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Tuesday, August 4, 2015

सियासी कबीले में कलाम


डा.कलाम की सहजता व वैज्ञानिकता असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ है लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर उनका चुनाव और देश की राजनीति की मुख्यधारा में उनका छोटा-सा कार्यकाल  सियासत पर ज्यादा गहरी टिप्पणियां करता है.

" वाजपेयी जी, यह मेरे लिए बहुत बड़ा मिशन है. राष्ट्रपति पद पर मेरे नामांकन के लिए मैं, सभी दलों की सहमति चाहता हूं. '' वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब यह शर्त तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने रखी तब उन्हें यह सूचना मिले दो घंटे बीत चुके थे कि वे राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के प्रत्याशी होंगे. पहली सूचना भी वाजपेयी ने ही दी थी. दो घंटे के भीतर कलाम यह समझ चुके थे कि अगर बात बन सकती तो वे नहीं, बल्कि पी.सी. अलेक्जेंडर या उपराष्ट्रपति कृष्णकांत राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी होते. या फिर कौन जाने कि वाजपेयी खुद दौड़ में होते जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि रज्जू भैया वाजपेयी को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाना चाहते थे. अपनी उम्मीदवारी के लिए राजनैतिक सर्वानुमति की शर्त कलाम ने इसलिए रखी थी क्योंकि सर्वोच्च पदों को लेकर भारतीय राजनीति हमेशा से कबीलाई रही है, जिसमें कलाम जैसों के लिए जगह नहीं होती.
वे खुद को दलीय राजनीति के जवाबी कीर्तन में फंसने से बचाना चाहते थे. डॉ. कलाम की श्रेष्ठताओं के बावजूद सच यह है कि राजनीति की मुख्यधारा को फलांगते हुए एक टेक्नोक्रैट के राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनने से भारतीय राजनीति का एक बड़ा खोल टूट गया था. सियासत उन्हें लेकर कभी स्वाभाविक नहीं रही इसलिए बाद में पूरी सियासी जमात ने मिलकर यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि कलाम का वाकया सरकार के अन्य क्षेत्रों में बड़े पदों पर परंपरा न बन जाए. कलाम की सहजता व वैज्ञानिकता असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ है लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर चुनाव और देश की राजनीति की मुख्यधारा में उनका आगमन और छोटा-सा कार्यकाल (2002 से 2007) सियासत पर ज्यादा गहरी टिप्पणियां करता है. भारतीय राजनीति न केवल गहराई तक आनुवांशिक है बल्कि एक इसकी दूसरी पहचान यह भी है कि दलीय आग्रहों के बावजूद इसमें गजब की सामूहिकता है. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या मुख्यमंत्री जैसे पद राजनेताओं या राजनैतिक जड़ों वाले लोगों को लिए आरक्षित हैं और पिछले साठ वर्ष में सभी दलों ने सजग रहकर इस अलिखित संधि का बेहद दृढ़ता के साथ पालन किया है और देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद तक पहुंचे सभी लोग राजनैतिक अतीत के साथ आगे बढ़े हैं. इस पैमाने पर अपनी समग्र वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद कलाम अधिकतम गवर्नर या राजदूत हो सकते थे. उनका राष्ट्रपति होना हजार संयोगों का एक साथ मिल जाना था. कलाम को राष्ट्रपति बनाने के लिए राजनीति की हिचक सिर्फ इसलिए भी टूट सकी क्योंकि वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, जो सियासत के रवायती संस्कारों को लेकर उतने आग्रही नहीं थे. अगर वाजपेयी ने कलाम के चुनाव को प्रतिष्ठा न बनाया होता तो शायद एनडीए किसी दूसरे राजनैतिक प्रत्याशी पर समझौता कर लेता. क्योंकि कलाम न केवल 1998 में वाजपेयी मंत्रिमंडल में शामिल होने की पेशकश ठुकरा चुके थे बल्कि अपना पेशेवर कार्यकाल पूरा कर अन्ना यूनिवर्सिटी में शिक्षक के तौर पर अपने सेवानिवृत्त जीवन की तैयारी शुरू कर चुके थे. यकीनन, वे सियासत की दहलीजों पर मत्था टेके बगैर देश के प्रथम नागरिक हो गए. लेकिन साथ ही यह भी सच है कि कलाम की प्रतिष्ठा को नया शिखर राष्ट्रपति बनने के बाद ही मिला और वे इतने लोकप्रिय होंगे इसका अंदाजा खुद एनडीए को भी नहीं था. कलाम का सफल वैज्ञानिक होना उनकी लोकप्रियता की शायद उतनी बड़ी वजह नहीं था. वे भारतीय मध्य वर्ग और युवाओं के चहेते इसलिए बन सके क्योंकि एक नितांत गैर सियासी टेक्नोक्रैट चौंकाने वाले अंदाज में भारतीय राजनीति की परंपरा को ध्वस्त करता हुआ, स्फुलिंग की तरह राष्ट्रपति पद पर पहुंच गया. उनकी इस उड़ान ने पहली बार भारत के लोगों को भरोसा दिया था कि एक गैर राजनैतिक व्यक्ति अपनी क्षमता के बूते सत्ता के गढ़ ढहाकर राष्ट्रपति तक हो सकता है, अलबत्ता कलाम का यही मॉडल सियासत के गले नहीं उतरा. कलाम के राष्ट्रपति बनने तक वाजपेयी सरकार का उत्तरार्ध शुरू हो गया था जबकि उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी. उनका शेष कार्यकाल यूपीए के साथ बीता, जिसने एक क्षमतावान राष्ट्रपति की सक्रियता को सीमित कर दिया, जो भारत का ब्रांड एम्बेसडर हो सकता था. उस दौरान दिल्ली के सियासी गलियारों में यह किस्से आम थे कि किस तरह यूपीए ने कलाम की उड़ान को रोक दी है. उन्हें दूसरा कार्यकाल नहीं मिलना था क्योंकि तब तक पारंपरिक राजनीति कलाम जैसों को शिखर पर रखने का जोखिम समझ चुकी थी. अलबत्ता एक जनप्रिय पूर्व राष्ट्रपति का महज एक व्याख्याता बनकर रह जाना, उनकी क्षमताओं के साथ न्याय हरगिज नहीं था.
कलाम की जली सियासत प्रोफेशनलों को फूंक-फूंककर चुनने लगी. उनके बाद प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति भवन पहुंचते ही पुराना मॉडल वापस स्थापित हो गया और सत्ता में अन्य पदों पर गैर राजनेताओं के प्रवेश को लेकर सतर्कता पहले से ज्यादा बढ़ गई. मिसाइलमैन कलाम के राष्ट्रपति बनने के बाद के वर्षों में सर्वोच्च पदों पर किसी गैर राजनेता को लाने की जोखिम नहीं लिया गया. और जहां भी क्षमतावान गैर राजनेता या प्रोफेशनल लाने पड़े, वहां राजनैतिक नेतृत्व हमेशा सशंकित बना रहा. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और सरकार के रिश्ते इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं.  कलाम का वैज्ञानिक और चिंतक होना नहीं बल्कि उनका राष्ट्रपति बनना भारत के राजनैतिक इतिहास की एक दुर्लभ घटना है, क्योंकि कलाम न तो आनुवांशिक नेता थे और न ही दलीय राजनीति में उनका कभी बपतिस्मा हुआ था. आदर्श परिस्थतियों में कलाम के राष्ट्रपति बनने को परंपरा बनाया जाना चाहिए था क्योंकि सत्ता के प्रमुख पदों पर विशेषज्ञों और पेशेवरों को लाने की हिचक खत्म हो गई थी. लेकिन जैसा कि रघुबीर सहाय ने लिखा है स्वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग/एक स्वाधीन व्यक्ति से! दरअसल कलाम की स्वाधीनता ने पारंपरिक सियासत को पर्याप्त मात्रा में चौंका दिया है. उम्मीद कम ही है कि निकट भविष्य में भारतीय राजनीति कलाम जैसी किसी दूसरी शख्सियत को सत्ता के शिखर पर लाने का साहस जुटा पाएगी.

Monday, December 17, 2012

कैश फॉर वोट

नोट के बदले वोटसियासत में जीत का यह सबसे लोकप्रिय ग्‍लोबल फार्मूला है, जो परोक्ष रुप से दुनिया के हर देश में काम करता है। भारत में इसका प्रत्‍यक्ष और सरकारी अवतार एक जनवरी से प्रकट हो जाएगा। जनता को सीधे नकद पैसा देने की स्‍कीम यानी डायरेक्‍ट बेनीफिट ट्रांसफर पर जमीनी तैयारियां शुरु हो   चुकी हैं। आम जनता को सुविधाओं के बजाय बड़े पैमाने पर संगठित रुप से नकद पैसा देने की इस स्‍कीम में देश का सबसे विवादित राजनीतिक आर्थिक प्रयोग बनने की गुंजायश छिपी है। यह स्‍कीम राजनीतिक समर्थन के लिए बजट के खुले इस्तेमाल की एक ऐसी नई परंपरा शुरु कर सकता है जिसमें राज्‍य सरकारें लोककल्‍याणकारी राज्‍य को वोट कल्‍याणकारी राज्‍य में बदल देंगी। लोगों को नकद सब्सिडी देने के पैरोकार इस दो टूक निष्‍कर्ष के लिए माफ करेंगे लेकिन हकीकत यह है कि इससे सब्सिडी की बर्बादी रुकने और सही लोगों तक केंद्रीय स्‍कीमों का पैसा पहुंचने की कोई गारंटी नहीं है अलबत्‍ता इसका चुनावी इस्‍तेमाल होना शत प्रतिशत तय है। 
कंडीशनल की जगह डायरेक्‍ट    

जरुरतमंद लोगों को बडे पैमाने पर सरकारी बजट से नकद पैसा देने के प्रयोग पूरी दुनिया में विवादित और राजनीतिक तौर पर अस्‍वीकार्य रहे हैं। इस तरह के प्रयोगों में राजनीतिक लाभ का लेने का संदेह हमेशा छिपा होता है। यही वजह है कि दुनिया में कैश ट्रांसफर हमेशा इस शर्त पर होते हैं कि लाभार्थी स्‍वास्‍थ्‍य व शिक्षा की संस्‍थागत सुविधाओं को

Monday, August 29, 2011

नेतृत्‍व का ग्‍लोबल संकट

राक ओबामा, एंजेला मर्केल, निकोलस सरकोजी, डेविड कैमरुन, नातो कान, मनमोहन सिंह, आंद्रे पापेद्रू (ग्रीस), बेंजामिन् नेतान्याहू, रो्ड्रियो जैप्टारो (स्पे न) आदि राष्ट्राध्यक्ष सामूहिक तौर पर इस समय दुनिया को क्या दे रहे हैं ??  केवल घटता भरोसा,  बढता डर और भयानक अनिश्चितता !!!!  सियासत की समझदारी ने बड़े कठिन मौके पर दुनिया का साथ छोड़ दिया है। हर जगह सरकारें अपनी राजनीतिक साख खो रही हैं। राजनीतिक अस्थिरता के कारण इस सप्‍ताह जापान की रेटिंग घट गई। दुनिया के कई प्रमुख देश राजनीतिक संकट के भंवर में है। भारत में अन्ना की जीत सुखद है मगर एक जनांदोलन के सामने सरकार का बिखर जाना फिक्र बढ़ाता है। मंदी तकरीबन आ पहुंची है। कर्ज का कीचड़ बाजारों को डुबाये दे रहा है। इस बेहद मुश्किल भरे दौर में पूरी दुनिया के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके सहारे उबरने की उम्मीद बांधी जा सके। राजनीतिक नेतृत्व की ऐसी अंतरराष्ट्रीय किल्‍लत अनदेखी है। पूरी दुनिया नेतृत्व के संकट से तप रही है।
अमेरिकी साख का डबल डिप
ओबामा प्रशासन ने स्टैंडर्ड एंड पुअर के मुखिया देवेन शर्मा की बलि ले ली। अपना घर नहीं सुधरा तो चेतावनी देने वाले को सूली पर टांग दिया। मगर अब तो फेड रिजर्व के मुखिया बर्नांकी ने भी संकट की तोहमत अमेरिकी संसद पर डाल दी है। स्टैंडर्ड एंड पुअर ने दरअसल अमेरिका की वित्तींय साख नहीं बल्कि राजनीतिक साख घटाई थी। दुनिया का ताजी तबाही अमेरिका पर भारी कर्ज से नहीं निकली, बल्कि रिपब्लिकन व डेमोक्रेट के झगड़े

Monday, January 17, 2011

हाकिम जी, सरकार खो गई !

अथार्थ
कितने बेचारे हैं हमारे हाकिम!.. एक मंत्री कहते हैं बाबा माफ करो, हमसे नहीं थमती महंगाई।.. बोरा भर कानून और भीमकाय अफसरी ढांचे वाली सरकार की यह मरियल विकल्पहीनता तरस के नहीं शर्मिंदगी के काबिल है। तो एक दूसरे हाकिम महंगाई से कुचली जनता को निचोड़ने के लिए तेल कंपनियों को खुला छोड़ देते है कोई चुनाव सामने जो नहीं है ! …. करोड़ो की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार की यह अभूतपूर्व निर्ममता उपेक्षा के नहीं क्षोभ के काबिल है। एक तीसरे हाकिम को संवैधानिक संस्था (सीएजी) की वह रिपोर्ट ही फर्जी लगती है, जिस के आधार पर मंत्री, संतरी और कंपनियों तक को सजा दी जा चुकी है।... सरकार की यह बदहवासी हंसी के नहीं हैरत के काबिल है। सरकार के मंत्री अब काम नहीं करते बल्कि लड़ते हैं, कैबिनेट की बैठकों में उनके झगड़े निबटते हैं और जिम्मेदार महकमे अब एक दूसरे को उनकी सीमायें (औकात) दिखाते हैं सरकार में यह बिखराव आलोचना के नहीं दया के काबिल है। इतनी निरीह, निष्प्रभावी, बदहवास, बंटी, बिखरी और नपुंसक गवर्नेंस या सरकार आपने शायद पहले कभी नहीं देखी होगी। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर सेना और सुप्रीम कोर्ट से लेकर सतर्कता आयोग तक देश की हर उच्च संस्था की साख इतना वीभत्स जुलूस भी पहली बार ही निकला है और इतना दिग्भ्रमित, निष्प्रयोज्य, नगण्य और बेअसर विपक्ष भी हमने पहली बार देखा है। ...यह अराजकता अद्भुत है। हम बेइंतिहा बदकिस्म्त हैं। हमारी सरकार कहीं खो गई है।
गलाघोंट गठबंधन
राजनीति में युवा उम्मीद (?) राहुल गांधी कहते हैं कि महंगाई रोकने में गठबंधन आड़े आता है। अभी तक तो हम गठबंधन की राजनीति का यशोगान सुन रहे थे। विद्वान बताते थे कि गठबंधन एक दलीय दबदबे को संतुलित करते हैं और क्षेत्रीय राजनीति को केंद्र में स्वर देते हैं। सुनते थे कि भारत ने गठबंधन की राजनीति का सुर साध लिया है और अब राज्यों की सरकारों को भी यह संतुलित रसायन उपलबध हो गया है। लेकिन महंगाई थामने में बुरी तरह हारी कांग्रेस को गठबंधन गले की फांस लगने लगा। गठबंधन की राजनीति के फायदों का तो पता नहीं अलबत्ता महंगाई और भ्रष्टाचार से क्षतविक्षत जनता से यह देख रही है कि राजनीतिक गठजोड़ अब लाभों के

Monday, November 29, 2010

नीतीश होने की मजबूरी

अर्थार्थ
वोटर रीझता है मगर सड़क से नहीं (जातीय) समीकरण से, विकास से नहीं (वोटों का) विभाजन से और काम से नहीं (व्यक्तित्व के) करिश्मे से! एक पराजित मुख्यमंत्री ने कुछ साल पहले ऐसा ही कहा था। यह हारे को हरिनाम था ? नहीं ! यह भारत में विकास की राजनीति के असफल होने का ईमानदार ऐलान था। नेता जी बज़ा फरमा रहे थे,भारत की सियासत तो जाति प्रमाण पत्रों की दीवानी है। विकास के सहारे बदलते आय (कमाई)प्रमाण पत्रों की होड़ उसे नहीं सुहाती। चुनावी गणित विकास के आंकड़ो से नहीं सधती, इसलिए ठोस आर्थिक विकास से सिंझाई गई राजनीति को हमने कभी चखा ही नहीं। भारत में सियासत अपनी लीक चलती है और विकास अपनी गति से ढुलकता है। सत्ता में पहुंच कर आर्थिक प्रगति दिखाने वालों का माल भी वोट की मंडी में कायदे से नहीं बिकता तो फिर विकास की राजनीति का जोखिम कौन ले? इसलिए आर्थिक विकास दलों के बुनियादी राजनीतिक दर्शन की परिधि पर टंगा रहता है। मगर इस बार कुछ हैरतअंगेज हुआ। जनता नेताओं से आगे निकल गई। पुरानी सियासत के अंधेरे में सर फोड़ती पार्टियों को, बिहार का गरीब गुरबा वोटर धकेल कर नई रोशनी में ले आया है। बिहार के नतीजे राजनीति को उसका बुनियादी दर्शन बदलने पर मजबूर कर रहे हैं। चौंकिये मत! राजनीति हमेशा मजबूरी में ही बदली है।
प्रयोग जारी है
भारत का प्रौढ़ लोकतंत्र,उदार अर्थव्यवस्था से रिश्ते को कई तरह से परख रहा है। पूरा देश राजनीतिक आर्थिक मॉडलों की विचित्र प्रयोगशाला है। राजनीतिक स्थिरता विकास की गारंटी है लेकिन बंगाल का वोटर अब विकास के लिए ही स्थिरता से निजात चाहता है। दूसरी तरफ लंबी राजनीतिक स्थिरता के सहारे राजस्थान चमक जाता है। गठजोड़ की सरकारें पंजाब में कोई उम्मीाद नहीं जगातीं लेकिन बिहार में वोटरों को भा जाती हैं। बड़े राज्यों में पहिया धीरे घूमता है मगर छोटे राज्य विकास का रॉकेट बनते भी नजर नहीं