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Sunday, May 19, 2019

अबकी बार अलोकप्रिय...



नादेशों में हमेशा एक लोकप्रिय सरकार ही नहीं छिपी होतीकभी-कभी लोग ऐसी सरकार भी चुनते हैं जिसके पास अलोकप्रिय हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. 23 मई को जनादेश का ऊंट चाहे जिस करवट बैठेनई सरकार को सौ दिन के भीतर ही अलोकप्रियता का नीलकंठ बनना पड़ेगा.

अगर हर हाल में सत्ता पाना सबसे बड़ा चुनावी मकसद न होता तो जैसी आर्थिक चुनौतियां व हिमालयी दुविधाएं चौतरफा गुर्रा रही हैं उनके बीच किसी भी नए या पुराने नायक को जहर बुझी कीलों का ताज पहनने से पहले एक बार सोचना पड़ता.

भारत को संभालने की चुनौतियां हमेशा से भारत जितनी ही विशाल रही हैं लेकिन गफलत में मत रहिए, 2019, न तो 2009 है और न ही  2014. यह तो कुछ ऐसा है कि जिसमें अब श्रेय लेने की नहीं बल्कि कठोर फैसलों  से सियासी नुक्सान उठाने की बारी हैकरीब दस साल (मनमोहन-मोदीकी लस्तपस्त विकास दरढांचागत सुधारों के सूखे और आत्मतघाती नीतियों (नोटबंदीके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था अपने नए नायक के लिए कांटों की कई कुर्सियां लिए बैठी है.

■ भारतीय कृषि अधिक पैदावार-कम कीमत के नियमित दुष्चक्र की शिकार हो चुकी हैसरकार कोई भी होजब तक बड़ा सुधार नहीं होताकम कमाई वाले ग्रामीणों को नकद सहायता (डायरेक्ट इनकमदेनी होगीअन्यथा गांवों का गुस्सासंकट में बदल जाएगा. 

■ भारत में निजी कॉर्पोरेट मॉडल लड़खड़ा गया हैपिछले पांच साल में निजी निवेश नहीं बढ़ाकंपनियों पर कर्ज बढ़ा और मुनाफे घटे हैंडूबती कंपनियों (जेटआइडीबीआइको उबारने का दबाव सरकार पर बढ़ रहा है या फिर बैंकों को बकाया कर्ज पर नुक्सान उठाना पड़ रहा है.बाजार में सिमटती प्रतिस्पर्धा और उभरते कार्टेल नए निवेशकों को हतोत्साहित कर रहे हैं.

■ रोजगार की कमी ने आय व बचत सिकोड़ कर खपत तोड़ दी है जिसे बढ़ाए बिना मांग और निवेश नामुमकिन है.

■ सुस्त विकासकमजोर मांग और घटिया जीएसटी के कारण सरकारों (केंद्र व राज्यका खजाना बदहाल हैकेंद्र का राजस्व (2019) में 11 फीसदी गिराबैंकों के पास सरकार को कर्ज देने के लिए पूंजी नहीं है. 2018-19 में रिजर्व बैंक ने 28 खरब रुपए के सरकारी बॉन्ड खरीदेजो सरकार के कुल जारी बॉन्ड का 70 फीसदी है.

■ बैंकों के बकाया कर्ज का समाधान निकलता इससे पहले ही गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसीबैंक कर्ज चुकाने में चूकने लगींकरीब 30 फीसदी एनबीएफसी को बाजार से नई पूंजी मिलना मुश्किल हैइधर 2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी शुरू होने वाली है.

इन पांचों मशीनों को शुरू करने के लिए सरकार को ढेर सारे संसाधन चाहिए ताकि वह किसानों को नकद आय दे सकेबैंकों को नई पूंजी दे सकेथोड़ा बहुत निवेश कर सके जिसकी उंगली पकड़ कर मांग वापस लौटे और यहीं से उसकी विराट दुविधा शुरू होती हैसंसाधनों के लिए नई सरकार को अलोकप्रिय होना ही पड़ेगा.

होने वाला दरअसल यह है कि

■ सब्सिडी (उर्वरकएलपीजीकेरोसिनअन्य स्कीमेंमें कटौती होगी ताकि खर्च बच सकेक्योंकि लोगों को नकद सहायता दी जानी हैजब तक रोजगार नहीं लौटते तब तक यह कटौती लाभार्थियों पर भारी पड़ेगी.

■ सरकारों (खासतौर पर राज्योंको बिजलीपानीट्रांसपोर्ट जैसी सेवाओं की दरें बढ़ानी होंगी ताकि कर्ज और राजस्व का संतुलन ठीक हो सके. 

■ इसके बाद भी सरकारें भरपूर कर्ज उठाएंगीजिसका असर महंगाई और ऊंची ब्याज दरों के तौर पर दिखेगा.

■ खजाने के आंकड़े बताते हैं कि आने वाली सरकार अपने पहले ही बजट में टैक्स बढ़ाएगीजीएसटी की दरें बढ़ सकती हैसेस लग सकते हैं या फिर इनकम टैक्स  बढे़गा. 

भारतीय अर्थव्यवस्था आम लोगों की खपत पर चलती है और बदकिस्मती यह हैताजा संकट के सभी समाधान यानी नए टैक्स और महंगा कर्ज (मौसमी खतरे जैसे खराब मॉनसूनतेल की कीमतें यानी महंगाईखपत पर ही भारी पड़ेंगेइसलिए मुश्किल भरे अगले दो-तीन वर्षों में सरकारों के लिए भरपूर अलोकप्रियता का खतरा निहित है.

1933 की मंदी के समय मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से कहा था कि अब चुनौती दोहरी हैएकअर्थव्यवस्था को उबारनाऔर दोबड़े और लंबित सुधार लागू करनातत्काल विकास दर के लिए तेज फैसले और नतीजे चाहिए जबकि सुधारों से यह रिकवरी जटिल और धीमी हो जाएगीजिससे लोगों का भरोसा कमजोर पड़ेगा.

लोगों का चुनाव पूरा हो रहा हैअब सरकार को तय करना है कि वह क्या चुनती हैकठोर सुधार या खोखली सियासतअब नई सरकार को तारीफें बटोरने के मौके कम ही मिलेंगे.   

Monday, June 4, 2018

सरकार बेशुमार



देश के हर बूथ पर हमारा कार्यकर्ता झंडा लेकर खड़ा रहेगा! हमारे कार्यकर्ता घर-घर तक पहुंचने चाहिए! पानी में आग लगा देने वाली इन राजनैतिक तैयारियों पर न्योछावर होने से पहले सुमेरपुर के ‘प्रधान जी’ से मिलना जरूरी है.


प्रधान जी सिखाते हैं कि जब कोई समाज अपने प्रगति के लक्ष्य बदलता है तो उसे अपनी च‌िंताओं के आयाम बदल लेने चाहिए अन्यथा बेगानगी अच्छे-खासे समाजों का तिया पांचा कर देती है.

प्रधान जी का काफिला प्रधानमंत्री से कुछ ही छोटा है. उनका पारिवारिक प्रताप पंचायत प्रमुखों से लेकर पन्ना प्रमुखों तक फैला है. मनरेगा से लेकर उज्ज्वला तक हर स्कीम के आंकड़े उनकी ड्योढ़ी का पानी पीकर अंगड़ाई लेते हैं. भाईभतीजेनातीबहुएंसब कहीं न कहीं किसी न किसी सरकार का हिस्सा हैं. त्योहारों और मुंडन-कनछेदन पर उनका घर सर्वदलीय बैठक जैसा हो जाता है.

प्रधान जी पार्टी का विस्तार हैं. 

वे सरकार के जन संपर्क मिशन का शुभंकर हैं. 

वे सरकार की सरकार हैं. 

प्रधान जी ‘मैक्सिमम गवर्नमेंट’ हैं.

प्रधान जीदरअसल‘वड़ा प्रधान’ की चार साला उम्मीदों का सजीव स्मारक हैं.

2014 में मई में उत्साह से लबरेज नरेंद्र मोदी ने एक ऐसा वादा किया थाजो उनसे पहले की कोई सरकार इतने खम ठोक तरीके से नहीं कर पाई थी. मोदी ने कहा था कि वह सरकार छोटी करेंगे यानी मिनिमम गवर्नमेंट. उनका यह वादा रिझाने लायक थाक्योंकि इसमें उन मुसीबतों का इलाज भी छिपा थाजो 1991 के बाद सुधारों की खुराक से भी दूर नहीं हुईं.

सरकार को सिकोड़कर प्रधानमंत्री मोदी हजार तरह की बर्बादीसैकड़ों तरीके के भ्रष्टाचार और असंख्य नापाक नेता-अफसर गठजोड़ों को खत्म करने जा रहे थे. वे राजनैतिक भ्रष्टाचार का मर्सिया लिखने की तरफ बढ़ चले थे. लेकिन फिर वक्त ने गिरगिट होना कबूल किया और मोदी सरकार पिछली किसी सरकार से ज्यादा स्कीमें पचाकर बड़ी होती गई. लंबे उदर वाली सरकारें विकास पर बैठ जाती हैंइसलिए अब विकास महसूस कराने के लिए स्कीमों का प्रचार और ‘प्रधान जी’ का ही एक सहारा हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को फिटनेस का मंत्र दे पातेइससे पहले भाजपा ने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनने का बीड़ा उठा लिया और फिर वही हुआ जो पिछले 60 साल से होता आया था. पार्टी को बड़ा करने के लिए सरकार को बड़ा करना जरूरी था.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी कितने सारे कारोबारों में दखल रखती है. साम्यवादियों का यह वीभत्स पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) अब पार्टी के नेताओं और कारोबारियों में फर्क खत्म कर चुका है.

पता नहींहम भारतीय कब इस वायरस के शिकार हुए कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को राजनीति में आना चाहिए. लेकिन इस बीमारी का राजनैतिक दलों को लाभ हुआ. उनका संसार बड़ा होता चला गया. 

अलबत्तागांव से लेकर शहरों तक मेहनती और मेधावी सैकड़ों लोग अपने सबसे उत्पादक वर्षों (25 से 60) को मुट्ठी भर ‘कुर्सी चिपको’ नेताओं की खातिर यूं ही नहीं गंवाने वाले थेखासतौर जब उन्‍हें  यह मालूम  है कि सियासत में ऊपर जाने वाली हर सीढ़ी पर झुंड के झुंड लोग जमा हैं. उन्हें अपने श्रम का वाजिब मूल्य यानी अपने लिए थोड़ी-सी सरकार चाहिए. इसलिए राजनैतिक दलों का सांगठनिक विस्तारथुलथुली सरकारों का सहोदर हो जाता है.

भारतीय राजनीति एक वीभत्स बिजनेस मॉडल पर आधारित हैप्रधान जी जिसके ब्रांड एंबेसडर हैं. उनके लिए राजनीति ही उनका कारोबार है या फिर राजनीति है इसलिए कारोबार है. जो दल सत्ता में होते हैंवे संगठन बढ़ाने के लिए सरकार बढ़ाते हैं और फिर सत्ता में बने रहने को लिए संगठन व सरकार को बढ़ाते रहना होता है.

राजनीति में जितने अधिक लोग आएंगेसरकारें उतनी ही बड़ी होती जाएंगी और भ्रष्टाचार उतना ही जरूरी होगा. भाजपा को पूरे देश में फैलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी छोटी सरकार का आदर्श संभाल नहीं सकते थेइसलिए उनकी सरकार बड़ी होती गई. आज निचले और मझोले स्‍तरों पर राजनैतिक भ्रष्टाचार पहले से ज्यादा बजबजा रहा है.

चार साल में सबसे बड़ी पार्टी सबसे बेशुमार सरकार में तब्दील हो गई है.

सब्सिडी और स्कीमों की भीड़ पहले से ज्यादा बढ़ गई है. कार्यर्ताओं की कमाई के लिए यह जरूरी है.

सियासी चंदे पारदर्शी नहीं हुए. बहुराष्ट्रीय कंपनी जैसी पार्टी को चलाने और चुनाव जीतने के लिए अकूत संसाधन चाहिए जो लाभ के अवसर बांटकर ही मिलेगा.

मैदां की हार-जीत तो किस्मत की बात है
टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना 




Monday, May 30, 2016

हार जैसी जीत


बंगाल और तमिलनाडु के नतीजे दिखाते हैं कि कैसे खराब गवर्नेंस की धार भोथरी कर चुनावी जीत की राह खोली जा सकती है.

मिलनाडु और पश्चिम बंगाल के नतीजों के बाद पृथ्वीराज चव्हाण, भूपेंद्र सिंह हुड्डा और हेमंत सोरेन जरूर खुद को कोस रहे होंगे कि वे भी जयललिता और ममता बनर्जी क्यों नहीं बन सके जिन्हें भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस के बावजूद लोगों ने सिर आंखों पर बिठाया. दूसरी तरफ, अखिलेश यादव, हरीश रावत, प्रकाश सिंह बादल और लक्ष्मीकांत पार्सेकर को वह मंत्र मिल गया होगा, जो खराब गवर्नेंस की धार भोथरी कर चुनावी जीत की राह खोलता है.


2016 में विधानसभा चुनावों के नतीजे निराश करते हैं, खास तौर पर पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के. इन नतीजों से कुछ परेशान करने वाले नए सवाल उभर रहे हैं, जो किसी बड़े राजनैतिक बदलाव की उम्मीदों को कमजोर करते हैं. सवाल यह है कि क्या किस्म-किस्म के चुनावी तोहफों के बदले वोट खरीदकर भ्रष्टाचार और खराब गवर्नेंस का राजनैतिक नुक्सान खत्म किया जा सकता है? क्या आम वोटर अब राजनैतिक गवर्नेंस में गुणात्मक बदलावों की बजाए मुफ्त की रियायतों की अपेक्षा करने लगा है? क्या निजी निवेश, औद्योगिक विकास, मुक्त बाजार को बढ़ाने और सरकार की भूमिका सीमित करने की नीतियों के आधार पर चुनाव जीतना अब असंभव है? और अगर कोई सरकार लोकलुभावन नीतियों को साध ले तो खराब प्रशासन या राजनैतिक लूट के खिलाफ पढ़े-लिखे शहरी वोटरों की कुढ़न कोई राजनैतिक महत्व नहीं रखती?

2016 के चुनावी नतीजे 2014 के राजनैतिक बदलाव के उलट हैं. यह पिछड़ी हुई राजनीति की वापसी का ऐलान है. 2014 में वोटरों ने कांग्रेस के भ्रष्ट शासन के खिलाफ न केवल केंद्र में बड़ा जनादेश दिया बल्कि भ्रष्टाचार में डूबी महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार और खराब गवर्नेंस वाली हरियाणा व झारखंड की सरकार को भी बेदखल किया था. यही वोटर दिल्ली के चुनावों में भी सक्रिय दिखा, लेकिन बंगाल और तमिलनाडु में जो नतीजे आए, वे आश्चर्य में डालते हैं.

गवर्नेंस और पारदर्शिता की कसौटी पर जयललिता और ममता की सरकारों के खिलाफ वैसा ही गुस्सा अपेक्षित था जैसा कि 2014 में नजर आया था. एक मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के मामले में जेल हो आईं थीं, जबकि दूसरे राज्य की सरकार चिट फंड घोटालों में इस कदर घिरी कि करीबी मंत्रियों के सीबीआइ की चपेट में आने के बाद घोटाले की तपिश मुख्यमंत्री के दरवाजे तक पहुंच गई. माना कि इन राज्यों में मतदाताओं को अच्छे विकल्प उपलब्ध नहीं थे, लेकिन इन सरकारों को दोबारा इतना समर्थन मिलना चुनावों के ताजा तजुर्बों के विपरीत जाता है.

तो क्या ममता और जया ने मुफ्त सुविधाएं और तोहफे बांटकर एक तरह से वोट खरीद लिए और माहौल को अपने खिलाफ होने से रोक लिया? दोनों सरकारों की नीतियों को देखा जाए तो इस सवाल का जवाब सकारात्मक हो सकता है. जयललिता सरकार लोकलुभावन स्कीमों की राष्ट्रीय चैंपियन है. अम्मा कैंटीन (सस्ता खाना) और अम्मा फार्मेसी को कल्याणकारी राज्य का हिस्सा माना जा सकता है लेकिन अम्मा सीमेंट, मिक्सर ग्राइंडर, पंखे, सस्ता अम्मा पानी और नमक आदि सरकारी जनकल्याण की अवधारणा को कुछ ज्यादा दूर तक खींच लाते हैं. लेकिन अम्मा यहीं तक नहीं रुकीं. ताजा चुनावी वादों के तहत अब लोगों को सस्ते फिल्म थिएटर, मुफ्त लैपटॉप, मोबाइल फोन, बकरी, सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली, मोपेड खरीदने पर सब्सिडी और यहां तक शादियों के मंगलसूत्र के लिए आठ ग्राम सोना भी मिलेगा. लोगों को इन वादों पर शक नहीं हुआ क्योंकि तमिलनाडु में सरकारी सुविधाओं का लोगों तक पहुंचाने का तंत्र अन्य राज्यों से काफी बेहतर है.

दूसरी ओर, ममता ने नकद बांटने की स्कीमों का बड़ा परिवार खड़ा किया है. इनमें बेरोजगार युवाओं को मासिक भत्ता, लड़कियों के विवाह पर परिवारों को नकद राशि, इमामों को भत्ता, दुर्गा पूजा पंडालों को नकद राशि, क्लबों को नकद अनुदान खास रहे. यकीनन, अम्मा और ममता की कथित उदारता उनकी खराब गवर्नेंस व भ्रष्टाचार को ढकने में सफल रही है, जो शायद गोगोई असम में नहीं कर सके.

औद्योगिक निवेश, उदारीकरण और रोजगार के मामले में बंगाल और तमिलनाडु में कुछ नहीं बदला. इसलिए चुनावों में ये मुद्दे भी नहीं थे. ममता तो सिंगूर में टाटा की फैक्ट्री यानी उद्योगीकरण के खिलाफ आंदोलन से उठीं थीं. उनका यह अतीत बंगाल में निवेशकों को नए सिरे से डराने के लिए काफी था. ममता के राज में निवेशकों के मेले भले ही लगे हों, लेकिन बंगाल में न निवेश आया और न रोजगार.

तमिलनाडु का औद्योगिक क्षरण पिछले छह साल से सुर्खियों में है. चेन्नै के करीब विकसित ऑटो हब, जो नब्बे के दशक में ऑटोमोबाइल दिग्गजों की पहली पसंद था, 2010 के बाद से उजड़ने लगा था. मोबाइल निर्माता नोकिया के निकलने के बाद श्रीपेरुंबदूर का इलेक्ट्रॉनिक्स पार्क भी आकर्षण खो बैठा. बिजली की कमी के कारण तमिलनाडु की औद्योगिक चमक भले ही खो गई हो, लेकिन अम्मा की राजनैतिक चमक पर फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने शपथ ग्रहण के साथ ही 100 यूनिट बिजली मुफ्त देने का ऐलान कर दिया.

ममता और जया ने चुनाव जीतने का जो मॉडल विकसित किया है, वह चिंतित करता है क्योंकि पिछले एक दशक में केंद्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण का मॉडल बदला है. राज्यों को केंद्र से बड़ी मात्रा में संसाधन मिल रहे हैं जो उपयोग की शर्तों से मुक्त हैं. केंद्र प्रायोजित स्कीमों के सीमित होने के बाद राज्यों को ऐसे संसाधनों का प्रवाह और बढ़ेगा.


राज्यों को मिल रही वित्तीय स्वायत्तता पूरी तरह उपयुक्त है, लेकिन खतरा यह है कि इन संसाधनों से राज्यों के बीच मुफ्त सुविधाएं बांटने की होड़ शुरू हो सकती है जिसमें ज्यादातर राज्य सरकारें ठोस आर्थिक विकास के जरिए रोजगार और आय बढ़ाने की नीतियों के बजाए सोना, स्कूटर, मकान, मुफ्त बिजली आदि बांटने की ओर मुड़ सकती हैं. जाहिर है, जब राज्य सरकारें लोकलुभावनवाद की दौड़ में उतरेंगी तो केंद्र से सख्त सुधारों व सब्सिडी पर नियंत्रण की उम्मीद करना बेमानी है. केंद्र में भी सरकार बनाने या बचाने के लिए चुनाव जीतना अनिवार्य है. इस जीत के लिए कितनी ही पराजयों से समझौता किया जा सकता है.

Monday, April 11, 2016

एक लाख करोड़ का सवाल


सब्सिडी गरीबी की नहीं बल्कि अमीरी की राजनीति का शिकार है. सब्सिडी पर नए तथ्य सबूत हैं कि निम्न तो छोड़िए, मध्यम वर्ग भी अब सब्सिडी के बड़े हिस्से के दायरे में नहीं है. 

गर आप यह मानते हैं कि सब्सिडी की पूरी राजनीति केवल निम्न व मध्यम वर्ग के लिए है तो अगली पंक्तियां ध्यान से पढ़िए. भारत में हर साल एक लाख करोड़ रु. की सब्सिडी अमीरों की जेब में जाती है और वह भी केवल सात बड़ी सेवाओं पर. सभी तरह की सेवाओं पर आंकड़ा और बड़ा हो सकता है. भारत में छोटी बचतों पर कर रियायतों का फायदा उठाने वाले 62 फीसदी लोग चार लाख रुपए से ज्यादा की सालाना आय वाले हैं यानी छोटी आय वाले हरगिज नहीं.
सब्सिडी की बहस में अब सिर्फ गरीब-गुरबों और मझोले तबके को कोसने से काम नहीं चलने वाला. इस पेचीदगी की समझने के लिए रियायतों के उस दालान में उतरना होगा जहां अमीरी का राज है.  2015-16 की आर्थिक समीक्षा ने सब्सिडीखोरी के इस तपकते फोड़े को छूने की कोशिश की है. इससे अमीरों को जा रही सब्सिडी की एक छोटी-सी तस्वीर हमारे सामने आई, जिसमें साफ नजर आता है कि छोटी बचत स्कीमें, सोना, बिजली, केरोसिन, रेलवे किराया और विमान ईंधन जैसी सेवाएं जिन पर सरकार सब्सिडी देती है, उनका फायदा समाज के खाए-अघाए लोग उठाते हैं. यहां गरीबों से हमारा मतलब 30 फीसदी लोगों से है जो आबादी में खपत और आमदनी के हिसाब से सबसे नीचे हैं. शेष 70 फीसदी लोगों को बेहतर माना जा सकता है. 
दुनिया की किसी सभ्यता में सोना (गोल्ड ) गरीबी से कोई रिश्ता नहीं रखता. सोना ऐसी वस्तु हरगिज नहीं है जिसकी खरीद के लिए टैक्स में रियायत दी जाए बल्कि हकीकत में तो सोने पर ऊंचे व भरपूर टैक्स की दरकार होती है. लेकिन भारत में सोने पर टैक्स का ढांचा हमारी पूरी टैक्स समझ पर अट्टहास करता है. हम दुनिया के उन कुछ चुनिंदा देशों में होंगे जहां सोने पर दो फीसदी से कम टैक्स लगता है. केंद्र व राज्य दोनों मिलकर सोने पर महज 1 से 1.6 फीसदी टैक्स लगाते हैं जबकि इसके बदले खाने-पीने की सामान्य चीजों से लेकर पेट्रोल-डीजल पर लोग 12.5 फीसदी से 25 फीसदी तक टैक्स चुकाते हैं. सोने पर अगर टैक्स की आदर्श दर 25 फीसदी मान ली जाए तो करीब पूरा देश जरूरी चीजों पर भारी टैक्स चुकाकर और अमीरी तथा समृद्धि के इस प्रतीक पर करीब 23 फीसदी टैक्स सब्सिडी देता है जिसका 98 फीसदी फायदा समृद्ध तबकों को जाता है. समीक्षा मानती है कि सोने पर टैक्स सब्सिडी 4,000 करोड़ रु. से ज्यादा है.
समृद्ध तबके के फायदे के मामले में एलपीजी सिलेंडर सोने से कम नहीं है. एक सिलेंडर बाजार मूल्य की तुलना में 36 फीसदी सस्ता मिलता है. भारत में 91 फीसदी एलपीजी कनेक्शन मझोले व उच्च वर्ग के पास हैं इसलिए एलपीजी पर अमीरों की सब्सिडीखोरी 40,000 करोड़ रु. की है.
इसी तरह रेलवे में अगर सामान्य व ऊंची श्रेणी के दर्जों की यात्रा पर लागत व सब्सिडी का हिसाब किया जाए तो किराए में मिल रही रियायत का करीब 34 फीसदी फायदा अमीरों को जाता है जो 3,671 करोड़ रु. है. बिजली दरों पर दी जा रही सब्सिडी का करीब 32 फीसदी (दिल्ली व तमिलनाडु के सैंपल) फायदा ऊपरी तबकों को जाता है. बिजली दरों पर अमीरों को मिल रही सब्सिडी 37,170 करोड़ रु. तक हो सकती है.
ईंधनों पर सब्सिडी की उलटबांसी में सबसे दिलचस्प मामला है विमानन ईंधन (एविएशन टर्बाइन फ्यूल-एटीएफ) का. भारत में एटीएफ पर औसतन 20 फीसदी टैक्स है जबकि पेट्रोल और डीजल पर अधिकतम 55 और 61 फीसदी. लिखना जरूरी नहीं है कि एटीएफ का इस्तेमाल किस वर्ग के परिवहन के लिए होता है. एटीएफ पर करीब 762 करोड़ रु. सब्सिडी समृद्ध तबके को जाती है. सरकार के अपने सर्वेक्षण मानते हैं कि सस्ता और सब्सिडीवाला 50 फीसदी केरोसिन अमीर तबके को जाता है और साथ में करीब 5,500 करोड़ रु. की सब्सिडी ले जाता है.
आर्थिक समीक्षा की मानी जाए तो इस साल के बजट में प्रॉविडेंट फंड की निकासी पर टैक्स लगाने को लेकर सरकार सही थी लेकिन अगर कोई समझता है कि इस फैसले पर यू-टर्न मध्यम वर्ग की जरूरत को ध्यान में रखकर हुआ तो वह गफलत में है. दरअसल, 12,000 करोड़ रु. की यह सब्सिडी भी करदाताओं में ऊंचे आय वर्गों के फायदे में दर्ज होती है. भारत में छोटी बचतों पर टैक्स छूट विवादित रही है क्योंकि इसके फायदे उठाने वालों की पैमाइश नहीं हो पाती. लेकिन ताजा आंकड़े आयकर की धारा 80 सी (बचत पर छूट) से फायदों की पड़ताल पर नई रोशनी डालते हैं. भारत में 30 फीसदी टैक्स के दायरे में आने वाले लोगों की औसत आय 24.7 लाख रु. सालाना है. कुल करदाताओं में इनका हिस्सा 1.1 फीसदी है. करदाताओं की यह जमात कमाई के आधार पर देश की आबादी में केवल 0.5 फीसदी बैठती है. बीस फीसदी के टैक्स की सीमा में आने वाले कुल करदाता, आबादी के महज 1.6 फीसदी हैं. पीपीएफ सहित छोटी बचतों पर ज्यादातर टैक्स छूट का लाभ इन्हीं दो वर्गों को मिलता है और उसमें भी सबसे ज्यादा सुपर रिच को.
सब्सिडीखोरी की यह सूची अंतिम नहीं है. एक लाख करोड़ रु. की इस सूची में सिर्फ छह जिंस या सेवाएं शामिल हैं और लघु बचतों के एक छोटे वर्ग को गिना गया है जो सब्सिडी, कर रियायतों, और किस्म-किस्म की छूट की विशाल दुनिया का एक सैंपल मात्र है. इसमें राज्यों में दी जाने वाली अलग-अलग तरह की रियायतें शामिल नहीं हैं, जिनमें पेयजल, सड़क परिवहन, संपत्ति कर, हाउस टैक्स और विभिन्न स्थानीय कर हैं. इनमें तमाम कर लागत से कम दर पर इसलिए लगाए जाते हैं ताकि उनका लाभ गरीबों और मझोले तबके को मिल सके.
समझना मुश्किल नहीं है कि भारत में सब्सिडी को संतुलित और तर्कसंगत बनाने की बहसें राजनैतिक जड़ क्यों नहीं पकड़तीं? दरअसल, सब्सिडी गरीबी की नहीं बल्कि अमीरी की राजनीति का शिकार है. सब्सिडी पर नए तथ्य सबूत हैं कि निम्न तो छोड़िए, मध्यम वर्ग भी अब सब्सिडी के बड़े हिस्से के दायरे में नहीं है. इसकी मलाई तो सिर्फ शहरी उच्च व उच्च मध्यम वर्ग काट रहा है जबकि गरीब व मझोले बेसबब ही सब्सिडी की तोहमत और लानत ढो रहे हैं.


Monday, October 5, 2015

सर्विस चाहिए, सब्सिडी नहीं



कुछ हफ्तों में पूरी दुनिया में योग दिवस का आयोजन करा लेने वाली सरकार क्या इतनी लाचार है कि बुनियादी ढांचे की बेहद अदना-सी समस्या भी ठीक नहीं हो सकती?

पभोक्ताओं की जेब काटने के अलावा महंगाई व मोबाइल पर कॉल ड्रॉप के बीच दूसरे भी कई रिश्ते हैं. दोनों ऐसी समस्याएं है जिन्हें हल करने के लिए किसी बड़े नीतिगत आयोजन की जरूरत नहीं है और दोनों का ही समाधान निकालने के लिए राज्य सरकारें केंद्र की सबसे बड़ी मददगार हो सकती हैं जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी टीम इंडिया कहते हैं. हाल ही में कॉल ड्रॉप की समस्या पर प्रधानमंत्री का दखल, मामले की पेचीदगी का सबूत नहीं था बल्कि इस सवाल को जमीन दे रहा था कि कुछ हफ्तों में पूरी दुनिया में योग दिवस का आयोजन करा लेने वाली सरकार क्या इतनी लाचार है कि बुनियादी ढांचे की बेहद अदना-सी समस्या भी ठीक नहीं हो सकती?
कॉल ड्रॉप पर संचार मंत्रालय से पीएमओ तक पहुंची चर्चाओं और कॉर्पोरेट बैठकों को टटोलते हुए यह जानना कतई मुश्किल नहीं है कि खराब मोबाइल नेटवर्क की समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि इसके लिए राजनैतिक सर्वानुमति की जरूरत हो या फिर उपभोक्ताओं को खराब सर्विस के बदले टेलीफोन बिल पर सब्सिडी देने की जरूरत आ पड़े.
तकनीक को लेकर बहुत ज्यादा मगजमारी न भी करें तो भी इस समस्या की जड़ और संभावित समाधानों को समझने के लिए इतना जानना बेहतर रहेगा कि मोबाइल फोन 300 मेगाहट्र्ज से लेकर 3000 मेगाहट्र्ज की फ्रीक्वेंसी पर काम करते हैं, हालांकि पूरी रेंज भारत में इस्तेमाल नहीं होती. मोबाइल नेटवर्क का बुनियादी सिद्धांत है कि फ्रीक्वेंसी का बैंड जितना कम होगा, संचार उतना ही सहज रहेगा. यही वजह है कि हाल में जब स्पेक्ट्रम (फ्रीक्वेंसी) का आवंटन हुआ तो ज्यादा होड़ 900 मेगाहट्र्ज के बैंड के लिए थी. लेकिन अच्छे फ्रीक्वेंसी (निचले) बैंड में जगह कम है, इसलिए ज्यादा कंपनियां इसे हासिल करने कोशिश करती हैं. यदि किसी कंपनी के पास अच्छे बैंड कम हैं और ग्राहक ज्यादा, तो कॉल ड्राप होगी यानी कि फ्रीक्वेंसी की सड़क अगर भर चुकी है तो ट्रैफिक धीमे चलेगा.
लगे हाथ मोबाइल टावर की कमी की बहस का मर्म भी जान लेना चाहिए जो कि टेलीकॉम इन्फ्रास्ट्रक्चर का बुनियादी हिस्सा है. देश में करीब 96 करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं को सेवा देने के लिए 5.5 लाख टावर हैं. अच्छे यानी निचले फ्रीक्वेंसी बैंड के लिए कम टावर चाहिए लेकिन 3जी और 4जी यानी ऊंचे बैंड की सर्विस के लिए ज्यादा टावरों की जरूरत होती है.
इन बुनियादी तथ्यों की रोशनी में सरकार और कंपनियों की भूमिका परखने पर किसी को भी एहसास हो जाएगा कि समस्या बड़ी नहीं है, बल्कि मामला संकल्प, गंभीरता, समन्वय की कमी और कंपनियों पर दबाव बनाने में हिचक का है, जिसने भारत की मोबाइल क्रांति को कसैला कर दिया है. सबसे पहले टावरों की कमी को लेते हैं. मोबाइल सेवा कंपनियां मानती हैं कि नेटवर्क को बेहतर करने और कॉल ड्रॉप रोकने के लिए फिलहाल केवल एक लाख टावरों की जरूरत है. इसमें ज्यादातर टावर महानगरों में चाहिए. देश के हर शहर और जिले में केंद्र व राज्य सरकारों की इतनी संपत्तियां मौजूद हैं जिन पर टावर लगाए जा सकते हैं. सिर्फ एक समन्वित प्रशासनिक आदेश से काम चल सकता है. इस साल फरवरी में इसकी पहल भी हुई लेकिन तेजी से काम करने वाला पीएमओ इसे रफ्तार नहीं दे सका. 12 राज्यों में अपनी या अपने सहयोगी दलों की सरकारों के बावजूद अगर मोदी सरकार छोटे-छोटे टावरों के लिए कुछ सैकड़ा वर्ग फुट जमीन या छतें भी नहीं जुटा सकती तो फिर टीम इंडिया की बातें सिर्फ जुमला हैं.
प्रशासनिक संकल्प में दूसरा झोल कंपनियों पर सख्ती को लेकर है. पिछले साल स्पेक्ट्रम नीलामी को सरकार ने अपनी सबसे बड़ी सफलता कहते हुए कंपनियों के लिए बुनियादी ढांचे की कमी पूरी कर दी थी. कंपनियों को स्पेक्ट्रम आपस में बांटने की छूट मिल चुकी है, वे अपने टावर पर दूसरी कंपनी को जगह दे सकती हैं. उन्हें स्पेक्ट्रम बेचने की छूट भी मिलने वाली है, लेकिन इतना सब करते हुए पीएमओ और संचार मंत्री को कंपनियों से यह पूछने की हिम्मत तो दिखानी चाहिए कि अगर जनवरी 2013 से मार्च 2015 तक वॉयस नेटवर्क का इस्तेमाल 12 फीसदी बढ़ा तो कंपनियों ने नेटवर्क (बीटीएस) क्षमता में केवल 8 फीसद का ही इजाफा क्यों किया? कॉल ड्रॉप पर टीआरएआइ का ताजा दस्तावेज बताता है कि पिछले दो साल में 3जी पर डाटा नेटवर्क का इस्तेमाल 252 फीसदी बढ़ा लेकिन कंपनियों ने नेटवर्क में केवल 61 फीसदी की बढ़ोतरी की.
स्पेक्ट्रम के लिए कंपनियों की ऊंची बोली से सरकार को राजस्व मिला और कंपनियों को स्पेक्ट्रम, जिससे बाजार में उनका मूल्यांकन बढ़ रहा है, लेकिन उपभोक्ता को सिर्फ कॉल ड्रॉप व महंगे बिल मिले हैं. सरकार तो कंपनियों को इस बात के लिए भी बाध्य नहीं कर पा रही है कि वे कम से कम इतना तो बताएं कि उनके पास नेटवर्क व उपभोक्ताओं का अनुपात क्या है ताकि लोग उन कंपनियों की सेवा न लें जिनकी सीटें भर चुकी हैं.

हमारे पास रेलवे है जो न समय पर चलती है और न पर्याप्त क्षमता है. सड़कें हैं लेकिन बदहाल हैं. बिजली नेटवर्क है लेकिन बिजली नहीं आती. मोबाइल क्रांति भारत का एकमात्र सबसे सफल सुधार है जिसने भारत को आधुनिक बनाया है. इस क्रांति को पहले घोटालों ने दागी किया और अब खराब सेवा इसे चौपट करने वाली है. प्रधानमंत्री पता नहीं, कैसा डिजिटल इंडिया बनाना चाहते हैं? कॉल ड्रॉप पर दूरसंचार नियामक अधिकरण के हालिया चर्चा पत्र को अगर आधार माना जाए तो सरकार बुनियादी ढांचे की चुनौती को तुरंत ठीक करने और कंपनियों पर सख्ती में खुद को नाकाम पा रही है. इसकी बजाए उपभोक्ताओं के बिल में छूट देने के विकल्प की तैयारी हो रही है मानो उपभोक्ता अच्छा नेटवर्क नहीं बल्कि में बिल कमी चाह रहे हों? उपभोक्ताओं को अच्छी सेवा चाहिए, खराब सेवा पर सब्सिडी नहीं. ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि मोबाइल को रेलवे या बिजली जैसी हालत में पहुंचाने पर किसका फायदा होने वाला है.

Monday, March 5, 2012

सरकार गारंटी योजना

जट से कुछ महंगा सस्‍ता होता है क्‍या? टैक्‍स में कमी बेशी का रोमांच भी अब कितना बचा है ?  घाटे की खिच खिच भी बेमानी है। बारह का बजट इन पुराने पैमानों का बजट होगा ही नहीं। इस बजट में तो पूरी दुनिया भारत की वह सरकार ढूंढेगी जो पिछले तीन साल में कहीं खो गई है और सब कुछ ठप सा हो गया है। देश में गरीबों की तादाद, उद्योगों के लिए जमीन मिलने में देरी, टैक्‍स हैवेन में रखा पैसा, हसन अलियों का भविष्‍य, हाथ पर हाथ धरे बैठी नौकरशाही, नए कानूनों का टोटा, नियामकों की नाकामी, नीतियों का शून्‍य !!!.. यही नामुराद सवाल ही इस साल का असली बजट हैं। क्‍येां कि हमारी ताजी मुसीबतों की पृष्‍ठभूमि पूरी तरह से गैर बजटीय है। कुछ पुरानी गलतयिां नई चुनौतियों से मिल कर बहुआयामी संकट गढ रही हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ेगा कि यह बजट सरकारी स्‍कीमों में मुंह में कितना चारा रखता है अंतर से बात से पड़ेगा कि वित्‍त मंत्री सरकार (गवर्नेंस) गारंटी योजना कितनी ठोस नीतियो का आवंटन करते हैं। या सरकार के साखकोषीय घाटे के कम करने के लिए क्‍या फार्मूला लाते हैं। यह राजकोष का बजट है ही नहीं यह तो राजकाज यानी नीतियों का बजट है।
साख की मद
हमारी ताजी मुसीबतें बजट के फार्मेट से बाहर पैदा हो रही हैं। कोयले की कमी कारण प्रधानमंत्री के दरबार मे बिजली कंपनियों की गुहार, जमीन अधिग्रहण कानून के कारण लटकी परियोजनायें , पर्यावरण मंजूरी में फंसे निवेश, राज्‍य बिजली बोर्डों को कर्ज देकर डूबते बैंक, फारच्‍यून 500 कंपनी ओनएजीसी के लिए निवेशको का टोटा.............. इनमें से एक भी मुसीबत बजट के किसी घाटे से पैदा नहीं हुईं। 2जी पर अदालत के फैसले के बाद सरकार आवंटन की प्रक्रिया शुरु करनी चाहिए थी मगर सरकार एक साल का वकत मांग रही है यानी एक लंबी अनिश्चितता की बुनियाद रखी जा रही है। भूमि अधिग्रहण, खानों के आवंटन, औद्योगिक पुनर्वास जैसे तमाम कानून अधर में हैं। समझदार निवेशक भारत में कानून के राज पर भरोसा

Monday, February 27, 2012

सूझ कोषीय घाटा

धाई! हमने अपने बजट की पुरानी मुसीबतों को फिर खोज लिया है। सब्सिडी का वही स्यापा, सरकारी स्कीमों के असफल होने का खानदानी मर्ज, खर्च बेहाथ होने का बहुदशकीय रोना और बेकाबू घाटे का ऐतिहासिक दुष्चक्र। लगता हैं कि हम घूम घाम कर वहीं आ गए हैं करीब बीस साल पहले जहां से चले थे। उदारीकरण के पूर्वज समाजवादी बजटों का दुखदायी अतीत जीवंत हो उठा है। हमें नास्टेल्जिक (अतीतजीवी) होकर इस पर गर्व करना चाहिए। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं। बजट के पास जब अच्छा राजस्व, राजनीतिक स्थिरता, आम लोगों की बचत, आर्थिक उत्पादन में निजी निवेश आदि सब कुछ था तब हमारे रहनुमा बजट की पुरानी बीमारियों से गाफिल हो गए इसलिए असंतुलित खर्च जस का तस रहा और जड़ो से कटीं व नतीजो में फेल सरकार स्कीमों में कोई नई सूझ नहीं आई । दरअसल हमने तो अपनी ग्रोथ के सबसे अच्छे वर्ष बर्बाद कर दिये और बजट का ढांचा बदलने के लिए कुछ भी नया नहीं किया। हमारे बजट का सूझ-कोषीय घाटा, इसके राजकोषीय घाटे से ज्यादा बड़ा है।
बजट स्कीम फैक्ट्री
बजट में हमेशा से कुछ बड़े और नायाब टैंक रहे हैं। हर नई सरकार इन टैंकों पर अपने राजनीतिक पुरखों के नाम का लेबल लगा कर ताजा पानी भर देती है। यह देखने की फुर्सत किसे है इन टैंकों की तली नदारद है। इन टंकियों को सरकार की स्कीमें कह सकते हैं। बजट में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन व रोजगार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण आवास को मिलाकर कुल पांच बड़ी टंकियों, माफ कीजिये, स्कीमों का कुनबा है। देश में जन कल्याण की हर स्कीम की तीन पीढिय़ा बदल गईं हैं मगर हर स्कीम असफलता व घोटाले में समाप्त हुई। गरीब उन्‍मूलन और ग्रामीण रोजगार स्कीमें तो असफल प्रयोगों का अद्भुत इतिहास

Monday, May 30, 2011

कुर्बानी का मौसम

रा देखिये तो कि पेट्रो कीमतों के फफोले भूलकर आप दुनियावी बाजार के सामने सरकार की लाचारी पर किस तरह पिघल गए ? जरा गौर तो करिये कि तेल कंपनियों की बैलेंस शीट ठीक रखने के लिए कितने फख्र के साथ बलिदानी चोला पहन लिया। महसूस तो करिये सब्सिडीखोर होने की तोहमत से बचने के लिए आप सरकार के पेट्रो सुधारों पर किस अदा के साथ फिदा हो गए।..... गलती आपकी नहीं है, दरअसल यह मौसम ही कुर्बानी का है। बैंकों से लेकर बाजार तक और तेल कंपनियों से लेकर सरकार तक सब आम लोगों से ही कुर्बानी मांग रहे हैं, और हम भी कभी मजबूरी में तो कभी मौज में बहादुरी दिखाये जा रहे हैं। मगर इससे पहले कि शहादत का नया परवाना (पेट्रो कीमतों में अगली बढ़ोतरी ) आपके पास पहुंचे, सभी सिक्कों के दूसरे पहलू देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। पेट्रो उत्पादों पर टैक्स और सब्सिडी के तंत्र को सिरे से परखने की जरुरत बनती है क्योंभ कि पेट्रो कीमतों में हमाम में दुनिया अन्य देश भी हमारे जैसे ही हैं। इस असंगति से मगजमारी करने में कोई हर्ज नहीं है कि हजारों करोड़ की सब्सिडी बाबुओं जेब में डालने वाली सरकार, सब्सिडी को महापाप बताकर हमें महंगे पेट्रोल डीजल की आग में झोंक देती है। यह गुत्थी खोलने की कोशिश जरुरी है कि लोक कल्याणकारी राज्य के तहत बाजार में सरकार के हस्तक्षेप की जरुरत कब और क्योंी होती है। यह सवाल उठाने में हिचक कैसी कि देश की कथित जनप्रिय सरकारों को पेट्रोल पर टैक्स कम करने से किसने रोका है? और यह तलाशना भी आवश्यक है कि भारत में पेट्रो उत्पादों की मांग अन्य ऊर्जा स्रोतों की किल्लत के कारण बढ़ी है या सिर्फ ग्रोथ के कारण।
सब्सिडी का हमाम
पेट्रो सब्सिडी की हिमायत और हिकारत पर बहस से बेहतर है कि इसकी असलियत देखी जाए। पेट्रो सब्सिडी पर शर्मिंदा होने की जरुरत तो कतई नहीं है क्यों कि इस पृथ्वी तल पर हम अनोखे नहीं हैं, जहां सरकारें अंतरराष्ट्रीय पेट्रोकीमतों की आग पर सब्सिडी का पानी पर डालती हैं। आईएमएफ का शोध बताता है कि 2003 में पूरी दुनिया में पेट्रोलियम उत्पादों पर उपभोक्ता सब्सिडी केवल 60 अरब डॉलर थी जो 2010 में 250 अरब डॉलर पर पहुंच गई। 2007 से दुनिया की तेल कीमतों में आए उछाल के बाद सब्सिडी घटाने की मुहिम हांफने लगी और पूरी दुनिया अपनी जनता को सब्सिडी का मलहम

Monday, March 8, 2010

वाह! क्या गुस्सा है?

बजट को सुनकर या पेट्रो व खाद कीमतों में वृद्धि को देखकर आपको नहीं लगता कि सरकार कुछ झुंझलाहट या गुस्से में है। सब्सिडी उसे अचानक अखरने लगी है। महंगाई के बावजूद तेल की कीमतों को बेवजह सस्ता रखना उसे समझ में नहीं आता। मोटा आवंटन पचा कर जरा सा विकास उगलने वाली स्कीमों से उसे अब ऊब सी हो रही है। मानो सरकार अपने लोकलुभावन चेहरे को देखकर चिढ़ रही है। बजट और आर्थिक समीक्षा जैसे दस्तावेज एक उकताहट में तैयार किए गए महसूस होते हैं। यह जिद या ऊब उन नीतियों के खिलाफ है, जो बरसों बरस से सरकारों के कथित मानवीय चेहरे का श्रंगार रही हैं। इसी लोकलुभावन मेकअप का बजट इस बार निर्दयता से कटा है और इस कटौती या सख्ती के राजनीतिक नुकसान का खौफ नदारद है। इधर सालाना आर्थिक समीक्षा, सरकार में संसाधनों की बर्बादियों की अजब दास्तां सुनाती है और विकास के मौजूदा निष्कर्षो से शीर्षासन कराती है। लगता है कि जैसे कि सरकार अपने खर्च के लोकलुभावन वर्तमान से विरक्ति की मुद्रा में है। यह श्मशान वैराग्य है या फिर स्थायी विरक्ति? पता नहीं! ..मगर पूरा माहौल सुधारों के अनोखे एजेंडे की तरफ इशारा करता है। अनोखा इसलिए, क्योंकि सुधार हमेशा किसी नई शुरुआत के लिए ही नहीं होते। पुरानी गलतियों को ठीक करना भी तो सुधार है न?
विरक्ति के सूत्र
सालाना आर्थिक समीक्षा और बजट, सरकार के दो सबसे प्रतिनिधि दस्तावेज हैं। इन दोनों में ही लोकलुभावन नीतियों से विरक्ति के सूत्र बड़े मुखर हैं। अगर बारहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट को भी साथ में जोड़ लिया जाए तो एक त्रयी बनती है और तीनों मिलकर उन समीकरणों को स्पष्ट कर देते हैं, जिनके कारण सरकार को अपने लोकलुभावन मेकअप से चिढ़ हो गई। बड़ी-बड़ी स्कीमें और भीमकाय सब्सिडी !! इन्हीं दो प्रमुख प्रसाधनों ने हमेशा सरकारों के आर्थिक चेहरे का लोकलुभावन श्रंगार किया है और मजा देखिए कि वित्त आयोग व सर्वेक्षण ने इन्हीं दोनों के प्रति सरकार में विरक्ति भर दी है। नतीजे में पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा नए कर और खर्च में सबसे कम बढ़ोतरी वाला एक बेहद सख्त बजट सामने आया।
बोरियत वाला जादू
सरकार अपनी स्कीमों के जादू से ऊब सी गई लगती है। लाजिमी भी है। (बकौल सर्वेक्षण) पिछले छह साल में सरकार के कुल खर्च में सामाजिक सेवाओं का हिस्सा 10.46 से बढ़कर 19.46 फीसदी हो गया, लेकिन सामाजिक सेवाओं का चेहरा नहीं बदला। सरकार का अपना विशाल तंत्र ही सामाजिक सेवाओं की बदहाली का आइना लेकर सामने खड़ा है। दुनिया भर के मानव विकास सूचकांक मोटे अक्षरों में लिखते हैं कि भारत के लोग बुनियादी सुविधाओं में श्रीलंका व इंडोनेशिया से भी पीछे हैं। साक्षरता की दर अर्से से 60 फीसदी के आसपास टिकी है। 1000 में से 53 नवजात आज भी मर जाते हैं। 30 फीसदी आबादी को पीने का पानी मयस्सर नहीं। स्कूलों में दाखिले का संयुक्त अनुपात अभी भी 61 फीसदी है। सरकार को दिखता है कि शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास से लेकर कमजोर वर्गो तक स्कीमों से, पिछले छह दशकों में, कोई बड़ा जादू नहीं हुआ। अब इन स्कीमों में भ्रष्टाचार भी आधिकारिक व प्रामाणिक हो चुका है। यह सब देखकर स्कीमों के जादू से ऊब होना स्वाभाविक है। यह बजट इस बदले नजरिए का प्रमाण है। सरकार के चहेते मनरेगा परिवार से लेकर सभी बड़ी स्कीमों काबजट अभूतपूर्व ढंग से छोटा हो गया है।
नहीं सुहाती सब्सिडी
आसानी से भरोसा नहीं होता कि कांग्रेस सब्सिडी से चिढ़ जाएगी। सब्सिडी तो सरकार लोकलुभावन आर्थिक नीतियों का कंठहार है। जो केंद्र से लेकर राज्य तक फैला है और पिछले कुछ वर्षो में लगातार मोटा हुआ है, लेकिन अब सब्सिडी चुभने लगी है। 2002 के बाद पहली बार खाद की कीमत बढ़ी। आर्थिक सर्वेक्षण ने कहा कि सब्सिडी से न तो गरीबों का फायदा हुआ न खेती का और न खजाने का। वित्त आयोग ने तो हर साल सब्सिडी बिल में वृद्धि की सीमा तय कर दी। बात अब इतनी दूर तक चली गई है कि राशन प्रणाली को सीमित कर गरीबों को अनाज के कूपन देने के प्रस्ताव हैं। पेट्रो उत्पादों को सब्सिडी के सहारे सस्ता रखने पर सरकार तैयार नहीं है। सरकार के ये ज्ञान चक्षु सिर्फ खजाने की बीमारी देखकर ही नहीं खुले, बल्कि मोहभंग कहीं भीतर से है क्योंकि तेज विकास और भारी सरकारी खर्च के बाद भी गरीबी नहीं घटी। 37 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे है और सरकार के कुछ आकलन तो इसे 50 फीसदी तक बताते हैं। नक्सलवाद जैसी हिंसक और अराजक प्रतिक्रियाएं अब गरीबी उन्मूलन और विकास की स्कीमों की विफलता से जोड़ कर देखी जाने लगी हैं। आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि समावेशी विकास यानी इन्क्लूसिव ग्रोथ के लिए सबसे गरीब बीस फीसदी लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी को मापना चाहिए। यह पैमाना अपनाने पर सरकार को सब्सिडी के नुस्खे का बोदापन नजर आ जाता है। इसलिए लोकलुभावन नीतियों की नायक सब्सिडी अचानक सबसे बड़ी खलनायक हो गई है। खाद और पेट्रो उत्पादों की सब्सिडी पर कतरनी चली है, राशन पर चलने वाली है।
..ढेर सारे किंतु परंतु
यह ऊब उपयोगी, तर्कसंगत और सार्थक है। लेकिन इसके टिकाऊ होने पर यकायक भरोसा नहीं होता। पिछले दशकों में एक से अधिक बार सरकार में सब्सिडी व बेकार के खर्च से विरक्ति जागी है, लेकिन स्कीमों का जादू फिर लौट आया और भारी सब्सिडी से बजटों का श्रंगार होने लगा। पांचवे वेतन आयोग को लागू किए जाने के बाद खर्च पर तलवार चली थी, लेकिन बाद के बजटों में खर्च ने रिकार्ड बनाया। आर्थिक तर्क पीछे चले गए और बजट राजनीतिक फायदे के लिए बने। इसीलिए ही तो सब्सिडी पर लंबी बहसों व अध्ययनों के बाद भी सब कुछ जहां का तहां रहा है। लेकिन इस अतीत के बावजूद यह मुहिम अपने पूर्ववर्तियों से कुछ फर्क है क्योंकि यह खर्च, सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों को सिर्फ बजट के चश्मे से नहीं, बल्कि समावेशी विकास और सेवाओं की डिलीवरी के चश्मे से भी देखती है, जो एक बदलना हुआ नजरिया है।
सरकार अर्थव्यवस्था से खुश है पर अपने हाल से चिढ़ी हुई है। इसलिए यह बजट अर्थव्यवस्था में सुधार की नहीं, बल्कि सरकार की अपनी व्यवस्था में सुधार की बात करता है। बस मुश्किल सिर्फ इतनी है कि सरकार ने अपने इलाज का बिल, लोगों को भारी महंगाई के बीच थमा दिया। कहना मुश्किल है कि यह बदला हुआ नजरिया सिर्फ कुछ महीनों का वैराग्य है या यह परिवर्तन की सुविचारित तैयारी है। गलतियां सुधारने की मुहिम यदि गंभीर है तो इसका बिल चुकाने में कम कष्ट होगा, लेकिन अगर सरकार स्कीमों व सब्सिडी के खोल में वापस घुस गई तो? .. तो हम मान लेंगे एक बार फिर ठगे गए। फिलहाल तो सरकार की यह झुंझलाहट, ऊब और बेखुदी काबिले गौर है, क्योंकि इससे कुछ न कुछ तो निकलेगा ही..
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।
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