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Friday, April 2, 2021

लौट के फिर न आए ...

 


 हर्ष बुरी तरह निराश है. लॉकडाउन खत्म हुए नौ महीने बीतने को हैं. सरकारी मुखारविंदों से मंदी खत्म होने उद्घोष झर रहे हैं. रैलियां, चुनाव, मेले सब कुछ तो हो रहे हैं, बस उसकी नौकरी नहीं लौट रही.

हर्ष जैसे लोग पहले भी बहुत ज्यादा नहीं थे जिनके पास मासिक पगार वाली ठीक ठाक नौकरी थी. हर्ष जैसे गिनती के लोग टैक्स दे पाते हैं, और अपने खर्च के जरि‍ए कई परिवारों को जीविका देते हैं. कोविड से पहले 2019-20 में वेतनभोगियों की तादाद करीब 8.6 करोड़ थी जो अप्रैल 2020 में घटकर 6.8 करोड़ और जुलाई में घटकर 6.7 करोड़ रह गई (सीएमआईई).

लॉकडाउन खत्म होने के बाद, पहले से कम मजदूरी और कभी भी निकाले जाने के खतरे के तहत असंगठित दिहाड़ी कामगारों को कुछ काम मिलने लगा है, लेकिन संगठित नौकरियों के बाजार में स्थायी मुर्दनी छाई है.

आर्थि‍क मंदी की गर्त से वापसी के सफर में नौकरी पेशा बहुत पीछे क्यों छूटते जा रहे हैं? कोविड के बाद नौकरियां क्यों नहीं लौट रही हैं? इसके‍ लिए कोविड के पहले की तस्वीर देखनी होगी.

भारत में संगठित क्षेत्र के रोजगारों का बाजार पहले से बहुत छोटा है. जिसका दुर्भाग्य कोवि‍ड की आमद से पहले ही जग चुका था.

1,703 प्रमुख और बड़ी कंपनियों की बैलेंस शीट का आकलन (केयर रेटिंग्स, नवंबर 2020) बताता है कि कोविड से पहले 2019-20 में भारत की 60 फीसद कॉर्पोरेट नौकरियां केवल पांच उद्योग या सेवाओं (सूचना तकनीक 20.8, बैंक 18, ऑटोमोबाइल 7.5, हेल्थकेयर 6.4, वित्तीय सेवाएं 6.1 फीसद ) में थीं. इनमें करीब 39 फीसद कॉर्पोरेट रोजगार केवल बैंक और सूचना तकनीक में केंद्रित हैं.

मंदी कोविड से पहले ही आ गई थी इसलिए प्रमुख कंपनियों में नई नियुक्तियों में दो फीसद गिरावट दर्ज की गई. 2018-2019 में प्रमुख कंपनियों ने करीब 2.55 लाख कर्मचारी रखे थे जबकि‍ वित्त वर्ष 2020 में केवल 1.38 लाख नई भर्तियां हुईं.

उपरोक्त पांच उद्योग और सेवाओं के अलावा उपभोक्ता उत्पाद, बीमा, रिटेल, स्टील, भवन निर्माण व रियल एस्टेट, केमिकल और उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेट नौकरियों वाले अन्य प्रमुख क्षेत्र हैं. इनमें केवल बैंक और उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों ने 2018-2019 की तुलना में 2019-20 ज्यादा भर्तियां की. अन्य सभी क्षेत्रों में नए रोजगारों की संख्या घट गई थी.

बैंकिंग-वित्तीय सेवाएं, अचल संपत्ति‍, ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्र लोगों की आय व खपत मांग पर केंद्रित हैं. मंदी के बाद मांग खत्म होने से इनमें नए अवसर बनते नहीं दिख रहे हैं. बैंकिंग में कोविड से पहले तक नए रोजगार बन रहे थे, वहां फंसे हुए कर्ज, सरकारी बैंकों का विलय और निजीकरण रोजगारों की बढ़त पर भारी पड़ने वाला है.

इसके बाद सूचना तकनीक, उपभोक्ता उत्पाद (एफएमसीजी) और स्वास्थ्य सेवाएं बचती हैं जहां कोविड लॉकडाउन के दौरान 'गए' रोजगारों की एक सीमा तक वापसी हो सकती है. हालांकि यहां भी कोविड के बीच नई तकनीक के सहारे श्रम लागत में कटौती के नए रास्ते अपनाए जा रहे हैं इसलिए बड़े पैमाने पर नए रोजगार आने की उम्मीद नहीं दिखती. 

2008-9 की मंदी ने यूरोप और अमेरिका में जो तबाही मचाई थी वही भारत में होता दिख रहा है. उस मंदी के बाद वित्तीय सेवाएं, भवन निर्माण, मैन्युफैक्चरिंग, बिजनेस सर्विसेज, मझोले स्तर के रोजगार बड़े पैमाने पर खत्म हो गए थे. इसलिए ही कोविड के दौरान वहां की सरकारों ने रोजगार बचाने में पूरी ताकत झोंक दी. भारत में भी मझोले स्तर के रोजगार खत्म हुए हैं. 

कोवि‍ड वाला वित्तीय वर्ष बीतते महसूस हो रहा है कि बीते एक साल में जितना आर्थि‍क उत्पादन पूरी तरह खत्म हुआ है उसका अधि‍कांश नुक्सान संगठित क्षेत्र के रोजगारों के खाते में गया है. 

सनद रहे कि कॉर्पोरेट और संगठित नौकरियों की संख्या पहले से बहुत कम थी. कोविड से ऐसे कामगारों कुल तादाद 47 करोड़ थी, जिसमें केवल पांच करोड़ पीएफ (भविष्य निधि‍) और करीब तीन करोड़ कर्मचारी बीमा के तहत हैं.

नौकरियों का अर्थशास्त्र बताता है कि अर्थव्यवस्था मंदी से भले ही उबर जाए पर लंबी बेकारी असंख्य लोगों को रोजगार के लायक नहीं रखती. भारत में बेरोजगारी में 2018 में (एनएसएसओ) ही 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुकी थी. मंदी के बाद यह सूखा अब और लंबा हो रहा है.

कंपनियों को नौकरियां बचाने और बढ़ाने पर बाध्य करने और खाली सरकारी पदों को भरने की दूर, हमारी सरकारें बेरोजगारी पर बात भी नहीं करना चाहतीं. अमेरिकी उप राष्ट्रपति हर्बट हंफ्रे कहते थे कि अगर भूख, गरीबी, खराब सेहत और तबाह जिंदगियां अस्वीकार्य हैं तो बेरोजगारी का कोई न्यूनतम स्तर कैसे स्वीकार हो सकता है! 

बेरोजगारी जीवन का अपमान है, यह राष्ट्रीय शर्म है लेकिन भारत में यह शर्म केवल बेरोजगारों को आती है, सरकारों को नहीं. हम अजीब दौर में हैं, जहां सरकार कारोबारों को फॉर्मल यानी संगठित बनाने की मुहिम में लगी है लेकिन रोजगार बाजार में अस्थायी (असंगठित) नौकरी और कम वेतन अब नया नियम होने वाले हैं.

Friday, March 5, 2021

चमत्कारी राहत


अबक्या घोर मंदी के बावजूद बेरोजगारी रोकी जा सकती है?

क्या अर्थव्यवस्था की आय टूटने के बाद भी आम लोगों की कमाई में नुक्सान सीमित किए जा सकते हैं या कमाई बढ़ाई जा सकती है?

असंभव लगता है लेकिन असंभव है नहीं? 

बेकारी और मंदी के बीच पेट्रोल-डीजल पर टैक्स लगाकर और किस्म-किस्म की महंगाई बढ़ाकर, सरकारें हमें गरीब कर सकती हैं तो महामंदी के बीच सरकारें ही अपनी आबादी को गरीब होने बचा भी सकती हैं. मंदी के बावजूद आम लोगों की कमाई बढ़ाने का यह करिश्मा दुनिया के बड़े हिस्से में हुआ है, वह भी सामूहिक तौर पर.

मैकेंजी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, यह आर्थिक पैमानों किसी चमत्कार से कम नहीं है कि

= 2019 और 2020 की चौथी व दूसरी तिमाही में यूरोप में जीडीपी करीब 14 फीसद सि‍कुड़ गया तब भी रोजगार में गिरावट केवल 3 फीसद रही जबकि लोगों की खर्च योग्य आय (डिस्पोजेबल इनकम) में केवल 5 फीसद की कमी आई

= अमेरिका में तो जीडीपी 10 फीसद टूटा, रोजगार भी टूटे लेकिन लोगों की खर्च योग्य आय 8 फीसद बढ़ गई!

= कोविड के बाद जी-20 देशों ने मंदी और महामारी के शि‍कार लोगों की मदद पर करीब 10 खरब डॉलर खर्च किए, जो 2008 की मंदी में दी गई सरकारी मदद से तीन गुना ज्यादा था और दूसरे विश्व युद्ध के बाद जारी हुए आर्थिक पैकेज यानी मार्शल प्लान से 30 गुना अधि‍क था. अलबत्ता इस पैकेज का बड़ा होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि इनके जरिए उभरने वाला एक नया कल्याणकारी राज्य, जो हर तरह से अनोखा था.

= यूरोपीय समुदाय की सरकारों ने करीब 2,342 डॉलर और अमेरिका ने प्रति व्यक्ति 6,752 डॉलर अति‍रिक्त खर्च किए. सरकारों की पूरी सहायता रोजगार बचाने (कुर्जाबेत-जर्मन, शुमेज पार्शिएल-फ्रांस, फर्लो ब्रिटेन, पे-चेक प्रोटेक्शन-अमेरिका) और बेरोजगारों को सीधी मदद पर केंद्रित थी. यूरोप के अधि‍कांश देशों ने इस तरह की मदद पर सामान्य दिनों से ज्यादा खर्च किया.

= सरकारों ने आम लोगों की बचत संरक्षित करने और आवासीय, चि‍कित्सा की लागत को कम करने पर खर्च किया. यूरोप के देशों ने मकान के किराए कम किए, कर्मचारियों को अनिवार्य पेंशन भुगतान (स्वि‍ट्जरलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड) में छूट दी गई या सरकार ने उनके बदले पैसा जमा किया और शि‍क्षा संबंधी खर्चों की लागत घटाई गई.

= सामाजिक अनुबंधों की इस व्यवस्था में निजी क्षेत्र सरकार के साथ था. हालांकि कंपनियों को कारोबार में नुक्सान हुआ, दीवालिया भी हुईं, लेकिन यूरोप और अमेरिका में कंपनियों ने सरकारी प्रोत्साहनों जरिए रोजगारों में कमी को कम से कम रखा और कर्मचारियों के बदले पेंशन व बीमा भुगतानों का बोझ उठाया.

मंदी के बीच रोजगार महफूज रहे तो अमेरिका में 2020 की तीसरी में तिमाही में बचत दर (खर्च योग्य आय के अनुपात में) 16.1 यानी दोगुनी तक बढ़ गई. यूरोप में बचत दर 24.6 फीसद दर्ज की गई.

अब जबकि उपभोक्ताओं की आय भी सुरक्षि‍त है और बचत भी बढ़ चुकी है तो मंदी से उबरने के लिए जिस मांग का इंतजार है वह फूट पडऩे को तैयार है. वैक्सीन मिलने के बाद कारोबार खुलते ही यह ईंधन अर्थव्यवस्थाओं को दौड़ा देगा.

यकीनन अमेरिका और यूरोप की सरकारें बीमारी और मौतें नहीं रोक सकीं, देश की अर्थव्यवस्था को नुक्सान भी नहीं बचा पाईं लेकिन उन्होंने करोड़ों परिवारों को बेकारी-गरीबी की विपत्ति‍ से बचा लिया.

जहां सरकारें ऐक्ट ऑफ गॉड के सहारे टैक्स थोप रही हैं या निजी कंपनियां रोजगार काट कर मुनाफे कूट रही हैं, ये कल्याणकारी राज्य उनके लिए आइना हैं. पूंजीवादी मुल्कों ने इस महामारी में सरकार और समुदाय के बीच अनुबंध यानी सोशल कॉन्ट्रैक्ट जैसा इस्तेमाल किया वह भारत में क्यों नहीं हो सकता था?

सनद रहे कि भारत में कोविड पूर्व की मंदी और बेरोजगारी की वजह से लोगों की खर्च योग्य आय (डि‍स्पोजेबल इनकम) करीब 7.1 फीसद टूट चुकी थी. लॉकडाउन के दौरान भारत के जीडीपी में गिरावट की अनुपात में लोगों की खर्च योग्य आय में गिरावट कहीं ज्यादा रही है.  

भारत में आम परिवारों की करीब 13 लाख करोड़ रुपये की आय मंदी नि‍गल गई (यूबीएस सि‍क्योरिटीज). इसके बाद महंगाई आ धमकी है जो कमाई और बचत खा रही है. 

भारत दुनिया में खपत पर सबसे ज्यादा और दोहरा-तिहरा टैक्स लगाने वाले मुल्कों में है. हम कभी इस टैक्स का हिसाब नहीं मांगते, पलट कर पूछते भी नहीं कि हम उन सेवाओं के लिए सरकार को भी पैसा देते हैं, जिन्हें हम निजी क्षेत्र से खरीदते हैं या सरकार से उन्हें हासिल करने के लिए हम रिश्वतें चढ़ाते हैं. हम कभी फिक्र नहीं करते कि कॉर्पोरेट मुनाफों में बढ़त से रोजगारों और वेतन क्यों नहीं बढ़ते अलबत्ता संकट के वक्त हमें जरूर पूछना चाहिए कि हम पर भारी टैक्स लगाने वाला भारत का भारत का कल्याणकारी राज्य किस चुनावी रैली में खो हो गया है.

 

Friday, February 26, 2021

... मगर हकीकत है


जीडीपी के ताजा आंकड़े देखकर, एक आंकड़ेबाज अर्थव्यवस्था में वी’ (V) वाली रिकवरी पर व्यापारी से भिड़ गया जो मंदी से बुरी तरह त्रस्त था. व्यापारी बोला, 2020 जनवरी में मेरी कमाई सौ रु. थी, लॉकडाउन के बाद 20 रु. रह गई. आपके हिसाब से यह अगले साल 40 रु. हो जाएगी यानी दोगुनी बढ़त! लेकिन मेरा 60 रु. का नुक्सान कहां गया? इस तरह तो 100 रु. की कमाई पर पहुंचने में मुझे पांच साल लगेंगे.


मंदी में आर्थिक उत्पादन सिकुड़ जाने से आंकड़ों की समझ गड्डमड्ड हो जाती है. इसलिए प्रतिशत ग्रोथ के बजाए वास्तविक आंकड़े यानी उत्पादन की ठोस कीमत को पढऩा चाहिए. अगले दो साल तक भारत में जीडीपी को लेकर खासा भ्रम रहेगा. इसलिए सच समझना जरूरी है.


=  कोविड से पहले 2019-20 में अर्थव्यवस्था मंदी में थी. कुल उत्पादन का वास्तविक मूल्य (महंगाई हटाकर) 146 लाख करोड़ रु. था, जो 2020 में टूटकर 134 लाख करोड़ रु. रह गया. यह 2021-22 में बमुश्किल 149 लाख करोड़ रु. होगा.


=   अगर कोविड न हुआ होता और अर्थव्यवस्था केवल पांच फीसद की दर से बढ़ रही होती तो वित्त वर्ष 2022 में अर्थव्यवस्था का आकार 160.59 लाख करोड़ रु. होता. अब इसे हासिल करने के लिए 2022 में करीब 20 फीसद की विकास दर चाहिए.


=   आइएमएफ के मुताबिक, भारत में प्रति व्यक्ति आय को 2020 के स्तर पर लौटने में 2024 आ जाएगा.


मंदी से निकलने के जद्दोजहद के बीच जीडीपी को लेकर जब कई भ्रम टूट ही रहे हैं तो भारत में इसकी पैमाइश के तौर तरीकों पर भी नए सिरे से विचार करने की जरूरत है.


डेविड रोजलिंग, अपनी दिलचस्प किताब, द ग्रोथ डिल्यूजन में जीडीपी को कुजनेत्स का राक्षस कहते हैं. जीडीपी के जनक सिमोन कुजनेत्स, अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़े थे. 1933 में राष्ट्रपति फ्रेड्रिक रूजवेल्ट ने, उन्हें नेशनल एकाउंट का बनाने का काम सौंपा. कुजनेत्स ने सभी गतिविधियों को एक आंकड़े में समेट दिया. यही मायावी फॉर्मूला भारत के कुल उत्पादन के मूल्य को आबादी से बांट कर मुकेश अंबानी और दिहाड़ी मजदूर की कमाई बराबर कर देता है.


भारत में ग्रोथ की पैमाइश उत्पादन के आधार पर होती है, लोगों की कमाई में बढ़त से नहीं. 2015 में नेशनल एकाउंट्स में नया फॉर्मूला (ग्रॉस वैल्यू एडेडकच्चे माल और दूसरे इनपुट निकालने के बाद उत्पादन का मूल्य) फॉर्मूला जोड़ा गया तो वह भी सप्लाइ या आपूर्ति की तरफ से था, मांग या खपत की तरफ से नहीं. अरविंद सुब्रह्मण्यम (2018 तक सरकार के आर्थिक सलाहकार) ने जून 2019 में अपने एक अध्ययन में साबित किया कि यह नया पैमाना ग्रोथ को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है.


भारत को मंदी के बीच आर्थिक प्रगति को नापने का तरीका बदलना चाहिए, मसलन,


g राष्ट्रीय जीडीपी को उत्पादन या आपूर्ति की तरफ से मापा जा सकता है. लेकिन राज्य (एसडीपी) और जिला विकास दर (डीडीपी) की नापजोख मांग और आय के आधार पर होनी चाहिए. इससे स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में विकास की सही तस्वीर मिलेगी.


g राष्ट्रीय, राज्य और जिला पर मीडियन इनकम यानी मध्यवर्ती आय (सर्वोच्च और न्यूनतम के बीच) का आकलन जरूरी है. इससे गरीबी में कमी और मध्य वर्ग के विस्तार को मापा जाना सकता है.


g जेनुइन प्रोग्रेस, हैपीनेस, वेल बीइंग इंडेक्स जैसे पैमानों से जिला स्तर पर सामाजिक सेवाओं की गुणवत्ता और प्रभाव को मापा जा सकता है.


भारत को लंबे वक्त तक धीमी ग्रोथ के साथ जीना होगा. फिर भी प्रमुख जिले अगर दहाई के अंकों और राज्य 7-8 फीसद की औसत विकास दर हासिल कर पाते हैं तो 6-7 फीसद की स्थायी राष्ट्रीय जीडीपी दर के जरिए बड़ी आबादी की जिंदगी में क्रमश: बेहतर कर सकती है.


दरअसल, कमाई, रोजगार, जीवन स्तर और संपत्ति सही पैमाइश के बिना जीडीपी से कुछ समझ नहीं आता. आर्थिक असमानता सूझ देने वाले इतालवी सांख्यिकीविद कोलाराडो गिनी का फॉर्मूला (गिनी कोइफिशिएंट) बताता है कि भारत की दस फीसद आबादी के पास 77 फीसद संपत्ति, यूं ही नहीं है.


कोविड के बीच बीती मई में चीन ने जीडीपी को नापने का पैमाना बदल दिया. अब वह तरक्की की पैमाइश उत्पादन में बढ़ोतरी (मूल्य के आधार पर) नहीं बल्कि रोजगार से करेगा. चीन की सरकार छह फीसद ग्रोथ नहीं बल्कि जनता के लिए (रोजगार, बुनियादी जीविका, स्वस्थ प्रतिस्पर्धी बाजार, भोजन और ऊर्जा की आपूर्ति, स्थानीय सरकारों को ज्यादा ताकत) जैसी गारंटियां सुनिश्चित करने वाली है.


मंदी जाने तक जीडीपी के आंकड़े हमें हैरान रखेंगे. इनमें एक तरफ कंपनियों के मुनाफे बढ़ते नजर आएंगे और दूसरी तरफ बेकारी और गरीबी. जब भारत में तेज ग्रोथ वाले वर्षों (2012 से 2018) में भी बेकारी बढ़ी और ग्रामीण व नगरीय कमाई कम हुई तो अब तो घोर मंदी है. इसलिए जीडीपी के आंकड़ों को अपनी कमाई, खपत और बचत से नापना बेहतर है ताकि खुशफहमी में जोखिम लेने से बचा जा सके.

Friday, September 4, 2020

पैरों तले ज़मीन है या आसमान है

 


अगर आप जीडीपी में -23.9 फीसद की गिरावट यानी अर्थव्यवस्था में 24 मील गहरे गर्त को समझ नहीं पा रहे हैं तो खुशकिस्मत हैं कि आपकी नौकरी या कारोबार कायम है. अगर आपके वेतन या टर्नओवर में 25-30 फीसद की कमी हुई है तो वह जीडीपी की टूट के तकरीबन बराबर है. लेकिन इससे ज्यादा संतुष्ट होना घातक है. इसके बजाए पाई-पाई सहेजने की जरूरत है.

दुनिया में कौन कितना गिरा, इसे छोड़ हम अपने फटे का हिसाब लगाते हैं. यह रहीं 2020-21 की पहली तिमाही के आंकड़े से निकलने वाली तीन सबसे बड़ी (अघोषि) सुर्खियां! इनमें अगले 12 से 24 महीनों का भविष्य निहित है.

अगर इस साल (2020-21) भारत की विकास दर 1.8 फीसद भी रहती तो भी देश का करीब 4 फीसद वास्तविक जीडीपी (महंगाई हटाकर) पूरी तरह खत्म (क्रिसिल मई 2020 रिपोर्ट) हो जाता. पहली तिमाही की तबाही के मद्देनजर यह साल शून्य से नीचे यानी -8 से -11 फीसद जीडीपी दर के साथ खत्म होगा. इस आंकडे़ के मुताबिक, करीब 15 लाख करोड़ रुपए का वास्तविक जीडीपी (6 से 8 फीसद) यानी उत्पादक गतिविधियां हमेशा के लिए खत्म हो जाएंगी. 200 लाख करोड़ के जीडीपी की तुलना में यह नुक्सान बहुत बहुत गहरा है.

स्कूल, परिवहन, पर्यटन, मनोरंजन, होटल, रेस्तरां, निर्माण आदि  उद्योग और सेवाओं में बहुत से धंधे हमेशा लिए बंद हो रहे हैं. यही है बेकारी की वजह और इसके साथ खत्म हो रही है खपत. आपकी पगार या कारोबार जीडीपी के इस अभागे हिस्से से तो नहीं बधा है, जिसके जल्दी लौटने की उम्मीद नहीं है?

भारतीय अर्थव्यवस्था खपत का खेल है. जनसंख्या से उठने वाली मांग ही 60 फीसद जीडीपी बनाती है. तिमाही के आंकड़ों की रोशनी में इस साल भारत की 26 फीसद खपत या मांग पूरी तरह स्वाहा (एसबीआइ रिसर्च) हो जाएगी. बीते नौ साल में 12 फीसद सालाना की दर से बढ़ रही खपत 2020-21 में 14 फीसद की गिरावट दर्ज करेगी. यानी कि जो लोग बीते साल 100 रुपए खर्च कर रहे थे वे इस साल 80 रुपए ही खर्च कर पाएंगे.

जीडीपी के विनाश का करीब 73.8 फीसद हिस्सा दस राज्यों के खाते में जाएगा, जिनमें महाराष्ट्र, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश बुरे हाल में होंगे. औसत प्रति व्यक्ति आय इस साल 27,000 रुपए कम होगी लेकिन बड़े राज्यों में प्रति व्यक्तिआय का नुक्सान 40,000 रुपए तक होगा.

केंद्र सरकार ने साल भर के घाटे का लक्ष्य अगस्त में ही हासिल कर लिया. सिकुड़ते जीडीपी के जरिए टैक्स तो आने से रहा, अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए सरकारें अब सिर्फ कर्ज ले सकती हैं या नोट छपवा सकती हैं. सरकारों का बढ़ता कर्ज महंगाई बढ़ाएगा, रुपया कमजोर होगा और घबराएंगे शेयर बाजार.

इन सुर्खियों का असर हमें तीन लोग समझा सकते हैंएक हैं रघुबर जो पलामू, झारखंड से बिजली की फिटिंग का काम करने दिल्ली आए थे. दूसरे, जिंदल साहब जिनकी रेडीमेड गारमेंट की छोटी फैक्ट्री है. तीसरे हैं रोहन जो वित्तीय कंपनी में काम करते हैं.

रघुबर जीडीपी के दिवंगत हो रहे हिस्से से जुड़े थे. अब उन्हें 300 रुपए की दिहाड़ी भी मुश्किल से मिलनी है (सरकारी रोजगार योजना की दिहाड़ी 150-180 रुपए). रघुबर भूखे नहीं मरेंगे लेकिन नई मांग के जरिए जीडीपी बढ़ाने में कोई योगदान भी नहीं कर पाएंगे.

सरकार ज्यादा कर्ज उठाएगी. नए टैक्स लगाएगी यानी अगर रोहन की नौकरी बची भी रही तो उनकी कटी हुई पगार जल्दी नहीं लौटेगी. टैक्स और महंगी जिंदगी के साथ रोहन नया क्या खरीदेंगे, उनका खर्च बीते साल के करीब एक-चौथाई कम हो जाएगा.

जिंदल साहब फैक्ट्री के कपड़े रोहन से लेकर रघुबर तक सैकड़ों लोग खरीदते थे, जिनकी मांग तो गई. फिर जिंदल साहब नए लोगों को काम पर लगाकर अपना उत्पादन क्यों बढ़ाने लगे

सरकार के केवल वही कदम कारगर होंगे जिनसे प्रत्यक्ष रूप से लोगों के हाथ में पैसा पहुंचे. खासतौर पर मध्य वर्ग के हाथ में जो अर्थव्यवस्था में मांग की रीढ़ है. इस एक साल में जितने उत्पादन, कमाई और खपत का विनाश हो रहा है उसके आधे हिस्से की भरपाई में भी सात-आठ तिमाही लगेंगी, बशर्ते लोगों की कमाई तेजी से बढे़ और तेल कीमतों में तेजी या सीमा पर कोई टकराव न टूट पड़े.

अगले महीनों में अगर यह सुनना पड़े कि अर्थव्यवस्था सुधर रही है तो प्रचार को एक चुटकी नमक के साथ ग्रहण करते हुए बीते साल के मुकाबले अपनी कमाई, खर्च या बचत का हिसाब देखिएगा.

लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था कोसिर के बल जमीन में धंसा दिया है और पैर आसमान की तरफ हैं. आने वाली प्रत्येक तिमाही में हमें सिर्फ यह बताएगी कि हम गड्ढा कितना भर पाए हैं. 5-6 फीसद की वास्तविक विकास दर लौटने के लिए 2022-23 तक इंतजार करना होगा.  

देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं

पैरों तले ज़मीन है या आसमान है

दुष्यंत