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Wednesday, February 3, 2016

मंदी स्वच्छता मिशन


लगभग ढाई दर्जन स्कीमों के मिशन और अभियानों से लदी-फदी सरकार उस जमीनी असर की तलाश में बेचैन है जो इतनी कोशिशों के बाद नजर आना चाहिए था.


मामि गंगे, स्वच्छता मिशन, डिजिटल इंडिया जैसे मिशन का औद्योगिक मंदी के इलाज से क्या रिश्ता है? सवाल इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि मोदी सरकार के मिशन मोड का उसके पिछले बजटों से क्या रिश्ता है, क्योंकि अगर मोदी के अभियानों का बजट यानी सरकारी खर्च या परियोजनाओं से कोई ठोस रिश्ता होता तो शायद हम मंदी के समाधान को जमीन पर उतरता देख रहे होते. मोदी सरकार जब अपने तीसरे बजट से महज तीस दिन दूर है तब यह महसूस करना कतई मुश्किल नहीं है कि अगर स्वच्छता, डिजिटल इंडिया, गंगा सफाई जैसे मिशन बजटीय नीतियों और खर्च के कार्यक्रमों से ठोस ढंग से जुड़ते तो इनसे मंदी दूर करने और रोजगार बहाल करने का जरिया निकल सकता था.
सरकार के गलियारों में टहलते और खबरों को सूंघते हुए यह अंदाजा लग जाता है कि मोदी सरकार अब अपने फैसले की समीक्षा के दौर में है. लगभग ढाई दर्जन स्कीमों के मिशन और अभियानों से लदी-फदी सरकार उस जमीनी असर की तलाश में बेचैन है जो इतनी कोशिशों के बाद नजर आना चाहिए था. समीक्षाओं का यह दौर चाहे जो नतीजा लेकर निकले, दो तथ्य स्पष्ट हो रहे हैं कि एक तो मिशन अपेक्षित नतीजे नहीं दे सके और दूसरा सरकार की बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं खड़ी नहीं हो सकीं जो अर्थव्यवस्था में मांग व बदलाव की उम्मीद जगातीं. ऐसा लगता है कि शायद वरीयताओं के किलों के नीचे परियोजनाओं और आवंटनों की नींव नहीं रखी गई. अगर ऐसा हुआ होता तो कई मिशन औद्योगिक ग्रोथ की गाड़ी में मांग और नए रोजगारों का ईंधन भर सकते थे. 
नमूने के तौर पर स्वच्छता और डिजिटल इंडिया को लिया जा सकता है जो विशुद्ध रूप से आर्थिक और बुनियादी ढांचा सेवाओं से जुड़े मिशन हो सकते थे, जिन्हें सरकार ने जनभागीदारी के प्रतीकों से जोड़कर प्रचार अभियान में बदल दिया और आर्थिक नतीजे सीमित हो गए.
अक्तूबर 2014 तक सड़कें बुहारती वीआइपी छवियों का दौर खत्म होने लगा था और न केवल गंदगी अपनी जगह मुस्तैद हो गई थी बल्कि सरकार में इस स्वच्छता मिशन को लेकर एक तरह का आलस पसरने लगा था. 2015 के बजट में जब सरकार से स्वच्छता मिशन को लेकर ठोस परियोजनाओं के ऐलान की उम्मीद थी, तब इसे जन चेतना से जोड़ दिया गया और स्वच्छता मिशन का चश्मा धूमिल पडऩे लगा.
स्वच्छता मिशन जो भारत में बुनियादी ढांचे को रक्रतार देने का जरिया बना सकता था, अब सिर्फ उम्मीदों में है. स्वच्छता को अगर आदत और जागरूकता की बहसों से बाहर निकाल कर देखा जाए तो यह शत प्रतिशत आर्थिक सर्विस है जो ठीक उसी तरह का बुनियादी ढांचा, तकनीक, लोग, विशेषज्ञताएं निवेश मांगती है जो शायद सिंचाई, रेलवे या दूरसंचार जैसी किसी भी दूसरी आर्थिक सेवा को चाहिए.
योजना आयोग का आकलन है कि नगरपालिकाओं में प्रति दिन लगभग 1.15 लाख टन से ज्यादा कचरा निकलता है और 12वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक, भारत में ठोस कचरा निस्तारण का कोई इंतजाम है ही नहीं. 2001 की जनगणना के अनुसार, क्लास वन और टू शहरों में 80 फीसदी सीवेज का ट्रीटमेंट नहीं होता. पिछली जनगणना ने बताया कि शहरों में 37 फीसदी आवास खुली नालियों से जुड़े हैं जबकि 18 फीसदी घरों का पानी सड़क पर बहता है. बरसाती पानी संभालने के लिए 80 फीसदी सड़कों के साथ ड्रेनेज नहीं है. ईशर अहलुवालिया समिति का आकलन था कि शहरों में सीवेज, ठोस कचरा प्रबंधन और बरसाती पानी की नालियों को बनाने के लिए पांच लाख करोड़ रु. की जरूरत है. कोई भी स्वयंसेवा संसाधनों की इस भीमकाय जरूरत का विकल्प नहीं बन सकती थी लेकिन अगर सरकार चाहती तो दो साल में स्वच्छता को लेकर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की कतार खड़ी कर सकती थी.
पिछले दो साल में देश के ज्यादातर शहरों में कचरा निस्तारण, ड्रेनेज और सीवेज की बड़ी परियोजनाएं शुरू हो सकती थीं जो शहरों को रहने लायक बनातीं, उद्योगों के लिए मांग पैदा करतीं, बड़े रोजगारों का रास्ता खोलतीं, कचरा नियंत्रण और शहर प्रबंधन की नई तकनीकों की तलाश शुरू करतीं, लेकिन एक आर्थिक सेवा को प्रतीकों तक सीमित रखने का नतीजा यह हुआ कि बड़ी बुनियादी ढांचा क्रांति सिर्फ नेताओं के ड्राइंग रूम में टंगी झाड़ू विभूषित छवियों तक सिमट गई.  
पिछले साल, 1 जुलाई को जब प्रधानमंत्री मोदी, इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में डिजिटल इंडिया मिशन लॉन्च कर रहे थे तब उस कार्यक्रम में मौजूद लोग कॉल ड्रॉप की शिकायत कर रहे थे. मुट्ठी भर ऐप्लिकेशन आधारित सेवाओं और ई-गवर्नेंस के पुराने प्रयोगों के नवीनीकरण के साथ नमूदार हुआ डिजिटल इंडिया भव्य तो था लेकिन ठोस नहीं.
नैसकॉम-मैकेंजी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में तकनीक व संबंधित सेवाओं का बाजार 2025 तक 350 अरब डॉलर पर पहुंच जाएगा जो पिछले साल 132 अरब डॉलर पर था. तकनीकों के बाजार की गहरी पड़ताल यह बताती है कि भारत बुनियादी तकनीकों का सबसे बड़ा बाजार है, अभी देश के पास कचरा निस्तारण, पेयजल आपूर्ति और शुद्धता, सरकारी सेवाओं का डिजिटाइजेशन, बेसिक हेल्थ सेवाएं जैसी तकनीकों की ही कमी है. मोबाइल ऐप्लिकेशन आधारित सेवाएं इसके बाद आती हैं.
जनभागीदारी से राजनैतिक परिवर्तन तो हो सकते हैं लेकिन आर्थिक बदलाव नहीं हो पाते. आर्थिक परिवर्तन के लिए नीतियों को लंबे समय तक सिंझाना होता है, गवर्नेंस को बार-बार हिलाते-मिलाते और पलटते रहना होता है, तब जाकर ग्रोथ का रसायन तैयार होता है. वित्त मंत्री अरुण जेटली अगले सप्ताह जब अपने तीसरे बजट का भाषण लिख रहे होंगे तो उनकी चुनौती घाटे के आंकड़े नहीं बल्कि वाजपेयी की सड़क परियोजना या मनमोहन की मनरेगा की तरह कुछ बड़ी परियोजनाओं को हकीकत बनाना होगा ताकि जमीन पर बदलावों की नापजोख हो सके. दुर्भाग्य से ऐसा करने के लिए मोदी सरकार के पास यह आखिरी बजट है क्योंकि 2017 2018 के बजट दस राज्यों के चुनाव की छाया में बनेंगे और उन बजटों में वित्तीय आर्थिक प्रबंधन और मंदी से जूझने की जुगत दिखाने का ऐसा मौका शायद फिर नहीं मिलेगा.


Monday, October 5, 2015

सर्विस चाहिए, सब्सिडी नहीं



कुछ हफ्तों में पूरी दुनिया में योग दिवस का आयोजन करा लेने वाली सरकार क्या इतनी लाचार है कि बुनियादी ढांचे की बेहद अदना-सी समस्या भी ठीक नहीं हो सकती?

पभोक्ताओं की जेब काटने के अलावा महंगाई व मोबाइल पर कॉल ड्रॉप के बीच दूसरे भी कई रिश्ते हैं. दोनों ऐसी समस्याएं है जिन्हें हल करने के लिए किसी बड़े नीतिगत आयोजन की जरूरत नहीं है और दोनों का ही समाधान निकालने के लिए राज्य सरकारें केंद्र की सबसे बड़ी मददगार हो सकती हैं जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी टीम इंडिया कहते हैं. हाल ही में कॉल ड्रॉप की समस्या पर प्रधानमंत्री का दखल, मामले की पेचीदगी का सबूत नहीं था बल्कि इस सवाल को जमीन दे रहा था कि कुछ हफ्तों में पूरी दुनिया में योग दिवस का आयोजन करा लेने वाली सरकार क्या इतनी लाचार है कि बुनियादी ढांचे की बेहद अदना-सी समस्या भी ठीक नहीं हो सकती?
कॉल ड्रॉप पर संचार मंत्रालय से पीएमओ तक पहुंची चर्चाओं और कॉर्पोरेट बैठकों को टटोलते हुए यह जानना कतई मुश्किल नहीं है कि खराब मोबाइल नेटवर्क की समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि इसके लिए राजनैतिक सर्वानुमति की जरूरत हो या फिर उपभोक्ताओं को खराब सर्विस के बदले टेलीफोन बिल पर सब्सिडी देने की जरूरत आ पड़े.
तकनीक को लेकर बहुत ज्यादा मगजमारी न भी करें तो भी इस समस्या की जड़ और संभावित समाधानों को समझने के लिए इतना जानना बेहतर रहेगा कि मोबाइल फोन 300 मेगाहट्र्ज से लेकर 3000 मेगाहट्र्ज की फ्रीक्वेंसी पर काम करते हैं, हालांकि पूरी रेंज भारत में इस्तेमाल नहीं होती. मोबाइल नेटवर्क का बुनियादी सिद्धांत है कि फ्रीक्वेंसी का बैंड जितना कम होगा, संचार उतना ही सहज रहेगा. यही वजह है कि हाल में जब स्पेक्ट्रम (फ्रीक्वेंसी) का आवंटन हुआ तो ज्यादा होड़ 900 मेगाहट्र्ज के बैंड के लिए थी. लेकिन अच्छे फ्रीक्वेंसी (निचले) बैंड में जगह कम है, इसलिए ज्यादा कंपनियां इसे हासिल करने कोशिश करती हैं. यदि किसी कंपनी के पास अच्छे बैंड कम हैं और ग्राहक ज्यादा, तो कॉल ड्राप होगी यानी कि फ्रीक्वेंसी की सड़क अगर भर चुकी है तो ट्रैफिक धीमे चलेगा.
लगे हाथ मोबाइल टावर की कमी की बहस का मर्म भी जान लेना चाहिए जो कि टेलीकॉम इन्फ्रास्ट्रक्चर का बुनियादी हिस्सा है. देश में करीब 96 करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं को सेवा देने के लिए 5.5 लाख टावर हैं. अच्छे यानी निचले फ्रीक्वेंसी बैंड के लिए कम टावर चाहिए लेकिन 3जी और 4जी यानी ऊंचे बैंड की सर्विस के लिए ज्यादा टावरों की जरूरत होती है.
इन बुनियादी तथ्यों की रोशनी में सरकार और कंपनियों की भूमिका परखने पर किसी को भी एहसास हो जाएगा कि समस्या बड़ी नहीं है, बल्कि मामला संकल्प, गंभीरता, समन्वय की कमी और कंपनियों पर दबाव बनाने में हिचक का है, जिसने भारत की मोबाइल क्रांति को कसैला कर दिया है. सबसे पहले टावरों की कमी को लेते हैं. मोबाइल सेवा कंपनियां मानती हैं कि नेटवर्क को बेहतर करने और कॉल ड्रॉप रोकने के लिए फिलहाल केवल एक लाख टावरों की जरूरत है. इसमें ज्यादातर टावर महानगरों में चाहिए. देश के हर शहर और जिले में केंद्र व राज्य सरकारों की इतनी संपत्तियां मौजूद हैं जिन पर टावर लगाए जा सकते हैं. सिर्फ एक समन्वित प्रशासनिक आदेश से काम चल सकता है. इस साल फरवरी में इसकी पहल भी हुई लेकिन तेजी से काम करने वाला पीएमओ इसे रफ्तार नहीं दे सका. 12 राज्यों में अपनी या अपने सहयोगी दलों की सरकारों के बावजूद अगर मोदी सरकार छोटे-छोटे टावरों के लिए कुछ सैकड़ा वर्ग फुट जमीन या छतें भी नहीं जुटा सकती तो फिर टीम इंडिया की बातें सिर्फ जुमला हैं.
प्रशासनिक संकल्प में दूसरा झोल कंपनियों पर सख्ती को लेकर है. पिछले साल स्पेक्ट्रम नीलामी को सरकार ने अपनी सबसे बड़ी सफलता कहते हुए कंपनियों के लिए बुनियादी ढांचे की कमी पूरी कर दी थी. कंपनियों को स्पेक्ट्रम आपस में बांटने की छूट मिल चुकी है, वे अपने टावर पर दूसरी कंपनी को जगह दे सकती हैं. उन्हें स्पेक्ट्रम बेचने की छूट भी मिलने वाली है, लेकिन इतना सब करते हुए पीएमओ और संचार मंत्री को कंपनियों से यह पूछने की हिम्मत तो दिखानी चाहिए कि अगर जनवरी 2013 से मार्च 2015 तक वॉयस नेटवर्क का इस्तेमाल 12 फीसदी बढ़ा तो कंपनियों ने नेटवर्क (बीटीएस) क्षमता में केवल 8 फीसद का ही इजाफा क्यों किया? कॉल ड्रॉप पर टीआरएआइ का ताजा दस्तावेज बताता है कि पिछले दो साल में 3जी पर डाटा नेटवर्क का इस्तेमाल 252 फीसदी बढ़ा लेकिन कंपनियों ने नेटवर्क में केवल 61 फीसदी की बढ़ोतरी की.
स्पेक्ट्रम के लिए कंपनियों की ऊंची बोली से सरकार को राजस्व मिला और कंपनियों को स्पेक्ट्रम, जिससे बाजार में उनका मूल्यांकन बढ़ रहा है, लेकिन उपभोक्ता को सिर्फ कॉल ड्रॉप व महंगे बिल मिले हैं. सरकार तो कंपनियों को इस बात के लिए भी बाध्य नहीं कर पा रही है कि वे कम से कम इतना तो बताएं कि उनके पास नेटवर्क व उपभोक्ताओं का अनुपात क्या है ताकि लोग उन कंपनियों की सेवा न लें जिनकी सीटें भर चुकी हैं.

हमारे पास रेलवे है जो न समय पर चलती है और न पर्याप्त क्षमता है. सड़कें हैं लेकिन बदहाल हैं. बिजली नेटवर्क है लेकिन बिजली नहीं आती. मोबाइल क्रांति भारत का एकमात्र सबसे सफल सुधार है जिसने भारत को आधुनिक बनाया है. इस क्रांति को पहले घोटालों ने दागी किया और अब खराब सेवा इसे चौपट करने वाली है. प्रधानमंत्री पता नहीं, कैसा डिजिटल इंडिया बनाना चाहते हैं? कॉल ड्रॉप पर दूरसंचार नियामक अधिकरण के हालिया चर्चा पत्र को अगर आधार माना जाए तो सरकार बुनियादी ढांचे की चुनौती को तुरंत ठीक करने और कंपनियों पर सख्ती में खुद को नाकाम पा रही है. इसकी बजाए उपभोक्ताओं के बिल में छूट देने के विकल्प की तैयारी हो रही है मानो उपभोक्ता अच्छा नेटवर्क नहीं बल्कि में बिल कमी चाह रहे हों? उपभोक्ताओं को अच्छी सेवा चाहिए, खराब सेवा पर सब्सिडी नहीं. ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि मोबाइल को रेलवे या बिजली जैसी हालत में पहुंचाने पर किसका फायदा होने वाला है.

Monday, January 19, 2015

भूमिहीन मेक इन इंडिया

जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिएनिरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को?
दि आप मामूली यूएसबी ड्राइव बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं, जो चीन से इस कदर आयात होती हैं कि सरकार के मेक इन इंडिया का ब्योरा भी पत्रकारों को चीन में बनी पेन ड्राइव में दिया गया था, तो जमीन हासिल करने के लिए आपको कांग्रेसी राज के उसी कानून से जूझना होगा, जो वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इक्कीसवीं सदी की जरूरतों के माफिक नहीं है. अलबत्ता अगर आप सरकार के साथ मिलकर एक्सप्रेस-वे, इंडस्ट्रियल पार्क अथवा लग्जरी होटल-हॉस्पिटल बनाना चाहते हैं तो नए अध्यादेश के मुताबिक, आपको किसानों की सहमति या परियोजना के जीविका पर असर को आंकने की शर्तों से माफी मिल जाएगी. यह उस बहस की बानगी है जो वाइब्रेंट गुजरात और बंगाल के भव्य आयोजनों के हाशिए से उठी है और निवेश के काल्पनिक आंकड़ों में दबने को तैयार नहीं है. इसे मैन्युफैक्चरिंग बनाम इन्फ्रास्ट्रक्चर की बहस समझने की गलती मत कीजिए, क्योंकि भारत को दोनों ही चाहिए. सवाल यह है कि जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिए, निरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को? मेक इन इंडिया के तहत तकनीक, इनोवेशन लाने वाली मैन्युफैक्चरिंग को या टोल रोड बनाते हुए, कॉलोनियां काट देने वाले डेवलपर को?
जमीनें जटिल संसाधन हैं. एक के लिए यह विशुद्ध जीविका है तो दूसरे के लिए परियोजना का कच्चा माल है जबकि किसी तीसरे के लिए जमीनें मुनाफे का बुनियादी फॉर्मूला बन जाती हैं. जमीन अधिग्रहण के नए कानून और उसमें ताबड़तोड़ बदलावों ने इन तीनों हितों का संतुलन बिगाड़ दिया है. पुराने कानून (1894) के तहत मनमाने अधिग्रहण होते थे जिनमें किसानों को पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिलता था. पिछली सरकार ने विपह्न की सहमति से नए कानून में 21वीं सदी का मुआवजा तो सुनिश्चित कर दिया लेकिन नया कानून किसानों की सियासत पर केंद्रित था इसलिए विकास के लिए जमीन की सप्लाई थम गई. बीजेपी ने अध्यादेशी बदलावों से कानून को जिस तरह उदार किया है उससे फायदे चुनिंदा निवेशकों की ओर मुखातिब हो रहे हैं, जिससे जटिलताओं की जमीन और कडिय़ल हो जाएगी. 
खेती के अलावा, जमीन के उत्पादक इस्तेमाल के दो मॉडल हैं. एक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं है जहां जमीन ही कारोबार व मुनाफे का बुनियादी आधार है. दूसरा ग्राहक मैन्युफैक्चरिंग है जहां निवेशकों के लिए भूमि, परियोजना की लागत का हिस्सा है, क्योंकि फैक्ट्री का मुनाफा तकनीक और प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है. सड़क, बिजली, आवास, एयरपोर्ट की बुनियादी भूमिका और जरूरत पर कोई विवाद नहीं हो सकता लेकिन स्वीकार करना होगा कि सरकारी नीतियां इन्फ्रास्ट्रक्चर ग्रंथि की शिकार भी हैं. आर्थिक विकास की अधिकांश बहसें बुनियादी ढांचे की कमी से शुरू होती हैं. रियायतों, कर्ज सुविधाओं और परियोजनाओं में सरकार की सीधी भागीदारी (पीपीपी-सरकारी गारंटी जैसा है) का दुलार भी महज एक दर्जन उद्योग या सेवाओं को मिलता है. सरकार की वरीयता बैंकों की भी वरीयता है इसलिए, इन्फ्रास्ट्रक्चर और पीपीपी परियोजनाओं में भारी कर्ज फंसा है.
संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून से जमीन की सप्लाई में आसानी होगी लेकिन सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर उद्योगों के लिए. इन उद्योगों में चार गुना कीमत देकर खरीदी गई जमीन से भी मुनाफा कमाना संभव है क्योंकि मकान, एयरपोर्ट और एक्सप्रेस-वे इत्यादि बनाने में जमीन के कारोबारी इस्तेमाल की अनंत संभावनाएं हैं. अलबत्ता मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के लिए सस्ती जमीन तो दूर, उन्हें वह सभी शर्तें माननी होंगी, जिनसे इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपर को मुक्ति मिल गई है. इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए सुविधाएं और रियायतें पहले से हैं, मैन्युफैक्चरिंग को लेकर उत्साह, मोदी के मेक इन इंडिया अभियान के बाद बढ़ा है. मैन्युफैक्चरिंग स्थायी और प्रशिक्षित रोजगार लाती है जबकि कंस्ट्रक्शन उद्योग दैनिक और अकुशल श्रमिक खपाता है. निवेशक यह समझ रहे थे कि सरकार स्थायी नौकरियों को लेकर गंभीर है इसलिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलेगा. ध्यान रखना जरूरी है कि मैन्युफैक्चरिंग के दायरे में सैकड़ों उद्योग आते हैं जबकि जिन उद्योगों के लिए कानून उदार हुआ है, वहां मुट्ठी भर बड़ी कंपनियां ही हैं. इसलिए बदलावों का फायदा चुनिंदा उद्योगों और कंपनियों के हक में जाने के आरोप बढ़ते जाएंगे.

बीजेपी की मुश्किल यह है कि पिछले भूमि अधिग्रहण कानून में कई बदलाव सुमित्रा महाजन, वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष, के नेतृत्व वाली संसदीय समिति की सिफारिश से हुए थे. सर्वदलीय बैठकों से लेकर संसद तक बीजेपी ने बेहद सक्रियता के साथ जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून की पैरवी की, नए संशोधन उसके विपरीत हैं. कांग्रेस सरकार ने नए कानून पर सर्वदलीय सहमति बनाई थी, बीजेपी ने तो इन संवेदनशील बदलावों से पहले सियासी तापमान परखने की जरूरत भी नहीं समझी. दरअसल, मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून को तर्कसंगत बनाने का मौका चूक गई है. मैन्युफैक्चरिंग सहित अन्य उद्योगों को इसमें शामिल कर कानून को व्यावहारिक बनाया जा सकता था ताकि रोजगारपरक निवेश को प्रोत्साहन मिलता. वैसे भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जमीन का  व्यापक और एकमुश्त अधिग्रहण चाहिए जिनमें समय लगता है. मैन्युफैक्चरिंग के लिए जमीन की आपूर्ति बढ़ाकर रोजगार सृजन के सहारे विरोध के मौके कम किए जा सकते थे. कांग्रेस ने नया कानून बनाते हुए और बीजेपी ने इसे बदलते हुए इस तथ्य की अनदेखी की है कि जमीन का अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल बेहद जरूरी है. कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून, विकास की जरूरतों के माफिक नहीं था लेकिन बीजेपी के बदलावों के बाद यह न तो मेक इन इंडिया के माफिक रहा है और न किसानों के. भूमि अधिग्रहण कानून 21वीं सदी का तो है मगर न किसान इसके साथ हैं और न बहुसंख्यक उद्योग. अब आने वाले महीनों में जमीनें विकास और रोजगार नहीं, सिर्फ राजनीति की फसल पैदा करेंगी.

Monday, October 21, 2013

संक्रमण की रोशनी

राजनीतिक सुधारों का एक नया दौर अनोखे तरीके से उतर आया है और कुछ जटिल आर्थिक सुधारों की बरसों पुरानी हिचक भी बस यूं ही टूट गई है। भारत का ताजा संक्रमण अचानक व अटपटे ढंग से सार्थक हो चला है।  
सुधार हमेशा लंबी तैयारियों, बड़े बहस मुबाहिसों या विशेषज्ञ समितियों से ही नहीं निकलते। भारत में गुस्‍साते राजनेता, झगड़ती संवैधानिक संस्‍थायें, आर्थिक संकटों के सिलसिले, सिविल सोसाइटी की जिद और खदबदाता समाज क्रांतिकारी सुधारों को जन्‍म दे रहा है। पिछले दो साल की घटनाओं ने भारत को संक्रमण से गुजरते एक अनिश्चित देश में बदल दिया था लेकिन कुछ ताजा राजनीतिक आर्थिक फैसलों से इस संक्रमण में सकारात्‍मक बदलावों की चमक उभर आई है। राजनीतिक सुधारों का एक नया दौर अनोखे व अपारंपरिक तरीके से अचानक उतर आया है और कुछ जटिल आर्थिक सुधारों की बरसों पुरानी हिचक भी बस यूं ही टूट गई है।  दागी नेताओं को बचाने वाले बकवास अध्‍यादेश की वापसी और चुनाव में प्रत्‍याशियों को नकारने के अधिकार जैसे फैसले अप्रत्‍याशित मंचों से निकलकर लागू हो गए और ठीक इसी तरह बेहद अस्थिर माहौल के बीच सब्सिडी राज के खात्‍मे और नए नियामक राज शुरुआत हो गई। यह भारत की ताजा अराजकता में एक रचनात्‍मक टर्निंग प्‍वाइंट है।
भारत में ग्रोथ का पहिया इसलिए नहीं पंक्‍चर नहीं हुआ कि बाजार सूख गया था बल्कि मंदी इस‍लिए आई क्‍यों कि राजनीति के मनमानेपन ने आर्थिक नीतियों को संदेह से भर दिया है।   उद्योगों को यह पता ही नहीं है कि कब सरकार के किस फैसले से उनकी कारोबारी योजनायें चौपट हो जांएगी। निवेशकों की बेरुखी के बाद अब निवेश की राह का सबसे बडा कांटा

Monday, June 11, 2012

ये ग्रोथ किसने मारी !

हली तिमाही 8 फीसद, दूसरी तिमाही 6.3, तीसरी तिमाही 6.1 और चौथी तिमाही 5.3 !!! इसे आर्थिक ग्रोथ का गिरना नहीं बल्कि ढहना कहते हैं। सिर्फ एक साल (2011-12) में इतनी तेज गिरावट यकीनन अनदेखी है। ऐसे तो ग्रीस भी नहीं ढहा, जिसकी त्रासदी को सरकार अपनी आर्थिक कुप्रबंध कॉमेडी का हिससा बना रही है। औद्योगिक उत्पादन की बढ़ोत्तरी पंद्रह साल में दूसरी बार शून्य से नीचे ! 41 साल में पहली बार खनन क्षेत्र में उत्पापदन वृद्धि शून्य्!  छह साल बाद बैंक जमा दर में पहली गिरावट! यह सब अभूतपूर्व कारनामे हैं जो भला ग्रीस या स्पेन की देन कैसे हुए? देशी नीतिगत गलतियों के ठीकरे के लिए जब सरकार जब ग्लोबल सरों की तलाश करती है तब यह शक करने का हक बनता है कि क्या टीम मनमोहन हकीकत में देश को आर्थिक संकट से उबारने के लिए बेचैन है। बेचैनी अगर सच है तो सरकार को वापसी के वह सूत्र क्यों नहीं दिखते जो उन्ही फाइलों के नीचे चमक रहें है जिन पर बैठकर प्रधानमंत्री मीटिंग मीटिंग खेल रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्‍था की ताजा मुसीबतें जिन दरवाजों से आई हैं बचने के रास्ते भी वहीं से खुलते हैं। इन रास्तों को गठबंधन का कोई घटक नहीं रोक रहा है। अर्थव्यवस्था की चिंचियाती मशीन में थोड़ा तेल पानी डालने के लिए सुधारों कोई बडे तीर नहीं मारने हैं।
वापसी के रास्ते
नजारे बड़े चौंकाने वाले हैं। देश की कंपनियां नकदी के पहाड़ पर बैठी हैं और निवेश बंद है। बीते साल की आखिरी तिमाही में प्रमुख कंपनियों (निजी व सरकारी) के पास 456,700 करोड़ रुपये की नकदी थी जो इससे पिछले साल के मुकाबले 21 फीसदी ज्या दा थी। अगर निवेश स्कीमों (‍लिक्विड फंड) में कंपनियों के निवेश को जोड़ लिया जाए तो नकदी के पर्वत की ऊंचाई 570,700 करोड़ रुपये हो जाती है। इनमें भी जब दस शीर्ष सरकारी कंपनियां 137,576 करोड़ रुपये की नकदी लिये सो रही हों तो सरकार के काम करने के तरीके पर खीझ आना लाजिमी है। इस जनवरी में प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव पुलक चटर्जी ने सार्वजनिक उपक्रमों की बैठक बुलाकर उन्हें नकदी के निवेश के लिए कहा था मगर पत्ता तक नहीं

Monday, February 21, 2011

एक बजट बने न्यारा

अर्थार्थ
गर आर्थिक सुधारों के लिए संकट जरुरी है तो भारत सौ फीसदी यह शर्त पूरी करता है। यदि संकट टालने के लिए सुधार जरुरी हैं तो हम यह शर्त भी पूरी करते हैं। और यदि संतुलित ढंग से विकसित होते रहने के लिए सुधार जरुरी हैं तो भारत इस शर्त पर भी पूरी तरह खरा है। यानी कि आर्थिक सुधारों की नई हवा अब अनिवार्य है। लेकिन कौन से सुधार ?? प्रधानमंत्री (ताजी प्रेस वार्ता) की राजनीतिक निगाहों में खाद्य सुरक्षा, ग्रामीण स्वास्‍थ्‍य मिशन नए सुधार हैं लेकिन उद्योग कहता है उहं, यह क्या् बात हुई ? सुधारों का मतलब तो विदेशी निवेश का उदारीकरण, वित्तीसय बाजार में नए बदलाव, बुनियादी ढांचे में भारी निवेश आदि आदि है।... दरअसल जरुरत कुछ हाइब्रिड किस्म के सुधारों की है यानी सामाजिक व आर्थिक दोनों जरुरतों को पूरा करने वाले सुधार। हम जिन सुधारों की बात आगे करेंगे वह किसी बौद्धिक आर्थिक विमर्श से नहीं निकले बल्कि संकटों के कारण जरुरी हो गए हैं। यदि यह बजट इन्हें या इनकी तर्ज (नाम कोई भी हो) पर कुछ कर सके तो तय मानिये कि यह असली ड्रीम बजट होगा क्यों कि यह उन उम्मीदों और सपनों को सहारा देगा जो पिछले कुछ महीनों दौरान टूटने लगे हैं।
स्पेशल एग्रीकल्चर जोन
हम बडे नामों वाली स्कीमों के आदी हैं इसलिए इस सुधार को एसएजेड कह सकते हैं। मकसद या अपेक्षा खेती में सुधार की है। केवल कृषि उत्पादों की मार्केटिंग के सुधार की नहीं (जैसा कि प्रधानमंत्री सोचते हैं और खेती का जिम्मा राज्यों के खाते में छोड़ते हैं।) बल्कि खेती के कच्चे माल (जमीन, बीज, खाद पानी) से लेकर उत्पादन तक हर पहलू की। अब देश में फसलों के आधार पर विशेष् जोन