Showing posts with label artharth. Show all posts
Showing posts with label artharth. Show all posts

Sunday, March 19, 2023

सबसे बड़ी स्‍कीम का रिपोर्ट कार्ड


यद‍ि आप से पूछा जाए कि आग की खोज और पहिये यानी व्‍हील के आव‍िष्‍कार के बाद दुनिया की सबसे क्रांतिकारी घटना कौन सी थी

आसानी से जवाब नहीं मिलेगा आपको

क्‍यों कि गुफाओं से निकले मानव के करीब बारह हजार साल के इति‍हास में क्‍या कुछ नहीं घटा है

अबलत्‍ता अगर किसी आर्थिक इतिहासकार से पूछें तो वह कहेगा कि आग की खोज और पहिये आवि‍ष्‍कार के बाद ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति थी

इससे पहले तक दुनिया की आबादी कृष‍ि पर निर्भर थी, आबादी बढ़ती थी तो खाना कम फिर आबादी कम होती थी और फिर अनाज उत्‍पादन के साथ बढ़ती थी. इस चक्‍कर को माल्‍थेस‍ियन ट्रैप कहगा गया जिसे  पहले पहले जनसंख्‍याविद और अर्थशास्‍त्री थॉमस माल्‍थस ने समझाया था.

ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के बाद 1760 से खेती से लोग बाहर निकले, प्रति व्‍यक्‍त‍ि आय बढ़ी,जीवन स्‍तर बेहतर हुआ और आबादी संतुलित हुई. यहीं से राजनीतिक संस्‍थायें बनना शुरु होती हैं.

आप कहेंगे कि इस यह सब याद दिलाने का मकसद क्‍या है

मकसद है जनाब क्‍यों कि इसके बाद औद्योगिक तरक्‍की के लिहाज से दुनिया की से चमत्‍कारिक क्रांति कौन सी थी?

चीन का चमत्‍कार  

यह था चीन का औद्योगीकरण जो ब्रिटेन में मशीनों की खटर पटर शुरु होने के करीब 250 साल बाद आया.

2017 में विकास दर में पहली गिरावट और कोविड के साथ दूसरी बडी गिरावट तक 35 साल में चीन ने दुनिया की करीब 20 फीसदी आबादी को औद्योगीकरण के दायरे में पहुंचा दिया. यह करिश्‍मा पहली बार हुआ.

ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति को दोहराने की कोश‍िशें

उत्‍तरी यूरोप से लेकर अमेरिका और पूर्वी एश‍िया कोरिया व ताइवान तक हुईं. कुछ जगह कामयाबी मिली कुछ जगह नहीं. प्रति व्‍यक्‍ति‍ आय  बढ़ोत्‍तरी उतनी नहीं दिखी जितनी कि अमेरिका में थी, ठीक इसी तरह चीन की क्रांति से सीखने की कोश‍िश कई जगह चल रही है.

 

चीन का मॉडल

भारत ने इसी क्रांति से सबक मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग में निवेश बढ़ाने की मुहिम शुरु की. क्‍यों कि फैक्‍ट्र‍ियां लगेंगी तो उत्‍पादन और रोजगार बढेगा. निर्यात बढेगे और मिलेगा तेज आर्थ‍िक विकास. बात शुरु हुई थी विदेशी निवेश खोलने से, फिर दी गई तमाम उद्योग को र‍ियायतें मगर बात बनी नहीं.

विकास होना था मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग था जिससे रोजगार आने थे लेक‍िन सेवा क्षेत्र में ज्‍यादा तेज बढ़त हुई. चीन की तर्ज पर उद्योगों केा बुलाने और निर्यातोन्‍मुख उत्‍पादन करने की मुहिक मेक इन इंडिया से होते हुए अब उस नई स्‍कीम पर आ टिकी जिसे पीएलआई या प्रोडक्‍शन लिंक्‍ड इंसेटिव कहते हैं.

यह भारत के इतिहास सबसे बड़ी एक मुश्‍त औद्योग‍िग प्रोत्‍साहन योजना है, जिसमें 15 अलग अलग उद्योगों में  कंपनियों को उत्‍पादन के लिए सरकार के बजट से अगले पांच साल में करीब 1.93 लाख करोड़ की सीधी नकद मदद दी जाएगी है. यह प्रोत्‍साहन अलग अलग उद्योगों के लिए उत्‍पादन और निर्यात की शर्तों को पूरा करने के बदले मिलेगा. सनद रहे कि यह रियायतें अन्‍य टैक्‍स, निवेश  आदि की रियायतों के अलावा है जो सभी उद्येागों को मिलते हैं. 

इन रियायतों की पहली किश्‍त के तहत करीब 400 करोड़ रुपये ताइवान की कंपनी फॉक्‍सकॉन और भारत की कंपनी डिक्‍सन टेक्‍नोलॉजीज  को दिये गए हैं. फॉक्‍सकॉन भारत में एप्‍पल फोन बनाती है. इस कंपनी ने  एक अगस्‍त 2021 से 31 मार्च 2022 के बीच 15000 करोड़ का उत्‍पादन किया.  ड‍ि‍क्‍सन समूह की कंपनी करीब 58 करोड़ का प्रोत्‍साहन भुगतान हुआ है. यह कंपनी भी इलेक्‍ट्रानिक्‍स उत्‍पाद बनाती है.

पंद्रह अलग अलग उद्योगों में उत्‍पादन के लिए सीधी नकद मदद देनी वाली इस स्‍कीम को अब 32 महीने पूरे हो रहे हैं.

बजट से पहले देखना च‍ाहि‍ए कि कहां तक पहुंची चीन के मॉडल को आजमाने  की यह मुहिम

प्रोत्‍साहनों सबसे बडा मेला

उदारीकरण यानी 1991 के बाद भारत की सबसे बड़ी प्रत्‍यक्ष निवेश और निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीम यानी पीएलाआई का आव‍िष्‍कार बडे अजीबोगरीब ढंग से हुआ. 

बात नवंबर 2019 की है. जब भारत डब्‍लूटीओ की अदालत में एक बड़ी लड़ाई हार गया. अचरज होगा कि इस वक्‍त भारत और अमेरिका यानी मोदी और ट्रंप के रिश्‍तों की बड़ी गूंज थी लेक‍िन अमेरिका ने भारत को डब्‍लूटीओ में धर रगड़ा और मोदी सरकार भारत की सभी निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीमें चार माह के भीतर बंद करनी पड़ीं. 

उस वक्‍त तक मर्चेंडाइज एक्‍सपोर्ट्स ऑफ इंड‍िया (एमईआईएस) भारत की सबसे बड़ी निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीम थी जिसमें निर्यात योग्‍य उत्‍पादन पर लगने वाले कच्‍चे माल और सेवाओं पर टैक्‍स की वापसी की जाती थी. इस स्‍कीम के तहत 2019-20 में बजट  करीब 40000 करोड़ रुपये टैक्‍स के वापसी की गई.

मोदी सरकार ने 2015 में पांच निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीमें मिलाकर इसे बनाया था. अगले दो साल में निर्यात को इससे कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ. 2019 में एक और स्‍कीम लाई गई जिसका नाम भी रेमिशन ऑफ ड्यूटीज एंड टैक्‍सेस ऑन एक्‍सपोर्ट प्रोडक्‍टर (आरओडीटीपी). इसके बाद भी निर्यात नहीं बढ़े. निर्यात में जो बढ़त दिखी वह  कोविड के दौरान ही थी.  

 

इस बीच 2019 में निर्यात प्रोत्‍साहन बंद करने पड़े. जिसके बाद सरकार ने एमईआएस की जगह यह स्‍कीम शुरु की. जिसमें उत्‍पादन और निर्यात की शर्तों पर चुनिंदा उद्योगों को बजट से सीधा प्रोत्‍साहन मिलेगा. इसमें करीब 15 उद्योगों शामिल किया गया.

लेन देन का हिसाब किताब

अब तक पंद्रह उद्योगों के लिए उपलब्‍ध  इस स्‍कीम से 2027 तक करीब 2.5 से 3 लाख करोड़ का पूंजी निवेश लाने का लक्ष्‍य रखा गया है. स्‍कीम के नियामक मानते हैं कि प्रमुख उद्योगों का करीब 13 से 15 फीसदी निवेश इस स्‍कीम के जरिये आएगा और पांच साल में करीब 37-38 लाख करोड़ का अत‍िरिक्‍त उत्‍पादन होगा. सरकार मान रही है कि पीएलआई भारत के नॉम‍िनल जीडीपी में हर साल करीब 1.1 फीसदी की बढोत्‍तरी करेगी.

लक्ष्‍यों का क्‍या है, सुहाने ही होते हैं 

पीएलआई स्‍कीम में लगभग 11 उद्योगों में 60 फीसदी पूंजी निवेश के प्रस्‍ताव भी मंजूर हो चुके हैं मगर नतीजों को लेकर तस्‍वीर साफ नहीं हैं. पूरे परिदृश्‍य को आंकड़ों को मदद से धुंध रहित करना होगा.  क्रेडिट सुइसी, क्रि‍स‍िल और केयर रेटिंग्‍स ने हाल में पीएलआई स्‍कीम पर कुछ कीमती विश्‍लेषण पेश किये हैं जो मैन्‍युफैक्‍चरिंग को लेकर भारत के इस सबसे बडे और महंगे दांव की चुनौतियों सफलताओं को समझने में हमारी मदद करते हैं क्‍यों अंतत: सफलता इस बात से तय होगी कि क‍ितना निवेश हुआ और आए क‍ितने रोजगार?

पीएलआई स्‍कीम में आए प्रस्‍ताव तीन वर्गों में है.

पहला हिस्‍सा असेम्‍बलिंग में निवेश का है. यानी पुर्जे आयात कर उन्‍हें जोड़ने की फैक्‍ट्र‍ियां. मोबाइल, कंप्‍यूटर और टेलीकॉम हार्डवेयर में आया और संभावित न‍िवेश इसी वर्ग का है. इस वर्ग के तहत 2027 तक करीब 2108 मिलियन डॉलर के पूंजी निवेश पर सरकार सरकार करीब 8000 मिल‍ियन डॉलर के प्रोत्‍साहन देने का प्रस्‍ताव किया है. इस वर्ग के उत्‍पादन से सालाना  कुल 38000 मिल‍ियन डॉलर के बिक्री (निर्यात और घरेलू बाजार में बिक्री) टर्नओवर की उम्‍मीद है.

दूसरा हिस्‍सा ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है जिसमें नई मैन्‍युफैक्‍चरिंग शुरु की जानी है. सोलर, बैटरी, बल्‍क ड्रग, चिक‍ित्‍सा उत्‍पाद इस वर्ग में आते हैं. इस निवेश से नई तकनीक आने का उम्‍मीद लगाई गई है. इन्‍हीं के जरिये आयात पर निर्भरता भी कम होगी.

तीसरा और सबसे बडा हिस्‍सा कंपनियों के नियम‍ित पूंजी निवेश का है. जिसमें आटोमोबाइल, फूड, कपड़ा, फार्मा, उपभोक्‍ता इलेक्‍ट्रानिक्‍स जैसे  टीवी फ्र‍िज और स्‍टील आद‍ि शामिल हैं. इनमें कुछ कंपनियों ने स्‍कीम की शर्तों को स्‍वीकारते हुए निवेश का प्रस्‍ताव मंजूर कराया है.

पीएलआई का रिपोर्ट कार्ड

इस स्‍कीम की अब तक की कामयाबी का पहला पैमाना पूंजी निवेश है, जिस पर सारा दारोमदार है. बीते दो बरस में अध‍िकांश पूंजी उन उद्योगों में आई है जहां कंपनियां पहले परियोजनायें चला रही हैं जैसे कि आटोमोबाइल और स्‍टील. नए उत्‍पादन में पीवी माड्यूल और  बैटरी प्रमुख है जहां ज्‍यादा संभावनायें बनती दिख रही हैं. यहां रिलायंस, एलंडटी और ओला जैसी बड़ी कंपनियों ने भी प्रस्‍ताव मंजूर कराये हैं. अगर यहां निवेश के नतीजे आए तो भारत में बैटरी की बडी क्षमतायें बन सकती हैं. अब तक मंजूर हुए कुल निवेश प्रस्‍तावों का 48 फीसदी हिस्‍सा जो क्रियान्‍वयन में है वह स्‍टील आटो, बैटरी और सोलर मॉड्यूल में केंद्रित है

अब दूसरा पैमाना जहां नतीजे मिले जुले है. नई इकाइयों को लेकर  दुनिया की बडी तकनीकी कंपनियों में निवेश में रुच‍ि नहीं ली है. बैटरी और सोलर पैनल में कोई बडी ग्‍लोबल कंपनी अब तक नहीं आई है इसलिए तकनीकी हस्‍तांतरण में पीएलआई का फायदा मिलता नहीं दिख रहा. अलबत्‍ता मोबाइल असेम्‍बली, कंप्‍यूटर हार्डवेयर और उपभोक्‍ता इलेक्‍ट्रानिक्‍स में विदेशी बहुराष्‍ट्रीय कंपन‍ियों ने निवेश में रुच‍ि ली है. इनमें से कई कंपनियां पहले से भारत में हैं.

अब तीसरा पैमाना है उत्‍पादन में वैल्‍यू एडीशन का यानी मौजूदा उत्‍पादन को बेहतर करना. बैटरी स्‍टील फार्मा आदि क्षेत्रों में उत्‍पादों में वैल्‍यू एडीशन की गुंजाइश है मगर क्रेडिट सुइसी का मानना है कि इसके लिए स्‍कीम में और जयादा प्रोत्‍साहन और स्‍पष्‍टता जरुरी है.  यदि एसा होता है तो 2027 तक करीब 18 अरब डॉलर का वैल्‍यू एडीशन मिल सकता है. of GDP.

क्रेडिट सुइसी का मानना है कि मौजूदा हालात में यह स्‍कीम 2025 तक 70 अरब डॉलर के कुल कारोबार के साथ जीडीपी में करीब 0.7 फीसदी का अतिरिक्‍त योगदान कर सकती है. जबक‍ि क्रिसिल का आकलन है कि 2025 तक देश के प्रमुख उद्योगों में 13 से 15 फीसदी पूंजी निवेश इस स्‍कीम के जरिये आ सकता है.

भारत के लिए यह स्‍कीम बड़ा और शायद आख‍िरी मौका है. दुनिया में घटती विकास दर और लंबी चलने वाली महंगाई की रोशनी में उत्‍पादन का ढांचा बदल रहा है. कई देश अपने यहां जरुरी सामानों की उत्‍पादन क्षमतायें तैयार कर रहे हैं जिनके लिए वह आयात पर निर्भर थे. भारत में इस स्‍कीम की सफलता के लिए केवल दो वर्ष हैं और यह इस बात से तय होगा कि चीन की तुलना में कितने बडे ब्रांड और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां भारत आते हैं. क्‍यों कि उनके जरिये ही भारत ग्‍लोबल सप्‍लाई चेन का हिस्‍सा बन सकता है.

सबसे कठिन पहेली

हम वापस ब्रिटेन और चीन की औद्योगिक क्रांति की तरफ लौटते हैं. क्‍यों इनकी रोशनी में यह समझना आसान है कि औद्योगिक क्रांत‍ियां इतनी कठिन क्‍यों होती हैं और क्‍यों हर देश में ब्रिटेन या चीन दोहराया नहीं जा पाता. औद्योगिक निवेश को लेकर बीते कुछ वर्षों में नए संदर्भों में अध्‍ययन हुए हैं. जिनसे पता चला है कि ब्रिटेन, अमेरिका, जापान और चीन में औद्योगिक विकास का मॉडल लगभग एक जैसा था. इस चारों ही अर्थव्‍यवस्‍थाओं में प्रोटो इंडस्‍ट्रि‍यलाइजेशन का अतीत था यानी व्‍यापक शुरुआती ग्रामीण और कुटीर उद्योग. ब्रिटेन में 1600 से 1760 के बीच अमीर व्‍यापार‍ियों ने छोटे उद्योग में निवेश किया था. इसने औदयोगिक क्रांति को आधार दिया. यही समय था जब जापान में इडो और प्रारंभिक मेइजी युग (1600 से 1800) में ग्रामीण उद्योग फल फूल रहे थे. अमेरिका में 1820 में  प्रोटो इंडस्‍ट्रि‍यलाइजेशन गांवों कस्‍बों में उभर आया था जो 19 वीं सदी के अंत में रेल रोड के विकास से औद्योगिक क्रांति का हिससा बन गया. और अंत में चीन जहां 1978 से 1988 के बीच गांवों में लाखो छोटे उद्योग थे जो देंग श्‍याओ पेंग की औद्योगिक क्रांति‍ का आधार बने

दुनिया के अन्‍य देश जहां मैन्‍युफैक्‍चरिंग क्रांति की कोशिश परवान नहीं चढ़ी वहां शायद ब्रिटेन अमेरिका जापान या चीन जैसा ग्रामीण कुटीर उद्योग अतीत नहीं था. मगर भारत के पास व्‍यापार का पुराना अतीत रहा है और

आजादी के बाद बढती खपत के साथ भारत में छोटे उद्योग बड़े पैमाने पर उभरे थे. अबलत्‍ता औद्योगीकरण की ताजा कोशि‍शों में  इनकी कोई भूमिका नहीं दिखती. यह पूरी क्रांति कहीं पीछे छूट गई.  

 पीएलआई यानी अब तक की सबसे बड़ी निवेश प्रोत्‍साहन योजना अगर भारत के औद्योगिक परिदृश्‍य में नए छोटे निर्माता, सप्‍लायर और सेवा प्रदाता जोड़ सकी तो क्रांति हो पाएगी नहीं तो सरकारी मदद के सहोर चुनिंदा कंपनियों के एकाध‍िकार और बढ़ते जाने का खतरा ज्‍यादा बड़ा है 

अपने भविष्‍य की सुरक्षा स्‍वयंं करें


 

 

 

दुनिया में जितना इतिहास दो टूक फैसलों से बना है सरकारों और नेताओं के असमंजस ने भी उतना रोमांचक इतिहास गढ़ा है. मसलन दूसरे विश्‍व युद्ध में दखल को लेकर अमेरिका का असमंजस हो या आर्थ‍िक उदारीकरण को लेकर भारत की दुविधा ...एसी दुवि‍धाओं के नतीजे अक्‍सर बड़ा उलटफेर करते हैं जैसे इस बार के बजट को ही लीजिये जो  सरकार की दुविधा का अनोखा दस्‍तावेज है. यह असमंजस अब आम भारतीयों  वित्‍तीय जिंदगी में बड़ा उलटफेर करने वाला है

भारत की इनकम टैक्‍स नीति अजीबोगरीब करवट ले रही है. सरकार ने बचतों पर टैक्‍स प्रोत्‍साहन न बढ़ाने और अंतत: इन्‍हें बंद कर देने का इशारा कर दिया है. अब कम दर पर टैक्‍स चुकाइये और भविष्‍य की सुरक्षा (पेंशन बीमा बचत) का इंतजाम खुद करिये. इस पैंतरे बैंक और बीमा कंपनियां भी चौंक गए हैं

हकीकत तो यह है

वित्‍त वर्ष 2023 का बजट आने तक  बचतों और विततीय सुरक्षा की दुनिया में कई  बड़े घटनाक्रम गुजर चुके थे

-         कोविड लॉकडाउन के बताया कि बहुत बडी आबादी के पास पंद्रह दिन तक काम चलाने के लिए बचत नहीं थी और न थी कोई सराकरी वित्‍तीय सुरक्षा

-         2022 में दिसंबर तक बैंकों डि‍पॉज‍िट बढ़ने  दर घटकर केवल 9.2 फीसदी रह गई थी जबकि कर्ज 15 फीसदी गति से बढ़ रहे थे.  कर्ज की मांग बढ़ने  के साथ बैंकों का कर्ज जमा अनुपात बुरी तरह बिगड़ रहा था. वित्‍तीय बचतों में 2020 में बैंक ड‍िपॉज‍िट का हिस्‍सा 36.7 फीसदी था 2022 में 27.2 फीसदी रह गया है. बैंकों के बीच बचत जुटाने की होड़ चल रही थी. बैंकों ने बजट से पहले फ‍िक्‍स्‍ड डिपॅाजिट पर टैक्‍स की छूट बढाने की अपील की थी.

-         बीमा नियामक ने 2047 तक इंश्‍योरेंस फॉर ऑल का लक्ष्‍य रख रहा है् बीमा महंगा हो रहा है इसलिए  टैक्‍स प्रोत्‍साहन की उम्‍मीद तर्कंसंगत थी

-         सबसे बड़ी चिंता यह कि 2022 में लॉकडाउन खत्‍म होने के बाद वित्‍तीय बचत टूट कर जीडीपी के अनुपात में 10.8 फीसदी पर आ गई. जो 2020 से भी कम है जब कोविड नहीं आया था.

दुव‍िधा का हिसाब किताब

तथ्‍य और हालात का तकाजा था कि यह बजट पूरी तरह बचतों को प्रोत्‍साहन पर  केंद्रित होता. क्‍यों कि सरकार ही तो इन बचतों का इस्‍तेमाल करती है  और  व‍ित्‍त वर्ष 2022-23 की पहली छमाही में आम लोगों की शुद्ध बचत ( कर्ज निकाल कर) जीडीपी की केवल 4 फीसदी रह गई है जो बीते वित्‍त वर्ष में 7.3 फीसदी थी. यानी देश की कुल बचत केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे (जीडीपी का 6.4%) की भरपाई के लिए भी पर्याप्‍त नहीं है

 अबलत्‍ता बचतों पर टैक्‍स  टैक्‍स प्रोत्‍साहन में कोई बढ़ोत्‍तरी नहीं हुई. बैंक जमा के ब्‍याज पर टैक्‍स छूट नहीं बढी. महंगे बीमा पर टैक्‍स लगा दिया गया

नई इनकम टैक्‍स स्‍कीम में रियायत बढाई गई जहां बचत प्रोत्‍साहन नहीं है होम लोन महंगे हुए हैं. मकानों की मांग को सहारा देने के लिए ब्‍याज पर टैक्‍स रियायत भी नहीं बढ़ी

 इस एंटी क्‍लामेक्‍स की वजह क्‍या रही

बजट के आंकडे बताते हैं रियायतों की छंटनी का प्रयोग कंपनियों के मामले में सफल होता दिख रहा है. आम करदाताओं की तरह कंपनियों के लिए भी दो विकल्‍प पेश किये गए थे. कम टैक्‍स-कम रियायत वाला विकल्‍प आजमाने वाली कंपन‍ियों की संख्‍या बढ़ रही है. 2020-21 में कंपन‍ियों के रिटर्न की 61 फीसदी आय अब नई टैक्‍स स्‍कीम में है जिसमें टैकस दरें कम हैं रियायतें नगण्‍य. 

यही नुस्‍खा आम करदाताओं पर लागू होगा. पर्सनल इनकम टैक्‍स में रियायतों पर बीते बरस सरकार ने करीब 1.84 लाख करोड का राजस्‍व गंवाया, जो कंपनियों को मिलने वाली रियायतों से 15000 करोड़ रुपये ज्‍यादा है. सबसे बड़ा हिस्‍सा बचतों पर छूट (80 सी) कहा है  इस अकेली रियायत राजस्‍व की कुर्बानी , कंपनियों को मिलने वाली कुल टैक्‍स रियायत के बराबर है.

तो आगे क्‍या

भारत में बचतें दो तरह के प्रोत्‍साहनों पर केंद्र‍ित हैं . पहला छोटी बचत स्‍कीमें हैं जहां बैंक ड‍िपॉजिट से ज्‍यादा ब्‍याज मिलता है. इनमें वे भी बचत करते हैं जिनकी कमाई इनकम टैक्‍स के दायरे से बाहर है. दूसरा हिस्‍सा मध्‍य वर्ग है जो टैक्‍स रियायत  के बदले  बचत करता है.

बीते दो बरस में आय घटने और महंगाई के कारण के लोगों ने बचत तोड़ कर खर्च किया है. अब प्रोत्‍साहन खत्‍म होने के बाद बचतें और मुश्‍क‍िल होती जाएंगी. खासतौर पर  जीवन बीमा और स्‍वास्‍थ्‍य बीमा जैसी अन‍िवार्य सुरक्षा निवेश घटा तो परिवारों का भविष्‍य संकट में होगा.

छोटी बचत स्‍कीमों जब  ब्‍याज दरें घटेगी या बढ़त नहीं होती ता इनका आकर्षण टूटेगा. बैंक ड‍िपॉजिट पर भी इसी तरह का खतरा है. सबसे बड़ी उलझन यह है कि  भारत में पेंशन संस्‍कृति आई ही नहीं है, उसे कौन प्रोत्‍साहि‍त करेगा. 

शुरु से शुरु करें

सोशल सिक्‍योरिटी और  यानी बचत, बीमा, पेंशन और कमाई पर  टैक्‍स हमजोली हैं. 17 वीं सदी 20 वीं सदी तक यूरोप और अमेंरिका में सामाजिक सुरक्षा स्‍कीमों की क्रांति हुई. ब्रिटेन पुअर लॉज के तहत  गरीबों को वित्‍तीय सुरक्षा देने के लिए अमीरों को टैक्‍स लगाया गया. 19 वीं सदी के अंत में जर्मनी के पहले चांसलर ओटो फॉन बिस्‍मार्क ने पेंशन और रिटायरमेंट लाकर क्रांति ही कर दी. 1909 में ब्रिटेन में ओल्‍ड एज पेंशन आई. इसके खर्च के लिए अमीरों पर टैक्‍स लगा. इस व्‍यवस्‍था को लागू करने के लिए एच एच एक्‍व‍िथ की सरकार को दो बार आम चुनाव में जाना पड़ा . हाउस आफ लॉर्डस जो अमीरों पर टैक्‍स के खिलाफ उसकी संसदीय ताकत सीमित करने  के बाद यह पेंशन और टैक्‍स लागू हो पाए.  

दूसरे विश्‍व युद्ध के बाद सरकारें या तो अपने खर्च पर सामाज‍िक सुरक्षा देती हैं जिसके लिए वे टैक्‍स लगाती हैं या फिर भारत जैसे देश हैं जहां  टैक्‍स में रियायत और बचत पर ऊंचे ब्‍याज जरिये लोगों बीमा बचत के लिए प्रोत्‍साह‍ित किया जाता है

भारत में अभी यूनीवर्सल पेंशन या हेल्‍थकेयर जैसा कुछ नहीं है. आय में बढ़त रुकी है, जिंदगी महंगी होती जा रही है और बचत के लिए प्रोत्‍साह‍न भी खत्‍म हो रहे हैं.

हैरां थे अपने अक्‍स पे घर के तमाम लोग

शीश चटख गया तो हुआ एक काम और – दुष्‍यंत

 

 

सदि‍यों में होता है जो


 

अर्थव्‍यवस्‍थाओं को हमेशा के लिए कौन बदल सकता है .. 

मंदी

महामारी

युद्ध

राजनीत‍ि

शायद नहीं यह तो वक्‍त चादर की सलवटें हैं ...

अर्थव्‍यवस्‍थायें तो बदलते हैं लोग

बहुत से लोग

जनसंख्‍या की ताकत

दुन‍िया तो दरअसल संतानों का अर्थशास्‍त्र है

यह अर्थशास्‍त्र जब करवट लेता है तो महाप्रतापी समय भी नतमस्‍तक हो जाता है क्‍यों कि यह बदलाव सद‍ियों आते हैं और सदियों तक असर करते हैं.

अब दुनिया ठीक एसे ही एक महासंक्रमण की दहलीज पर है.

इसे समझने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा

तो आइये बैठ‍िये एक टाइम मशीन में  और शुरु कीजिये तीन सौ साल का सफर. चलते हैं 18 वीं सदी से 21 वीं  सदी की तरफ यानी अतीत से वर्तमान की ओर

इस  यात्रा में सबसे पहले आपको दिखेगा यूरोप का बदलता नक्‍शा.  तीस साल लंबे युद्ध के बाद  यानी थर्टी इयर्स ऑफ वार के यूरोप के देशों के बीच वेस्‍टफीलिया की संध‍ि. 300 साल के सफर में आपको चीन में दो साम्राज्‍यों मिंग और क्‍व‍िंग का पतन नजर आएगा. नेपोल‍ियन के युद्ध मिलेंगे,  फ्रांस की क्रांति मिलेगी, यूरोप की औद्योगिक क्रांति मिलेगी. भारत मे मुगलों का पराभव मिलेगा. भारत और अमेरिका से कारोबार के लिए ब्रिटेन, पुर्तगाली, स्‍पेन, डच के बीच होड़ मिलेगी. फिर दिखेगी अमेरिका और भारत की गुलामी और आजादी का संघर्ष.  इस सफर में मिलेगा लाखों की जाने लेने वाला स्‍पेन‍िश फ्लू , महामंदी मिलेगी, दो महायुद्ध मिलेंगे.  ‍‍

अलबत्‍ता सम्राटों युद्धों और तबाही के इतिहास से अपनी नजरें हटायें तो आपको पता चलेगा कि यह दौर लोगों के लिए यानी आबादी के लिए सबसे बुरा था. गुलामी बर्बरता खून खच्‍चर गरीबी बदहाली . अध‍िकांश लोगों के पास इसके अलावा और कुछ नहीं था. यह दौर था जब दुनिया में औसत आयु केवल 27 साल थी. प्रजनन दन (फर्ट‍िल‍िटी रेट)  काफी ऊंची थी  एक महिला करीब छह बच्‍चों को जन्‍म देती थी लेक‍िन इनमें अधिकांश जीव‍ित नहीं रहते थे. आबादी की वृद्ध‍ि दर बमुश्‍क‍िल आधा फीसदी थी. 17 वीं 18 वीं सद‍ियां और 19 वीं सदी का बड़ा हिस्‍सा ऊंची जन्‍म दर, बड़ी संख्‍या में युवा आबादी, बदतर जीवन स्‍तर और ऊंची मृत्‍यु दर के साथ गुजरा था

फिर आप को म‍िलेगी 19 वीं सदी की शुरुआत जहां जिंदगी थोड़ी सी बदलने लगी. यूरोप में मृत्‍यु दर घटने लगी थी, जन्‍म दर भी कम हुई, फिर यह पूरी दुन‍िया में हुआ  और एक जनसंख्‍या संक्रमण आकार लेने लगा.  बीसवीं सदी की शुरुआत तक दुनिया की आबादी एक अरब के पास पहुंचने लगी थी. आबादी बढ़ने की रफ्तार रफ्ता रफ्ता तेज हो रही थी.

बीसवीं सदी की शुरुआत के साथ सब कुछ बदल गया जीवन प्रत्‍याशा दर बढ़ी. जन्‍म दर घटी और 21 वीं सदी की शुरुआत तक दुनिया की आबादी 1800 की तुलना में छह गुना बढ़ गई. बच्‍चों की तुलना में बुजुर्गों का अनुपात तीन गुना बढ़ा. करीब सौ साल पहले महिलायें अपने युवा जीवन का 70 फीसदी हिस्‍सा बच्‍चों जन्‍म देने और पालने में गुजारती थीं वह 21 वीं सदी की शुरुआत तक घटकर 14 फीसदी रह गया.

यही वह दौर था जब संतानों अर्थशास्‍त्र ने अर्थव्‍यवस्‍थाओं की सीरत और सूरत बदल दी. अमेरिका में बेबी बूमर्स (1946 से 1964 के बीच जन्मे) ने अमेरिका को 30 साल की सबसे तेज विकास दर की नेमत बख्शी, जिसे 2000 में बिल क्लिं‍टन ने नई अर्थव्यवस्था कहा था। (इन बेबी बूमर्स के हाथ अमेरिका की 70 फीसदी एसी कमाई (खर्च योग्य आय) है जिस पर बाजार झूम उठते हैं है). अमेरिका को एक और बड़े जनसंख्या संक्रमण का लाभ मिला जो 2000 की पीढ़ी थी जिन्हें मिलेनियल्स कहा गया हालांकि यह मिलेन‍ियल्‍स ठीक उस वक्‍त अर्थव्‍यवस्‍था में आए जब 2008 की मंदी आ धमकी थी. इधर 1980 के बाद चीन और भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं ने अपनी जनसंख्या को खपत, उत्पादन और श्रम शक्ति‍ का बाजार बनाया जबकि यूरोप में बुढापा घ‍िरने लगा  

आबादी की चक्‍की

कहते हैं जनसंख्‍या की चक्‍की इतनी धीमी चलती है और इतना महीन पीसती है हम अक्‍सर भूल ही जाते है लोगों से अर्थव्‍यवस्‍था बनती है है अर्थव्‍यवस्‍था से लोग नहीं.  यह पहिया अपना सबसे बड़ा संक्रमण करने जा रहा है. दुनिया में जनसंख्‍या का संतुलन स्‍थायी तौर पर बदलने जा रहा है. यह संक्रमण तीन सौ  साल में सबसे बड़ा बदलाव शुरु हो चुका है पहली बार होगा. आने वाले में दशकों में दुनिया को चाहे जो राजनीति बर्दाश्‍त करनी पड़े, चाहे जो  सरकारें आए या जाएं , विज्ञान और तकनीक के नए श‍िखर कितने भी ऊंचे हों जनसंख्‍या का यह परिवर्तन  कामागारों की कमी , वेतन बढ़ने के दबाव, उत्‍पादन में कमी और जिद्दी महंगाई लेकर आएगा

चौंक गए न !

यह चारों बदलाव अर्थव्‍यवस्‍था के बारे में हमारी मौजूदा समझ को उलट पलट कर सकते हैं लेक‍िन आबादी और अर्थव्‍यवस्‍था को रिश्‍तों को करीब से पढ़ने वाले इस संक्रमण की शुरुआत का बिगुल बजा रहे हैं. महामारी की चीख पुकार के बीच दुनिया के विशेषज्ञ जनसंख्‍या की नई करवट को समझ रहे हैं चार्ल्‍स गुडहार्ट और मनोज प्रधान की ताजा किताब द ग्रेट डेमोग्राफ‍िक रिवर्सल – एजिंग सोसाईटीज, वैनिंग इनइक्‍व‍िलिटीज एंड एन इन्‍फेलशन रिवाइवल इस संक्रमण पर नई रोशनी डालती है

 काम होगा कामगार नहीं

भारत की तपती बेरोजगारी के बीच यह बात कुछ अटपटी सी लगेगी लेक‍िन दुनिया की आबादी की नई करवट समझने वाले इस अनोखी किल्‍लत की तैयारी कर रहे हैं.

1950 के बाद दुनिया तीन धीमे लेक‍िन बड़े बदलाव हुए हैं. प्रजनन दर यानी फर्टि‍ल‍िटी रेट बीते शताब्‍दी की तुलना मेंआधी करीब 2.7 फीसदी रह गई. जिंदगी लंबी हुई. 2000 तक 50 साल में दुनिया की आबादी दोगुनी हो गई और युवा आबादी का अनुपात मजबूती से बढ़ने लगा. इस बदलाव ने दुनिया में कार्यशील आयु वाली लोगों की संख्‍या में तेज बढ़ोत्‍तरी की. यह चार्ट इस अभूतपूर्व बदलाव की नजीर है

श्रमिकों का आपूर्त‍ि का स्‍वर्ण युग आया 1990 के बाद. तब तक बेबी बूमर्स यानी 1950 से 1964 के बीच जन्‍मे लोग बाजार में आ गए थे. 1991 से 2018 विकस‍ित अर्थव्‍यवस्‍थाओ में श्रमिकों की आूपर्ति दो गुनी से ज्‍यादा हो गई. काम तो मिला लेक‍िन वेतन बहुत नहीं बढ़े क्‍यों कि श्रमिक आपूर्ति ज्‍यादा थी. चीन की विकास कथा इसी दौर मे बनती है. भारत और एश‍िया की अर्थव्‍यवस्‍थाओं ने भी इस संक्रमण को पूरा लाभ लिया. अलबत्‍ता उत्‍पादन बढ़ा और दुनिया ने करीब 28 साल तक महंगाई नहीं देखी. जिसका लाभ जीवन स्‍तर बेहतर होने के तौर पर सामने आया.

बीते करीब 60 सालों में दुनिया का हर परिवार बीती सदी के तुलना में अमीर हुआ है. छोटे परिवार रखना कमाई की गारंटी थी और लंबे समय तक काम करने का मौका था इसलिए आय में बढ़ोत्‍तरी हुई हालांकि यह पूरी दुनिया में असमान थी. क्‍यों कि एक छोटी सी आबादी की आय ज्‍यादा तेजी से बढ़ी.

अब यह पूरा पर‍िदृश्‍य  बदलने वाला है.  एक नई दुनिया हमारे सामने होगी.

दुनिया के ज्‍यादातर देशों में कार्यशील आबादी कम होती जाएगी. अब उतने श्रमिक नहीं होंगे. जापान, कोरिया, जर्मनी, रुस, चीन, इटली, फ्रांस, चीन  में अब बुढ़ापा घिर रहा है. चीन ने 1990 से 2015 के करीब 29 करोड लोग कार्यशील आबादी में जोडे.  अब 2050 तक 22 करोड़ लोग श्रम बाजार से बाहर हो जाएंगे क्‍यों कि उनकी उम्र काम के लायक नहीं रहेगी.

इसका असर धीमी आर्थ‍िक विकास दर के तौर पर सामने आएगा. विशेषज्ञ मान रहे हैं कि उत्‍पादन घटेगा क्‍यों कि श्रमिकों की कमी भी होगी, खपत भी गिरेगी. बहुत तेज विकास दर के दिन अब गए. अगले करीब तीन दशकों में भारत चीन जैसे एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थायें औसत 6 से 8 फीसदी के बीच विकास दर हासिल कर पाएंगी. यूरोप की अर्थव्‍यवस्‍थाओं कीविकास दर तो तीन फीसदी से भी नीचे रहेगी. यह संक्रमण  ग्‍लोबलाइजेशन की रफ्तार को भी धीमा कर सकता क्‍यों कि श्रमिकों आपूर्ति सीमित होगी. प्रवासी श्रमिकों को रोजगार देना राजनीतिक रुप से मुफीद नहीं होगा. इसलिए दुनिया को देशों के जो सामान सेवायें आयात करते थे उनमें से कई मामलेां उन्‍हें अपने यहां नई क्षमतायें बनानी होंगी

 महंगाई की वापसी

सन 2000 के बाद यहां युवा और बुजर्ग आबादी का अनुपात बदल रहा है. आबादी का का ड‍िपेंडेंसी रेश‍ियो कमजोर हो रहा है यह इस वक्‍त अर्थव्‍यवस्‍था का सबसे प्रभावी फार्मूला है. यह अनुपात बताता है कि आबादी कार्यशील लोगों पर कितने बच्‍चे और बुजुर्ग निर्भर हैं.

किसी भी जनसंख्‍या में बच्‍चे और बुजुर्ग शुद्ध उपभोक्‍ता हैं. वह कार्यशील लोगों पर निर्भर हैं. यह आबादी उत्‍पादन करती है खपत करती है और बचत करती है. इसलिए इस अनुपात में गिरावट अर्थव्‍यवस्‍था के अचछी मानी जाती है. 1950 तक यह अनुपात संतुलित था. बाद के दशकों में इसमें बढोत्‍तरी हुई.  1990 के इसमें बढ़त हुई है. कार्यशील आबादी घट रही है जबकि उस पर निर्भर आबादी बढ़ रही है.

1990 के बाद  श्रम बाजार में औसत श्रमिकों की कार्यशील आयु स्‍थि‍र होने लगी थी. बाद मे वर्षों में इसमें तेज गिरावट आई. इसी के साथ सभी बडी अर्थव्‍यवस्‍थाओं में ड‍िपेंडेसी रेश‍ियो बढ़ने लगा

 आबादी का ड‍िपेंडेसी रेश‍ियो महंगाई के लिए सबसे जरुरी कारक है. 1870 से 2016 के बीच दुनिया के 22 प्रमुख देशों में महंगाई और जनसंख्‍या के रिश्‍तों पर अध्‍ययन बताता है कि कार्यशील आबादी कम होने से वेतन बढ़ने का दबाव बनता है. यद‍ि खपत करने वाली आबादी , उत्‍पादक आबादी से ज्‍यादा है तो मतलब है कि आबादी का एक  बड़ा हिस्‍सा  उतादन नहीं करेगा बल्‍क‍ि केवल उपभोग करेगा. इस उत्‍पादन के ल‍ि कम लोगों को ज्‍यादा वेतन देने होंगे जिसका असर उत्‍पादन लागत पर दिखता है. और इससे बढ़ती है महंगाई. आबादी में आयु का संतुलन बदलने के बाद खपत भी कम होती है जो उत्‍पादकों के कम बिक्री पर ज्‍यादा कीमत वसूलने का मौका देती है.

 जनसंख्‍या की चक्‍की धीमा पीसती है इसलिए सब कुछ तुरंत नहीं बदलेगा अलबत्‍ता लंबी अवध‍ि में कई बडे असर होने वाले हैं

-         महंगाई बढ़ने के साथ खपत में कमी और उपभोग में भी कमी क्‍योंकि बुढ़ाती आबादी की खपत कम होती है. इसका मतलब यह कि अब बल्‍ल‍ियों उछली विकास दर की जरुरत नहीं होगी क्‍यों कि मांग कम रहेगी

-         बुजर्ग आबादी अपनी पुरानी बचतों पर जियेगी नई बचतें नहीं होगी इसलिए  निवेश को कर्ज पर निर्भर रहना होगा. महंगाई के बीच यह पर‍िस्‍थ‍िति‍ ब्‍याज दरों को ऊंचा रख सकती है.

-         निवेश में कमी होने की संभावना कम है क्‍यों कि आबादी का संतुलन बदलने के साथ आवासों पर सबसे जयादा निवेश चाहिए. बुजुर्गों को रहने के लिए घर चाहिए. गुडहार्ट और प्रधान अपने अध्‍ययन बता रहे हैं कि पूरी दुनिया में हाउस‍िंग की मांग बढेगी अलबत्‍ता इसके लिए कर्ज भी जरुरत में भी इजाफा होगा

-         कर्ज इसल‍िए भी महंगा रह सकता है क्‍यों कि सरकारों को बुजुर्ग कल्‍याण पर खर्च बढ़ाना होगा. यह स्‍वास्‍थ्‍य पेंशन शहरी सुव‍िधाओं पर होगा. बीते करीब 40 सालों से सरकारों ने इस तरफ सोचा नहीं. अब बुजुर्ग आबादी सबसे बडी राजनीतिक मजबूरी बनती जाएगी.

-         सरकारों को पेंशन के पूरे ढांचे बदलने होगे. सेवानिवृत्‍त‍ि की आयु बढ़ाना जरुरी होगा क्‍यों कि जीवन प्रत्‍याशा बढ़ने से लोग 70 साल तक काम कर सकते हैं. यह पेंशन बजटों के संतुल‍ित करेगा

-          स्वास्थ्य सेवाओं को सड़कबिजलीदूरसंचार की तर्ज पर विकसित करना होगा ताकि कार्यशील आयु बढ़ाई जा सके और 65 की आयु वाले लोग 55 साल वालों के बराबर उत्पादक हो सकें.

-         मेकेंजी का मानना है कि स्वास्थ्य में नई तकनीकें लाकरबेहतर प्राथमि‍क उपचारसाफ पानी और समय पर इलाज देकर बडी आबादी की सेहत 40 फीसदी तक बेहतर की जा सकती है. स्वास्‍थ्य पर प्रति 100 डॉलर अतिरिक्त खर्च हों जीवन में प्रति वर्षएक स्वस्थ वर्ष बढाया जा सकता है. स्वास्थ्य सुविधायें संभाल कर, 2040 तक दुनिया के जीडीपी में 12 ट्रि‍ि‍लयन डॉलर जोडे जा सकते हैं जो ग्लोबल जीडीपी का 8 फीसदी होगा यानी कि करीब 0.4 फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी

-         विशेषज्ञ मान रहे हैं कि वेतन बढ़ने की संभावनाओं के बीच यह  बदलाव अगले कुछ दशकों में आय असमानता कम कर सकता है लेक‍िन यहां तस्‍वीर बहुत धुंधली है, वक्‍त ही बतायेगा कि क्‍या हुआ.

 

अर्थशास्‍त्र का सबसे लोहा लाट नियम किसी बैंक बजट या मुद्रा पर आधारित नहीं है. यह तो लोगों पर आधार‍ित है

आर्थ‍िक विकास = लोगों की संख्‍या में कमी बेशी+लोगों की उत्‍पादकता में बढ़ोत्‍तरी

 कोई भी अर्थव्‍यवस्‍था अर्थव्‍यवस्‍था लोगों की संख्‍या और उनकी उत्‍पादकता बढाकर ही आगे बढती है. यह फार्मूला मांग बचत और टैक्‍स का फार्मूला है

यही फार्मूला अब नई करवट ले रहा है

अगली सदी की दुनिया नई दुनिया होगी