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Monday, February 6, 2012

जीत की हार


कुछ लालची नेताओं का भ्रष्‍टाचार, चालाक कंपनियों की मौका परस्‍ती और गठबंधन के सामने बेबस सरकार की निष्क्रियता!!! क्‍या इतने से हो गया विशाल 2जी घोटाला??? शायद नहीं। इस घोटाले का स्‍पेक्‍ट्रम (दायरा) इस कदर छोटा नहीं है। यह घोटाला एक ऐसे घाटे से उपजा है    जो किसी भी देश को व्‍यवस्‍था से अराजकता में पहुंचा देता है। आधुनिक कानूनों की अनुपस्थिति (लेजिस्‍लेटिव डेफशिट) ने देश की अनमोल साख को मुसीबत में फंसा दिया है। आकाश (स्‍पेक्‍ट्रम) और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों सहित कई क्षेत्रों में उचित कानूनों के शून्‍य के कारण घोटालेबाजों को लूट के मौके भरपूर मौके मिल रहे हैं। जिसके नतीजे उपभोक्‍ता, रोजगार व निवेशक चुकाते हैं। इसलिए अब सवाल घोटाले के दोषियों या बदहवास सरकार से नहीं बल्कि लोकतंत्र की सर्वशक्तिमान संसद से पूछा जाना चाहिए कि वह कानून बनाने या बदलने का असली काम आखिर कब शुरु करेगी, जिसके लिए वह बनी है। यकीनन 2जी लाइसेंस रद होने से पारदर्शिता और इंसाफ भारी जीत हुई है मगर व्‍यवस्‍था की साख हार गई है।
साख का स्‍पेक्‍ट्रम
निवेशकों की बेचैनी (122 दूरसंचार लाइसेंस रद होने पर) बेजोड़ है। उनके लिए तय करना मुश्किल है कि वह भारत के लोकतंत्र की जय बोलें और कानून के राज को सराहे या फिर सरकार को सरापें जिसकी दागी नीतियों के कारण उनकी दुर्दशा होने वाली है। अदालत से सरकारों को हिदायत, सुझाव, झिड़की और निर्देश मिलना नया नहीं है मगर इस अदालती इंकार ने लोकतंत्र की सर्वोच्‍च विधायिका और ताकतवर का कार्यपालिका की साख को विसंगतियों से भर दिया है। देश ने अपने इतिहास में पहली बार आर्थिक क्षेत्र में किसी बड़ी नीति की इतनी बडी, जो बेहद दुर्भाग्‍यपूर्ण है। कारोबार की दुनिया में किसी सरकार से मिला लाइसेंस एक संप्रभु सरकार की गारंटी है जिसके आधार पर निवेशक जोखिम उठाते हैं निवेश करते हैं। कारोबार शुरु होने के तीन साल बाद कारोबार का आधार में ही भ्रष्‍टाचार साबित हो और पूरी नीति ही अदालत में खारिज हो जाए तो किसका भरोसा जमेगा। 2जी का पाप दूरसंचार को ही पूरी सरकारी नीति प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा है। अब सरकार के किसी फैसले पर भरोसा करने से पहले निवेशक सौ बार सोचेंगे कि क्‍यों कि पता नहीं कब कहां वह नीति दागी साबित हो और निवेशकों को अपना सामान समेटना पड़े। मगर इसके लिए अदालत फैसले को क्‍या बिसूरना, उसने तो कानूनों का गड्ढा दिखा दिया है।

Monday, November 22, 2010

भ्रष्टाचार का मुक्त बाजार

अर्थार्थ
राजाओं, कलमाडिय़ों, मधु कोड़ाओं और ललित मोदियों के शर्मनाक संसार को देखकर क्या सोच रहे हैं ... यही न कि आर्थिक खुलेपन की हवा भ्रष्टाचार के पुराने इन्फेक्शन को खूब रास आ रही है ? वेदांतो, सत्यमों व तमाम वित्तीय कंपनियों के कुकर्मों में आपको एक आर्थिक अराजकता दिखती होगी। कभी कभी यह कह देने का मन होता होगा कि आर्थिक उदारीकरण ने भारत में भ्रष्टाचार का उदारीकरण कर दिया है !!.... माना कि यह ऊब, खीझ और झुंझलाहट है मगर बेसिर पैर नहीं है। मान भी लीजिये कि हम मुक्त बाजार की विकृतियों को संभाल नहीं पा रहे हैं। रिश्वत, कार्टेल, फर्जी एकाउंटिंग, कारपोरेट फ्रॉड, लॉबीइंग, नीतियों में मनमाना फेरबदल, ठेके, निजीकरण का इस्तेमाल .... उदार बाजार का हर धतकरम भारत में खुलकर खेल रहा है। राजा व कोड़ा जैसे नेताओं की नई पीढ़ी अब राजनीतिक अवसरों में कमाई की संभावनाओं को चार्टर्ड अकाउंटेंट की तरह आंकती है, इसलिए भ्रष्टाजचार भी अब सीधे नीतियों के निर्माण में पैठ गया है। सातवें आठवें दशक के नेता अपराधी गठजोड़ की जगह अब नेता-कंपनी गठजोड़ ले ली है। यह जोड़ी ज्यादा चालाक, आधुनिक, रणनीतिक, बेफिक्र और सुरक्षित है। मुक्त बाजार में ताली दोनों हाथ से बज रही है।
खुलेपन का साथ
मुट्ठी में दुनिया (मोबाइल) लिये घूम रही भारत की एक बड़ी आबादी को मालूम होना चाहिए कि यह सुविधा बहुतों की मुट्ठयां गरम होने के बाद मिली है। सुखराम से राजा तक, दूरसंचार क्षेत्र का उदारीकरण अभूतपूर्व भ्रष्टा्चार से दागदार है। सिर्फ यही क्यों पूंजी बाजार, खनन, अचल संपत्ति व निर्माण, बैंकिंग, वायु परिवहन, सरकारी अनुबंध ... हर क्षेत्र में उदारीकरण के बाद बडे घोटाले दर्ज हुए हैं। उदारीकरण और भ्रष्टाचार रिश्ते की सबसे बड़ी पेचीदगी यही है कि