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Saturday, September 24, 2016

साहस, संयम और सूझ

पाकिस्‍तान से निबटना उतना मुश्किल नहीं जितना चुनौती पूर्ण है उन उम्‍मीदों को संभालना जिन पर नरेंद्र मोदी सवार हैं

ड़ी में सैन्य शिविर पर आतंकी हमले के अगले दिन 19 सितंबर को टीवी चैनलों पर जब ऐंकर और रिटायर्ड फौजी पाकिस्तान का तिया-पांचा कर देने के लिए सरकार को ललकार रहे थे और सरकार रणनीतिक बैठकों में जुटी थी, उसी समय दिल्ली के विज्ञान भवन में भारत के पहले पर्यटन निवेश सम्मेलन की तैयारी चल रही थी.

चाणक्यपुरी का अशोक होटल 300 विदेशी निवेशकों की मेजबानी में लगा था. देश के 25 राज्यों के प्रतिनिधि अपने यहां पर्यटन की संभावनाओं को बताने के प्रेजेंटेशन लेकर दिल्ली पहुंच चुके थे. विदेशी पर्यटकों को केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा की बेतुकी सलाहों के बीच पर्यटन को विदेशी निवेशकों के एजेंडे में शामिल कराने का यह बड़ा आयोजन प्रधानमंत्री की पहल था, जो ब्रांड इंडिया की ग्लोबल चमक बढ़ाने की योजनाओं पर काम कर रहे हैं.

अजब संयोग था कि दुनिया के निवेशकों का भारत के पर्यटन कारोबार की संभावनाओं से ठीक उस वक्त परिचय हो रहा था, जब भारत के टीवी चैनलों पर पाकिस्तान से युद्ध में हिसाब बराबर करने के तरीके बताए जा रहे थे. अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है कि पर्यटन जो कि छोटी-सी बीमारी फैलने भर से ठिठक जाता है, उसमें निवेश करने वालों के लिए बीते सप्ताह भारत का माहौल कितना ''उत्साहवर्धक" रहा होगा. जंग की आशंकाओं के बीच पर्यटन बढ़ाने की उलटबांसी दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उलझन बेजोड़ नमूना है।

नरेंद्र मोदी के लिए पाकिस्तान की ग्रंथि पिछले किसी भी प्रधानमंत्री की तुलना में ज्यादा पेचीदा है.पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन से निबटना बड़ी समस्या नहीं है. भारतीय कूटनीति व सेना के पास, पाकिस्तान से निबटने की ताकत व तरीके हमेशा से मौजूद रहे हैं. बांग्लादेश से बलूचिस्तान तक इसके सफल उदाहरण भी मिल जाते हैं मोदी की उलझन सामरिक से ज्यादा राजनैतिक और कूटनीतिक है. मोदी ने भारत को नई तरह के कूटनीतिक तेवर दिए हैं, पाकिस्तान के साथ उलझाव इन तेवरों और संवादों की दिशा बदल सकता है.

1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत की कूटनीति को नए आयाम मिले हैं. भारत का बाजार दुनिया के लिए खुला और आर्थिक-व्यापारिक संबंध ग्लोबल कूटनीतिक रिश्तों का आधार बन गए. लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि पाकिस्तान के कारण भारत अपनी कूटनीतिक क्षमताओं का अपेक्षित लाभ नहीं ले पाया. आतंकवाद व पाकिस्तान के साथ तनाव ने भारतीय कूटनीति को हमेशा व्यस्त रखा और भारत की अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा अपने पड़ोसी से निबटने में खर्च होती रही.

पिछले तीन दशक के दौरान हर पांच वर्ष में कुछ न कुछ ऐसा जरूर हुआ, जिसके कारण भारत को अपनी कूटनीतिक ताकत पाकिस्तान को ग्लोबल मंच पर अलग-थलग करने में झोंकनी पड़ी.वाजपेयी के कार्यकाल में भारत उदार बाजार के साथ ग्लोबल मंच पर अपनी दस्तक को और जोरदार बना सकता था लेकिन तत्कालीन सरकार के राजनयिक अभियानों की ताकत का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने, संघर्षों से निबटने और आतंक रोकने में निकल गया.

मनमोहन सिंह कुछ सतर्कता के साथ शुरू हुए. यूपीए के पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने ग्लोबल मंचों पर भारत की पहचान को पाकिस्तान से अलग किया और भारत को दुनिया के अतिविशिष्ट नाभिकीय क्लब में प्रवेश मिला. अलबत्ता 2008 में मुंबई हमले के साथ पाकिस्तान पुनः भारतीय कूटनीति के केंद्र में आ गया. इस घटना के बाद पाकिस्तान के आतंकी डिजाइन को दुनिया के सामने लाना भारतीय राजनयिक अभियान की मजबूरी हो गई.

मोदी पाकिस्तान के साथ वाजपेयी जैसी सदाशयता को लेकर शुरू हुए थे, लेकिन इसके समानांतर उन्होंने भारतीय कूटनीति को नया आयाम देने का अभियान भी प्रारंभ किया. मोदी का यह ग्लोबल मिशन मौके के माकूल था. दुनिया में मंदी के बीच भारत अकेली दौड़ती अर्थव्यवस्था है और भारत को ग्रोथ के अगले चरण के लिए नए निवेश की जरूरत है. मोदी ने भारतवंशियों के बीच अपनी लोकप्रियता को आधार बनाते हुए, भारत की नई ब्रांडिंग के साथ दुनिया के हर बड़े मंच और देश में दस्तक दी, जिसका असर विदेशी निवेश में बढ़ोतरी के तौर पर नजर भी आया.

पाकिस्तान के डिजाइन मोदी के ब्रांड इंडिया अभियान के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं. उड़ी का आतंकी हमला बड़ा है, फिर भी यह 26/11 या संसद पर हमले जैसा नहीं है. पिछले दो साल में कश्मीर से बाहर आतंकी हमलों की घटनाएं सीमित रही हैं. आतंकी आम लोगों के बजाए सुरक्षा बलों से भिड़ रहे हैं.

मोदी चाहें तो राजनैतिक संवादों को अनावश्यक आक्रामक होने से बचा सकते हैं लेकिन मजबूरी यह है कि 2014 में उनका चुनाव अभियान पाकिस्तान के खिलाफ दांत के बदले जबड़े जैसी आक्रामकता से भरा था. यही वजह है कि पिछले दो साल में आतंकी हमलों में कमी के बावजूद पाकिस्तान से दो टूक हिसाब करने के आग्रह बढ़ते गए हैं और मोदी सरकार पाकिस्तान को प्रत्यक्ष जवाब देने के जबरदस्त दबाव में है, जो पिछले किसी भी मौके की तुलना में सर्वाधिक है.

वाजपेयी से मोदी तक आते-आते पाकिस्तान ज्यादा आक्रामक, विघटित और अविश्वसनीय हो गया है, जबकि भारत की जरूरतें और संभावनाएं बड़ी व भव्य होती गई हैं. पाकिस्तान से भारत के रिश्ते हमेशा साहस, संयम और सूझबूझ का नाजुक संतुलन रहे हैं. वक्त बदलने, दक्षिण एशिया में हथियारों की होड़ बढऩे और ग्लोबल ताकतों की नाप-तौल बदलने के साथ यह संतुलन और संवेदनशील होता गया है.

उड़ी हमले के बाद आर-पार की ललकारों के बावजूद भारत का संयम, दरअसल, उस संतुलन की तलाश है, जिसमें कम से कम नुक्सान हो. भारत चाहे पाकिस्तान को सीधा सबक सिखाए या फिर कूटनीतिक अभियान चलाए, दोनों ही स्थितियों में मोदी को उन बड़ी सकारात्मक उम्मीदों का ध्यान रखना होगा जो उनके आने के बाद तैयार हुई हैं.

अमेरिकी विचारक जेम्स फ्रीमैन क्लार्क कहते थेः ''नेता हमेशा अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं, लेकिन राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में." हमें उम्मीद करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी इस संवेदनशील मौके पर राजनेता बनकर ही उभरेंगे.

Tuesday, June 14, 2016

आंकड़ों की चमकार

सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों  का  खतरा अब बढऩे लगा है.  

थ्यसंगत विमर्श में रुचि लेने वाले एक मित्र से जब मैंने पिछले सप्ताह कहा कि देश में बिजली का उत्पादन मांग से ज्यादा यानी सरप्लस हो गया है तो उनके माथे पर बल पड़ गए. वे बिजली की व्यवस्था में पीक डिमांड, एवरेज और रीजनल सरप्लस जैसे तकनीकी मानकों से अपरिचित नहीं थे लेकिन बार-बार बिजली जाने से परेशान, पसीना पोंछते मेरे मित्र के गले यह बात उतर नहीं रही थी कि सचमुच मांग से ज्यादा बिजली बनने लगी है.

उनकी यह हैरत उस मध्यवर्गीय उपभोक्ता जैसी ही थी जो सब्जी, तेल, दाल खरीदते समय यह नहीं समझ पाता कि महंगाई यानी मुद्रास्फीति में रिकॉर्ड कमी के आंकड़े ब्रह्मांड के किस ग्रह से आते हैं. ठीक इसी तरह रोजगार में कमी, सूखे के हालात, मांग में गिरावट और कंपनियों की बिक्री के नतीजे पढ़ते हुए, आर्थिक विकास दर के आठ फीसदी (7.9 फीसदी) के करीब पहुंचने के ताजा आंकड़े एक तिलिस्मी दुनिया में पहुंचा देते हैं.

हमने ऊपर जिन तीन आंकड़ों का जिक्र किया है, वे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं, लेकिन शायद एक विशाल देश में आंकड़ों का व्यावहारिक तौर पर सही होना और ज्यादा जरूरी है, क्योंकि सांख्यिकीय पैमानों की बौद्धिक बहस में टिकाऊ होने के बावजूद अगर बड़े और प्रमुख आंकड़े व्यावहारिक हकीकत से कटे हों तो उनकी राजनैतिक विश्वसनीयता पर शक-शुबहे लाजिमी हैं.

सबसे पहले बिजली को लें, जो गर्मी में सबसे ज्यादा छकाती है. केंद्रीय बिजली अधिकरण (सीईए) ने जैसे ही कहा कि इस साल बिजली का उत्पादन सरप्लस यानी मांग से ज्यादा हो जाएगा तो कई मंत्रियों के ट्विटर हैंडल चिचिया उठे. सीईए ने बताया था कि देश में पीक डिमांड (सर्वाधिक मांग के समय) और नॉन पीक डिमांड (औसत मांग) के समय, बिजली का उत्पादन मांग से क्रमश 3.1 फीसदी और 1.1 फीसदी ज्यादा रहेगा. यह आंकड़ा बिजली की मांग और आपूर्ति पर आधारित है, घंटों और स्थान के आधार पर परिवर्तनशील है. सरकार ने कोयले की बेहतर आपूर्ति के आधार पर बिजली उत्पादन में क्रांति का दावा किया तो कांग्रेसी कह उठे कि काम तो पिछले एक दशक में हुआ है, बीजेपी सरकार तो उसकी मलाई खा रही है.

बहरहाल, अगर आपके इलाके में खूब बिजली कटती है (जो अखिल भारतीय सच है) तो मांग से ज्यादा बिजली उत्पादन के दावे पर भरोसा असंभव है. अलबत्ता अगर तकनीकी चीर-फाड़ करें तो लगेगा कि सीईए बजा फरमाता है. सीईए ने एक निर्धारित समय (घंटा भी हो सकता है) पर पूरे देश में बिजली की मांग व आपूर्ति का औसत निकाला जो उत्पादन में सरप्लस बताता जान पड़ता है. यह स्थिति पिछले साल की तुलना में बेहतर है.

इस तथ्य के बावजूद यह समझना जरूरी है कि भारत में सबसे बुरे वर्षों में भी अलग-अलग समय पर राज्यों में बिजली का उत्पादन सरप्लस रहा है लेकिन इसके साथ ही देश के कई दूसरे हिस्से हमेशा बिजली की कटौती झेलते हैं. कई जगह बिजली कंपनियां घाटा कम करने के लिए कटौती करती रहती हैं. इसलिए बिजली के तात्कालिक सरप्लस उत्पादन का आंकड़ा तकनीकी तौर पर भले ही सही हो, लेकिन इस गर्मी में अक्सर बिजली गायब रहने के दैनिक तजुर्बे से बिल्कुल उलट है जो सरकार के जोरदार दावे पर उत्साह के बजाए खीझ पैदा करता है.

अप्रैल में बढ़त दर्ज करने से पहले तक थोक कीमतों वाली महंगाई पिछले 18 महीने से शून्य से नीचे थी. फुटकर महंगाई की दर भी ताजा बढ़ोतरी से पहले तक पांच फीसदी से नीचे आ गई थी. आंकड़े सिद्धांततः सही हो सकते हैं, लेकिन यहां भी तकनीकी पेच है. खुदरा महंगाई दर जिस सर्वेक्षण पर आधारित होती है, उसके आंकड़े 310 कस्बों और 1,180 गांवों से जुटाए जाते हैं. इस व्यवस्था में गलतियों की भरपूर गुंजाइश है. इन कमजोर आंकड़ों से जो सूचकांक बनता है, उसमें मौसमी चीजों (सब्जी, फल), दूध और दालों की कीमतों का हिस्सा कम है. कपड़ों, शिक्षा परिवहन के खर्चों की गणना का फॉर्मूला भी पुराना है. इसलिए अक्सर सब्जी की दुकान पर खड़े होकर जो महंगाई महसूस होती है, मुद्रास्फीति के घटने के आंकड़े उस पर नमक मलते जान पड़ते हैं.

भारत में जीडीपी के ताजा आंकड़े तो कल्पनाओं की बाजीगरी लगते हैं. मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी की करीब 51 फीसदी ग्रोथ डिस्क्रीपेंसीज या असंगतियों के चलते आई है. चौंकिए नहीं, जीडीपी की गणना के फॉर्मूले में एक कारक का नाम ही असंगति है. ठोस आंकड़ों के अभाव में सरकार उत्पादन व खर्च का एक मोटा-मोटा अंदाज लगा लेती है और जीडीपी की ग्रोथ तय कर दी जाती है. यह अंदाजा ही डिस्‍क्रिपेंसी या असंगति है.

सरकार के प्रधान आंकड़ाकार टीसीए अनंत को कहना पड़ा कि आंकड़े मिलने में देरी के कारण डिसक्रिपेंसीज कुछ ज्यादा ही हो गई हैं. लेकिन कितनी ज्यादा? इस असंगति के खाते ने मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी में 143 लाख करोड़ रु. का उत्पादन जोड़ दिया, जो 2015 की इसी तिमाही में केवल 29,933 करोड़ रु. था. आंकड़ों के विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर असंगतियों की इस भेंट को जीडीपी से निकाल दें तो मार्च की तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 7.9 नहीं बल्कि 3.9 फीसदी रह जाएगी, क्योंकि इनके अलावा सरकार के खर्च में बढ़ोतरी मामूली है, निजी निवेश व निर्यात गिरा है, जिनके दम पर जीडीपी बढ़ता है.

ध्यान रखना जरूरी है कि विकास और बदलाव संख्याओं में नहीं, जमीन पर महसूस होता है जैसा कि रेलवे की सेवाओं में या काले धन को लेकर नजर आ रहा है. लेकिन ऐसा हर क्षेत्र में नहीं हो पाया है. सरकारें हमेशा अपनी उपलब्धियों का प्रचार करती हैं लेकिन आंकड़ों में गफलत साख के लिए खतरनाक हो सकती है.

पिछले दो साल में सरकारी आर्थिक आंकड़ों पर निवेशकों का भरोसा कम हुआ है. वे आंकड़ों की स्वतंत्र पड़ताल को मजबूर हो रहे हैं. सरकारी दावे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं लेकिन अगर आंकड़े असंगति से भरे और व्यावहारिकता से कटे हों तो इनके अति सुहानेपन के विपरीत एक प्रतिस्पर्धी संवाद पैदा होता है जो बेहतरी की तथ्यात्मक कोशिशों को भी नकारात्मकता और शक-शुबहे से भर देता है. सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों का खतरा अब बढऩे लगा है.  


Monday, November 24, 2014

मोदी के भारतवंशी


भारतवंशियों पर मोदी के प्रभाव को समझने के लिए शेयर बाजार को देखना जरुरी है. यहां इस असर की ठोस पैमाइश हो सकती है. इन अनिवासी भारतीय पेश्‍ोवरों की अगली तरक्की, अब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है.
मोदी सरकार बनाने जा रहे हैं इसमें रत्ती भर शक नहीं है. आप यह बताइए कि आर्थिक सुधारों पर स्वदेशी के एजेंडे का कितना दबाव रहेगा?” यह सवाल भारतीय मूल के उस युवा फंड मैनेजर का था जो इस साल मार्च में मुझे हांगकांग में मिला था, जब नरेंद्र मोदी का चुनाव अभियान में देश को मथ रहा था. वन एक्सचेंज स्क्वायर की गगनचुंबी इमारत के छोटे-से दफ्तर से वह, ऑस्ट्रेलिया और जापान के निवेशकों की भारी पूंजी भारतीय शेयर बाजार में लगाता है. हांगकांग की कुनमुनी ठंड के बीच इस 38 वर्षीय फंड मैनेजर की आंखों में न तो भावुक भारतीयता थी और न ही बातों में सांस्कृतिक चिंता या जड़ों की तलाश, जिसका जिक्र विदेश में बसे भारतवंशियों को लेकर होता रहा है. वह विदेश में बसे भारतवंशियों की उस नई पेशेवर पीढ़ी का था जो भारत की सियासत और बाजार को बखूबी समझता है और एक खांटी कारोबारी की तरह भारत की ग्रोथ से अपने फायदों को जोड़ता है. भारतवंशियों की यह प्रोफेशनल और कामयाब जमात प्रधानमंत्री मोदी की ब्रांड एंबेसडर इसलिए बन गई है क्योंकि उनके कारोबारी परिवेश में उनकी तरक्की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है. यही वजह है कि भारत को लेकर उम्मीदों की अनोखी ग्लोबल जुगलबंदी न केवल न्यूयॉर्क मैडिसन स्क्वेयर गार्डन और सिडनी के आलफोंस एरिना पर दिखती है बल्कि इसी फील गुड के चलते, शेयर बाजार बुलंदी पर है. इस बुलंदी में उन पेशेवर भारतीय फंड मैनेजरों की बड़ी भूमिका है जिनमें से एक मुझे हांगकांग में मिला था.
भारत के वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की एक गहरी पड़ताल उन मुट्ठी भर भारतीयों की ताकत बताती है जो मोदी की उम्मीदों के सहारे

Monday, September 29, 2014

प्रतिस्पर्धी कूटनीति का रोमांच



मोदी ने भारत की ठंडी कूटनीति को तेज रफ्तार फिल्मों के प्रतिस्पर्धी रोमांच से भर दिया है. यह बात दूसरी है कि उनके कूटनीतिक अभियान चमकदार शुरुआत के बाद यथार्थ के धरातल पर आ टिके हैं. लेकिन अब बारी कठिन अौर निर्णायक कूटनीति की है.


ताजा इतिहास में ऐसे उदाहरण मुश्किल हैं कि जब कोई राष्ट्र प्रमुख अपने पड़ोसी की मेजबानी में संबंधों का कथित नया युग गढ़ रहा हो और उसकी सेना उसी पड़ोसी की सीमा में घुसकर तंबू लगाने लगे. लेकिन यह भी कम अचरज भरा नहीं था कि एक प्रधानमंत्री ने अपनी पहली विदेश यात्रा में ही दो पारंपरिक शत्रुओं में एक की मेजबानी का आनंद लेते हुए दूसरे को उसकी सीमाएं (चीन के विस्तारवाद पर जापान में भारतीय प्रधानमंत्री का बयान) बता डालीं. हैरत तब और बढ़ी जब मोदी ने जापान से लौटते ही यूरेनियम आपूर्ति पर ऑस्ट्रेलिया से समझौता कर लिया. परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत न करने वाले किसी देश के साथ ऑस्ट्रेलिया का यह पहला समझौता, भारत की नाभिकीय ऊर्जा तैयारियों को लेकर जापान के अलग-थलग पडऩे का संदेश था. बात यहीं पूरी नहीं होती. चीन के राष्ट्रपति जब साबरमती के तट पर दोस्ती के हिंडोले में बैठे थे तब हनोई में, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी में भारत, दक्षिण चीन सागर में तेल खोज के लिए विएतनाम के साथ करार कर रहा रहा था और चीन का विदेश मंत्रालय इसके विरोध का बयान तैयार कर था.
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सौ दिनों में भारत की ठंडी कूटनीति को तेज रफ्तार फिल्मों के प्रतिस्पर्धी रोमांच से भर दिया है. अमेरिका उनके कूटनीतिक सफर का निर्णायक पड़ाव है. वाशिंगटन में यह तय नहीं होगा कि भारत में तत्काल कितना अमेरिकी निवेश आएगा बल्कि विश्व यह देखना चाहेगा कि भारतीय प्रधानमंत्री, अपनी कूटनीतिक तुर्शी के साथ भारत को विश्व फलक में किस धुरी के पास स्थापित करेंगे.
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Tuesday, September 23, 2014

सुरक्षित रहने का जोखिम


उपचुनाव नतीजों के बाद मोदी समझ गए होंगे कि बहुमत वाली सरकार के साथ अपेक्षाएं नाहक ही नहीं जोड़ी जाती हैं.
स बात की कोई गारंटी नहीं कि प्रचंड बहुमत वाली सरकार साहसी और क्रांतिकारी ही होगी. अप्रत्याशित रूप से बड़ी सफलताएं, कभी-कभी जोखिम लेने की कुव्वत को इस कदर घटा देती हैं कि ताकतवर सरकारें, अवसर और अपेक्षाओं के बावजूद, एक दकियानूसी निरंतरता की ओट में खुद को ज्यादा महफूज पाती हैं. मोदी सरकार के 100 दिनों पर मंत्रियों के बयानों से गुजरते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल नहीं कि नई सरकार के पहले 100 दिन, दरअसल पिछली सरकार की बड़ी स्कीमों को मोदी ब्रांड के सहारे नए सिरे से पेश करने की कोशिश में बीते हैं. विवादों का डर कहें या तजुर्बे की कमी लेकिन सरकार ने लीक तोडऩे और पुराने को बदलने का कोई प्रत्यक्ष जोखिम नहीं लिया. यही वजह थी कि ताजा उपचुनावों में बीजेपी विकास के वादों को प्रामाणिक बनाने वाले तथ्य पेश नहीं कर सकी और लव जेहाद जैसे मुद्दों पर वोटर रीझने को तैयार नहीं हुए.
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Monday, June 17, 2013

रुपये की ढलान


डॉलर के 65-70 रुपये तक जाने के आकलन सुनकर कलेजा मुंह को आ सकता है लेकिन ऐसा होना संभव है। हमें कमजोर रुपये की यंत्रणा के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए

देश को यह कड़वा कंटीला अब सच निगल लेना चाहिए कि रुपया जोखिम के खतरनाक भंवर में उतर गया है और विदेशी मुद्रा की सुरक्षा उन सैलानी डॉलरों की मोहताज है जो मौसम बदलते ही वित्‍तीय बाजारों से उड़ जाते हैं। यह सच भी अब स्‍थापित है कि भारत संवेदनशील जरुरतों के लिए आयात पर निर्भर है इसलिए डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी रोजमर्रा का दर्द बन गई है। वर्तमान परिदृश्‍य की बुनियाद 1991 जैसी है और लक्षण 1997 के पूर्वी एशियाई संकट जैसे, जब पूरब के मुल्‍कों की मुद्रायें ताबड़तोड़ टूटीं थीं। ताजी छौंक यह है कि अमेरिका व जापान की अर्थव्‍यवस्‍थायें जितनी तेजी से मंदी से उबरेंगी और बाजारों में पूंजी का प्रवाह सीमित करेंगी, भारत के वित्‍तीय बाजारों में डॉलरों की कमी बढ़ती जाएगी। इसलिए सिर्फ कमजोर रुपये से ही नहीं, विनिमय दर अस्थिरता से भी जूझना होगा।
रुपये की ताजा रिकार्ड गिरावट को तातकालिक कहने वाले हमारे सर में रेत घुसाना चाहते हैं। दरअसल देशी मुद्रा की जड़ खोखली हो गई और हवा खिलाफ है। मंदी व महंगे कर्ज का दुष्‍चक्र महंगाई की जिस धुरी पर टिका है, रुपये की कमजोरी उसे ऊर्जा दे रही है। रुपया पिछले वर्षों में बला की तेजी से ढहा है। सितंबर 2008 में ग्‍लोबल संकट शुरु होते वक्‍त डॉलर

Monday, April 8, 2013

अवसरों का अपहरण





लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सौ परिवारों के पास

मुख्‍यमंत्री ग्रोथ के मॉडल बेच रहे हैं और देश की ग्रोथ का गर्त में है! रोटी, शिक्षा से लेकर सूचना तक, अधिकार बांटने की झड़ी लगी है लेकिन लोग राजपथ घेर लेते हैं! नरेंद्र मोदी के दिलचस्‍प दंभ और राहुल गांधी की दयनीय दार्शनिकता के बीच खड़ा देश अब एक ऐतिहासिक असमंजस में है। दरअसल, भारतीय लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सैकडा परिवारों के पास। इस नायाब तंत्र के ताने बाने, सभी राजनीतिक दलों को आपस में जोडते हैं अर्थात इस हमाम के आइनों में, सबको सब कुछ दिखता है इसलिए राजनीतिक बहसें खोखली और प्रतीकात्‍मक होती जा रही हैं जबकि लोगों के क्षोभ ठोस होने लगे हैं।
यदि ग्रोथ की संख्‍यायें ही सफलता का मॉडल हैं तो गुजरात ही क्‍यों उडीसा, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़, त्रिपुरा, उत्‍तराखंड, सिक्किम भी कामयाब हैं अलबत्‍ता राज्‍यों के आर्थिक आंकड़ों पर हमेशा से शक रहा है। राष्‍ट्रीय ग्रोथ की समग्र तस्‍वीर का राज्‍यों के विपरीत होना आंकड़ों में  संदेह को पुख्‍ता करता है। दरअसल हर राज्‍य में उद्यमिता कुंठित है, निवेश सीमित है, तरक्‍की के अवसर घटे हैं, रोजगार नदारद है और लोग निराश हैं। ग्रोथ के आंकड़े अगर ठीक भी हों तो भी यह सच सामने नहीं आता कि भारत का आर्थिक लोकतंत्र लगभग विकलांग हो गया है। 
उदारीकरण से सबको समान अवसर मिलने थे लेकिन पिछले एक दशक की प्रगति चार-पांच सौ कंपनियों की ग्रोथ में

Monday, March 26, 2012

इन्‍क्‍लूसिव (ग्रोथ) बोझ

तीत कभी वापस नहीं लौटता। जिस ज्ञानी गुणी ने यह सिद्धांत दिया होगा उसे यह अंदाज नहीं होगा कि भारत की सरकारें ऐसा बजट बना सकती हैं जो अतीत को खीच कर वापस वर्तमान में खड़ा कर दें। भारी सब्सिडी, फिजूल की स्‍कीमें, बेसिर पैर के खर्च वाला पुराना समाजवादी नुस्‍खा। भारी टैक्‍स व मनमानी रियायतों का बोदा फार्मूला। वही भयानक घाटा, कर्जदार सरकार, बर्बाद होते बैंक। कुछ खास लोगों को सब कुछ देने वाला पुराना भ्रष्‍ट लाइसेंस राज। लगता है कि जैसे आर्थिक सुधारों से पहले वाला बंद, अंधेरा, सीलन भरा लिजलिजा सरकारी दौर जी उठा है। समावेशी विकास यानी इन्‍क्‍लूसिव ग्रोथ की कांग्रेसी सियासत ने हमें उलटी गाड़ी में चढ़ा दिया है। यूपीए की दो सरकारों के कथित समावेशी विकास की नीतियों ने पूरे बजटीय अनुशासन का श्राद्ध कर कर दिया और ग्रोथ लाने वाले खर्च का गला घोंट दिया। अद्भुत स्‍कीम प्रेम में आर्थिक सुधारों फाइलें बंद हो गई जबकि गांवों तक भ्रष्‍टाचार की दुकानें खुल गई। इन्‍क्‍लूसिव ग्रोथ की सूझ अब सबसे बड़ा बोझ बन गई है।
समावेशी संकट
बजट को आंकड़ा दर आंकड़ा खंगालते हुए कोई भी एक अजीब किस्‍म के डर से भर जाएगा। समावेशी विकास की अंधी सूझ हम पर बहुत भारी पड़ी। समस्‍याओं की शुरुआत आर्थिक नीतियों में उस करवट से हुई है जहां सरकार की नीतियों का फोकस बदला और समावेशी विकास के नाम पर सब कुछ मुफ्त बांटने की पुरानी सियासत शुरु हो गई। 2005-06 में बजट का कुल खर्च पांच लाख करोड़ रुपये था जो छह साल के भीतर करीब 15 लाख करोड़ (इस बजट में) हो गया। (छठे वेतन आयोग के अलावा) इतना अधिक खर्च किस पर बढ़ा ? पिछले आठ वर्षों में सरकार ने देश में कोई नई परियोजनाए नहीं लगाईं। सरकार के खर्च से कोई बडा बुनियादी ढांचा नहीं बना। यह बढ़ा हुआ खर्च दरअसल उस नए राजनीतिक अर्थशास्‍त्र

Monday, March 19, 2012

बजट नहीं संकट

रकारें दुर्भाग्‍य भी ला सकतीं  हैं। सियासत अभिशाप भी बन सकती है और बजट संकटों की शुरुआत भी कर सकते हैं। अब से छह माह बाद जब देश में महंगाई की दर दहाई को छू रही होगी, ग्रोथ यानी आर्थिक विकास की दर अपनी एडि़यां रगड रही होगी और बजट का संतुलन बिखर चुका होगा तब हमें यह समझ में आएगा बजट कितने बदकिस्‍मत होते हैं। उम्‍मीदें टूटने का गम भूल कर बस यह देखिये कि सरकार कितनी जल्‍दी इस बजट के बुरे असर कम करने के लिए मोर्चे पर लगती है। यह हाल के वर्षों का पहला बजट होगा, जिससे मुसीबतों के समाधान की नहीं बलिक समस्‍याओं के नए दौर की शुरुआत होती दिख रही है। लड़खड़ाती अर्थव्‍यवस्‍था, थके उपभोक्‍ता और ह‍ताश निवेशक बजट से बेहद तर्कसंगत सुधार (रियायतें नहीं) चाहते थे तब प्रणव के बजट ने उपभोक्‍ताओं की कमर और ग्रोथ की टांगे तोड़ दी हैं। सियासत और सरकार दोनों ने मिलकर अब अर्थव्‍यव्‍स्‍था को अंधी गली में धके‍ल दिया है,  जहां से बाहर आने में कम से कम तीन वर्ष लगेंगे।
भयानक मार
आप जिंदा मक्‍खी निगल सकते हैं मगर जिंदा मेढक नहीं। 45000 करोड़ रुपये के नए अप्रत्‍यक्ष करों (पिछले एक दशक में सर्वाधिक) के बाद महंगाई नहीं तो और क्‍या बढेगा। टैक्‍स बुरे नहीं हैं क्‍यों कि इनसे देश चलता है मगर जब ग्रोथ डूब रही तो सर पर टैक्‍स का बोझ रख देना पता नहीं कहां की समझदारी है। समझना मुश्किल है कि वितत मंत्री इस कदर टैक्‍स बढाकर आखिर हासिल क्‍या

Monday, February 13, 2012

चूके तो, चुक जाएंगे

स्‍तूर तो यही है कि बजट को नीतियों से सुसज्जित, दूरदर्शी और साहसी होना चाहिए। दस्‍तूर यह भी है कि जब अर्थव्‍यवस्‍था लड़खड़ाये तो बजट को सुधारों की खुराक के जरिये ताकत देनी चाहिए और दस्‍तूर यह भी कहता है कि पूरी दुनिया में सरकारें अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मंदी और यूरोप की मुसीबत से बचाने हर संभव कदम उठाने लगी हैं, तो हमें भी अंगड़ाई लेनी चाहिए। मगर इस सरकार ने तो पिछले तीन साल फजीहत और अफरा तफरी में बिता दिये और देखिये वह रहे बड़े (लोक सभा 2014) चुनाव। 2012 के बजट को सालाना आम फहम बजट मत समझिये, यह बड़े और आखिरी मौके का बहुत बडा बजट है क्‍यों कि अगला बजट (2013) चुनावी भाषण बन कर आएगा और 2014 का बजट नई सरकार बनायेगी। मंदी के अंधेरे, दुनियावी संकटों की आंधी और देश के भीतर अगले तीन साल तक चलने वाली चुनावी राजनीति बीच यह अर्थव्‍यव‍स्‍था के लिए आर या पार का बजट है यानी कि ग्रोथ,साख और उम्‍मीदों को उबारने का अंतिम अवसर। इस बार चूके तो दो साल के लिए चुक जाएंगे।
उम्‍मीदों की उम्‍मीद
चलिये पहले कुछ उम्‍मीदें तलाशते हैं, जिन्‍हें अगर बजट का सहारा मिल जाए तो शायद सूरत कुछ बदल जाएगी। पिछले चार साल से मार रही महंगाई, अपने नाखून सिकोड़ने लगी है। यह छोटी बात नहीं है, इस महंगाई ने मांग चबा डाली, उपभोक्‍ताओं को बेदम कर दिया और रिजर्व बैंक ने ब्‍याज दरें बढ़ाईं की ग्रोथ घिसटने लगी। दिसंबर के अंत में थोक कीमतों वाली मुद्रास्‍फीति बमुश्मिल तमाम 7.40 फीसदी पर आई है। महंगाई में यह गिरावट एक निरंतरता दिखाती है, जो खाद्य उत्‍पाद सस्‍ते होने के कारण आई जो और भी सकारात्‍मक है। महंगाई घटने की उम्‍मीद के सहारे रिजर्व बैंक ने ब्‍याज दरों की कमान भी खींची है। उम्‍मीद की एक किरण विदेशी मुद्रा बाजार से भी निकली है। 2011 की बदहाली के विपरीत सभी उभरते बाजारों में मुद्रायें झूमकर उठ खडी हुई हैं। रुपया, पिछले साल की सबसे बुरी कहानी थी मगर जनवरी में डॉलर के मुकाबले रुपया चौंकाने वाली गति से मजबूत हुआ है। यूरोप को छोड़ बाकी दुनिया की अर्थव्‍यव्‍स्‍थाओं ने मंदी से जूझने में जो साहस‍ दिखाया, उसे खुश होकर निवेशक भारतीय शेयर बाजारों की तरफ लौट पडे। जनवरी में विदेशी निवेशकों ने करीब 5 अरब डॉलर भारतीय बाजार में डाले जो 16 माह का सर्वोच्‍च स्‍तर है। जनवरी में निर्यात की संतोषजनक तस्‍वीर ने चालू खाते के घाटे और रुपये मोर्चे पर उम्‍मीदों को मजबूत किया है। उम्‍मीद की एक खबर खेती से भी