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Tuesday, May 10, 2016

कुछ करते क्यों नहीं !


भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भ्रष्टाचार को लेकर एक और आतिशबाजी शुरू हो चुकी है. पिछले पांच-छह साल में घोटालों पर यह छठी-सातवीं राजनैतिक कुश्ती है, जो हर बार पूरे तेवर-तुर्शी और गोला-बारूद के साथ लड़ी जाती है और राजनीतिजीवी जमात को अपनी आस्थाएं तर करने का मौका देती है. लेकिन हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर हम एक छलावे के दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भारत भ्रष्टाचार के सभी पैमानों पर सबसे ऊपर है, लेकिन इससे निबटने की व्यवस्था करने, संस्थाएं और पारदर्शी ढांचा बनाने में हम उन 175 देशों में सबसे पीछे हैं, जिन्होंने 2003 में संयुक्त राष्ट्र की भ्रष्टाचार रोधी संधि पर दस्तखत किए थे. हमसे तो आगे पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया, भूटान और वियतनाम जैसे देश हैं जिनके प्रयास, सफलताएं-विफलताएं भ्रष्टाचार पर ग्लोबल चर्चाओं में जगह पाते हैं.

चॉपरगेट के बहाने हम उन आंदोलनों और बेचैनियों को श्रद्धांजलि दे सकते हैं, जिन्होंने 2011 से 2013 के बीच देश को मथ दिया था. लगता था कि जैसे भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ इंकलाब आ गया है. कोई बता सकता है कि इस बेहद उथल-पुथल भरे दौर से निकला लोकपाल आज कहां है, जिसका कानून तकनीकी तौर पर जनवरी, 2014 से लागू है, लेकिन लोकपाल महोदय प्रकट नहीं हुए.

यह खबर किसी अखबार या टीवी के मतलब की नहीं थी कि दिसंबर, 2014 में मोदी सरकार ने लोकपाल कानून को पुनःविचार और संशोधनों के लिए कानून मंत्रालय की संसदीय समिति को सौंप दिया. एक साल बाद दिसंबर, 2015 में इस समिति ने केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआइ के भ्रष्टाचार रोधी विंग को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश के साथ अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.

भ्रष्टाचार को लेकर यह कैसी वचनबद्धता है कि तकनीकी तौर पर लोकपाल कानून बने ढाई साल हो चुके हैं, लेकिन मोदी सरकार लोकपाल पर कुछ नहीं बोली. संयुक्त राष्ट्र की संधि के मुताबिक, भारत को पांच दूसरे कानून भी बनाने हैं. इनमें एक व्हिसलब्लोअर बिल भी है. इस कानून के तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले की सुरक्षा के प्रावधान ढीले करते हुए सरकार अपनी मंशा को दागी करा चुकी है.

यह विधेयक राज्यसभा में अटका है. अदालतों में पारदर्शिता के लिए जुडीशियल अकाउंटेबिलटी बिल, नागरिक सेवाओं से जुड़े अधिकारों के लिए सिटीजन चार्टर ऐंड ग्रीवांस रिड्रेसल बिल, सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार रोकने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन का विधेयक और विदेशी अधिकारियों व अंतरराष्ट्रीय संगठनों में रिश्वतखोरी रोकने के विधेयकों को लेकर पिछले दो साल में सरकार में कहीं कोई सक्रियता नहीं दिखी.

किसी को यह मुगालता नहीं है कि लोकपाल या इन पांच कानूनों के जरिए हम भारत की सियासत और कार्यसंस्कृति में भिदे भ्रष्टाचार को रोक सकेंगे. यह तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर रोक, जांच और पारदर्शिता का शुरुआती ढांचा बनाने की कोशिश है, वह भी अभी शुरू नहीं हो सकी है. 2003 में भ्रष्टाचार पर अंतरराष्ट्रीय संधि (2005 से लागू) के बाद लगभग प्रत्येक देश ने अपनी परिस्थिति के आधार पर भ्रष्टाचार से निबटने के लिए रणनीतियां, संस्थाएं, नियम, कानून और एजेंसियां बनाई हैं, जिन्हें लगातार संशोधित कर प्रभावी बनाया जा रहा है.

पिछले कुछ वर्षों में यूएनडीपी और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार निरोधक रणनीतियों का अध्ययन किया है, जो इस जटिल जंग में हार-जीत, दोनों की कहानियां सामने लाते हैं. मसलन, रोमानिया ने अपनी पुरानी भूलों से सीखकर एक कामयाब व्यवस्था बनाने की कोशिश की. इंडोनेशिया ने अपनी ऐंटी करप्शन रणनीतियों को गवर्नेंस सुधारों से जोड़कर ग्लोबल स्तर पर सराहना हासिल की है. ऑस्ट्रेलिया ने नेशनल ऐंटी करप्शन रणनीति बनाने की बजाए पारदर्शिता को व्यापक गवर्नेंस और न्यायिक सुधारों से जोड़कर पूरे सिस्टम को पारदर्शी बनाने की राह चुनी, जबकि मलेशिया ने भ्रष्टाचार खत्म करने की रणनीति को गवर्नेंस ट्रांसफॉर्मेशन प्रोग्राम से जोड़ा, जो इस विकासशील देश को 2020 तक विकसित मुल्क में बदलने का लक्ष्य रखता है. चीन तो दुनिया का सबसे कठोर भ्रष्टाचार निरोधक अभियान चला रहा है, जिसमें 2013 से अब तक दो लाख से अधिक अधिकारियों और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की जांच हो चुकी है और अभियोजन की दर 99 फीसदी है.

भ्रष्टाचार रोकने की रणनीतियां चार बुनियादी आधारों पर टिकी हैं. सबसे पहला है, मजबूत और स्वतंत्र मॉनिटरिंग एजेंसी, दूसरा, भ्रष्टाचार की नियमित और पारदर्शी नापजोख जबकि तीसरा पहलू है, जांच के लिए पर्याप्त संसाधन और विस्तृत तकनीकी क्षमताएं और चौथा है, स्पष्ट कानून व भ्रष्टाचार पर तेज फैसले देने वाली सक्रिय अदालतें.

भारत की तरफ देखिए. हमारे पास इन चारों में से कुछ भी नहीं है. भारत की एक ताकतवर स्वतंत्र एजेंसी बनाने (लोकपाल) की जद्दोजहद अब तक जारी है. केंद्रीय सतर्कता आयोग को गठन के 39 साल बाद 2003 में वैधानिक दर्जा मिला लेकिन जांच का अधिकार नहीं. जांच करने वाली सीबीआइ सरकारों के पिंजरे का तोता है. भ्रष्टाचार की नापजोख का कोई तंत्र कभी बना ही नहीं और अदालतें उन कानूनों से लैस नहीं हैं, जो जटिल भ्रष्टाचार को बांध सकें.

कीचड़ सनी कांग्रेस से तो इस सबकी उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश पर बैठकर सत्ता में आई मोदी सरकार से यह अपेक्षा जरूर थी कि वह पुराने घोटालों की तेज जांच करेगी और भारत को भ्रष्टाचार से निबटने के लिए दूरगामी व स्थायी रणनीति और संस्थाएं देगी.

अगस्तावेस्टलैंड के दलाल जानते हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में फैले रिश्वतखोरी के तार जोड़ते-जोड़ते एक दशक निकल जाएगा. सियासत को भी पता है कि जांच में कुछ न होने का, क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार से निबटने को लेकर संस्थागत तौर पर कुछ किया ही नहीं है. वे तो बस राजनीति के कीचड़ में लिथड़ने के शौकीन हैं, जिसका सीजन कुछ वक्त बाद खत्म हो जाता है.