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Sunday, June 23, 2019

सबसे बड़ा तक़ाज़ा


अपनी गलतियों पर हम जुर्माना भरते हैं लेकिन जब सरकारें गलती करती हैं तो हम टैक्स चुकाते हैंइसलिए तो हम टैक्स देते नहींवे दरअसल हमसे टैक्स ‘वसूलते’ हैंरोनाल्ड रीगन ठीक कहते थे कि लोग तो भरपूर टैक्स चुकाते हैंहमारी सरकारें ही फिजूल खर्च हैं.

नए टैक्स और महंगी सरकारी सेवाओं के एक नए दौर से हमारी मुलाकात होने वाली हैभले ही हमारी सामान्य आर्थिक समझ इस तथ्य से बगावत करे कि मंदी और कमजोर खपत में नए टैक्स कौन लगाता है लेकिन सरकारें अपने घटिया आर्थिक प्रबंधन का हर्जाना टैक्स थोप कर ही वसूलती हैं.

सरकारी खजानों का सूरत--हाल टैक्स बढ़ाने और महंगी सेवाओं के नश्तरों के लिए माहौल बना चुका है.

·       राजस्व महकमा चाहता है कि इनकम टैक्स व जीएसटी की उगाही में कमी और आर्थिक विकास दर में गिरावट के बाद इस वित्त वर्ष (2020) कर संग्रह का लक्ष्य घटाया जाए.

·       घाटा छिपाने की कोशिश में बजट प्रबंधन की कलई खुल गई हैसीएजी ने पाया कि कई खर्च (ग्रामीण विकासबुनियादी ढांचाखाद्य सब्सिडीबजट घाटे में शामिल नहीं किए गएपेट्रोलियमसड़करेलवेबिजलीखाद्य निगम के कर्ज भी आंकड़ों में छिपाए गएराजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.7 फीसद है, 3.3 फीसद नहींनई वित्त मंत्री घाटे का यह सच छिपा नहीं सकतींबजट में कर्ज जुटाने का लक्ष्य हकीकत को नुमायां कर देगा. 

·       सरकार को पिछले साल आखिरी तिमाही में खर्च काटना पड़ानई स्कीमें तो दूरकम कमाई और घाटे के कारण मौजूदा कार्यक्रमों पर बन आई है.

·       हर तरह से बेजारजीएसटी अब सरकार का सबसे बड़ा ‌सिर दर्द हैकेंद्र ने इस नई व्यवस्था से राज्यों को होने वाले घाटे की भरपाई की जिम्मेदारी ली हैजो बढ़ती ही जा रही है.

सरकारें हमेशा दो ही तरह से संसाधन जुटा सकती हैंएक टैक्स‍ और दूसरा (बैंकों सेकर्जमोदी सरकार का छठा बजट संसाधनों के सूखे के बीच बन रहा हैबचतों में कमी और बकाया कर्ज से दबेपूंजी वंचित बैंक भी अब सरकार को कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं.

इसलिए नए टैक्सों पर धार रखी जा रही हैइनमें कौन-सा इस्तेमाल होगा या कितना गहरा काटेगायह बात जुलाई के पहले सप्ताह में पता चलेगी.

        चौतरफा उदासी के बीच भी चहकता शेयर बाजार वित्त मंत्रियों का मनपसंद शिकार हैपिछले बजट को मिलाकरशेयरों व म्युचुअल फंड कारोबार पर अब पांच (सिक्यूरिटी ट्रांजैक्शनशॉर्ट टर्म कैपिटल गेंसलांग टर्म कैपिटल गेंसलाभांश वितरण और जीएसटीटैक्स लगे हैंइस बार यह चाकू और तीखा हो सकता है.

        विरासत में मिली संपत्ति (इनहेरिटेंसपर टैक्स आ सकता है.

        जीएसटी के बाद टैक्स का बोझ नहीं घटानए टैक्स (सेसबीते बरस ही लौट आए थेकस्टम ड्यूटी के ऊपर जनकल्याण सेस लगाडीजल-पेट्रोल पर सेस लागू है और आयकर पर शिक्षा सेस की दर बढ़ चुकी हैयह नश्तर और पैने हो सकते हैं यानी नए सेस लग सकते हैं.

        लंबे अरसे बाद पिछले बजटों में देसी उद्योगों को संरक्षण के नाम पर आयात को महंगा (कस्टम ड‍्यूटीकिया गयायह मुर्गी फिर कटेगी और महंगाई के साथ बंटेगी. 
    और कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत में कमी के सापेक्ष पेट्रोल-डीजल पर टैक्स कम होने की गुंजाइश नहीं है.

जीएसटी ने राज्यों के लिए टैक्स लगाने के विकल्प सीमित कर दिए हैंनतीजतनपंजाबमहाराष्ट्रकर्नाटकगुजरात और झारखंड में बिजली महंगी हो चुकी हैउत्तर प्रदेशमध्य‍ प्रदेशराजस्थान में करेंट मारने की तैयारी हैराज्यों को अब केवल बिजली दरें ही नहीं पानीटोलस्टॉम्प ड‍्यूटी व अन्य सेवाएं भी महंगी करनी होंगी क्योंकि करीब 17 बड़े राज्यों में दस राज्य, 2018 में ही घाटे का लाल निशान पार कर गए थे. 13 राज्यों पर बकाया कर्ज विस्फोटक हो रहा है. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों का आधा राजस्व केंद्रीय संसाधनों से आता है.

जीएसटी के बावजूद अरुण जेटली ने अपने पांच बजटों में कुल 1,33,203 करोड़ रुके नए टैक्स लगाए यानी करीब 26,000 करोड़ रुप्रति वर्ष और पांच साल में केवल 53,000 करोड़ रुकी रियायतें मिलीं. 2014-15 और 17-18 के बजटों में रियायतें थींजबकि अन्य बजटों में टैक्स के चाबुक फटकारे गएकरीब 91,000 करोड़ रुके कुल नए टैक्स के साथजेटली का आखिरी बजटपांच साल में सबसे ज्यादा टैक्स वाला बजट था.

देश के एक पुराने वित्त मंत्री कहते थेनई सरकार का पहला बजट सबसे डरावना होता हैसो नई वित्त मंत्री के लिए मौका भी हैदस्तूर भीलेकिन बजट सुनते हुए याद रखिएगा कि अर्थव्यवस्था की सेहत टैक्स देने वालों की तादाद और टैक्स संग्रह बढ़ने से मापी जाती हैटैक्स का बोझ बढ़ने से नहीं.



Monday, January 23, 2017

नए टैक्स से पहले


 किस किस तरह के सेस हमसे वसूले जा रहे हैं और सरकार कभी नहीं बताती कि उनका इस्‍तेमाल कहां हो रहा है। 

जीएसटी उस दिन से ही उलझ गया था जब केंद्र सरकार ने वैसा जीएसटी बनाने का इरादा छोड़ दिया था जैसा कि उसे होना चाहिए था. नतीजतनसंसद के गतिरोध को तेजी से पार कर जाने वाला जीएसटी धीमा पड़ता हुआ टल गया है. जुलाई अगली समय सीमा है जो अप्रैल से ज्यादा कठिन दिखती है.
जीएसटी का मतलब है इसके आगे-पीछे कोई दूसरा टैक्ससेस (उपकर) या ड्यूटी नहीं. सिर्फ अकेला पारदर्शी एक या दो टैक्स दरों वाला जीएसटी. लेकिन पांच टैक्स रेट वाला जीएसटी बनाने के बाद केंद्र सरकार इस पर सेस लगाने की तैयारी में जुट गई. यह सेस की सनक ही ढलान की शुरुआत थी क्योंकि अगर केंद्र सरकार टैक्स पर टैक्स थोपने का लालच छोडऩे को तैयार नहीं है तो राज्य क्यों पीछे रहें?

नया बजट विलंबित जीएसटी की छाया में बन रहा है जो जीएसटी की जमीन तैयार करेगा. हम नए सेस और टैक्स की तरफ बढ़ेंइससे पहले यह जानना जरूरी है कि भारत में सेस का मकडज़ाल कितना जटिल है. जो सेस हमसे वसूले गए हैंउनके इस्तेमाल पर सरकार कभी कुछ नहीं बताती. पिछले माह जब लोग बैंकों की लाइनों में लगे थे और संसद ठप थीनियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट आई थी जो केंद्र सरकार के सेस-राज का सबसे ताजा खुलासा है.

मोबाइल वाला टैक्स
बहुतों को यह जानकारी नहीं होगी कि मोबाइल ऑपरेटर गांवों में फोन और इंटरनेट पहुंचाने के लिए अपने राजस्व पर एक विशेष टैक्स देते हैं. जिसे यूनिवर्सल एक्सेस लेवी कहा जाता है. यह टैक्स हमारे टेलीफोन बिल पर ही लगता है. इसके खर्च के लिए यूनिवर्सल ऑब्लिगेशन फंड (यूएसओ फंड) बनाया गया है.
सीएजी के मुताबिकइस लेवी से 2002-03 से 2015-16 के बीच 66,117 करोड़ रु. जुटाए गएजिसमें केवल 39,133 करोड़ रु. यूएसओ फंड को दिए गए. क्या सरकार इस सवाल का जवाब देगी अगर गांवों में फोन पहुंच चुका है तो फिर यह लेवी क्यों वसूली जा रही है और अगर यह पैसा जमा है तो इसका इस्तेमाल मोबाइल नेटवर्क ठीक करने व कॉल ड्राप रोकने में क्यों नहीं हो सकता?

पढ़ाई वाला टैक्स
2006-07 में उच्च शिक्षा व माध्यमिक शिक्षा का स्तर आधुनिक बनाने के लिए इनकम टैक्स पर एक फीसदी का खास सेस लगाया गया था. 2015-16 तक इस सेस से 64,228 करोड़ रु. जुटाए गए. सीएजी बताता है कि इसके इस्तेमाल के लिए सरकार ने न तो कोई फंड बनाया और न ही किसी स्कीम को यह पैसा दिया. अगर शिक्षा के लिए पर्याप्त धन है तो फिर टैक्सपेयर पर बोझ क्योंदेश को इसके इस्तेमाल का हिसाब क्यों नहीं मिलता?
प्राथमिक शिक्षा के तहत सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील का पैसा जुटाने के लिए इनकम टैक्स पर दो फीसदी का प्राथमिक शिक्षा सेस भी लगता हैजिसके इस्तेमाल के लिए प्राथमिक शिक्षा कोश बना है. इस कोष को 2004-2015 के बीच जुटाई गई पूरी राशि नहीं दी गई है.

धुआं मिटाने वाला टैक्स
बिजली के साफ-सुथरे और धुआं रहित उत्पादन की परियोजनाओं के लिए 2010-11 में एक क्लीन एनर्जी फंड बना था. इस फंड के वास्ते देशी कोयले के खनन और विदेशी कोयले के आयात पर सेस लगाया जाता हैजो बिजली महंगी करता है. 2010 से 2015 के बीच सरकार ने इस सेस से 15,174 करोड़ रु. जुटाए लेकिन एनर्जी फंड को मिले केवल 8,916 करोड रु. अलबत्ता, 2016 के बजट में सरकार ने इसका नाम बदल क्लीन एन्वायर्नमेंट सेस करते हुए सेस की दर दोगुनी कर दी.

रिसर्च वाला टैक्स
सीएजी की रिपोर्ट में एक और सेस की पोल खोली गई है. हमें शायद ही पता हो कि तकनीकों के आयात (इंपोर्ट ड्यूटी) पर सरकार मोटा सेस लगाती है. रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट सेस कानून 1986 से लागू है जिसके तहत घरेलू तकनीक के शोध का खर्चा जुटाने के लिए तकनीकी आयात पर 5 फीसदी सेस लगता है. सेस की राशि टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट बोर्ड की दी जाती है. 1996-97 से 2014-15 तक इस सेस से 5,783 करोड़ रु. जुटाए गए लेकिन बोर्ड के तहत फंड को मिले 549 करोड रु.

सिर्फ यही नहीं

सड़कों के विकास के लिए पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला रोड डेवलपमेंट सेस भी पूरी तरह रोड फंड को नहीं मिलता.

पिछली सरकारों के लगाए सेस न तो कम थेन ही उनके हिसाब में गफलत ठीक हो पाई थी लेकिन मोदी सरकार ने अपने तीन बजटों में तीन नए सेस ठूंस दिए. सर्विस टैक्स पर कृषि कल्याण सेस और स्वच्छ भारत सेस लगाया गया जबकि कारों पर 2.5 फीसदी से लेकर 4 फीसदी तक इन्फ्रास्ट्रक्चर सेस चिपक गया. पिछले दो साल में सरकार ने कभी नहीं बताया कि सफाई और खेती के नाम पर लगे सेस का पैसा आखिर किन परियोजनाओं में जा रहा है?

जीएसटी के पटरी से उतरने को लेकर राज्यों को मत कोसिए. इस सुधार को केंद्र सरकार ने ही सिर के बल खड़ा कर दिया है. सेस टैक्स नहीं हैं. यह टैक्सेशन का अपारदर्शी हिस्सा हैं. इन्हें लगाया किसी नाम से जाता है और इस्तेमाल कहीं और होता है. राज्यों को इस पर आपत्ति है क्योंकि सेस उस टैक्स पूल से बाहर रहते हैं जिसमें राज्यों का हिस्सा होता है. केंद्र सरकार का कुल सेस संग्रह 2015-16 में 55 फीसदी बढ़ा है. बीते बरस केंद्र सरकार के पास करीब 1.06 लाख करोड़ रु. का राजस्व संग्रह ऐसा था जिसमें राज्यों का कोई हिस्सा नहीं है.

जीएसटी फायदे तो बाद में लाएगा लेकिन इससे पहले टैक्स की चुभन में बढ़ोतरी और सेस परिवार में किसी नए सदस्य का आगमन होने की पूरी संभावना है. जीएसटी के तहत 18 फीसदी का सर्विस टैक्स लगने वाला है नतीजतन 2017 के बजट में सर्विस टैक्स की दर 1 से 1.5 फीसदी तक बढ़ सकती है या फिर नए सेस लग सकते हैं. इसलिए बजट में राहत की उम्मीद करते हुए किसी बड़े झटके के लिए खुद को तैयार रखना समझदारी होगी. 

Monday, October 31, 2016

जीएसटी को बचाइए


जीएसटी में वही खोट भरे जाने लगे हैं जिन्‍हें दूर करने लिए इसे गढ़ा जा रहा था.
गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स से हमारा सम्‍मोहन उसी वक्त खत्म हो जाना चाहिए था जब सरकार ने तीन स्तरीय जीएसटी लाने का फैसला किया था. दकियानूसी जीएसटी मॉडल कानून देखने के बाद जीएसटी को लेकर उत्साह को नियंत्रित करने का दूसरा मौका आया था. ढीले-ढाले संविधान संशोधन विधेयक को संसद की मंजूरी के बाद तो जीएसटी को लेकर अपेक्षाएं तर्कसंगत हो ही जानी चाहिए थीं. लेकिन जीएसटी जैसे जटिल और संवेदनशील सुधार को लेकर रोमांटिक होना भारी पड़ रहा है. संसद की मंजूरी के तीन महीने के भीतर उस जीएसटी को बचाने की जरूरत आन पड़ी है जिसे हम भारत का सबसे महान सुधार मान रहे हैं.

संसद से निकलने के बाद जीएसटी में वही खोट पैवस्त होने लगे हैं जिन्‍हें ख त्‍म करने के लिए जीएसटी को गढ़ा जा रहा था. जीएसटी काउंसिल की दूसरी बैठक के बाद ही संदेह गहराने लगा था, क्योंकि इस बैठक में काउंसिल ने करदाताओं की राय लिए बिना जीएसटी में पंजीकरण व रिटर्न के नियम तय कर दिए जो पुराने ड्राफ्ट कानून की तर्ज पर हैं और करदाताओं की मुसीबत बनेंगे.

पिछले सप्ताह काउंसिल की तीसरी बैठक के बाद आशंकाओं का जिन्न बोतल से बाहर आ गया. जीएसटी में बहुत-सी दरों वाला टैक्स ढांचा थोपे जाने का डर पहले दिन से था. काउंसिल की ताजा बैठक में आशय का प्रस्ताव चर्चा के लिए आया है. केंद्र सरकार जीएसटी के ऊपर सेस यानी उपकर भी लगाना चाहती है, जीएसटी जैसे आधुनिक कर ढांचे में जिसकी उम्मीद कभी नहीं की जाती.
काउंसिल की तीन बैठकों के बाद जीएसटी का जो प्रारूप उभर रहा है वह उम्मीदों को नहीं, बल्कि आशंकाओं को बढ़ाने वाला हैः
  • केंद्र सरकार ने जीएसटी काउंसिल की बैठक में गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स के लिए चार दरों का प्रस्ताव रखा है. ये दरें 6, 12,18 और 26 फीसदी होंगी. सोने के लिए चार फीसदी की दर अलग से होगी. अर्थात् कुल पांच दरों का ढांचा सामने है.
  •   मौजूदा व्यवस्था में आम खपत के बहुत से सामान व उत्पाद वैट या एक्साइज ड्यूटी से मुक्त हैं. कुछ उत्पादों पर 3, 5 और 9 फीसदी वैट लगता है जबकि कुछ पर 6 फीसदी एक्साइज ड्यूटी है. जीएसटी कर प्रणाली के तहत 3 से 9 फीसदी वैट और 6 फीसदी एक्साइज वाले सभी उत्पाद 6 फीसदी की पहली जीएसटी दर के अंतर्गत होंगे. जीरो ड्यूटी सामान की प्रणाली शायद नहीं रहेगी इसलिए टैक्स की यह दर महंगाई बढ़ाने की तरफ झुकी हो सकती है.
  •   केंद्र सरकार ने जीएसटी के दो स्टैंडर्ड रेट प्रस्तावित किए हैं. यह अनोखा और अप्रत्याशित है. जीएसटी की पूरे देश में एक दर की उक्वमीद थी. यहां चार दरों का रखा जा रहा है, जिसमें दो स्टैंडर्ड रेट होंगे. बारह फीसदी के तहत कुछ जरूरी सामान रखे जा सकते हैं. यह जीएसटी में पेचीदगी का नया चरम है. 
  • यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि ज्यादातर उत्पाद और सेवाएं 18 फीसद दर के अंतर्गत होंगी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के मुताबिक जीएसटी में गुड्स और सर्विसेज के लिए एक समान दर की प्रणाली है. इस व्यवस्था के तहत सेवाओं पर टैक्स दर वर्तमान के 15 फीसदी (सेस सहित) से बढ़कर 18 फीसदी हो जाएगी. यानी इन दरों के इस स्तर पर जीएसटी खासा महंगा पड़ सकता है.
  • चौथी दर 26 फीसदी की है जो तंबाकू, महंगी कारों, एयरेटेड ड्रिंक, लग्जरी सामान पर लगेगी. ऐश्वर्य पर लगने वाले इस कर को सिन टैक्स कहा जा रहा है. इस वर्ग के कई उत्पादों पर दरें 26 फीसदी से ऊंची हैं जबकि कुछ पर इसी स्तर से थोड़ा नीचे हैं. इस दर के तहत उपभोक्ता कीमतों पर असर कमोबेश सीमित रहेगा.
  •   समझना मुश्किल है कि सोने पर सिर्फ 4 फीसदी का टैक्स किस गरीब के फायदे के लिए है. इस समय पर सोने पर केवल एक फीसदी का वैट और ज्वेलरी पर एक फीसदी एक्साइज है, जिसे बढ़ाकर कम से कम से 6 फीसदी किया जा सकता था.   
  • किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि सरकार एक पारदर्शी कर ढांचे की वकालत करते हुए जीएसटी ला रही है, और पिछले दरवाजे से जीएसटी की पीक रेट (26 फीसदी) पर सेस लगाने का प्रस्ताव पेश कर देगी. सेस न केवल अपारदर्शी हैं बल्कि कोऑपरेटिव फेडरलिज्म के खिलाफ हैं क्योंकि राज्यों को इनमें हिस्सा नहीं मिलता है.

केंद्र सरकार सेस के जरिए राज्यों को जीएसटी के नुक्सान से भरपाई के लिए संसाधन जुटाना चाहती है. अलबत्ता राज्य यह चाहेंगे कि जीएसटी की पीक रेट 30 से 35 फीसदी कर दी जाए, जिसमें उन्हें ज्यादा संसाधन मिलेंगे. इसी सेस ने जीएसटी काउंसिल की पिछली बैठक को पटरी से उतार दिया और कोई फैसला नहीं हो सका.

अगर जीएसटी 4 या 5 कर दरों के ढांचे और सेस के साथ आता है तो यह इनपुट टैक्स क्रेडिट को बुरी तरह पेचीदा बना देगा जो कि जीएसटी सिस्टम की जान है. इस व्यवस्था में उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है और महंगाई रोकती है.

केंद्र सरकार जीएसटी को लेकर कुछ ज्यादा ही जल्दी में है. जीएसटी से देश की सूरत और सीरत बदल जाने के प्रचार में इसके प्रावधानों पर विचार विमर्श और तैयारी खेत रही है. व्यापारी, उद्यमी, उपभोक्ता, कर प्रशासन जीएसटी गढऩे की प्रक्रिया से बाहर हैं. जीएसटी काउंसिल की बैठक में मौजूद राज्यों के मंत्री इसके प्रावधानों पर खुलकर सवाल नहीं उठा रहे हैं या फिर उनके सवाल शांत कर दिए गए हैं. 

जीएसटी काउंसिल की तीन बैठकों को देखते हुए लगता है कि मानो यह सुधार केवल केंद्र और राज्यों के राजस्व की चिंता तक सीमित हो गया है. करदाताओं के लिए कई पंजीकरण और कई रिटर्न भरने के नियम पहले ही मंजूर हो चुके हैं. अब बारी बहुत-सी टैक्स दरों की है जो जीएसटी को खामियों से भरे पुराने वैट जैसा बना देगी.

गुड्स एंड सर्विसेज टैक्‍स का वर्तमान ढांचा कारोबारी सहजता की अंत्‍येष्टि करने, कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बढ़ाने और महंगाई को नए दांत देने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है. क्या हम जीएसटी बचा पाएंगे या फिर हम इस सुधार के बोझ तले दबा ही दिए जाएंगे?

Sunday, November 22, 2015

मुश्किलों के अच्‍छे दिन


स्‍वच्‍छ भारत सेस लगाने के ताजा तरीके ने यह साबित किै कि सरकार में कुछ भी नहीं बदला है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस समय लंदन के वेंबले स्टेडियम में गरज रहे थे और भारत को कारोबार के लिए आदर्श जगह बता रहे थे, ठीक उसी समय देश के उद्यमी और व्यापारी स्वच्छ भारत सेस (उपकर) की गुत्थियों से उलझ रहे थे जो भारत में कारोबार को आसान बनाने को लेकर किए गए ताजा दावों की चुगली खाता है. अपनी अपारदर्शिता के चलते सेस यानी उपकर टैक्सेशन में सबसे निचले दर्जे के उपकरण हैं, ऊपर से इसे लगाने के ताजा तरीके ने यह साबित कर दिया है कि सरकार में कहीं कुछ नहीं बदला है. राज्यों को नरेंद्र मोदी सरकार का सेस राज्य चिंतित कर रहा है और रही बात उपभोक्ताओं की तो उनके लिए तो समझ से ही परे है कि महंगाई की मार के बीच सरकार इनडाइरेक्ट टैक्स बढ़ाकर क्या साबित और हासिल करना चाहती है.
सेस कभी भी ऐसे नहीं लगाए गए जैसे कि एनडीए सरकार स्वच्छ भारत सेस लेकर आई. सेस लगाने के समय और तरीके ने सरकार में सूझ की घोर कमी को साबित किया है. 6 नवंबर को सर्विस टैक्स पर 0.5 फीसदी स्वच्छ भारत सेस लगाने की अधिसूचना जारी हुई और 15 नवंबर से यह लागू हो गया. यह पता नहीं कौन-सी कारोबारी सहजता थी जो महीने के बीच से एक नया कर लगा दिया गया. उद्यमियों व व्यापारियों को बिलों व रिटर्न में इस सेस का अलग से हिसाब करना होगा लेकिन त्योहारी छुट्टियों के बीच उनके पास नई एकाउंटिंग की तैयारी का समय तक नहीं था, इस बीच स्वच्छ भारत सेस उनके सिर पर आकर खड़ा हो गया. इस सेस को लेकर तीन अलग-अलग अधिसूचनाएं जारी की गईं जो बला की भ्रामक थीं. इसके बाद एक लंबी प्रेस रिलीज जारी हुई और फिर आई एक विस्तृत प्रश्नोत्तरी. इस पूरी कवायद के बाद किसी को यह मुगालता नहीं रहा कि केंद्रीय सीमा व उत्पाद शुल्क बोर्ड ने इस सेस को लेकर कोई तैयारी नहीं की थी. शायद बिहार विधानसभा चुनाव खत्म होने का इंतजार था जिसके बाद इसे अचानक थोप दिया गया. बेचारे व्यापारी सर्विस टैक्स की दर में ताजा बढ़ोतरी के मुताबिक अपने बिल वाउचर ठीक कर पाते, इससे पहले ही उनके लिए नया मोर्चा खुल गया है.
स्वच्छ भारत सेस में स्वच्छता की बड़ी कमी है. इसे लगाने के बाद सर्विस टैक्स की दर करीब 14.50 फीसदी हो जाएगी. बजट में जब सर्विस टैक्स (एजुकेशन सेस सहित) की दर 12.36 फीसदी से बढ़ाकर 14 फीसदी की गई थी उसी वक्त इस सेस को जोड़ कर सर्विस टैक्स को 14.50 फीसदी किया जा सकता था या फिर सरकार अगले बजट तक रुक सकती थी, जिसमें अब केवल तीन माह बचे हैं. ध्यान रहे कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में 2 फीसदी की दर से स्वच्छ भारत सेस लगाने का ऐलान किया है यानी अभी और सेस लगेगा या सर्विस टैक्स की दर को बढ़ाकर 16 या 18 फीसदी किया जाएगा. यदि सरकार जीएसटी के जरिए कारोबार को आसान करने का दावा कर रही है तो यह सेस उन दावों का बिल्कुल उलटा है, क्योंकि एनडीए सरकार के इस नए सेस राज से कारोबारियों के लिए कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बुरी तरह बढऩे वाली है.
यह सेस राज नए किस्म के अपारदर्शी इनडाइरेक्ट टैक्स सिस्टम की आहट है, जिसकी उम्मीद मोदी सरकार से तो नहीं थी जो यह मानती रही है कि परतदार करों का मकडज़ाल, महंगाई की सबसे बड़ी वजह है. प्राथमिक शिक्षा व उच्च शिक्षा सेस, पेट्रोलियम पर रोड डेवलपमेंट सेस, निर्यातों पर सेस पहले कायम हैं. इसी बजट में सरकार ने कोयले पर क्लीन एनर्जी सेस की दर दोगुनी कर दी है. इसके बाद स्वच्छ भारत सेस के साथ वित्त मंत्री ने सेस परिवार में नया सदस्य जोड़ दिया है. मोदी सरकार के पहले दो बजट अप्रत्यक्ष करों से भरपूर रहे हैं. सरकार का अप्रत्यक्ष कर संग्रह बेहतर रफ्तार दिखा रहा है इसलिए नए टैक्स टाले जा सकते थे. सरकार को यह सोचना पड़ेगा कि क्या मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था इनडाइरेक्ट टैक्स की इतनी मार झेल सकती है और क्या टैक्स राज के जरिए महंगाई की आंच बढ़ाकर सरकार अपने लिए राजनैतिक मुसीबत नहीं न्योत रही है?
सरकार का सेस राज जीएसटी पर सहमति की राह में भी बाधा बनने को तैयार है. मोदी सरकार ने केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा बढ़ाने की वित्त आयोग की सिफारिश मानने के बाद राजस्व में कमी को पूरा करने के लिए सेस और सरचार्ज की बारिश कर दी है. सभी तरह के सेस व सरचार्ज से केंद्र सरकार को करीब 1.15 लाख करोड़ रु. का राजस्व मिलने का अनुमान है. राज्य सरकारें यह सवाल जरूर उठाएंगी कि केंद्र सरकार बुनियादी टैक्स ढांचे से किनारा करते हुए सेस व सरचार्ज के जरिए राजस्व जुटा रही है जो वित्तीय संघवाद के माफिक नहीं है. मोदी सरकार जब जीएसटी पर राज्यों को सहमत करने की कोशिश कर रही है तो इस तरह की राजस्व चालाकी से बचना चाहिए था. यह सेस राज न केवल उद्योगों, उपभोक्ताओं की मुसीबत है बल्कि राज्यों के बीच केंद्र की साख को भी कम करेगा.
टैक्सेशन को लेकर मोदी सरकार के अठारह महीनों का कामकाज यह बताता है कि या तो सरकार में एक हाथ को यह पता नहीं है कि दूसरा हाथ क्या कर रहा है अथवा फिर कहीं कोई योजना ही नहीं है और व्यवस्था ज्यों की त्यों है. भारत में कारोबारी सहजता का परचम लेकर दुनिया में घूम रहे प्रधानमंत्री इस तथ्य से अनभिज्ञ कैसे हो सकते हैं कि उनकी सरकार का टैक्स प्रशासन भारत में धंधे को मुश्किल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. पहले इनकम टैक्स, मैट के फैसलों ने निवेशकों की उम्मीदें तोड़ी थीं और अब एक्साइज व सर्विस टैक्स की बारी है.
क्या प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री कुछ ठहर कर यह जांचने की कोशिश करेंगे कि उनके वादों और हकीकत के बीच अंतर नहीं बल्कि एक खाई तैयार हो चुकी है जो सरकार की साख को हर दिन निगल रही है? उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि बदलाव के अवसरों की भी उलटी गिनती शुरू हो चुकी है.