरे तानाशाह व दुनिया के शासकों की भूराजनीतिक महत्‍वाकांक्षायें आर्थिक तर्कों की परवाह नहीं करतीं। वित्‍तीय बाजारों को इस ऐतिहासिक बेबसी ने उस समय घेरा है, जब मंदी से उबरने का निर्णायक जोर लगाया जा रहा है। सीरिया का संकट पेट्रो बाजार में फट रहा है जिस ईंधन का फिलहाल कोई विकल्‍प उपलब्‍ध नहीं है जबकि अमेरिकी मौद्रिक नीति में बदलाव वित्‍तीय बाजारों में धमाका करेगा जिनकी किस्‍मत दुनिया की बुनियादी करेंसी यानी अमेरिकी डॉलर से बंधी है। विवशताओं की यह विपदा उभरते बाजारों पर सबसे ज्‍यादा भारी है जिनके पास न तो तेल की महंगाई झेलने की कुव्‍वत है और न ही पूंजी बाजारों से उड़ते डॉलरों को रोकने का बूता है। सस्‍ती अमेरिकी पूंजी की आपूर्ति में कमी और तेल की कीमतें मिलकर उत्‍तर पूर्व के कुछ देशों में 1997 जैसे हालात पैदा कर सकते हैं। भारत के लिए यह 1991 व 1997 की कॉकटेल होगी यानी तेल की महंगाई और कमजोर मुद्रा, दोनों एक साथ।
अमेरिका टॉम हॉक्‍स मिसाइलों को दमिश्‍क में उतारने की योजना पर दुनिया को सहमत नहीं कर पाया। सेंट पीटर्सबर्ग के कांस्‍टेटाइन पैलेस की शिखर बैठक में रुस व अमेरिका के बीच जिस तरह पाले खिंचे वह ग्‍लोबर बाजारों के लिए डरावना है। 1983-84 में सीरियाई शासक असद

Monday, August 19, 2013

बादलों में बंद रोशनी

हम अवमूल्‍यन के घाट पर फिसल ही गए हैं तो अब कायदे से गंगा नहा लेनी चाहिए। भारत के लिए रुपये की कमजोरी को निर्यात की ताकत में बदलने का मौका सामने खड़ा है। 
ड़ी मुसीबतों में एक बेजोड़ चमक छिपी होती है। इनसे ऐसे दूरगामी परिवर्तन निकलते हैं, सामान्‍य स्थिति में जिनकी कल्‍पना का साहस तक मुश्किल है। किस्‍म किस्‍म के आर्थिक दुष्‍चक्रों के बावजूद भारत के लिए घने बादलों की कोर पर एक विलक्षण रोशनी झिलमिला रही है। रुपये में दर्दनाक गिरावट ने भारत के ग्रोथ मॉडल में बड़े बदलावों की शुरुआत कर दी है। भारत अब चाहे या अनचाहे, निर्यात आधारित ग्रोथ अपनाने पर  मजबूर हो चला है क्‍यों कि रुपये की रिकार्ड कमजोरी निर्यात के लिए अकूत ताकत का स्रोत है। भारत का कोई अति क्रांतिकारी वित्‍त मंत्री भी निर्यात बढ़ाने के लिए रुपये के इस कदर अवमूल्‍यन की हिम्‍मत कभी नहीं करता, जो अपने आप हो गया है। साठ के दशक में जापान व कोरिया और नब्‍बे के दशक में चीन ने ग्‍लोबल बाजार को जीतने के लिए यही काम सुनियोजित रुप से कई वर्षों तक किया था। रुपया, निर्यात में प्रतिस्‍पर्धी देशों की मुद्राओं के मुकाबले भी टूटा है इसलिए भारत में ग्रोथ व निवेश की वापसी कमान निर्यातकों के हाथ आ गई है। जुलाई में निर्यात में 11 फीसद की बढ़त संकेत है कि सरकार को रुपये को थामने के लिए डॉलर में खर्च या आयात पर पाबंदी जैसे दकियानूसी व नुकसानदेह प्रयोग को छोड़ कर औद्यो‍गिक नीति में चतुर बदलाव शुरु करने चाहिए ता‍कि रुपये में गिरावट का दर्द, ग्रोथ की दवा में बदला जा सके।

भारत ने निर्यात की ग्‍लोबल ताकत बनने का सपना कभी नहीं देखा। आर्थिक उदारीकरण के जरिये  भारत ने अपने  विशाल देशी बाजार को सामने रखकर निवेश आकर्षित किया जबकि इसके विपरीत चीन सहित पूर्वी एशिया के देशों ने विदेशी निवेश इस्‍तेमाल अपने निर्यात इंजन की गुर्राहट

Monday, August 5, 2013

1991 बनाम 2013


2013 की चुनौतियां इक्‍यानवे की तुलना में ज्‍यादा कठिन और भारी हैं। 1991 का घाव तो तुरंत के इलाज से भर गया था, 2013 की टीस लंबी चलेगी।

र्थिक चुनौतियों की फितरत बदल चुकी है। मुसीबतों की नई पीढ़ी यकायक संकट बन कर फट नहीं पड़ती बल्कि धीरे धीरे उपजती है और जिद्दी दुष्‍चक्र बनकर चिपक जाती है। भारत के लिए 1991 व 2013 के बीच ठीक वही फर्क है जो अंतर संकट और दुष्‍चक्र के बीच होता है। संकट कुछ कीमत वसूल कर गुजर जाता है मगर दुष्‍चक्र लंबी यंत्रणा के बाद पीछा छोड़ता है।  भारत में 1991 के तर्ज पर विदेशी मुद्रा संकट दोहराये जाने का डर नहीं है लेकिन उससे ज्‍यादा विकट दुष्‍चक्र की शुरुआत हो चुकी है। रुपये को बचाने के लिए ग्रोथ, रोजगार, लोगों की बचत व क्रय शक्ति की कुर्बानी शुरु हो गई है। तीन माह में आठ रुपये महंगा पेट्रोल तो बानगी भर है दरअसल रुपये में मजबूती लौटने की कोई गुंजायश नहीं है इसलिए पेट्रो उत्‍पाद, खाद्य तेल, कोयला से इलेक्‍ट्रानिक्‍स तक जरुरी चीजों लिए आयात पर निर्भरता, अब रह रह कर घायल करेगी।
डॉलरों की कमी भारत पुराना व सबसे बड़ा खौफ है इसलिए विदेशी मुद्रा मोर्चे पर आपातकाल का ऐलान हो गया है। तीन माह में 12 फीसदी गिर चुके रुपये को बचाने के लिए दर्दनाक असर वाले सीधे उपायों की

Monday, July 2, 2012

याद हो कि न याद हो


ह जादूगर यकीनन करामाती था। उसने सवाल उछाला। कोई है जो बीता वक्‍त लौटा सके। .. मजमे में सन्‍नाटा खिंच गया। जादूगर ने मेज से यूपीए सरकार के पिछले बजट उठाये और पढ़ना शुरु किया। भारी खर्च वाली स्‍कीमें, अभूतपूर्व घाटेभीमकाय सब्सिडी बिलकिस्‍म किस्‍म के लाइसेंस परमिट राज, प्रतिस्‍पर्धा पर पाबंदी,.... लोग धीरे धीरे पुरानी यादों में उतर गए और अस्‍सी के दशक की समाजवादी सुबहें, सब्सिडीवादी दिन और घाटा भरी शामें जीवंत हो उठीं। यह जादू नही बल्कि सच है। उदार और खुला भारत अब अस्सी छाप नीतियों में घिर गया है। यह सब कुछ सुनियोजित था या इत्तिफाकन हुआ अलबत्‍ता संकटों की इस ढलान से लौटने के लिए भारत को अब बानवे जैसे बड़े सुधारों की जरुरत महसूस होने लगी है। इन सुधारों के लिए प्रधानमंत्री को वह सब कुछ मिटाना होगा जो खुद उनकी अगुआई में पिछले आठ साल में लिखा गया है।
बजट दर बजट
ढहना किसे कहते हैं इसे जानने के लिए हमें 2005-06  की रोशनी में 2011-12 को देखना चाहिए। संकटों के सभी प्रमुख सूचकांक इस समय शिखर छू रहे हैं। जो यूपीए की पहली शुरुआत के वक्‍त अच्‍छे खासे सेहत मंद थे। राजकोषीय घाटा दशक के सर्वोच्‍च स्‍तर पर (जीडीपी के अनुपात में छह फीसद) है और विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का अंतर यानी चालू खाते का घाटा बीस साल के सबसे ऊंचे स्‍तर (4.5 फीसद) पर। ग्रोथ भी दस साल के गर्त में है। राजकोषीय संयम और संतुलित विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत की दो सबसे बडी ताजी सफलतायें थीं, जिन्‍हें हम पूरी तरह गंवा चुके हैं।  ऐसा क्‍यों हुआ इसका जवाब यूपीए के पिछले आठ बजटों में दर्ज है। उदारीकरण के सबसे तपते हुए वर्षों में समाजवादी कोल्‍ड स्‍टोरेज से निकले पिछले बजट ( पांच चिदंबरम चार प्रणव) भारत की आर्थिक बढ़त को कच्‍चा खा गए। बजटों की बुनियाद यूपीए के न्‍यूनतम साझा कार्यक्रम ने तैयार की थी। वह भारत का पहला राजनीतिक दस्‍तावेज था जिसने देश के आर्थिक संतुलन को मरोड़ कर

Monday, May 28, 2012

रुपये के मुजरिम

स्ताद जी, रुपया ही क्यों खेत रहा ? भोले निवेशक ने चतुर ब्रोकर से पूछा। दलाल बोला चुप रहो जी, हमारी पुरानी पोल फिर खुल गई। और बहुत सतर्क रहो क्यों। कि इस बार मामला कुछ ज्याजदा ही संगीन है। बाजार की नब्ज थामे वह ब्रोकर बिल्कुल ठीक समझ रहा है। रुपये का मामला यकीनन संगीन है। विकलांग सरकार की संकट न्योता नीति रुपये को ही ले डूबी क्यों। कि रुपया भारत आर्थिक शरीर की सबसे कमजोर नस है। विदेशी मुद्रा प्रबंधन में इतना लोचा है कि 1991 के संकट लेकर आज तक, हम ज्यादा वित्ती्य मुसीबतें इसी दरवाजे से आई हैं और रुपये ने ही तबाही की कहानी बनाई है। शेयर बाजार में विदेशी निवेश कमी को मत कोसिये, विदेशी मुद्रा बाजार और भंडार के प्रबंधन की दरारें तो पिछले कई वर्षों से संकट का स्वागत करने को आतुर हैं। आत्म निर्भरता की कमी, महंगाई, प्राकृतिक संसाधनों का घरेलू उत्पादन, विदेशी मुद्रा की आवक निकासी के असंतुलन, रुपये की बदहाली के लिए जिम्मेदारों की फेहरिस्त छोटी नहीं है। विदेशी मुद्रा का मोर्चा सबसे संवेदनशील होता है, इसे तो सबसे ज्यादा मजबूत होना चाहिए था मगर यही भारत का सर्वाधिक कमजोर और असुरिक्षत मोर्चा साबित हुआ है। रुपया ही सबसे गिरा और बेसहारा है।
कुप्रबंध का विनिमय
रुपये की तोहमत बेचारे ग्रीस के सर क्यों ? यह त्रासदी यूरोजोन ने नहीं हमने खुद लिखी है। ऐतिहासिक गलतियों से लेकर, किस्म किस्म के घाटे और सरकार की नीतिगत निष्क्रियता तक सबने रुपये को तोड़ने में बखूबी काम किया है। रिजर्व बैंक से लेकर वित्ता मंत्रालय सबको यह खबर थी कि रुपये पर हमला होना तय है क्यों कि भारतीय अर्थव्यवस्‍था  दोहरे घाटे (राजकोषीय और चालू खाता) के दुष्च‍क्र में फंस गई है। भुगतान संतुलन (विदेशी देनदारियों और विदेशी पंजी की आवक के बीच का अंतर) के तीन साल में पहली बार घाटे में आने की खबर बाजार को पिछले साल ही मिल गई थी और इसलिए अक्टूबर नवंबर से रुपये की बुरी गत बननी शुरु हो गई थी। इसके बाद से बाजार को विदेशी मुद्रा प्रबंधन के मोर्चे पर कुछ भी अच्छा नहीं