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Wednesday, February 17, 2016

इक्यानवे के फेर में रेलवे



अगर रेलवे कोई कंपनी होती तो निवेशक इससे पूरी तरह किनारा कर चुके होते और इसे बीमार घोषित कर दिया जाता

सुरेश प्रभु क्या रेलवे के लिए मनमोहन सिंह हो सकते  हैं? इक्यानवे वाले मनमोहन सिंह! यह सवाल वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए इसलिए नहीं उठता क्योंकि उनकीट्रेन तो स्टेशन छोड़ चुकी है. अलबत्ता 2016 रेल मंत्री प्रभु का साल हो सकता है.
बजट हमेशा बड़े, महत्वपूर्ण और निर्णायक होते हैं लेकिन सभी बजट हरगिज नहीं. कुछ ही बजटों को 1991 जैसा होने का मौका मिलता है जो कि किसी देश की अर्थव्यवस्था का चेहरा-मोहरा कौन कहे, पूरा डीएनए ही बदल दे. वक्त, मौके और दस्तूर के मुताबिक, सुरेश प्रभु रेलवे के मामले में ठीक वहीं खड़े हैं जहां डॉ. मनमोहन सिंह 1991 में खड़े थे. और रेलवे भी ठीक उसी हाल में है जहां भारतीय अर्थव्यवस्था इक्यानवे में थी. जैसे 1991 में क्रांतिकारी सुधारों पर आगे बढऩे के अलावा कोई रास्ता नहीं था ठीक उसी तरह प्रभु के पास रेलवे को जैसे का तैसा बनाए रखने का विकल्प भी खत्म हो गया है.

1991 में भारत के आर्थिक हालात से आज की रेलवे के हालात की तुलना हमें उसके संकट और प्रभु के लिए अवसर को समझने में मदद कर सकती है. 1991 में भारत प्रतिस्पर्धा रहित, वित्तीय संकट से भरपूर, सरकारी एकाधिकार से लदा-फदा मुल्क था जिसमें नई तकनीक और तेज रफ्तार बदलावों का प्रवेश वॢजत था. इस दकियानूसी ढांचे ने भारत को देशी से लेकर विदेशी मोर्चों तक कई आर्थिक दुष्चक्रों से घेर दिया था. रेलवे ऐसे ही दुष्चक्र का शिकार है.

कुछ आंकड़े जानना जरूरी है. माल भाड़ा और यात्री परिवहन रेलवे का मुख्य कारोबार है. अर्थव्यवस्था में ग्रोथ और लोगों की आय बढऩे के साथ दोनों ही तरह का परिवहन बढ़ रहा है लेकिन परिवहन बाजार में रेलवे का हिस्सा 1990 में 56 फीसदी से घटकर 2012 में 30 फीसदी हो गया. माल भाड़े के बाजार में रेलवे का हिस्सा तीन दशक में 62 से 36 फीसदी और यात्री कारोबार में 28 से घटकर 14 फीसदी रह गया. एक्सिस डायरेक्ट रिसर्च की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय रेल प्रति किलोमीटर यात्री परिवहन पर 54 पैसे खर्च करती है और 26 पैसे का राजस्व कमाती है. इसकी तुलना में चीन की रेलवे का राजस्व 63 फीसदी ज्यादा है. रेलवे ने घाटे की भरपाई के लिए लगतार भाड़ा बढ़ाकर माल परिवहन बाजार से खुद को बाहर कर लिया है.
माल ढुलाई और यात्री परिवहन की मांग के बावजूद रेलवे पिछले 20 साल में अपना नेटवर्क नाम को भी नहीं बढ़ा पाई. भारतीय रेल दुनिया की सबसे धीमी रेल है जहां मालगाडिय़ों की औसत स्पीड 25 किमी और यात्री ट्रेनों की गति 70 किमी है. इसकी कुल कमाई का 91 फीसदी हिस्सा वेतन भत्तों, कर्ज पर ब्याज और पुराने तरीके के कामकाज पर खर्च हो जाता है. आधुनिकीकरण के अभाव में इसका पूरा नेटवर्क चरमरा चुका है, जहां दुर्घटनाओं की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा है.  
दरअसल, अगर रेलवे कोई कंपनी होती तो निवेशक इससे पूरी तरह किनारा कर चुके होते और इसे बीमार घोषित कर दिया जाता, इसलिए प्रभु के आने तक रेलवे दरअसल कर्ज हासिल करने में भी चूकने लगी थी और फिलहाल भारतीय जीवन बीमा निगम से मिले कर्ज पर चल रही है.
1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधारों की शुरुआत व्यापक पुनर्गठन और कुछ बड़ी परियोजनाओं से हुई थी जिन्हें बनने-बैठने में करीब पांच साल का वक्त लगा था. इस मामले में प्रभु मनमोहन के मुकाबले किस्मत के धनी हैं. उनके पास सुधारों का एजेंडा मौजूद है और यह भी पता है कि किस वरीयताक्रम पर क्या करना है.
रेलवे की सबसे बड़ी तात्कालिक जरूरत इसके नेटवर्क पर भीड़ कम करना है. अगर किसी रेल मंत्री को सचमुच सुधारक साबित होना है तो उसे सब कुछ छोड़कर सिर्फ एक परियोजना पर पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए और वह परियोजना है मुंबई को दिल्ली (1,500 किमी) और लुधियाना को कोलकाता (1,800 किमी) से जोडऩे वाला डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी), जो रेलवे से माल परिवहन की पूरी तस्वीर बदल देगा. दोनों कॉरिडोर के लिए क्रमशः 90 और 75 फीसदी भूमि अधिग्रहण पूरा हो चुका है और जापान व विश्व बैंक से मदद मिलना भी तय हो गया.
डीएफसी भले ही माल परिवहन की परियोजना हो लेकिन इसका असली फायदा रेलवे के यात्री परिवहन को मिलेगा. डीएफसी बनते ही मालगाडिय़ों का पूरा नेटवर्क इस कॉरिडोर के हवाले होगा, जिससे रेलवे को अपनी यात्री गाडिय़ों के लिए पटरियां खाली करने, ट्रेनों की गति बढ़ाने और नई ट्रेनें चलाने में मदद मिलेगी. डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर को इस सरकार में वैसे ही वरीयता मिलनी चाहिए थी जैसी कि सड़क परियोजनाओं को वाजपेयी सरकार में मिली थी.
डीएफसी के लिए संसाधनों का जुगाड़ हो रहा है लेकिन रेल के वर्तमान नेटवर्क को इससे ज्यादा संसाधन चाहिए. रेलवे दुनिया की सबसे बड़ी परिवहन कंपनी है, जिसे कर्ज पर चलाना नामुमकिन है. प्रभु अगर सच में साहसी हैं तो यह बजट रेलवे के पुनर्गठन का सबसे माकूल मौका है. जिस तरह 1991 में मनमोहन सिंह ने रुपए को एकमुश्त नियंत्रण मुक्त कर भारत को आधुनिक देशों की श्रेणी में पहुंचा दिया था, ठीक उसी तरह प्रभु रेलवे का पुराना ढांचा ढहाकर इसे एक आधुनिक रेलवे कंपनी बनाने का सफर शुरू कर सकते हैं. एक ऐसी कंपनी जो सही कीमत पर शानदार सेवा देती हो न कि स्कूल और दवाखाने चलाने से लेकर पहिया और धुरा सब कुछ खुद बनाती हो.

रेलवे का पुनर्गठन ही उसे बचाने का जरिया है, जो रेलवे मैन्युफैक्चरिंग के निजीकरण और रेलवे संपत्तियों की बिक्री का रास्ता खोलेगा. इससे रेलवे को संसाधन मिलेंगे ताकि वह अपने नेटवर्क को आधुनिक बना सके.

रेल मंत्री प्रभु चाहें तो किराया, माल भाड़ा बढ़ाकर और कुछ प्रतीकात्मक सुविधाओं का ऐलान करके एक और बजट को जाया कर सकते हैं या फिर सचमुच क्रांतिकारी हो सकते हैं. रेलवे भारत की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली है. सूझ-बूझ और संसाधनों की कमी रेलवे की बदहाली की उतनी बड़ी वजह नहीं है जितना कि राजनैतिक नेतृत्व के असमंजस व दकियानूसीपन. 2016 का रेल बजट सूझ-बूझ पर नहीं, सुरेश प्रभु के साहस के पैमाने पर कसा जाएगा.


Monday, June 15, 2015

'बुलेट ट्रेन' का यू टर्न


रेलवे को बदलने पर यू टर्न मोदी सरकार के संकल्प में कमजोरी का पहला ऐलान था. इससे एक विशाल आबादी की बड़ी उम्मीदें मुरझा गईं जिसके पास परिवहन के लिए रेलवे के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
ह पिछले साल नवंबर का आखिरी हफ्ता था जब प्रधानमंत्री गुवाहाटी व मेंदीपाथर (मेघालय) के बीच ट्रेन को हरी झंडी दिखाते हुए कह रहे थे, रेलवे की सुविधाएं 100 साल पुरानी दिखती हैं. रेलवे स्टेशनों का निजीकरण कीजिए. उन्हें आधुनिक बनाइए. स्टेशन एयरपोर्ट से अच्छे होने चाहिए. रेलवे को अपनी जमीन पर        लग्जरी होटल बनाने के लिए निजी क्षेत्र को आमंत्रित करना चाहिए. रेलवे को समझने वाले मानेंगे कि यह बड़ी बात थी. भारत का कोई प्रधानमंत्री पहली बार रेलवे के निजीकरण की चर्चा का साहस दिखा रहा था. लेकिन ठीक एक माह के भीतर सब कुछ बदल गया. प्रधानमंत्री ने वाराणसी के डीजल इंजन कारखाने पहुंचने के बाद कहा, रेलवे के निजीकरण को लेकर अफवाहें फैलाई जा रही हैं, न मैंने कभी ऐसा सोचा है और न कभी करूंगा. रेलवे को बदलने पर यू टर्न न केवल कठोर सुधारों को लेकर मोदी सरकार के संकल्प में कमजोरी का पहला ऐलान था, बल्कि इससे एक विशाल आबादी की उम्मीदें भी मुरझा गईं जिसके पास परिवहन के लिए रेलवे के अलावा कोई विकल्प नहीं है और जिसे बुलेट ट्रेन का सपना दिखाया गया था.
अंदाजा नहीं था कि कि सत्ता में आते ही रेलवे में विदेशी निवेश का बिगुल बजाने वाली मोदी सरकार कुछ ही महीनों में इतनी दब्बू हो जाएगी कि रेलवे के पुनर्गठन पर बात करने से भी डरेगी. सरकार अब भले ही रेलवे को घिसटता हुआ बनाए रखने पर मुतमइन हो लेकिन हकीकत यह है कि रेलवे में सुधार अपेक्षाकृत आसान है. रेलवे के पास सुधारों के कई ब्लू प्रिंट मौजूद हैं. पिछले दो वर्ष में सात समितियां सुधारों की सिफारिश कर चुकी हैं. बिबेक देबरॉय कमेटी तो मोदी सरकार ने ही बनाई थी, जिसे रेलवे में सुधारों की महत्वाकांक्षी पहल माना गया था. लेकिन जब मार्च में इसकी अंतरिम रिपोर्ट आई तब तक रेलवे को बदलने के उत्साह को अनजाना डर निगल चुका था, इसलिए कमेटी ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में एकमुश्त सुधारों की सिफारिश को नरम कर दिया है.
इस महाकाय परिवहन कंपनी में सुधारों पर राजनैतिक सहमति बनाना मुश्किल नहीं है. भारतीय रेल में बदलाव के तर्क किसी आम आदमी के भी गले उतर जाएंगे, जो रोज इसमें धक्के खाता है. मसलन, दुनिया में कौन-सी परिवहन कंपनी 125 अस्पताल, 586 दवाखाने चलाती होगी? या विश्व की कौन रेलवे डिग्री कॉलेज और स्कूल चला रही होगी? स्वाभाविक है कि ट्रेन चलाना रेलवे का काम है, स्कूल-अस्पताल चलाना नहीं. ठीक इसी तरह दुनिया की कोई बस सेवा या एयर सर्विस अपने लिए बसें और विमान नहीं बनाती होगी या सड़कें और हवाई अड्डे नहीं चलाती होगी. इसलिए जब देबरॉय समिति ने रेलवे के बुनियादी ढांचे को अलग कंपनी को सौंपने, कोच, इंजन व धुरा-पहिया बनाने वाली रेलवे की छह इकाइयों को मिलाकर इंडियन रेलवे मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाने और स्कूलों को केंद्रीय विद्यालय को सौंपने की सिफारिश की तो सरकार को सांप सूंघ गया. देबरॉय समिति ने रेलवे के पुनर्गठन के लिए ब्रिटेन, जर्मनी, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया के मॉडल सुझाए हैं, जिनका हवाला मोदी के संबोधनों में मिलता है जब वे जापान व चीन की तर्ज पर रेलवे को आधुनिक बनाने की बात करते थे.
रेलवे को लेकर दूरदर्शिता भाषणों तक रह गई. इसका बड़ा प्रमाण डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) है, जो 2005 से लटका है. यह प्रोजेक्ट रेलवे में माल परिवहन को तेज गति का नेटवर्क देने के लिए बना. इसके शुरू होने से वर्तमान नेटवर्क यात्री ट्रेनों के लिए खाली हो सकता है. डीएफसी के 3,300 किमी के पश्चिम (हरियाणा से महाराष्ट्र) और पूर्व (पंजाब से पश्चिम बंगाल) गलियारे स्वीकृत हो चुके हैं. पूर्वी कॉरिडोर में पटरी बिछाने के लिए टाटा और एलऐंडटी के नेतृत्व में दो संयुक्त उपक्रम भी बन चुके हैं. मोदी सरकार चाहती तो इन्हें सक्रिय करने के साथ रेलवे को बुनियादी ढांचे और मैन्युफैक्चरिंग (मेक इन इंडिया) का झंडाबरदार बना सकती थी.
रेलवे से प्रधानमंत्री के भावनात्मक रिश्तों पर तमाम कविताई के बावजूद, पिछले एक साल में सरकार ने रेलवे में सुधारों की लगभग सभी तैयारियों को फाइलों की नींद सुला दिया है. रेलवे के पुनर्गठन की बात करना मना है और निजीकरण की चर्चा पर करंट लगता है. देबरॉय कमेटी ने अंतरिम रिपोर्ट की सिफारिशों के विरोध को देखते हुए सुधारों से पहले एक स्वतंत्र नियामक की सिफारिश की है, जिससे सरकार कन्नी काटती रही है. भारतीय रेल फिलहाल सरकारी बीमा कंपनियों से मिले कर्ज पर चल रही है और रेलवे से लेकर यात्रियों तक सब जगह यह एहसास गाढ़ा हो चला है कि रेलवे में तेज सुधार दूर की कौड़ी हैं. ताजा हालात में रेलवे में विदेशी निवेश आने की उम्मीद न के बराबर है. गैर-परिवहन गतिविधियों में विदेशी निवेश की इजाजत तो 2001 में ही मिल गई थी मथुरा और मधेपुरा में इंजन बनाने की परियोजनाएं सात साल से विदेशी निवेशकों के स्वागत में कालीन बिछाए बैठी हैं.
भारतीय रेल का हाल जानने के लिए, इस दहकती गर्मी में ट्रेनों में सफर करने के अलावा दूसरा रास्ता यह भी है कि आप गूगल की मदद से मोदी के उन भाषणों को पढ़ें, जो चुनाव से लेकर सत्ता में आने तक दिए गए थे. ये भाषण देश की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली में बदलाव की उम्मीदों के शिखर पर चढ़ने और ढह जाने का दस्तावेजी सबूत हैं. इनमें खास तौर पर पिछले साल 19 जनवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद का वह भाषण सबसे महत्वपूर्ण है, जहां से रेलवे में बदलाव की उम्मीद जगी थी. तब मोदी ने कहा था कि मारे पास विशाल रेलवे नेटवर्क है, लेकिन दुर्भाग्य से हमने इस पर ध्यान नहीं दिया. अगर रेलवे आधुनिक हो तो हम विकास को नई गति दे सकते हैं. यह पहली बार था जब कोई सत्ता की तरफ बढ़ते एक राजनैतिक दल का सबसे बड़ा नेता रेलवे में सुधारों की बात कर रहा था.

नई सरकार बनने के एक साल बाद आज रेलवे में सुधारों की ज्यादातर उम्मीदें अगर बुझती महसूस हो रही हैं तो हमें यह मानना पड़ेगा कि भारत की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली की बदहाली केवल पिछली सरकारों की अक्षमता का ही नतीजा नहीं है. भारतीय रेलवे अब एक सक्षम सरकार के असमंजस और डर का शिकार भी हो गई है.