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Monday, June 19, 2017

चुनाव से चुनाव तक


राजनीति का चुनावी त‍दर्थवाद किसानों पर भारी पड़ रहा है जो उत्‍पादक तंत्र के आखिरी छोर पर खड़े हैं 

न्‍य लोगों का तो पता नहीं लेकिन किसानों के लिए केंद्र की सरकार कई चेहरों वाले निजाम में बदल चुकी है. एक चेहरा चुनाव से पहले मुनाफे वाले समर्थन मूल्‍य के वादे में दिखा था लेकिन भूमि अधिग्रहण के साथ दूसरा चेहरा सामने आ गयाकिसानों के नाम पर टैक्‍स तीसरा चेहरा था तो कर्ज माफी का वादा अलग ही सूरत की नुमाइश थी.

सरकार का यह चेहरा बदल उस चुनावी कौतुक का हिस्सा है जो गवर्नेंस की सबसे बड़ी चुनौती बन रहा है. पिछले तीन साल के बड़े और हिंसक आंदोलनों (पाटीदारमराठाजाटकिसान) को गौर से देखिएसभी चुनाव वादों और उनसे मुकर जाने के खिलाफ खड़े हुए हैं.

सरकारें इस कदर दीवानगी के साथ सब कुछ दांव पर लगाकर चुनाव लड़ती पहले नहीं देखी गई थीं. मध्य प्रदेश में फसल का मूल्य मांग रहे किसानों को जब पुलिस की गोलियां मिल रहीं थीं उस वक्त भाजपा छत्तीसगढ़ व तेलंगाना में चुनावी वादों की जुगत में लगी थी. ठीक इसी तरह बीते बरस जब लाखों मराठा किसान महाराष्ट्र की सड़कों पर थे तब उस समय भाजपा उत्तर प्रदेश में चुनावों के लिए कर्ज माफी के वादे की तैयारी कर रही थी.

अपनी बुनियादी जटिल और मौसमी समस्याओं के बावजूद तात्कालिक तौर पर खेती ने ऐसा बुरा प्रदर्शन नहीं किया जिसके कारण किसानों को सड़क पर गोली खानी पड़े. यह कृषि नीतियों में चुनावी छौंक का ही नतीजा है कि तीन साल में कृषि के नीतिगत अंतरविरोध बदहवास किसानों को सड़क पर ले आए हैं.

भाजपा से किसी ने यह नहीं कहा था कि वह चुनाव प्रचार के दौरान फसलों के समर्थन मूल्य पर 50 फीसदी मुनाफे का वादा करे. इतने बड़े नीतिगत बदलाव का दम भरने से पहलेभाजपा के भीतर सब्सिडीफसल पैटर्नउपज के उतार-चढ़ाव का कोई अध्ययन हरगिज नहीं हुआ था.

सत्ता में आने के बाद सरकार को समर्थन मूल्य  कम करने की नीति ज्यादा बेहतर महसूस हुई. अगस्त 2014 में संसद को बताया गया कि राज्य अब समर्थन मूल्य पर मनमाना बोनस नहीं दे सकेंगे क्योंकि सरकार कृषि का विविधीकरण करना चाहती है और समर्थन मूल्यों की प्रणाली जिसमें सबसे बड़ी बाधा है.

अलबत्ता मौसम की मार से जब फसल बिगड़ी और भूमि अधिग्रहण पर किसान गुस्साए तो समर्थन मूल्य सुधारों को किनारे टिकाकर सरकार पुराने तरीके पर लौट आई.

भारतीय खेती में कमजोर और भरपूर उपज का चक्र नया नहीं है. पिछले साल दालों का आयात हो चुका था इस बीच समर्थन मूल्य बढऩे से उत्साहित किसानों ने पैदावार में भी कोई कमी नहीं छोड़ी. नतीजतन दलहन की कीमतें बुरी तरह टूट गईं. लागत से कम बाजार मूल्य और नकदी के संकट के बीच समर्थन मूल्य पर 50 फीसदी मुनाफे का वादा याद आना लाजिमी है.

समर्थन मूल्य पर पहलू बदलती सरकार चुनावों की गरज में कर्ज के घाट पर बुरी तरह फिसल गई. किसान की कर्ज माफी के नुक्सानों पर नसीहतों का अंबार लगा है लेकिन उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान भाजपा नेता इस कदर मुतमइन थे कि मानो उनके हाथ कर्ज माफी का कोई ऐसा गोपनीय फॉर्मूला लग गया हो जो सरकारों के बजट व बैंकों को इस बला से महफूज रखेगा. हकीकत ने पलटवार में देरी नहीं की. बेसिर-पैर के चुनावी वादे के कारण कर्ज माफी को लेकर बड़ा दुष्चक्र शुरू हो रहा हैजिसमें राज्य सरकारें एक-एक कर फंसती जाएंगी.

क्या आपको मंडी कानून खत्म करने की कोशिशें याद हैं जो मोदी सरकार आने के साथ ही शुरू हुई थीं. देश में निर्बाध कृषि बाजार बनाने की पहल सराहनीय थी लेकिन प्रधानमंत्री अपनी ही सरकारों को इस सुधार के फायदे नहीं समझा सके इसलिए कृषि के बाजार में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ.

याद रखना भी जरूरी है कि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन की जो सिफारिश की थी उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद पता नहीं कहां गुम हो गई.

चिरंतन चुनावी अभियानों के बीच किसान सरकार के कई चेहरे देखकर बेचैन हैं जबकि टैक्स चुकाने वाले यह समझ नहीं पा रहे हैं कि खेती के हितों के लिए उनसे वसूला जा रहा टैक्स (कृषि कल्याण सेस - 2016-17 और 2017-18 में करीब 19000 करोड़ रुपये का संग्रह का अनुमान) आखिर किस देश के किसानों के काम आ रहा है.

अतीत से ज्यादा डराता है भविष्य‍ क्योंकि चुनावों की कतार अंतहीन है और हम चुनाव से चुनाव तक चलने वाली गवर्नेंस में धकेल दिए गए हैं. चुनाव जीतने के लिए होते हैं लेकिन हमें यह तय करना होगा इस जीत को पाने की अधिकतम कीमत क्या होगी?
चुनाव गवर्नेंस का साधन हैं साध्य नहीं. अगर सब कुछ चुनावों को देखकर होने लगा तो नीतियों की साख और सरकार चुनने का क्या मतलब बचेगा?

याद रखना जरूरी हैः

राजनेता अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं और राष्ट्र नेता अगली पीढ़ी के बारे में: जेम्स फ्रीमैन

Tuesday, May 5, 2015

सबसे बड़े सुधार का मौका


मोदी सरकार के लिए यह अवसर कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े निर्णायक सुधार शुरू करने का है. यह सुधार केवल लंबित और अनिवार्य हैं बल्कि बीजेपी के राजनैतिक भविष्य का बड़ा दारोमदार भी इन्हीं पर है.

नरेंद्र मोदी सरकार अपनी पहली सालगिरह के जश्न को कैसे यादगार बना सकती है? किसानों की खुदकुशी, गिरते शेयर बाजार, टैक्स नोटिसों से डरे उद्योग और हमलावर विपक्ष को देखते हुए यह सवाल अटपटा है लेकिन दरअसल मोदी जहां फंस गए हैं, उबरने के मौके ठीक वहीं मौजूद हैं. यह अवसर कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े और निर्णायक सुधार शुरू करने का है. जो न केवल आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही लंबित और अनिवार्य हैं बल्कि बीजेपी के राजनैतिक भविष्य का भी बड़ा दारोमदार इन्हीं पर है.
 सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार गांव व खेती की हकीकत से तालमेल नहीं बैठा सकी. पिछली खरीफ में आधा दर्जन राज्यों में सूखा पड़ा था. फरवरी में कृषि मंत्रालय ने मान लिया कि सूखी खरीफ और रबी की बुवाई में कमी से अनाज उत्पादन तीन साल के सबसे निचले स्तर पर रह सकता है. किसान आत्महत्या का आंकड़ा तो पिछले नवंबर में 1,400 पर पहुंच गया था. लेकिन दो बजटों में भी खेती को लेकर गंभीरता नहीं दिखी. इस साल मार्च में प्रधानमंत्री जब 'मन की बात' बताकर खेतिहरों को भूमि अधिग्रहण पर मना रहे थे तब तक तो दरअसल किसानों के जहर खाने का दूसरा दौर शुरू हो गया था. अगर त्वरित गरीबी नापने का कोई तरीका हो तो यह जानना मुश्किल नहीं है कि मौसमी कहर से 189 लाख हेक्टयर इलाके में रबी फसल की बर्बादी के बाद देश की एक बड़ी आबादी अचानक गरीबी की रेखा से नीचे चली गई है. इस मौके पर सरकार की बहुप्रचारित जनधन, आदर्श ग्राम या डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीमों ने कोई मदद नहीं की क्योंकि ये योजनाएं ग्रामीण अर्थव्यावस्था की हकीकत से वास्ता ही नहीं रखती थीं. ताजा कृषि संकट 2009 से ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि लगातार दो फसलें बिगड़ चुकी हैं और तीसरी फसल पर खराब मॉनसून का खौफ मंडरा रहा है. गांवों में मनरेगा के तहत रोजगार सृजन न्यूनतम स्तर पर आ गया है और शहर में रोजगारों की आपूर्ति पूरी तरह ठप है. इसलिए सिर्फ खेती नहीं बल्कि पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उबारने की चुनौती है जो दरअसल एक अवसर भी है.  भारतीय खेती उपेक्षा व असंगति और सफलता व संभावनाओं की अनोखी कहानी है. यदि पिछली खरीफ को छोड़ दें तो 2009 के बाद से अनाज उत्पादन और कृषि निर्यात लगतार बढ़ा है और ग्रामीण इलाकों की मांग ने मंदी के दौर में ऑटोमोबाइल व उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों को लंबा सहारा दिया है. अलबत्ता कृषि की कुछ बुनियादी समस्याएं हैं जो मौसम की एक बेरुखी में बुरी तरह उभर आती हैं और कृषि को अचानक दीन-हीन बना देती हैं. एक के बाद एक आई सरकारों ने खेती को कभी नीतियों का एक सुगठित आधार नहीं दिया. जिससे यह व्यवसाय हमेशा संकट प्रबंधन के दायरे में रहा.

कृषि की बुनियादी समस्याओं को सुधारने के सफल प्रयोग भी हमारे इर्दगिर्द फैले हैं और नीतिगत प्रयासों की कमी नहीं है. मसलन, जोत का छोटा आकार खेती की स्थायी चुनौती है जो इस व्यवसाय को लाभ में नगण्य और जोखिम में बड़ा बनाती है. फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियों में इसका समाधान दिखा है जिन्हें छोटे-छोटे किसान मिलकर बनाते हैं और सामूहिक उत्पादन करते हैं. सरकार ने पिछले साल लोकसभा में बताया था कि भारत में करीब 235 फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां पंजीकृत हो चुकी हैं और 370 कतार में हैं. करीब 4.33 लाख किसान इसका हिस्सा होंगे. ठीक इसी तरह बिहार और मध्य प्रदेश में अनाज व तिलहन की रिकॉर्ड उपज, उत्तर प्रदेश में दूध की नई क्रांति, देश के कई हिस्सों में फल-सब्जी उत्पादन के नए कीर्तिमान, गुजरात में लघु सिंचाई क्षेत्रीय सफलताएं हैं, जिन्हें राष्ट्रीय बनाया जा सकता है. उर्वरक सब्सिडी में सुधारों का प्रारूप तैयार है. सिंचाई परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. नए शोध जारी हैं मगर सक्रिय किए जाने हैं. नीतियां मौजूद हैं. बुनियादी ढांचा उपलब्ध है. इन्हें एक जगह समेटकर बड़े सुधारों में बदला जा सकता है. मोदी सरकार को ग्रामीण आर्थिक सुधारों की बड़ी पहल करनी चाहिए, जिस पर उसे समर्थन मिलेगा, क्योंकि फसलों की ताजा बर्बादी के बाद राज्य भी संवेदनशील हो चले हैं. कई राज्यों को एहसास है कि उनकी प्रगति का रास्ता खेतों से ही निकलेगा क्योंकि उनके पास उद्योग आसानी से नहीं आएंगे. मोदी सरकार नीति आयोग या मेक इन इंडिया की तर्ज पर सुधारों का समयबद्ध अभियान तैयार कर सकती है जो खेती और गांव के लिए अलग-अलग नीतियां बनाने की गलती नहीं करेगा बल्कि पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए समग्र सुधारों की राह खोलेगा. यकीनन, 125 करोड़ लोगों का पेट भरना कहीं से नुक्सान का धंधा नहीं है और करीब 83 करोड़ लोग यानी देश की 70 फीसद आबादी की क्रय शक्ति कोई छोटा बाजार नहीं है. मोदी के लिए सरकार में आने के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था की फिक्र करना संवेदनशीलता या दूरदर्शिता का तकाजा ही नहीं था बल्कि उन्हें गांवों की फिक्र इसलिए भी करनी चाहिए, क्योंकि उनकी पार्टी को पहली बार गांवों में भरपूर वोट मिले हैं, और सत्तर फीसद बीजेपी सांसद ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं और उनकी अगली राजनैतिक सफलताएं उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे ग्रामीण बहुल राज्यों पर निर्भर होंगी.
राहुल गांधी पर आप हंस सकते हैं लेकिन भूमि अधिग्रहण पर वे लोकसभा में मोदी को जो राजनैतिक नसीहत दे रहे थे, उसमें दम था. भारत में कृषि संकट और सियासत के गहरे रिश्ते हैं. 2002 भारत में सबसे बड़े सूखे का वर्ष था. वाजपेयी सरकार इस संकट से खुद को जोड़ नहीं पाई और 2004 के चुनाव में खेत रही. 2005 में मनरेगा का जन्म दरअसल 2002 के सूखे की नसीहत से हुआ था और जो भारत के ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में एक बड़ा बदलाव था और बिखरने व घोटालों में बदलने से पहले न केवल प्रशंसित हुआ था बल्कि कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाया.
मोदी सरकार चाहे तो इस कृषि संकट के बाद सब्सिडी बढ़ाने और कर्ज माफी जैसे पुराने तरीकों के खोल में घुस सकती है, या फिर बड़े सुधारों की राह पकड़ कर खेती को चिरंतन आपदा प्रबंधन की श्रेणी से निकाल सकती है. मोदी सरकार ने पिछले एक साल में कई बड़े मौके गंवाए हैं. अलबत्ता यह मौका गंवाना शायद राजनैतिक तौर पर सबसे ज्यादा महंगा पड़ेगा.