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Sunday, February 17, 2019

पारदर्शिता का वसंत



दुनिया अपनी लोकतांत्रिक आजादियों के लिए किस पर ज्यादा भरोसा कर सकती है?  

राजनीति पर या बाजार पर?

वक्त बदल रहा है. सियासत और सरकारें शायद अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं जबकि मुनाफे पर टिके होने के बावजूद, मुक्त बाजार अपनी साख की गरज से आजादियों व पारदर्शिता का नया सिपहसालार है.

दो ताजा घटनाक्रमों को देखने पर लगता है कि बाजार ने सियासत को ललकार दिया है. आने वाले चुनाव में झूठ की गर्मी कम होगी.

एकदंभ से भरी सियासत ने बीते सप्ताह भारतीय लोकतंत्र के शिखर यानी संसद की किरकिरी कराई. एक नामालूम से संगठन के उलाहने पर संसद की एक समिति ने ट्विटर के प्रबंधन को तलब कर लिया. शिकायत यह थी कि ट्विटर सरकार समर्थक दक्षिणपंथी संदेशों के साथ भेदभाव करता है. समिति को पता नहीं था कि वह अमेरिकी सोशल नेटवर्क के प्रबंधन को हाजिरी का आदेश नहीं दे सकती. ट्विटर ने मना कर दिया. आदेश की पालकी लौट गई.

दुनिया में बहुतों को महसूस हुआ कि सरकारें सब जगह एक जैसी हैं. स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जद्दोजहद राजनैतिक भूगोल की सीमाओं से परे हो चली है.

दोदेश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने अपने कार्यकर्ताओं को घर-घर झंडा स्टिकर लगाने के लिए उतार दिया है. मन की गति से चलने वाली संदेश तकनीकों के दौर में कस्बों और शहरों के चिचियाते ट्रैफिक के लिए यह अभियान क्यों? 

संसद को ट्विटर का इनकार और भाजपा का पुराने तरीके का प्रचार बेसबब नहीं है. तकनीक से लैस दुनिया में राजनैतिक संवादों के लिए मुश्किल दौर की शुरुआत हो रही है. यह बात दीगर है कि सियासत के लिए बुरी खबरें स्वाधीनताओं के लिए अच्छी होती हैं.

तकनीक की ताकत, आर्थिक आजादी और ग्लोबल आवाजाही के बीच सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हैं, जो दोतरफा संवाद की आजादी देते हैं और संदेशों की पावती को प्रमाणित भी करते हैं. लेकिन सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. इसलिए...

1. भारत, नाइजीरिया, यूक्रेन और यूरोपीय समुदाय के लिए फेसबुक ने राजनैतिक विज्ञापनों के नए नियम बना दिए हैं. विदेश की जमीन से विज्ञापन नहीं किए जाएंगे. विज्ञापन के साथ इसके भुगतान का ब्योरा होगा. इनके साथ एक आर्काइव होगा जिसके जरिए लोग राजनैतिक विज्ञापनों के बारे में ज्यादा जानकारी पा सकेंगे. फेसबुक बताएगा कि राजनैतिक विज्ञापनों के पेज किस जगह से संचालित हो रहे हैं. भारत में 30 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं. नए नियम 21 फरवरी से लागू होंगे.

2. व्हाट्सऐप थोक में मैसेज फॉरवर्ड करने की प्रक्रिया बंद कर चुका है. उसने भारतीय राजनैतिक दलों को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने नियम तोड़े तो उनके एकाउंट बंद हो जाएंगे. कंपनी ने 120 करोड़ रु. खर्च कर झूठ का प्रसार रोकने का अभियान चलाया है.

3. ट्विटर अपने शेयर की कीमत में गिरावट का जोखिम उठाकर भी फर्जी एकाउंट बंद कर रहा है. उसने राजनैतिक विज्ञापनों के लिए एक डैशबोर्ड बनाया है जिससे पता चलेगा कि कौन इन पर कितना पैसा खर्च कर रहा है.

4. गूगल भी फेसबुक और ट्विटर जैसे नियमों को लागू करने के अलावा विज्ञापनदाता से चुनाव आयोग का प्रमाणपत्र भी मांगेगा और एक पारदर्शिता रिपोर्ट भी जारी करेगा.

गफलत में रहने की जरूरत नहीं. गूगल, फेसबुक, ट्विटर आदि मुनाफे के लिए काम करते हैं. राजनैतिक विज्ञापनों पर सख्ती से विज्ञापन की मद में कमी से उन्हें भारी कारोबारी नुक्सान होगा. फिर भी सख्ती?

क्योंकि अभिव्यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है. खतरे की शुरुआत किस्म-किस्म के झूठ से हुई थी जो इनके कंधों पर बैठ कर दिग-दिगंत में फैल रहा था. झूठ से लड़ाई करते हुए इन्हें पता चला कि इसकी सप्लाई चेन तो पूरी दुनिया में सियासत के पास है. ये बाजार अगर कुटिल सियासत और झूठ से बोलने की आजादी को नहीं बचा सके तो इनका धंधा तो बंद हुआ समझिए.

एक झटके में ही नेता सड़क पर आ गए हैं. जनसंचार की जगह जनसंपर्क की वापसी हो रही है. क्या चुनाव आयोग भी सोशल नेटवर्कों की पारदर्शिता से कुछ सीखना चाहेगा?

तकनीक मूलत: मूल्य निरपेक्ष है. इस्तेमाल से यह अच्छी या बुरी बनती है. रसायन-परमाणु के बाद सोशल नेटवर्किंग ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार अपने इस्तेमाल के नियम तय कर रहा है ताकि कोई सिरफिरा नेता लोकतंत्रों को गैसीय कत्लखाने में न बदल दे. 

स्वागत कीजिए, पारदर्शिता के इस सोशल वसंत का!

Monday, July 23, 2018

झूठ के बुरे दिन



ट्विटर रोज दस लाख फर्जी अकाउंट खत्‍म कर रहा है और कंपनी का शेयर गिर रहा है.

व्‍हाट्सऐप अब हर मैसेज पर प्रचार और विचार का फर्क (फॉरवर्ड फंक्‍शन) बताता है और इस्तेमाल में कमी का नुक्सान उठाने को तैयार है.

रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से फेसबुक रूस से भारत तक विवादित और झूठ से सराबोर सामग्री खत्‍म करने में लगी है. इससे कंपनी की कमाई में कमी होगी.

यह सब मुनाफों को दांव पर लगा रहे हैं ताकि झूठे होने का कलंक न लगे.

क्‍यों?

जवाब नीत्शे के पास है जो कहते थे''मैं इससे परेशान नहीं हूं कि तुमने मुझसे झूठ बोला. मेरी दिक्‍कत यह है कि अब मैं तुम पर भरोसा नहीं कर सकता.''

नीत्‍शे का कथन बाजार पर सौ फीसदी लागू होता है और सियासत पर एक फीसदी भी नहीं.

नीत्‍शे से लेकर आज तक सच-झूठ काजो निजी और सामूहिक मनोविज्ञान विकसित हुआ है उसके तहत झूठ ही सियासत की पहचान हैं. लेकिन झूठे बाजार पर कोई भरोसा नहीं करता. बाजार को तपे हुए खरे विश्‍वास पर चलना होता है.

फेसबुकव्‍हाट्सऐपट्विटर यानी सोशल नेटवर्कों की बधाई बजने से पहले पूरी दुनिया में लोग इस हकीकत से वाकिफ थे कि सियासत महाठगिनी है. वह विचारप्रचारव्‍यवहारभावना में लपेट कर झूठ ही भेजेगी लेकिन बाजार को हमेशा यह पता रहना चाहिए कि झूठ का कारोबार नहीं हो सकता है. लोगों को बार-बार ठगना नामुमकिन है.

कंपनियां अपने उत्‍पाद वापस लेती हैंमाफी मांगती हैंमुकदमे झेलती हैंसजा भोगती हैंयहां तक कि बाजार से भगा दी जाती हैं क्‍योंकि लोग झूठ में निवेश नहीं करते. उधरसियासत हमेशा ही बड़े और खतरनाक झूठ बोलती रही हैजिन्‍हें अनिवार्य बुराइयों की तरह बर्दाश्‍त किया जाता है.

झूठ हमेशा से था लेकिन अचानक तकनीक कंपनियां राशन-पानी लेकर झूठ से लडऩे क्‍यों निकल पड़ी हैंइसलिए क्‍योंकि राजनीति का चिरंतन झूठ एक नए बाजार पर विश्‍वास के लिए खतरा है.

सोशल नेटवर्क लोकतंत्र की सर्वश्रेष्‍ठ अभिव्‍यक्ति हैं. तकनीक की ताकत से लैस यह लोकशाही नब्‍बे के दशक में आर्थिक आजादी और ग्‍लोबल आवाजाही के साथ उभरी. दोतरफा संवाद बोलने की आजादी का चरम पर है जो इन नेटवर्कों के जरिए हासिल हो गई.

बेधड़क सवाल-जवाबइनकार-इकरारसमूह में सोचने की स्‍वाधीनताऔर सबसे जुडऩे का रास्‍ता यानी कि अभिव्‍यक्ति का बिंदास लोकतंत्र! यही तो है फेसबुकट्विटरव्‍हाट्सऐप का बिजनेस मॉडल. इसी के जरिए सोशल नेटवर्क और मैसेजिंग ऐप अरबों का कारोबार करने लगे.

सियासत के झूठ की घुसपैठ ने इस कारोबार पर विश्‍वास को हिला दिया है. अगर यह नेटवर्ककुटिल नेताओं से लोगों की आजादी नहीं बचा सके तो इनके पास आएगा कौन?

झूठ से लड़ाई में सोशल नेटवर्क को शुरुआती तौर पर कारोबारी नुक्सान होगा. इन्हें न केवल तकनीकअल्‍गोरिद्म (कंप्‍यूटर का दिमाग) बदलनेझूठ तलाशने वाले रोबोट बनाने में भारी निवेश करना पड़ रहा है बल्कि विज्ञापन आकर्षित करने के तरीके भी बदलने होंगे. सोशल नेटवर्कों पर विज्ञापनप्रयोगकर्ताओं की रुचिव्‍यवहारराजनैतिक झुकावआदतों पर आधारित होते हैं. इससे झूठ के प्रसार को ताकत मिलती है. इसमें बदलाव से कंपनियों की कमाई घटेगी.

फिर भीकोई अचरज नहीं कि खुद पर विश्‍वास को बनाए रखने के लिए सोशल नेटवर्क राजनैतिक विज्ञापनों को सीमित या बंद कर दें. अथवा राजनैतिक विचारों के लिए नेटवर्क के इस्‍तेमाल पर पाबंदी लगा दी जाए

सियासत जिसे छू लेती है वह दागी हो जाता है. अभिव्‍यक्ति के इस नवोदित बाजार की साख पर बन आई है इसलिए यह अपनी पूरी शक्ति के सा‍थ अपने राजनैतिक इस्‍तेमाल के खिलाफ खड़ा हो रहा है.

तकनीक बुनियादी रूप से मूल्‍य निरपेक्ष (वैल्‍यू न्‍यूट्रल) है. लेकिन रसायन और परमाणु तकनीकों के इस्‍तेमाल के नियम तय किए गए ताकि कोई सिरफिरा नेता इन्‍हें लोगों पर इस्‍तेमाल न कर ले. सोशल नेटवर्किंग अगली ऐसी तकनीक होगी जिसका बाजार खुद इसके इस्‍तेमाल के नियम तय करेगा.

बाजार सियासत के झूठ को चुनौती देने वाला है!

राजनीति के लिए यह बुरी खबर है.

सियासत के लिए बुरी खबरें ही आजादी के लिए अच्‍छी होती हैं.



Sunday, April 1, 2018

सबसे ज़हरीली जोड़ी


फ्रिट्ज (नोबेल 1918) केमिस्ट्री का दीवाना था. वह यहूदी से ईसाई बन गया और शोध से बड़ी ख्याति अर्जित की. बीएएसएफ तब जर्मनी की सबसे बड़ी केमिकल (आज दुनिया की सबसे बड़ी) कंपनी थी. उसे नाइट्रोजन का मॉलीक्यूल तोडऩे वाली तकनीक की तलाश थी ताकि अमोनिया उर्वरक बनाकर खेती की उपज बढ़ाई जा सके. हेबर ने 1909 में फॉर्मूला खोज लिया. उसने कार्ल बॉश के साथ मिलकर अमोनिया फर्नेस तैयार की और मशहूर हेबर-बॉश पद्धति पर आधारित पहला उर्वरक संयंत्र ओप्पूक में 1913 से शुरू हो गया.

अगले ही साल बड़ी लड़ाई छिड़ गई. जर्मनी के पास गोला-बारूद की कमी थी. टीएनटी विस्फोटक बनाने के लिए नाइट्रेट का आयात मुश्किल था. सरकार के निर्देश पर हेबर-बॉश की फैक्ट्रियां खाद की जगह बम बनाने लगीं. यप्रेस की दूसरी लड़ाई (1915) में फ्रेंच और सहयोगी सेना पर नाइट्रोजन बम का इस्तेमाल हुआ. हेबरजिसकी बदौलत जर्मनी चार साल तक जंग में टिक सका थावह नाजियों के नस्लवादी कानून का शिकार होकर (1934) ट्रिबलेस्की मे तंगहाली में मरा.

हेबर-बॉश पद्धति से बने उर्वरकों के कारण ही उपज बढ़ीजिससे आज दुनिया की तीन अरब आबादी का पेट भर रहा है.

फेसबुक की डेटा चोरी में हेबर के आविष्कार का अक्स नजर आ सकता है. अभिव्यक्ति और संवाद के नए जनतंत्र पर धूर्त सियासत के पंजे गडऩे लगे हैं. हमने राजनीति का अपराधी और कारोबारियों से रिश्ता देखा था लेकिन हमारी निजी जानकारियों से लैस कंपनियों और कुटिल नेताओं का गठजोड़ सर्वाधिक विस्फोटक हैजो हमारी सोच व तर्क को मारकर लोकतांत्रिक फैसलों पर नियंत्रण कर सकता है.

हर दुश्‍मन पहले से ज्‍यादा ताकतवर होता है. यह जोड़ी हमारी नई आजादी की नई दुश्‍मन है. वेब की दुनिया में हम निचाट नंगे हैं इसलिए इनकी कुटिलताओं में अनंत खतरे पैबस्‍त हैं. 

इतिहास हमें सिखाता है कि प्रत्येक बदलाव के पीछे पूर्व निर्धारित उद्देश्य नहीं होता. हम 'जो होगा अच्छा ही होगा' के शिकार हैं. संदेह और सवाल करना छोड़ देते हैं. अनुयायी हो जाते हैं. क्या हमने कभी सोचा कि

सेवा मुफ्त तो ग्राहक बिकता हैः 2016 में जब फेसबुक भारतीय टेलीकॉम कंपनियों के साथ मुफ्त इंटरनेट सुविधा देने की कोशिश कर रहा था तो विरोध हुआ लेकिन जब रेलवे ने गूगल के साथ मुफ्त वाइ-फाइ दिया तोसेवाओं का कारोबारउत्पादों से फर्क है. कंपनियां मुफ्त सुविधाएं देकर हमारी आदतें किसी होटल या कार वाले को बेच आती हैं. राजनीति व सूचना कंपनियों को पता है कि हमारी खपत और हमारा वोटदोनों को मनमाफिक मोड़ा जा सकता है. दोनों मिलकर हमें मुफ्तखोरी की अफीम चटाते हैं. 

हमें जानना होगा कि मुफ्तखोरी का कारोबार कल्याणकारी हरगिज नहीं है.

बहुत बड़ा होने के खतरेः प्रतिस्प‍र्धा की दीवानी दुनिया को अचरज क्यों नहीं हुआ कि उसके पास दर्जनों कारफूडविमान कंपनियां हैं लेकिन अमेजनगूगल या फेसबुक इकलौते क्यों हैं. शेयर बाजार में गूगल फेसबुकएपल का संयुक्त मूल्य (कैपिटलाइजेशन) फ्रांसजर्मनीकनाडा के पूरे शेयर बाजार से ज्यादा है. हमने इन्हें इतना बड़ा कैसे होने दियाभारत में भी कई सेवाओं में कुछ कंपनियों का ही राज है.  

हमें प्रतिस्पर्धा के लिए लडऩा होगा ताकि कोई इतना बड़ा न हो सके कि हमारी आजादी ही छोटी पड़ जाए.

महानता और ताकतः राजनीति में हम महानता और ताकत के बीच अंतर करना भूल जाते हैं. सियासी ताकत के लिए लोगों को बांटना जरूरी हैजिसके लिए नेताओं को बमों से लेकर बैंक और लोगों की निजी जानकारी तक प्रत्येक ताकतवर चीज पर नियंत्रण चाहिए. हमारे निजी डेटा के लिए वे कुछ भी कर गुजरने को उत्सुक हैं. नेता आजकल यह बताते मिल जाएंगे कि आपका व्यवहार जानकर वे आपको अच्छा नागरिक बना सकते हैं. अचरज नहीं कि जापान से लेकर यूरोप तक कट्टर राजनैतिक ताकतों में सोशल नेटवर्क के प्रति गजब की दीवानगी है.

लोकतंत्र हमें यह शक्ति देता है कि हम नेताओं को यह बता सकें कि उन्हें हमारे लिए क्या करना चाहिए.

अमेरिका और एशिया में राजनीति-सोशल नेटवर्क का गठजोड़ ज्यादा विध्वंसक है. लेकिन यूरोप ने इतिहास से सीखा है कि किसी के बहुत ताकतवर होने के क्या खतरे हैं. सोशल नेटवर्क पर तैरता निजी डेटा हेबर-बॉश प्रोसेस है. इससे पहले कि राजनेता इससे बम बना लेंयूरोप के नए कानून सोशल मीडिया के लोकतंत्र को नेता-कंपनी गठजोड़ से बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं. यूरोपीय समुदाय में अगले दो माह के भीतर वहां जीडीपीआर (जनरल डेटा प्रोटेक्शन रूल्स) यानी डेटा सुरक्षा के नए नियम लागू हो जाएंगे. वित्तीय उत्पादों के साथ एकत्र होने वाली निजी सूचनाएं बेचने पर भी रोक लग गई .

हमें यह सचाई कब समझ में आएगी कि नेता पहाड़ को नदी से लड़वा सकते हैं और नदी को मछलियों से. नेताओं को दुनिया की एकता का नेटवर्क दे दीजिएवे उस पर भी युद्ध करा देंगे. राजनेताओं को नियंत्रण में रखिये इससे पहले कि वह हमें ढोर-ढंगर बनाकर हांकने लगें.   

  

Sunday, October 29, 2017

याद हो के न याद हो


राजनेताओं की सबसे बड़ी सुविधा खत्म हो रही है. लोगों की सामूहिक विस्मृति का इलाज जो मिल गया है.

जॉर्ज ऑरवेल (1984) ने लिखा था कि अतीत मिट गया है, मिटाने वाली रबड़ (इरेजर) खो गई है, झूठ ही अब सच है. ऑरवेल के बाद दुनिया बहुत तेजी से बदली. अतीत मिटा नहीं, रबड़ खोई नहीं, झूठ को सच मानने की उम्र लंबी नहीं रही.

लोगों की कमजोर याददाश्त ही नेताओं की सबसे बड़ी नेमत है. लोगों का सामूहिक तौर पर याद करना और भूलना दशकों तक नेताओं के इशारे पर होता था लेकिन अब बाजी पलटने लगी है. अचरज नहीं कि अगले कुछ वर्षों में इंटरनेट राजनीति का सबसे बड़ा दुश्मन बन जाए. सरकारें सोशल मीडिया सहित इंटरनेट के पूरे परिवार से बुरी तरह खफा होने लगी हैं.

इंटरनेट लोगों का सामूहिक अवचेतन है. यह न केवल करोड़ों लागों की साझी याददाश्त है बल्कि इसकी ताकत पर लोग समूह में सोचने व बोलने लगे हैं.

तकनीकें आम लोगों के लिए बदली हैं, राजनीति के तौर-तरीके तो पुराने ही हैं. झूठ और बड़बोलापन तो जस के तस हैं. दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा और धुंधली हो गई है.

राजनेता चाहते हैं:
·       लोग उन्हें समूह में सुनें लेकिन अकेले में सोचें.

·       अगर समूह में सोचें तो सवाल न करें.

·       अगर सवाल हों तो उन्हें दूसरे समूहों से साझा न करें. 

·       सवाल अगर सामूहिक भी हों तो वे केवल इतिहास से पूछे जाएं, वर्तमान को केवल धन्य भाव से सुना जाए.

दकियानूसी राजनीति और बदले हुए समाज का रिश्ता बड़ा रोमांचक हो चला है. इस चपल, बातूनी, बहसबाज और खोजी समाज पर कभी-कभी नेताओं को बहुत दुलार आता है लेकिन तब क्या होता है जब यही समाज पलट कर नेताओं के पीछे दौड़ पड़ता है. लोगों की सामूहिक डिजिटल याददाश्त अब राजनीति के लिए सुविधा नहीं बल्कि समस्या है.

अकेलों के समूह
राजनैतिक रैलियां अप्रासंगिक हो चली हैं. भारी लाव-लश्कर, खरीद या खदेड़ कर रैलियों में लाए गए लोग जिनमें समर्थकों या विरोधियों की पहचान भी मुश्किल है. तकनीक कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से नेताओं को उनके जिंदाबादियों से जोड़ सकती है. इसके बाद भी रैलियां पूरी दुनिया में होती हैं.

नेता चुपचाप बैठी भीड़ से खि‍ताब करना चाहते हैं. यही उनकी ताकत का पैमाना है. रैली राजनीति के डिजाइन के अनुसार लोगों को सिर्फ सुनना चाहिए. लेकिन अब लोग सुनते ही नहीं, समूह या नेटवर्क में सोचते भी हैं. वे अपनी साझी याददाश्त से किस्म-किस्म के तथ्य निकाल कर सवालों के जुलूस को लंबा करते चले जाते हैं.

आंकड़े बनाम अनुभव
अपनी तरह का पहला, अभी तक का सबसे बड़ा, देश के इतिहास में पहली बारअब, नेताओं के भाषण इनके बिना नहीं होते. पिछली पीढ़ी के राजनेता इतने आंकड़े नहीं उछालते थे. अब तो कच्चे-पक्के, खोखले-पिलपिले आंकड़ों के बिना समां ही नहीं बंधता. शायद इसलिए कि लोग आंकड़े समझने लगे हैं और वे समूह में सोचें तो इनका इस्तेमाल कर सकें.

मुसीबत यह है कि लोगों के अनुभव आंकड़ों से ज्यादा ताकतवर हैं. भोगा हुआ विकास, बतलाए गए विकास पर भारी पड़ता है. इसलिए जब लोगों के निजी और अधिकृत एहसास, सामूहिक चिंतन तंत्र (सोशल नेटवर्क) पर बैठ आगे बढ़ते हैं तो सरकारी आंकड़ों की साख का कचरा बन जाता है.

इतिहास का चुनाव
यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के प्रोफेसर जॉन जे. मियरशीमर, राजनेताओं के झूठ का (पुस्तक: व्हाई लीडर्स लाइ) अध्ययन करते हैं. उनके मुताबिक, इतिहास, राजनैतिक झूठ का सबसे कारगर कारिंदा है. इसके सहारे खुद को महान और अतीत को बुरा बताना आसान है. इतिहास के सहारे एक लक्ष्यनहीन गुस्से को लंबे वक्त तक सिंझाया जा सकता है. इतिहास है तो वर्तमान मुसीबतों पर उठ रहे सवालों के जवाब गुजरे वक्त से मांगे जा सकते हैं.

राजनेता चाहते हैं इतिहास के चयन में उनकी बातें मानी जाएं. अलबत्ता नेता यह भूल जाते हैं कि वे खुद भी तो प्रतिक्षण इतिहास गढ़ रहे हैं. लोग इतिहास अपनी सुविधा से चुनते हैं जिसमें अक्सर नेताओं का ताजा इतिहास सबसे लोकप्रिय पाया जाता है.

राजनीति गहरी मुश्किल में है. लोग नहा-धोकर सियासी झूठ के पीछे पड़े हैं. झूठ पकडऩा अब एक रोमांचक पेशा है. लोगों की उंगलियां प्रति सेकंड की रक्रतार से सवाल उगल रही हैं. लोकतंत्र के लिए इससे अच्छा युग और क्या हो सकता है.

सुनो जिक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का

वो निभाने का तो जिक्र क्या, तुम्‍हें याद हो के न याद हो