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Monday, December 12, 2011

डूब कर ही उबरेगा यूरोप

यूरो जोन तवे से गिरकर चूल्‍हे में आ गया है। कर्ज संकट की लपट से बचने के लिए यूरोप के खेवनहार अपनी दुकानें अलग करने लगे हैं। यूरोप का राजनीतिक नेतृत्‍व करो या मरो टाइप का एजेंडा लेकर इस सप्‍ताह ब्रसेल्स में जुटा था। दस घंटे तक मगजमारी के बाद यूरोपीय रहनुमा जब बाहर आए तो यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्‍यव्‍स्‍था ब्रिटेन साथ नहीं थी। डेविड कैमरुन,  यूरोप की नई संकट निवारण संधि को शुभकामनायें देकर कट लिये और यूरोपीय एकता का शीशा खुले आम दरक गया। हालांकि मर्कोजी मान रहे हैं कि यूरोपीय देश नई सख्‍त वित्‍तीय अनुशासन संधि में बंध कर संकट से बच जाएंगे। यह बात अलग है नेताओं की इन कोशिशों पर बाजार का भरोसा जम नहीं रहा है।  रेटिंग एजेंसियां कह रही हैं कि यूरोपीय देशों 2012 में कर्ज की बहुत भारी देनदारी आ रही है जो सुधारों के इस नए इंतजाम से नहीं रुकने वाली। बाजार मान रहा है कि यूरोजोन पर कर्ज की इतनी बारिश हो चुकी है कि सुधारों की धूप की निकलने पर भी यह ढह जाएगा।
यूरो की खातिर
यूरोप के राजनेता जो बच सके बचाने की फिराक में हैं। यह सर्वनाशे समुत्‍पन्‍ने  अर्ध: त्‍यजति पंडित: जैसी स्थिति है। ब्रसेल्‍स की यूरोपीय संघ शिखर बैठक से पेरिस में मर्कोजी ( एंजेल मर्केल और निकोलस सरकोजी) ने तय कर लिया था कि यूरोप की मौद्रिक एकता को बचाने के  यूरोपी देशों के बजटों का डीएनए ठीक करना होगा है। अब पूरा यूरोपीय संघ एक नई संधि में बंधेगा जिसमें बेहद सख्‍त वित्‍तीय अनुशासन होगा और घाटों के बेहाथ होने पर देशों को जुर्माना चुकाना पड़ेगा। यूरो मुद्रा अपनाने वाले 17 देशों के लिए तो नियम और भी सख्‍त है। व्‍यवहारिक रुप से यूरोप के सभी देशों को अपने बजट अपनी संसद से पहले यूरोपीय आयोग को दिखाने होंगे। संप्रभु मुल्‍कों पर को पहली एसी विकट शर्त

Monday, August 29, 2011

नेतृत्‍व का ग्‍लोबल संकट

राक ओबामा, एंजेला मर्केल, निकोलस सरकोजी, डेविड कैमरुन, नातो कान, मनमोहन सिंह, आंद्रे पापेद्रू (ग्रीस), बेंजामिन् नेतान्याहू, रो्ड्रियो जैप्टारो (स्पे न) आदि राष्ट्राध्यक्ष सामूहिक तौर पर इस समय दुनिया को क्या दे रहे हैं ??  केवल घटता भरोसा,  बढता डर और भयानक अनिश्चितता !!!!  सियासत की समझदारी ने बड़े कठिन मौके पर दुनिया का साथ छोड़ दिया है। हर जगह सरकारें अपनी राजनीतिक साख खो रही हैं। राजनीतिक अस्थिरता के कारण इस सप्‍ताह जापान की रेटिंग घट गई। दुनिया के कई प्रमुख देश राजनीतिक संकट के भंवर में है। भारत में अन्ना की जीत सुखद है मगर एक जनांदोलन के सामने सरकार का बिखर जाना फिक्र बढ़ाता है। मंदी तकरीबन आ पहुंची है। कर्ज का कीचड़ बाजारों को डुबाये दे रहा है। इस बेहद मुश्किल भरे दौर में पूरी दुनिया के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके सहारे उबरने की उम्मीद बांधी जा सके। राजनीतिक नेतृत्व की ऐसी अंतरराष्ट्रीय किल्‍लत अनदेखी है। पूरी दुनिया नेतृत्व के संकट से तप रही है।
अमेरिकी साख का डबल डिप
ओबामा प्रशासन ने स्टैंडर्ड एंड पुअर के मुखिया देवेन शर्मा की बलि ले ली। अपना घर नहीं सुधरा तो चेतावनी देने वाले को सूली पर टांग दिया। मगर अब तो फेड रिजर्व के मुखिया बर्नांकी ने भी संकट की तोहमत अमेरिकी संसद पर डाल दी है। स्टैंडर्ड एंड पुअर ने दरअसल अमेरिका की वित्तींय साख नहीं बल्कि राजनीतिक साख घटाई थी। दुनिया का ताजी तबाही अमेरिका पर भारी कर्ज से नहीं निकली, बल्कि रिपब्लिकन व डेमोक्रेट के झगड़े

Monday, August 1, 2011

महाबली का महामर्ज

दो अगस्त को आप किस तरह याद करते हैं, जर्मनी में हिटलर की ताजपोशी की तारीख के तौर या फिर भारत में कंपनी राज की जगह ब्रिटिश राज की शुरुआत के तौर पर। .... इस सप्ताह से दो अगस्त को वित्तीय दुनिया में एक नई ऐतिहासिक करवट के लिए भी याद कीजियेगा। दो अगस्त को अमेरिका डिफाल्ट ( कर्ज चुकाने में चूक) ????  शायद नहीं होगा क्यों कि सरकार के पास दसियों जुगाड़ हैं। मगर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महाबली का यह मर्ज इतिहास बनाने की तरफ बढ़ चुका है। अमेरिका सरकार के लिए कर्ज की सीमा बढ़ने की आखिरी तारीख दो अगस्त है। रिपब्लिकन व डेमोक्रेट चाहे जो इलाज निकालें यानी कि अमेरिका डिफॉल्ट हो या फिर बचने के लिए टैक्स लगाये मगर विश्व के सबसे बड़े निवेशक और सबसे बड़े बाजार की सबसे ऊंची साख का कीमा बन चुका है। रेटिंग एजेंसियों, बैंकों, हेज फंड, शेयर निवेशकों के विश्वव्यापी समुद्राय ने भविष्य को भांप लिया है और अपनी मान्यताओं, सिद्धांतों, रणनीतियों और लक्ष्यों को नए तरह से लिखना शुरु कर दिया है। सुरक्षा के लिए सोने ( रिकार्ड तेजी) से लेकर स्विस फ्रैंक (इकलौती मजबूत मुद्रा) तक बदहवास भागते निवेशक बता रहे हैं कि वित्तीय दुनिया अब अपने भगवान की गलतियों की कीमत चुकाने को तैयार हो रही है।
डूबने की आजादी
अमेरिका की परंपराओं ने उसे अनोखी आजादी और अजीब संकट दिये हैं। अमेरिका में सरकार का बजट और कर्ज अलग-अलग व्यवस्थायें हैं। हर साल बजट के साथ कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिए संसद की मंजूरी, जरुरी नहीं है। इस साल अमेरिका की सीनेट ने बजट खारिज कर दिया तो ओबामा ने उसे वापस मंजूर कराने को भाव ही नहीं दिया। क्यों कि कर्ज में डूबकर खर्च करने की छूट उनके पास थी। 1990 के दशक के बाद से अमेरिका ने अपने बजट व कर्ज में संतुलन बनाने की कोशिश की थी जो इस साल टूट गई और मई में 14 खरब डॉलर के सरकारी कर्ज की संवैधानिक सीमा भी पार हो गई। अब दो अगस्ते को खजाने खाली हो जाएंगे और वेतन पेंशन देने के लिए पैसा नहीं बचेगा। तकनीकी तौर पर यह डिफॉल्ट की स्थिति है। अमेरिका कर्ज पर संसद के नियंत्रण की तारीफ की जाती है मगर यही प्रावधान अमेरिकी संसद में ताकतवर विपक्ष

Monday, July 25, 2011

साख की राख

याद नहीं पड़ता कि इतिहास को इस कदर तेजी से पहले कब देखा था। आर्थिक दुनिया में पत्थर की लकीरों का इस रफ्तार से मिटना अभूतपूर्व है। तारीख दर्ज कर रही है कि अब वित्‍तीय दुनिया अमेरिका की साख की कसम अब कभी नहीं खायेगी। इतिहास यह भी लिख रहा है कि ग्रीस वसतुत: दीवालिया हो गया है और समृद्ध और ताकतवर यूरोप में कर्ज संकटों का सीरियल शुरु हो रहा है। अटलांटिक के दोनों किनारे कर्ज के महामर्ज से तप रहे हैं। अमेरिकी सरकार कर्ज के गंभीर संकट में है। ओबामा कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिए दुनिया को डराते हुए अपने विपक्ष को पटा रहे हैं, दो अगस्त के बाद अमेरिका सरकार के खजाने खाली हो जाएंगे। यूरोपीय समुदाय ने ग्रीस के इलाज ( सहायता पैकेज) से मुश्किलों का नया पाठ खोल दिया है। कर्ज के संकट से बचने के‍ लिए अमेरिका और यूरोप ने शुतुरमुर्ग की तरह अपने सर संकट की रेत में और गहरे धंसा दिये हैं। जबकि संप्रभु कर्ज संकटों का अतीत बताता हैं कि आग के इस दरिया में डूब कर ही उबरा जा सकता है। दिग्गज देशों की साख, राख बनकर उड़ रही है और वित्तीय बाजारों आंखों के सामने अंधेरा छा रहा है।
दीवालियेपन का अरमेगडॉन
...यानी वित्तीय महाप्रलय। राष्ट्रपति ओबामा ने अमेरिका के संभावित डिफॉल्ट ( यानी और कर्ज लेने पर पाबंदी) को यही नाम दिया है। अमेरिकी संविधान के मौजूदा सीमा के मुताबिक देश का सार्वजनिक (सरकारी) कर्ज 14.29 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर नहीं जा सकता। कर्ज का यह घड़ा इस साल मई में भर गया था। अमेरिका में सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 70 फीसदी है। संसद से कर्ज की सीमा बढ़वाये बिना, अमेरिकी सरकार एक पाई का कर्ज भी नहीं ले पाएगी। ओबामा विपक्ष को डरा व पटा रहे हैं और पहले दौर कोशिश खाली गई है। विपक्षी कर्ज की सीमा बढ़ाने के लिए कर बढ़ाने व खर्च काटने ( करीब 2.4 ट्रिलियन डॉलर का पैकेज) की शर्त लगा रहे है। घटती लोकप्रियता के बीच चुनाव की तैयारी में लगे ओबामा यह राजनीतिक जोखिम नहीं ले सकते। अमेरिका का डिफॉल्‍ट होना आशंकाओं भयानक चरम

Monday, May 31, 2010

पछतावे की परियोजनायें

अर्थार्थ......
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रबूजा हमेशा से बदकिस्मत है। कभी तो वह खुद चाकू पर टपक जाता है, तो कभी चाकू को उस पर प्यार आ जाता है। लेकिन इससे नतीजे में कोई फर्क नहीं पड़ता। कटता खरबूजा ही है, ठीक उस तरह जैसे कि आर्थिक संकट में फंसे देशों के आम लोग कटते हैं। पहले वित्तीय आपदाएं जनता को झुलसाती हैं और फिर इन संकटों के इलाज या प्रायश्चित खाल उतार लेते हैं। यूरोजोन में वित्तीय कंजूसी और टैक्स बढ़ाने की अभूतपूर्व मुहिम शुरू हो चुकी है। अमेरिका व शेष दुनिया भी इस पाठ को दोहराने वाली है। सरकारें ताजा संकट पर प्रायश्चित कर रही हैं, मगर पछतावे की ये परियोजनाएं जनता की पीठ पर लाद दी गई हैं। मंदी की मारी जनता के जख्मों पर करों में बढ़ोतरी और वेतन-पेंशन में कटौती की तीखी मिर्च मली जा रही है। बुढ़ाते यूरोप के लिए तो यह एक ऐसा दर्दनाक इलाज है, जिसके सफल होने की कोई शर्तिया गारंटी भी नहीं है। इधर मंदी से घुटने तुड़वा चुकी दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए भी यह सबसे चिकने रास्ते के जरिए पहाड़ चढ़ने जैसा है। इस सफर में प्रोत्साहनों, सस्ते कर्ज, अच्छी खपत जैसी सुविधाओं पर सख्त पाबंदी है।
चादर तो बढ़ने से रही
कर्ज संकट में फंसे देशों का इलाज सिर्फ शायलाकों के साथ सौदेबाजी यानी कर्ज पुनर्गठन से ही नहीं हो जाता। इस सौदेबाजी की साख के लिए उन्हें जनता पर नए टैक्स लादने होते हैं और वेतन-पेंशन जैसे खर्चो को क्रूरता के साथ घटाना होता है। दरअसल कर्ज संकट चादरें छोटी होने और पैर बाहर होने का ही नतीजा है। बस एक बार यह पता भर चल जाए कि अमुक देश में खर्च और कमाई का हिसाब-किताब ध्वस्त हो गया और कर्ज चुकाने के लाले हैं तो सरकारों के लिए संसाधनों के स्रोत सबसे पहले सूखते हैं। साख गिरते ही वित्तीय बाजार को उस देश से घिन आने लगती है। अपने ही बैंक सरकार को नखरे दिखाते हैं यानी कि कर्ज मिलना मुश्किल हो जाता है। ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल इसके वर्तमान और अर्जेटीना, रूस, पाकिस्तान, उरुग्वे हाल के ताजे उदाहरण हैं। जाहिर है कि संसाधन न मिलें तो सरकारी मशीनरी बंद हो जाएगी। इसलिए कर्ज संकट आते ही एक पीड़ादायक प्रायश्चित शुरू हो जाता है। नए और मोटे टैक्स लगाकर राजस्व जुटाया जाता है, वेतन, पेंशन काटे जाते हैं, सामाजिक सेवाओं पर खर्च घटता है। घाटा कम करने के आक्रामक लक्ष्य रखे जाते हैं। यह सब इसलिए होता है कि अब कम से कम चादर और तो न सिकुड़े और बाजार को यह भरोसा रहे कि पछतावा शुरू हो गया है।
..तो पैर छोटे करो
ब्रिटेन के मंत्री अब पैदल या बस से दफ्तर जाएंगे! देश की सरकार बच्चों को तोहफे नहीं देगी! सरकारी यात्राओं में कटौती होगी! आदि आदि। करीब 6.2 बिलियन पाउंड बचाने के लिए ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री डेविड कैमरून के इस नुस्खे पर आप बेशक मुस्करा सकते हैं, लेकिन इस तथ्य पर हंसना शायद मुश्किल है कि ग्रीस ने अपने यहां अगले तीन साल के लिए पेंशन-तनख्वाहें और त्यौहारी बोनस व अन्य भत्त्‍‌ो रोक या घटा दिए हैं। यूरोजोन में सरकारी भर्तियों पर पाबंदी लग गई है। पुर्तगाल, स्पेन व आयरलैंड सरकारी कर्मचारियों के वेतन घटा रहे हैं। फ्रांस दस फीसदी खर्च कम करने की तैयारी में है तो पुर्तगाल सरकारी उपक्रम बेचकर पैसा कमाने की जुगाड़ में है। पर जरा ठहरिए! इस तलवार की दूसरी धार और भी तीखी है। कर्ज चुकाने के लिए संसाधन तलाश रहे यूरो जोन में नए टैक्सों की बाढ़ सी आ गई है। पुर्तगाल, ग्रीस, स्पेन आदि ने सभी तरह के कर बढ़ा दिए हैं। ग्रीस कंपनियों पर नया कर थोप रहा है, तो स्पेन ऊंची आय वालों पर टैक्स बढ़ा रहा है। पूरे यूरोजोन में सभी मौजूदा करों की दरें बढ़ गई हैं। वित्तीय कंजूसी और घाटे कम करने के नए लक्ष्य तय किए गए हैं। ब्रिटेन, फ्रांस सहित सभी प्रमुख देशों को अगले दो साल में अपने घाटे तीन से पांच फीसदी तक घटाकर इस इलाज की सफलता साबित करनी है। यह बात दीगर है कि यूरोप के लोग सरकारों की गलतियों का बिल भरने को तैयार नहीं है। पेंशन, वेतन कटने और टैक्स बढ़ने से खफा लोग ग्रीस में लाखों की संख्या में सड़कों पर हैं। इटली व पुर्तगाल के सबसे बडे़ श्रमिक संगठनों ने हड़ताल की धमकी दे दी है। पूरे यूरोप में श्रम आंदोलनों का एक नया दौर शुरू हो रहा है।
गारंटी फिर भी नहीं
यूरोप के इन नाराज लोगों को लाटविया और आयरलैंड के ताजे उदाहरण दिख रहे हैं। जिनका मर्ज करों में बढ़ोत्तरी और खर्च में कटौती की तगड़ी सर्जरी के बाद भी ठीक नहीं हुआ। आयरलैंड ने 2008 में वित्तीय कंजूसी शुरू की, लेकिन इसके बावजूद घाटा दो गुना हो गया। यानी कि मुर्गी जान से गई और बात फिर भी नहीं बनी। यूरोप की चिंताएं शेष दुनिया से कुछ फर्क हैं। यूरोप बुजुर्ग हो रहा है। जहां 39 फीसदी आबादी 50 साल से ऊपर की उम्र वाली हो, उसके लिए पेंशन में कटौती और करों का बोझ बुढ़ापे में बड़ी बीमारी से कम नहीं है। विशाल बुजुर्ग आबादी वाले इटली जैसे मुल्कों के लिए तो यह संकट बहुत बड़ा है। इस पर तुर्रा यह कि आम जनता की यह कुर्बानी तेज विकास की गारंटी नहीं है। यूरोप के परेशान हाल मुल्कों में अगले दो साल के दौरान विकास दर शून्य से नीचे ही रहनी है। जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे बड़े मुल्कों सहित पूरे यूरोप में अगले दो साल के लिए आर्थिक विकास दर के आकलन 1.2 फीसदी से ऊपर नहीं जा रहे। यूरोप के देश जिन बांड निवेशकों को मनाने के लिए यह कठिन योग साध रहे हैं, उन देवताओं को भी भरोसा नहीं कि इलाज कारगर होगा। बल्कि उनकी राय में यूरोजोन की साख और कमजोर हो सकती है। अर्जेटीना, यूक्रेन, रूस आदि के ताजे अतीत गवाह हैं कि कर्ज, मुद्रा और बैंकिंग संकटों का यह मिला-जुला महामर्ज तीन से पांच साल तक सताता है। कुछ मामलों में यह आठ साल तक गया है। ..यूरोप की आबादी मोटी पेंशन, सस्ती चिकित्सा और ढेर सारी दूसरी रियायतों के साथ कल्याणकारी राज्य का भरपूर आनंद ले रही थी कि अचानक मेला उखड़ गया है।
मंदी और वित्तीय संकट जितनी तेजी से फैलते हैं, उनके इलाज भी उतनी ही तेजी से अपनाए जाते हैं। दुनिया भर की सरकारें अपनी लाड़ली जनता के लिए नए करों की कटारें तैयार कर रही हैं। अमेरिका का केंद्रीय बैंक फेड रिजर्व लोगों को करों के बोझ व खर्चो में कमी को सहने के लिए सतर्क कर रहा है। वहां के डिफाल्टर राज्यों में टैक्स बढ़ने लगे हैं। भारत का ताजा कठोर बजट भी इसी तर्ज पर बना था। मंदी से कमजोर हुई अपनी अर्थव्यवस्थाओं को प्रोत्साहन का टानिक देते-देते सरकारें अचानक जनता से रक्तदान मांगने लगी हैं। एक साल पहले तक लोग मंदी के कारण नौकरियां गंवा रहे थे, अब वे वित्तीय बाजारों में अपनी सरकारों की साख को बचाने के लिए वेतन और पेंशन गंवाएंगे। ..सजा हर हाल में आम लोगों के लिए ही मुकर्रर है।
हमको सितम अजीज, सितमगर को हम अजीज
ना मेहरबां नहीं हैं, अगर मेहरबां नहीं
---गालिब
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Monday, May 17, 2010

ऐसा भी हो सकता है?

ग्री का अपशकुन अब किसका घर घेरेगा? ऋण संकट का वेताल अब किस के आंगन में उतरेगा?.. यही तो सोच रहे हैं न आप? जवाब इस पहेली में छिपा है। आगे लिखी पंक्तियां पढि़ए और सवाल का जवाब दीजिए.. आईएमएफ की निगाह में ये देश ऋण संकट के वायरस का स्वागत करने को तैयार बैठे हैं। इनकी राज्य सरकारें डिफाल्ट होने लगी हैं। इनका कुल सार्वजनिक कर्ज इनके जीडीपी के मुकाबले 100 से 250 फीसदी तक हैं। इनके बजट अब कर्ज का बोझ नहीं संभाल सकते।
जरा बताइए तो यह इशारा किन देशों की तरफ है???
स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड !!!!
नहीं.. इनके बारे में तो सबको पता है
यह बात अमेरिका, यूके (ब्रिटेन), जापान और कुछ हद तक जर्मनी की है !!!
चौंक गए न? ग्रीस के तूफान ने मजबूत दिखने वाले बड़ों के नकाब खींच दिए हैं। वित्तीय बाजार अब रेत से सर निकालकर यह निर्मम सच बोलने की हिम्मत जुटा रहा है कि बड़े भीतर से बड़े खोखले हैं। अमीर देशों के क्लब जी 20 के आधा दर्जन महारथी ऋण संकट के टाइम बम पर बैठे हैं। इनके सरकारी कर्ज खतरे के हर निशान से ऊपर हैं। वित्तीय बाजार इन्हें नया कर्ज देने में हिचक रहा है। वित्तीय संस्थाएं जल्द ही ट्रिपल ए रेटिंग के अवसान का ऐलान कर सकती हैं। मतलब उस सुनहरी साख का खात्मा होने वाला है जो दिग्गज देशों के सरकारी (सावरिन) बांड्स को मिलती है और इन्हें हर तरह से सुरक्षित होने का तमगा देती है। बताने की जरूरत नहीं कि वित्तीय बाजार निहायत कायर है। खतरे के एक अलार्म पर यहां कोई किसी की चिंता नहीं करता, बस सारी भेड़ें खाई में कूद पड़ती हैं।
कितनी दूर तक जाएगी बात?
सरकारों पर तंज करने वाले कहते हैं कि आम लोग अगर सरकारों की तरह व्यवहार करने लगें तो आप पुलिस को बुला लेंगे.. बात भी ठीक है, खाली जेब हो तो कोई कर्ज नहीं देता, लेकिन सरकारें खूब ऐसा करती हैं। अंतरराष्ट्रीय पैमाने के मुताबिक अगर किसी देश का कर्ज जीडीपी से 60 फीसदी ऊपर हो और ऊपर से वह विदेशी कर्ज हो तो उस मुल्क को कर्ज संकट रोग कभी भी पकड़ सकता है। मगर मूडी के आकलन के मुताबिक सिर्फ 2007 से 2009 के बीच दुनिया के जीडीपी के अनुपात में सरकारों का संप्रभु कर्ज 62 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया है। इनमें भी जी 20 के सदस्य नौ प्रमुख देशों में सात का संप्रभु कर्ज उनके जीडीपी की तुलना में दस फीसदी बढ़ गया है। जब कि इस दौरान जी 20 में औसत बजट घाटे एक फीसदी से बढ़कर करीब आठ फीसदी हो गए। निवेशकों को खतरा साफ दिख रहा है और संप्रभु डिफाल्ट तो छूत का रोग है। इसे देखते ही वित्तीय बाजार नाक मुंह पर सतर्कता का मास्क बांध लेता है।
इनका हाल तो देखो!
न्यूयार्क के मैनहट्टन में सिक्स्थ एवेन्यू पर लगी अमेरिका की राष्ट्रीय कर्ज घड़ी में नौ अक्टूबर, 2008 को कर्ज की वास्तविक स्थिति दिखाने के लिए अंक कम पड़ गए थे। अमेरिका के कर्ज ने तब दस ट्रिलियन डालर के आंकड़े को पार किया था। यह शायद अमेरिका में कर्ज संकट की उलटी गिनती की शुरुआत थी। यह घड़ी 16 मई रविवार को करीब 12.9 ट्रिलियन डालर का सार्वजनिक कर्ज दिखा रही थी। अमेरिका में केंद्रीय स्तर पर भले ही सब कुछ ढंका छिपा हो, मगर नीचे तो शुरुआत हो चुकी। अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य, अर्नाल्ड श्वार्जनेगर का कैलिफोर्निया कर्ज चुकाने में चूकने वाला है और ओबामा से मदद की गुहार कर रहा है। 2009 में अमेरिकी नगर निकायों ने दीवालियेपन के 11000 मामले दायर किए हैं। जबकि 1937 से अब तक ऐसे केवल 600 मामले आए थे। चर्चा हैरिसबर्ग व डेट्रायट जैसे शहरी निकायों के दीवालिया होने की भी है। इससे 2800 बिलियन डालर का म्युनिसिपल बांड बाजार गर्त में है। अमेरिकी की फेडरल सरकार का संप्रभु कर्ज जीडीपी का करीब 85 फीसदी है और सकल कर्ज 150 फीसदी पर है। अमेरिका को इस साल बाजार से 1.6 ट्रिलियन डालर जुटाने हैं, वित्तीय बाजार डरा हुआ है, कोई नहीं जानता कि कैलिफोर्निया का हाल देख लोगों को अंकल सैम के बांडों पर कब तक भरोसा रहेगा।
और इनका क्या होगा?
दुनिया के अगुआ बांड हाउस पिमोको के ब्रिटेन के बाजार से हाथ खींचने की चर्चा लंदन के वित्तीय बाजारों में ठीक उस समय उभरी, जब ब्रितानी सरकार चुनाव से इंच भर दूर थी और करीब 200 बिलियन पौंड सरकारी कर्ज कार्यक्रम सर पर खड़ा था। पिमोको जैसे कई अन्य निवेशक भी यूके की हालत देख कर उखड़ रहे हैं। 1.5 ट्रिलियन पौंड का कुल सरकारी कर्ज और पूरे यूरोपीय समुदाय में सबसे ऊंचा बजट घाटा (जीडीपी के मुकाबले 12 फीसदी) किसी भी निवेशक को डरायेगा। ब्रिटेन यूरो जोन से बाहर है, इसलिए वह मुद्रा का अवमूल्यन कर रहा है, जो हालत और खराब करेगी। इस अमीर मुल्क को अगले तीन साल में 550 बिलियन पौंड का कर्ज चाहिए, लेकिन वित्तीय बाजार तो उसकी ट्रिपल ए रेटिंग वापस लेने की चर्चा कर रहा है। जर्मनी भी जीडीपी के अनुपात में करीब 78 फीसदी कर्ज के साथ खतरे के निशान से ऊपर है। वहां कई राज्यों में कर्ज का हाल कैलिफोर्निया से पांच गुना ज्यादा बुरा है।

पूरब तक फैला अंधियारा
दुनिया के अर्थशास्त्री इस समय इस बहस में जुटे हैं कि पहले यूके डिफाल्ट होगा या जापान। दरअसल जापान कुछ ज्यादा ही नाजुक हालत में है। आईएमएफ मानता है कि वहां इस साल सरकार का कर्ज जीडीपी की तुलना में 227 फीसदी पर पहुंच जाएगा। जापान को 213 ट्रिलियन येन के कर्ज चुकाने के लिए इस साल नया कर्ज चाहिए। पूरब के इस दिग्गज मुल्क में बचत दर नवें दशक के 15 फीसदी से घटकर अब दो फीसदी पर आ गई है। जापान के लोग सरकार के बांडों में पैसा लगाने की स्थिति में नहीं हैं। जापान का स्टेट पेंशन फंड (दुनिया का सबसे बड़ा पेंशन फंड) सरकारी बांड बेच रहा है। बैंकिंग उद्योग पहले से बेहाल है। आर्थिक विकास दर बहुत कमजोर है। दुनिया को मालूम है कि जापान का इतिहास भयंकर आर्थिक भूलों से भरा है।
यह सारा ब्यौरा अगर आपको किसी हारर स्टोरी की तरह लगे तो माफ करिएगा। लेकिन हकीकत छिपाने से फायदा भी क्या? सिटी ग्रुप के अर्थशास्त्री विलियम ब्यूटर तो और भी मुंहफट हैं। वह कहते हैं कि ''कुत्तों की जो नस्लें आज सबसे अच्छी मानी जा रही हैं, वह कभी दुनिया की सबसे खराब नस्लों में गिनी जाती थीं।'' उनका इशारा बड़ों के हाल की तरफ है, वित्तीय पैमानों पर दुनिया के कई पिछड़े मुल्क आज इन अगड़ों से ज्यादा बेहतर हैं। दिसंबर में हमने इसी स्तंभ में लिखा था महासंकट की उलटी गिनती शुरू होने वाली है। ग्रीस से शुरू होकर यह अपशकुन अब दुनिया के कई मुल्कों का दरवाजा खटखटाने लगा है। हर अमीर मुल्क कर्ज का डायनामाइट लपेटे नाच रहा है और भारी घाटों व राजस्व में कमी का पलीता हाथ में है। कोई नहीं जानता कौन किसका कितना कर्ज चुका पाएगा और जनता से क्या-क्या वसूला जाएगा? इलाज की कोशिशें भी जारी हैं, मगर इलाज भी संकट जितना ही भारी है। .. दानिशमंदों (बुद्धिमानों ) की नादानी दुनिया को अक्सर बहुत महंगी पड़ी है। यह संकट इसी की नजीर है।
बूदो बाश क्या पूछो लोगों हम उस शहर से आए हैं
नादानी दानाई जहां है दानाई नादानी है .. फिराक
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Monday, May 10, 2010

महात्रासदी का ग्रीक कोरस

व धुएं में घिरे एथेंस के मार्फिन बैंक की खिड़की पर एक महिला का शव टंगा है। ..ग्रीस के शहरों में अराजकता दौड़ रही है, दंगे जानलेवा हो चले हैं। . इस देश पर आतंकवाद, युद्ध या प्रकृति का कहर नहीं टूटा है। एक चुनी हुई सरकार भी है, लेकिन लोकतंत्र और ओलंपिक का जन्मदाता देश जल रहा है। सड़कों पर दंगा करती भीड़ को समझ में नहीं आता कि उनके प्यारे फलते-फूलते ग्रीस (यूनान) में अचनाक क्या हो गया है? ..यही बात तो 2001 में ब्यूनस आयर्स (अर्जेटीना) की सड़कों पर मरते-मारते लोग भी समझ नहीं पा रहे थे कि वह नौकरियां गंवाकर अचानक सड़कों पर कचरा क्यों बीनने लगे? ..पूरा विश्व देख रहा है कि देशों का कर्ज संकट में फंसना या देनदारी में चूकना (सावरिन डिफाल्ट) कितनी दर्दनाक विपत्ति है। एक ऐसी आपदा जो गुस्साई प्रकृति, सिरफिरे आतंकी या युद्धखोर राजनेताओं के चलते नहीं, बल्कि सरकारों और स्मार्ट व ज्ञानी गुणी वित्तीय कारोबारियों के चलते आती है। देशों का कर्ज संकट गलतियों का पीड़ादायक दोहराव है, जिसने सिर्फ कुछ महीनों में एक संपन्न देश को वस्तुत: भिखारी बना दिया है। ऊपर से दुनिया यह मान रही है कि ग्रीस दरअसल वित्तीय महात्रासदी का कोरस (ग्रीक रंगमंच की परंपरा में ट्रेजडी से पहले गाया जाने वाला सहगान) मात्र है। इस ट्रेजडी के कई अंक अभी बाकी हैं।
जब देश डूबते हैं..!!
अंतरिक्ष में मानव की पहली उड़ान (अपोलो 8) के कमांडर फ्रैंक बोरमैन मजाक में कहते थे कि नर्क की संकल्पना के बिना जैसे ईसाइयत नहीं रह सकती, ठीक उसी तरह दीवालियेपन के बिना पूंजीवाद भी मुश्किल है। अमेरिकी मानते रहें कि व्यक्ति के लिए दीवालिया होना नई शुरुआत का मौका है, मगर जरा ग्रीस से पूछिए वह किस नई शुरुआत के बारे में सोच रहा है? किसी देश के लिए संप्रभु कर्ज संकट दरअसल घोर नर्क है जो देश की वित्तीय साख, उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति, वित्तीय तंत्र की मजबूती और देश में निवेश की उम्मीदें आदि सब कुछ लील जाता है। दरअसल जब देश डिफाल्टर होते हैं, और वह भी विदेशी बाजारों से लिए गए कर्जो में तो ग्रीस जैसे उदाहरण बनते हैं। एक बार बस बाजार को पता भर चले कि देश की हालत नरम-गरम है तो कर्ज की रेटिंग गिरने लगती है और बात नए कर्जो पर रोक, बैंकों की बर्बादी से होती मुद्रा अवमूल्यन, दीवालियेपन तक तक आ जाती है। अंतत: अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं अनुदान देती हैं और देश संकट की एक लंबी सुरंग में चला जाता है। इस महाव्याधि का इलाज भी कम मारक नहीं होता, लेकिन उस पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल तो यह देखें कि ग्रीस ने यह नया इतिहास कैसे बनाया?
ग्रीक व्यथा की अंतर्कथा
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस अपनी क्षमता से अधिक इतिहास बनाता है। संप्रभु दीवालियेपन की शायद सबसे पहली घटना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में ग्रीस में ही घटी थी, जब इसकी दस नगरपालिकाएं कर्ज चुकाने में चूक गई थी। वैसे ग्रीस के ताजा इतिहास में ज्यादा रोमांच है। अमीर देशों में शुमार ग्रीस 2000 से 2007 तक यूरो जोन की सबसे तेज दौड़ती (4.2 फीसदी विकास दर) अर्थव्यवस्थाओं में एक था। मगर 2008 की मंदी ने ग्रीस के दो सबसे बड़े उद्योगों पर्यटन व शिपिंग को तोड़ दिया और सरकार का राजस्व बुरी तरह घट गया। पर इसमें अचरज क्या? यह तो लगभग हर देश के साथ हुआ था, दरअसल ग्रीस में असली लोचा यहीं पर था। घाटा बढ़ने के बावजूद ग्रीस कर्ज लेता रहा और अपना वित्तीय सच दुनिया से छिपाता रहा। पिछले साल के अंत में दुनिया को पता चला कि ग्रीस में घाटे व कर्ज के आंकड़े झूठ हैं। इस मुल्क ने 216 बिलियन यूरो का कर्ज ले रखा है, जो कि उसके जीडीपी का 120 फीसदी है। दुनिया को पता था कि ग्रीस सरकार के बांडों में 70 फीसदी निवेश विदेशी है, इसलिए 2009 के अंत से ग्रीस में महासंकट की उलटी गिनती शुरू हो गई थी। इस साल मार्च में जब ग्रीस की सरकार ने वित्तीय पाबंदियों का कानून बनाकर खतरे का बटन दबाया तो वित्तीय बाजार में ग्रीस के बांडों की रेटिंग जंक यानी कचरा होने लगी और दुनिया समझ गई कि ग्रीस तो अब गया।
फिर भी तो नहीं सीखते !!
2010 का पहला सूरज चढ़ने तक दुनिया यह जान गई थी कि ग्रीस डूबेगा, लेकिन यह अब भी एक रहस्य है कि डूबते ग्रीस के बांड इस साल की शुरुआत में ओवरसब्सक्राइब कैसे हो गए? दरअसल दुनिया ने कभी वक्त पर उस पूर्व चेतावनी तंत्र की नहीं सुनी है, जिसे इतिहास कहा जाता है। वित्तीय बाजार के विस्तार के साथ देशों का कर्ज में चूकना तेजी से बढ़ा है। 1824 से 2006 के बीच दुनिया में संप्रभु दीवालियेपन की 257 घटनाएं हुई थीं, लेकिन अकेले 1981 से 1990 के बीच देशों के कर्ज में चूकने की 74 और 1998 से 2004 के बीच 16 घटनाएं हुई। 1500 से 1900 ईसवी के बीच फ्रांस आठ बार और स्पेन 13 बार दीवालिया हुआ। हालांकि इतना पीछे जाने की जरूरत नहीं है। अर्जेटीना, मेक्सिको, रूस, थाइलैंड इस मर्ज के सबसे ताजे उदाहरण हैं। पिछले करीब 220 साल में छह बार दीवालिया हुआ अर्जेटीना तो दुनिया के अर्थशास्त्रियों के बीच मजाक का विषय है। देशों के दीवालियेपन पर आर्थिक शोध का अंबार लगा है, लेकिन इसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह आर्थिक नर्क जब भी बना है तब बेतहाशा खर्च, राजकोषीय असंतुलन और वित्तीय अपारदर्शिता व विदेशी बाजारों से अंधाधुंध कर्ज इसके मूल में रहे हैं। शोध बताते हैं कि बैंकों व मुद्राओं के संकट अंतत: देशों को दीवालियेपन पर आकर रुके हैं। अर्जेटीना, उरुग्वे, यूक्रेन, इंडोनेशिया और ग्रीस के ताजे संकट इसकी नजीर हैं। जानकार कहेंगे कि ग्रीस तकनीकी तौर पर डिफाल्टर नहीं है, क्योंकि वह आईएमएफ की आक्सीजन पर है, लेकिन बाजार मुतमइन है कि ग्रीस व्यावहारिक रूप से डिफाल्टर है। जैसे ही ग्रीस अपने कर्ज की देनदारी को टालेगा या कर्जो का पुनर्गठन करेगा। उस पर आधिकारिक डिफाल्टर की मुहर लग जाएगी।
ग्रीस की रंगमंचीय परंपरा में दशकों से मार्च अप्रैल के महीनों में थियेटरों में ट्रेजडी का मंचन का होता है। ..ग्रीस ने अपनी यह परंपरा नहीं छोड़ी, इस समय वहां एक सुपर ट्रेजडी का मंचन हो रहा है। यह बात दीगर कि ग्रीस के लोग इस त्रासदी का हिस्सा बनना कतई नहीं चाहते थे, लेकिन वह करें भी क्या? सरकारें हमेशा मनमाना कर गुजरती हैं, बाद में आम जनता मरती व भरती है। ग्रीस जैसे संकट की कल्पना भी किसी देश के लिए डरावनी है, लेकिन हकीकत बड़ी जालिम है। वित्तीय बाजार ग्रीस को महात्रासदी का पहला अध्याय मान रहे हैं। ग्रीस यूरोप में अकेला बीमार नहीं है और जो दूसरे बीमार हैं उन्होंने ही ग्रीस को कर्ज भी दे रखा है। यानी कि त्रासदी के लिए अगले मंच तैयार हो रहे हैं, ऊपर से इस संप्रभु कर्ज संकट का इलाज भी किसी आपदा से कम नहीं है। यूरोप के समृद्ध मुल्क कर्ज के खेल में देशों की बर्बादी को तीसरी दुनिया की आपदा बताते थे, मगर इस अपशकुन ने अब उनका घर भी देख लिया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार कोई अमीर देश इस तरह डूब रहा है। ..मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो, किनारे से टकरा गया था सफीना।
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( विनम्र संदर्भ: इसी स्‍तंभ में आठ दिसंबर 2009 में लिखा गया था कि महासंकट की उलटी गिनती प्रारंभ हो गई है। तब भारत में इसकी चर्चा मुश्किल से सुन पड़ती थी। वह तो बजट के कयास और मंदी खत्‍म होने खूबूसरत ख्‍यालों का मौसम था। ग्रीक की समस्‍या के साथ सॉवरिन डिफाल्‍ट की महात्रासदी शुरु हो गई है। आंच हम तक आ रही है। .............. और मजा देखिये कि आज 10 मई 2010 के अखबारों में सरकार के मुख्‍य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु कह रहे हैं कि यूरोप का संकट भारत के पूंजी बाजार में विदेशी निवेश की बाढ़ लाने वाला है। 12 अप्रैल 2010 को आप पढ़ चुके हैं कि सुरक्षित होने के खतरे सर पर हैं। ..... आमीन.!!!! दोनों स्‍तंभ बायें तरफ आर्काइव में हैं। )

Tuesday, December 8, 2009

महासंकट की उलटी गिनती!

अगर दिल कमजोर है तो इसे जरा संभल कर पढ़ें। यह एक खौफनाक असली कहानी है जो दुनिया के वित्तीय बाजारों में लिखी जा रही है। यह हारर स्टोरी समाचारी सुर्खियों की शक्ल में कभी भी और किसी भी वक्त दुनिया के सामने फट सकती है। यह यथार्थ मंदी दूर होने के मुगालतों को मसलने की कूव्वत रखता है और दुनिया को संकटों की एक अभूतपूर्व दुनिया में ले जा सकता है। हो सकता है आप यकायक अगली पंक्तियों पर भरोसा न करें मगर यह सच है कि .. 2010 में ब्रिटेन की सरकार कर्ज के संकट में फंस सकती है!! दो हजार दस का बरस दुनिया में सरकारों के दीवालिया होने का बरस हो सकता है!! अर्थात सावरिन डेट क्राइसिस!! मतलब सरकारों का डिफाल्टर होना यानी कि उस कर्ज को चुकाने में चूक जो सरकारों ने अपनी संप्रभु गारंटी के बदले लिया है। ..अतीत में अर्जेटीना को भुगत चुके वित्तीय बाजार के लिए ये जुमले महाप्रलय की भविष्यवाणियों से कम नहीं हैं। दुबई के डिफाल्टर होने के बाद पूरी दुनिया के कई देशों पर अचानक कर्ज संकट के प्रेत मंडराने लगे हैं। कम से कम आधा दर्जन छोटे बड़े देशों में कर्ज का पानी नाक तक आ गया है। इनमें कुछ तो जी 10 और जी 20 देश भी हैं यानी दुनिया के विकसित, बड़े और अमीर भी। वित्तीय बाजार के लिए यह एक महासंकट की उलटी गिनती है क्योंकि जैसे ही दुनिया के केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाना शुरू करेंगे तमाम देश कर्ज चुकाने में चूकने लगेंगे और यह चूक मुद्राओं के अवमूल्यन से होती हुई पता नहीं कहां जाकर रुकेगी।
दुबई तो नमूना है
वित्तीय बाजार कह रहा है कि दुनिया का एक बड़ा देश जल्द ही अपने कर्जो में डिफाल्टर होने वाला है? यह रूस है या फिर ब्रिटेन या कोई और? तकरीबन एक सप्ताह पहले मोर्गन स्टेनले दुनिया को यह विश्लेषण पेश कर दुनिया को चौंका दिया कि वर्ष 2010 में ब्रिटेन ऋण संकट में फंस सकता है। मोर्गन तो सिर्फ आशंका जाहिर कर रहा था, मगर स्टैंडर्ड एंड पुअर ने तो ब्रिटेन की साख को लेकन अपने आकलन को नकारात्मक कर दिया। वित्तीय बाजारों का सूत्रधार ब्रिटेन और रेटिंग एजेंसियों की नजर में साख नकारात्मक? ..हैरतअंगेज या सनसनीखेज? विशेषणों की कमी पड़ जाएगी। रूस भी कर्जो के जबर्दस्त दबाव में है खासतौर पर छोटी अवधि के कर्ज जो उसने तेल कीमतों में तेजी के दौर में अपनी चमकती साख के वक्त लिये थे, इनका भुगतान सर पर है। जर्मनी पर कर्ज का बोझ यूरोपीय बाजारों की सांस रोकने लगा है। जब बड़ों का यह हाल है तो फिर छोटों की कौन कहे? दरअसल दुबई का तूफान पश्चिम और पूरब के कई देशों की वित्तीय बदहाली को उघाड़ गया है। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था कर्ज के तूफान में घिर रही है। बाल्टिक देश तो कर्ज के गर्त के सबसे करीब हैं। लाटविया शायद ही मुश्किलों से बचे। एस्टोनिया और लिथुआनिया पर विदेशी कर्ज उनके जीडीपी से ज्यादा हो गया है। बुल्गारिया और हंगरी भी इन्हीं देशों की जमात में हैं। इन छोटे देशों की हालत को हलके में मत लीजिए, एक दुबई की बर्बादी ने दुनिया की चूलें हिला दी हैं इनमें एक देश भी अगर अपनी संप्रभु देनदारियों में चूका तो वित्तीय बाजारों में हाहाकार मच जाएगा।
संकट की सुनामी
संकटों के वक्त हमेशा कुछ सर रेत में धंस जाते हैं। इस मौके पर भी ऐसा ही हो रहा है। दुनिया को मंदी से उबरने की मरीचिका दिखाई जा रही है, लेकिन वित्तीय बाजार में तो संकट की सुनामी बनती दिख रही है। यह संकट दरअसल पिछले कुछ वर्षो की उदार मौद्रिक नीतियों, वित्तीय अपारदर्शिता और बाजार में बहे अकूत पैसे से उपजा है। दुनिया जब सुखी थी या सुखी दिखने का नाटक कर सकती थी, तब सरकारों ने और सरकार की गारंटियों के सहारे कंपनियों ने वित्तीय बाजार से अंधाधुंध पैसा उठाया। मंदी आई तो रिटर्न के स्रोत सूख गए। इसलिए जब कर्ज की पहली देनदारी निकली तो बाजार ने दुबई जैसों को ज्यादा वक्त देने से मना कर दिया। कल बाजार औरों से किनारा करेगा। पूरी दुनिया में ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं अर्थात देनदारियों को चुकाने के लिए नया कर्ज महंगा और मुश्किल होगा। इसलिए दुबई के बाद पूरी दुनिया में देशों की रेटिंग उलट-पलट गई है। दुनिया के कर्ज और कर्ज की दुनिया के बारे में दिलचस्पी रखते हैं, तो विश्व के के्रडिट डिफाल्ट स्वैप (के्रडिट डिफाल्ट स्वैप अर्थात सीडीएस वित्तीय बाजार के जाने पहचाने उपकरण हैं। यह एक तरह का बीमा है जो कि एक कर्ज देने वाली संस्था किसी दूसरी संस्था से लेती है। ताकि अगर लेनदार डिफाल्टर हो तो पैसा न डूबे। इसके लिए कर्ज देने वाला स्वैप देने वाले को प्रीमियम देता है।) बाजार की ताजी तस्वीर देखिए। छोटों की कौन कहे यहां तो बड़ों की साख पर बन आई है। चीन के सीडीएस छह फीसदी, रूस के 19 फीसदी, इंडोनिशया के 28 फीसदी महंगे हो गए हैं। दांतों तले उंगली दबाइए क्योंकि फ्रंास, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन, स्पेन और यहां तक अमेरिका भी कर्ज बाजार के ऋण जोखिम के सूचकांकों पर खतरे वाली श्रेणियों में चमकने लगे हैं। इन मुल्कों में कर्ज और जीडीपी का अनुपात खतरनाक हो गया है। जर्मनी का कुल कर्ज अगले साल उसके उत्पादन के 77 फीसदी के बराबर हो जाएगा। ब्रिटेन में यह 80 फीसदी है तो जापान में यह 200 फीसदी पर पहुंच रहा है। अमेरिका में ट्रेजरी यानी सरकार के कुल कर्ज का करीब 44 फीसदी हिस्सा अगले एक साल में चुकाया जाना है। तभी तो दुनिया विशेष ऋण बाजार में अमेरिका की साख को मिली ट्रिपल ए रेटिंग पर हैरत के साथ हंस रही है।
बचाएगा कौन?
कर्ज संकटों के इतिहास से वाकिफ कोई व्यक्ति कह सकता है कि आईएमएफ किस दिन काम आएगा। मगर देशों के कर्ज संकट के दो पहलू हैं, एक विदेशी कर्ज और दूसरादेशी। लाटविया, एस्टोनिया जैसे देशों पर विदेशी कर्ज है। आईएमएफ इन्हें विदेशी मुद्रा देकर कुछ समय के लिए बचा सकता है। अलबत्ता आईएमएफ का इलाज लेने वाले देशों की वित्तीय साख का कचरा बन जाता है। अर्जेटीना इसकी ताजी नजीर है। आईएमएफ की मदद लेने वाले देशों की कंपनियां दुनिया के बाजार में अछूत बन जाती हैं। हो सकता है ब्रिटेन, जापान, जर्मनी को आईएमएफ की जरूरत न पड़े, लेकिन इनके संकट आईएमएफ सुलझा भी नहीं सकता। ये देश घरेलू कर्ज की जकड़ में हैं। इन्हें ज्यादा घरेलू मुद्रा छापकर कर्ज पाटना होगा या फिर टैक्स बढ़ाना और खर्च घटाना होगा। इनमें से हर कदम खतरों भरा है। भारी राजकोषीय घाटे और नोटों की छपाई देशी मुद्रा का अवमूल्यन करती है और सरकार को अपने बांड खरीदने वाले भी नहीं मिलते। कर बढ़ाना और खर्च घटाना, मांग कम करता है और कर चोरी बढ़ाता है।
और भारत ?. आप कह सकते हैं कि कुछ सुरक्षित है या कुछ अर्थो में कतई सुरक्षित नहीं है। सरकार भले ही कर्जदार न हो, लेकिन वित्तीय बाजार तो दुनिया से जुड़ा है, इसलिए संकट की सुनामी हमें डुबाए भले न, लेकिन झकझोर जरूर देगी। हमारे लिए इतना ही काफी है। देशों के ऋण संकट वित्तीय बीमारियों की फेहरिस्त में सबसे भयानक हैं। इसके इलाज आर्थिक शरीर को बुरी तरह तोड़ देते हैं और अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाती है। अर्जेंटीना छह साल बाद आज भी घिसट रहा है और मेक्सिको को पुरानी रौ में आने में वक्त लगेगा। कभी-कभी यह लगता है कि दुनिया का वित्तीय एकीकरण फायदे से ज्यादा नुकसान का सौदा साबित हो रहा है। अर्जेटीना की सुनामी ने केवल लैटिन अमेरिका के बाजारों को हिलाया था मगर अब जो सुनामी बन रही है, वह पूरे भूमंडल के वित्तीय बाजारों को लपेट सकती है। वजह यह कि उदारीकरण के लाभ भले ही सामूहिक न हों, मगर गलतियां और नुकसान सामूहिक रहे हैं। इसलिए 2012 की फिक्र छोडि़ए.. 2010 वित्तीय बाजारों पर बहुत भारी पड़ सकता है।
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