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Friday, September 30, 2016

संयम की अगली नियंत्रण रेखा



जीतता वही है जिसे पता हो कि कब लड़ना है और कब नहीं 
सुन त्‍जु, आर्ट आफ वॉर  


पाकिस्तान को लेकर नरेंद्र मोदी का आशावाद तो अक्‍टूबर 2014 में ही खत्‍म हो गया था जब जम्‍मू कश्‍मीर में अंतरराष्‍ट्रीय सीमा पर पाकिस्‍तान भारी गोलाबारी शुरु की थी। आठ अक्‍टूबर को एयर चीफ मार्शल अरुप राहा के घर एयर फोर्स डे की पार्टी में प्रधानमंत्री के पहुंचने से पहले तक  सुरक्षा बल पाकिस्‍तान को मुंहतोड़ जवाब देने लगे थे। भारत अगर चाहता तो उस वक्‍त भी यह तेवर दिखा सकता था जो गुरुवार 29 सितंबर को नजर आए। अलबत्‍ता उस मुंहतोड़ जवाब (जो सचमुच था भी) के बावजूद प्रधानमंत्री ने न केवल जल्‍द ही सब कुछ ठीक होने का भरोसा दिया बल्कि दिसंबर 2015 में रुस से लौटते हुए लाहौर में रुककर बहुतों को चौंका दिया। यह किसी भारतीय प्रधानमंत्री की दस साल में पहली पाकिस्‍तान यात्रा थी और वह भी अचानक।

भारत तो पाकिस्‍तान से लगातार लड़ रहा है। पिछले दो साल में यह जंग छद्म और प्रत्‍यक्ष दोनों तरह से गहन, निरंतर और स्‍थायी हो चुकी है। भारत चाहता तो इसे पहले की मुठभेडों में जीत और घुसपैठ की कोशिशों को रोकने में मिली सफलता को आज जैसी तेवर तुर्शी के साथ करारा जवाब बता सकता था लेकिन बकौल सुन त्‍जु जीतता वही है जिसे यह पता हो कि कब लड़ना है। शायद इस कई पैमानों पर भारत के लिए सही मौका था जब अपने संयम की नियंत्रण रेखा पाकिस्‍तान को दिखा सके।

वैसे सुन त्‍जु ने यह भी कहा था कि हमले का कदम तभी उठाया जाना चाहिए जब उसके लाभ नजर आएं। प्रधानमंत्री मोदी के लिए सख्‍त दिखना न केवल उनकी घरेलू राजनीति के लिए अनिवार्य था बल्कि दक्षिण एशिया में बदलते शक्ति संतुलन में भारत के रसूख को बनाये रखने के लिए भी जरुरी था। पाक अधिकृत कश्‍मीर में आतंकियों पर कार्रवाई का रहस्‍यमय और दावों प्रतिदावों से भरे होना लाजिमी है क्‍यों कि इस तरह की रणनीतियां शत्रु को प्रत्‍यक्ष नुकसान से अधिक इस बात पर निर्भर करती हैं कि इनसे किस तरह के संदेश दिये जाते हैं।

इसी स्‍तंभ में हमने पिछले सप्‍ताह लिखा था कि पाकिसतान से निबटने में भारत को साहस, सूझ और संयम का साझा करना होगा और अपने नुकसान और जोखिम न्‍यूनतम रखना होगा। इस पैमाने पर गुरुवार की सुबह की कार्रवाई साहसिक और संयमित थी। कार्रवाई आतंकियों के खिलाफ थी और उड़ी हमले के बाद हुई थी इसलिए पाकिस्‍तान के पास प्रतिक्रिया के लिए कुछ नहीं था। भारतीय सेना पहले भी इस तरह की कार्रवाइयां करती रही है अलबत्‍ता सीधी कार्रवाई करने के साथ इन्‍हें स्‍वीकारने का राजनीतिक साहस इस अभियान को आतंक के खिलाफ पिछले अभियानों से अलग करता है।

भारत ने यह कार्रवाई करते हुए प्रत्‍यक्ष रुप से 2003 युद्ध विराम के उल्‍लंघन की घोषणा भी नहीं और न ही इस कार्रवाई को आगे जारी रखने का संकेत दिया। यह सब करते हुए मोदी ने घरेलू राजनीति में नुकसान को थाम लिया है और सियासी दबाव को प्रेशर वाल्‍व उपलब्‍ध करा दिया जो उड़ी हमले के बाद बना था।

अलबत्‍ता इस अभियान के कूटनीतिक पहलू रणनीतिक पक्षों से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हैं जिन्‍होंने मोदी को दो टूक करते हुए दिखने पर बाध्‍य किया है। उड़ी हमले के बाद पाकिस्‍तान के खिलाफ कूटनीतिक अभियानों में भारत की सफलता मिली जुली रही है। भारत के दबाव के बावजूद रुस ने पाकिस्‍तान के साथ सैन्‍य अभ्‍यास रद नहीं किया। दक्षिण एशिया के शकित्‍ संतुलन में चीन पाकिसतान के साथ है। सार्क को रद करना प्रतीकात्‍मक है लेकिन उससे पाकिस्‍तान को तत्‍काल  कोई सबक नहीं मिलना था। सिंधु समझौते को सीमित करना या व्‍यापार संबंधों पर रोक ऐसे कदम हैं जिनका असर लंबे समय में होंगे। इस बीच उड़ी हमले के बाद भी आतंकी कोशिशें और सीमा पर से गोलाबारी जारी थी इस सूरत में न केवल घरेलू राजनीति के लिए बल्कि दक्षिण एशिया की रणनीतिक बिसात के मुताबिक भी तेवर दिखाना भारत के लिए जरुरी था।

यदि आप खुद को जानते हैं और दुश्‍मन को भी तो फिर चाहे सैकड़ों लड़ाइयां हों, नतीजों से डरने की जरुरत नहीं है सुन त्‍जु का यह तीसरा तलिस्‍मा, कार्रवाई के बाद भारत की उलझन का शीर्षक बन सकता है। पाकिस्‍तान को संदेश तो दिया गया लेकिन मुश्किल अब यहां से प्रारंभ होती है। प्रधानमंत्री मोदी भारत की जरुरतों, संभावनाओं, उम्‍मीदों और चुनौतियों को भी जानते हैं और पाकिस्‍तान के मिजाज और षड़यंत्र को भी। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ताजे सबक के बाद पाकिसतान में आतंक की फैक्‍ट्री बंद हो जाएगी बल्कि उसके दोगुनी ताकत से आगे आने का डर है। यदि ऐसा हुआ तो फिर संयम की अगली नियंत्रण रेखा क्‍या होगी ?

जाहिर है मोदी बार-बार पाकिस्‍तान के खिलाफ यह नहीं करना चाहेंगे जो उन्‍हें इस बार करना पड़ा है लेकिन पाकिसतान अपने डिजाइन नहीं आजमायेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। भारत, पाकिस्‍तान के साथ तनाव लेकर जी सकता है लेकिन टकराव लेकर नहीं। प्रधानमंत्री मोदी की कोशिश होगी कि वह संघर्ष को टालें और जल्‍द से जल्‍द सरकार के संवाद को पाकिस्‍तान की छाया से निकाल कर ग्रोथ, विकास और समृद्धि की तरफ लाएं। ऐसा न होने पर भारत को होने वाले नुकसान ज्‍यादा बडे होंगे।

शायद भारत को अंतत: रणनीति के उस पुराने सिद्धांत की तरफ लौटना चाहिए जो कहता है कि हमले की स्थिति में जीत या हार दोनों संभावित हैं लेकिन यदि अजेय होना है तो प्रतिरक्षा को मजबूत करना होगा।

पाकिसतान, नरेंद्र मोदी के लिए अटल बिहारी वाजपेयी या मनमोहन सिंह की तुलना में ज्‍यादा बड़ी चुनौती है। घरेलू राजनीति के तकाजे उनमें बांग्‍लादेश बनाने वाली इंदिरा गांधी जैसी आक्रामकता चाहते हैं जबकि ग्‍लोबल राजनीति की बिसात उनसे वाजपेयी जैसी सदाशयता मांगती है और तीसरी तरफ उन्‍हें भारत की एक सुरक्षित और निरापद छवि बनानी है ताकि लोग यहां निवेश और कारोबार कर सकें। पाकिस्‍तान के सख्‍त कार्रवाई के बाद अब मोदी को उदारता, चतुरता और आक्रामकता बेहद नाजुक संतुलन बनाना होगा जिसमें उन्‍हें देश के भीतर भरपूर  राजनीतिक सहमति की जरुरत होगी ताकि संघर्षहीन विजय हासिल हो सके।

युद्ध की सबसे बड़ी कला यही है कि शत्रु को बगैर लड़े परास्‍त कर दिया जाए – सुन त्‍जु



Wednesday, April 29, 2015

नया एशियाई टाइगर !


चीन-पाक समझौते से एक नया पाकिस्तान भारत से मुकाबिल होगा. इस नए समीकरण के बाद भारत के लिए, दक्षिण एशिया की कूटनीति में शर्तें तय करने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पाकिस्तान यात्रा शायद इसलिए टल रही थी क्योंकि दोनों मुल्क जिस करवट की तैयारी कर रहे थे, वह यकीनन बहुत बड़ी होने वाली थी. पाकिस्तान को अपना आर्थिक भविष्य चीन के हाथ सौंपने से पहले, अमेरिका से दूरी बनाने का साहस जुटाना था जबकि चीन को दुनिया के सबसे जोखिम भरे देश में दखल की रणनीति पर मुतमईन होना था. सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ और जिनपिंग और नवाज शरीफ के बीच समझौते के साथ ही दक्षिण एशिया की कूटनीतिक बिसात सिरे से बदल गई. भारत इस बदलाव को चाह कर भी नहीं रोक सका. अमेरिका ने रोकने में रुचि नहीं ली जबकि हाशिये पर सिमटे रूस को ज्यादा मतलब नहीं था. चीन-पाक समझौते से अब न केवल एक नया पाकिस्तान भारत से मुकाबिल होगा बल्कि दिल्ली की सरकार को देश की सीमा से कुछ सौ किलोमीटर दूर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित काश्गर से ग्वादर तक चीनी कंपनियों की धमाचौकड़ी के लिए तैयार रहना होगा.
  46 अरब डॉलर कितने होते हैं? अगर यह सवाल पाकिस्तान से संबंधित हो तो जवाब है कि यह आंकड़ा पाकिस्तान के जीडीपी के 20 फीसदी हिस्से के बराबर है. यही वह निवेश है जिसके समझौते पर जिनपिंग और नवाज शरीफ ने दस्तखत किए हैं. समझना मुश्किल नहीं है कि चीन ने पाकिस्तान की डूब चुकी अर्थव्यवस्था को न केवल गोद में उठा लिया है बल्कि यह निवेश जिस प्रोजेक्ट में हो रहा है, उसके तहत लगभग पूरा पाकिस्तान चीन के प्रभाव में होगा.
   
दुनिया के सबसे बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की निर्माता और 60 अरब डॉलर की संपत्तियां संभालने वाली चीन की थ्री गॉर्जेज कॉर्पोरेशन की अगुआई में जब चीन की विशाल सरकारी कंपनियां पाकिस्तान के इतिहास की बड़ी आर्थिक व निर्माण परियोजना शुरू करेंगी तो उनका शोर दिल्ली तक दस्तक देगा. चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर अपने तरह की पहली परियोजना है जिसमें दो मुल्क अपनी आर्थिक संप्रभुता को साझा कर रहे हैं. काराकोरम राजमार्ग पर स्थित उत्तर-पश्चिमी चीनी शहर काश्गर को पाकिस्तान के दक्षिणी बंदरगाह ग्वादर से जोड़ने वाले 3,000 किलोमीटर के इस गलियारे में सड़कों, रेलवे, तेल-गैस पाइपलाइन, औद्योगिक पार्क का नेटवर्क बनेगा, जिसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी शामिल है. ग्वादर को हांगकांग की तर्ज पर फ्री ट्रेड जोन में बदला जाएगा. लाहौर, मुल्तान, गुजरांवाला, फैसलाबाद, रावलपिंडी और कराची में मेट्रो भी कॉरिडोर का हिस्सा हैं. चीन ने अपनी पांच दिग्गज सरकारी कंपनियों, थ्री गॉर्जेज, चाइना पावर इंटरनेशनल, हुआनेंग ग्रुप, आइसीबीसी कॉर्प, जोनर्जी कॉर्प को पाकिस्तान में उतार दिया है. इनके पीछे इंडस्ट्रियल ऐंड कॉमर्शियल बैंक ऑफ चाइना के संसाधनों की ताकत होगी.
   
ईरान-पाकिस्तान के बीच बनने वाली गैस पाइपलाइन को भी चीन की सरपरस्ती मिल गई है. इसका 560 मील लंबा ईरानी हिस्सा (फारस की खाड़ी में असलुया से बलूचिस्तान सीमा तक) तैयार है, अब पाकिस्तान को ग्वादर तक 485 मील पाइपलाइन बिछानी है. करीब दो अरब डॉलर की इस परियोजना की 85 फीसद लागत चीन उठाएगा. यह पाइपलाइन पाकिस्तान को 4,500 मेगावाट की बिजली क्षमता देगी जो पूरे मुल्क की बिजली कमी को खत्म कर देगी.    देश के आर्थिक व रणनीतिक भविष्य को चीन को सौंपने का फैसला यकीनन बड़ा था लेकिन शरीफ को इसमें बहुत मुश्किल नहीं हुई होगी क्योंकि अमेरिका ने 60 वर्ष के रिश्तों में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को इतनी बड़ी सौगात नहीं दी जो चीन ने एक बार में दे दी. शरीफ ने चीन से पाकिस्तान की किस्मत जोड़कर बहुत कुछ साध लिया है. पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था लगभग डूब चुकी है. निवेश नदारद है और विदेशी मदद भी खत्म हो गई है. चीन परियोजनाओं के तेज क्रियान्वयन के लिए मशहूर है. पूरा कॉरिडोर अगले 15 साल में तैयार होना है जबकि चीन-ईरान पाइपलाइन तो 2017 से काम करने लगेगी. अगर सब कुछ ठीक चला तो अगले कुछ महीनों में पाकिस्तान में तेज निर्माण शुरू हो जाएगा जो अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ शरीफ की सियासी मुसीबत कम करेगा. चीन से दोस्ती, शरीफ को सेना का दबदबा घटाने और आतंकवादी गतिविधियां सीमित करने में भी मदद कर सकती है. चीन के युआन अगले पांच साल में पाकिस्तान का चेहरा बदल सकते हैं.
   
आतंक की फैक्टरी, अस्थिर सरकारों और सेना के परोक्ष राज वाले एक जोखिम भरे देश में इतना बड़ा निवेश करने की हिक्वमत केवल चीन ही कर सकता था और विशेषज्ञों की मानें तो जिनपिंग ऐसा करने के लिए उत्सुक भी थे. अफगानिस्तान, ईरान व पश्चिम एशिया के खनिज समृद्ध इलाके चीन की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं का नया लक्ष्य हैं और जहां अमेरिका व रूस की रुचि खत्म हो रही है. पाकिस्तान में यह निवेश दक्षिण एशिया में भारत की रणनीति को सीमित करेगा और चीन को अफगानिस्तान से लेकर पश्चिम एशिया तक मुक्त उड़ान की सुविधा देगा. इसके अलावा पाकिस्तान चीन के लिए सस्ते उत्पादन का केंद्र बनेगा और ईरान के गैस व तेल चीन तक लाने का रास्ता भी तैयार करेगा.
   
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कूटनीतिक संकल्प सराहनीय हैं लेकिन उनकी ग्लोबल उड़ानों के नतीजे सामने आने से पहले ही चीन व पाकिस्तान ने भारतीय उपमहाद्वीप के कूटनीतिक समीकरण बदल दिए हैं. भारत के लिए दक्षिण एशिया की कूटनीति में शर्तें तय करने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं. म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश के आर्थिक हितों को संजोने के बाद चीन ने पाकिस्तान को भी हथेली पर उठा लिया है. मोदी को अगले माह बीजिंग जाने से पहले यह तय करना होगा कि भारत इस नए चाइनीज ड्रीम के साथ कैसे सामंजस्य स्थापित करेगा.  कूटनीति की दुनिया में शी जिनपिंग की मुहावरेदार भाषा नई नहीं है फिर भी इस बार जब उन्होंने पाकिस्तान को भविष्य का एशियाई टाइगर (पाकिस्तान के डेली टाइम्‍स में छपा उनका लेख) कहा तो चौंकने वाले कम नहीं थे क्योंकि दुनिया की किसी भी महाशक्ति ने पाकिस्तान में यह संभावना कभी नहीं देखी. चीन की दोस्ती में पाकिस्तान शेर बनेगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है लेकिन इस बात से इत्तेफाक करना होगा कि चीनी डीएनए के साथ पाकिस्तान की गुर्राहट और चाल जरूर बदल जाएगी.