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Tuesday, June 27, 2017

सही साबित होने का अफसोस

नोटबंदी या डिमॉनेटाइजेशन बहुत बड़ा उलटफेर था. इसकी विफलता से उठने वाले सवाल नोटबंदी के फैसले से ज्‍यादा बडे हो गए हैं 

लत सिद्ध होने का संतोष, कभी-कभी सही साबित होने से ज्यादा कीमती होता है. सरकारी नीतियों के बनते या लागू होते वक्त जोखिमों को रोशनी में लाना और चेतावनियों की टेर लगाना जरूरी है. नीतियों के नतीजे यदि आशंकाओं के विपरीत अर्थात् अच्छे आएं तो लोकतंत्र में पत्रकारिता की यह विफलता शुभ और श्रेयस्कर ही होगी.

नोटबंदी के दौरान इस स्तंभ को पढ़ते रहे लोग याद करेंगे इस फैसले को लेकर जितनी आशंकाएं जाहिर की गईंवे एक-एक कर सच साबित हुईं.

काशनोटबंदी से जुड़े डर सच न होते और हम गलत साबित होते!

नोटबंदी या डिमॉनेटाइजेशन बहुत बड़ा उलटफेर था. इसकी भव्य विफलता ने बहुत कुछ तोड़ दिया है.

नोटबंदी की बैलेंस शीट
  - इस साल जनवरी से मार्च के दौरान भारत की आर्थिक विकास दर घटकर 6.1 फीसद (इससे पिछली तिमाही में 7 फीसदी) रह गई. यह नोटबंदी के बाद पहली तिमाही थी. पूरे वित्त वर्ष (2016-17) की विकास दर आठ फीसदी की बजाए 7.1 फीसदी रह गई. भारत ने दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था का दर्जा गंवा दिया. जब संगठित औपचारिक अर्थव्यवस्था इस कदर टूट गई तो नकद पर काम करने वाली छोटी इकाइयोंकारोबारों और रोजगारों का क्या हाल हुआ होगा?
  - याद कीजिए गरीब कल्याण योजना जो नोटबंदी के साथ आई थीजिसमें पुराने नोटों में काला धन घोषित करने पर 50 फीसदी टैक्स और घोषित धन का एक-चौथाई चार माह सरकार के पास जमा रखने की शर्त थी. इस योजना में केवल 5,000 करोड़ रु. जमा हुए. सरकार ने मान लिया कि स्कीम ढह गई.
  - नोटबंदी के छह माह पूरे होने से पहले ही लोग वापस नकदी की तरफ लौट आए. बकौल रिजर्व बैंक केडिजिटल माध्यमों से वित्तीय लेन-देननोटबंदी के पहले वाले स्तर पर पहुंच गया. पता नहीं कि ''भीम" और यूपीआइ कहां गए?
  - रिजर्व बैंक में पुराने नोटों की गिनती सतयुग आने तक चलेगी. वित्त मंत्रालय काले धन की फिक्र छोड़ जीएसटी की उधेड़बुन में है. 
  - नोटबंदी के जरिए काले धन के बारे भरपूर सूचनाएं मिली थीं लेकिन उत्तर प्रदेश का चुनाव शुरू होते ही छापेमारी और पड़ताल बंद हो गई.
  - नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक ने भी कर्ज सस्ते करने से तौबा कर ली.

इस हिसाब-किताब में हमें उन वादों की श्रद्धांजलि मिल जाएगी जो नोटबंदी के दौरान सरकारी मंत्रियों के बड़बोले उच्छवासों से फूटते थे.

नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को कई गुप्त चोटें दी हैं जिनके ठीक होने में बहुत लंबा वक्त लगेगा.

  - काले धन के खिलाफ या तो सख्ती की जा सकती है या फिर लोगों को कालिख धोने के मौके यानी टैक्स माफी की स्कीमें उपलब्ध कराई जा सकती हैं. नोटबंदी पहला ऐसा अभियान था जिसमें दोनों पैंतरे आजमाए गए. तीन साल में तीन (एक विदेशी कालाधन के लिए और दो देशी) ऐसी स्कीमें आईं जो काले धन वालों को पवित्र होने का मौका देती थींलेकिन तीनों ही नाकाम रहीं. नोटबंदी के चाबुक से कितना काला धन निकलासरकार यह बताने को तैयार नहीं है. इस कौतुक में न तो सरकारी सख्ती की साख बची और न रियायतों की. काले धन को लेकर सरकारी कोशिशों पर आगे कोई आसानी से भरोसा करेगाइस पर शक है.

  - नोट बदलने के दो महीनों ने बैंकिंग तंत्र को भ्रष्ट कर दिया. लोगों का जमा बैकों की बैलेंस शीट पर बोझ बन गया. नोटबंदी के दौरान कर्ज चुकाने से मिली रियायतों ने फंसे हुए कर्जों के बोझ को और बढ़ा दिया. पहले से हलाकान बैंक अब ज्यादा मुसीबत में हैं. सरकार के पास उन्हें उबारने के लिए संसाधन नहीं हैं.

  - रिजर्व बैंक की साख और स्वायत्तता पुराने नोटों के ढेर में दब गई है.

 - हमें शायद ही कभी यह पता चल सके कि नोटबंदी से उन ''खास" लोगों की जिंदगी पर क्या असर पड़ा जिन्हें सजा देने के लिए आम लोगों को गहरी यंत्रणा से गुजरना पड़ा था.

  - और अंत में.. नोटबंदी के साथ सरकार के नए चेहरे से हमारा परिचय हुआ है जो एक क्रांतिकारी कदम के लिए पूरे देश को सिर के बल खड़ा कर देती है पर नतीजे बताने का मौका आने पर पीठ दिखा देती है. 

हम नहीं मानते कि नोटबंदी यूपी के चुनावों से प्रेरित थी. राजनीति इतनी गैर जिम्मेदार कैसे हो सकती है ??   

नोटबंदी सिद्ध करती है कि सरकार साहसी फैसले लेने में सक्षम है लेकिन विफलता बताती है कि हकीकत से कटा साहस आत्मघाती हो जाता है.

हमें अपने सही साबित होने का अफसोस है.



Sunday, December 4, 2016

कैशलेस कतारों का ऑडिट

स्कीम का एक महीना बीतने से पहले ही टैक्‍स देकर काले धन को सफेद  
करने का मौका देने की जरूरत क्यों आन पड़ी
ह मजाक सिर्फ सरकारें ही कर सकती हैं कि काले धन को नेस्तनाबूद करने के मिशन के दौरान ही कालिख धोने का मौका भी दे दिया जाए. भारत दुनिया का शायद पहला देश होगा जो काला धन रखने वालों को बच निकलने के लिए दो माह में दूसरा मौका दे रहा है और वह भी काले धन की सफाई के नाम पर.

डिमॉनेटाइजेशन ने 8 नवंबर से अब तक इतने पहलू बदले हैं कि सरकार और रिजर्व बैंक भी भूल गए होंगे कि शुरुआत कहां से हुई थी. अलबत्ता टैक्स वाली कलाबाजी बेजोड़ है. स्कीम का एक महीना बीतने से पहले ही काले धन को सफेद (टैक्स चुकाकर) करने का मौका देने की जरूरत क्यों आन पड़ी

दरअसलनोटबंदी के पहले सप्ताह में जो सबसे बड़ी सफलता थीवही अगले कुछ दिनों में चुनौती और असफलता में बदलने लगी. डिमॉनेटाइजेशन के बाद बैंकों में डिपॉजिट की बाढ़ से काली नकदी का आकलन और नोटबंदी का मकसद ही पटरी से उतरने लगा है. रिजर्व बैंक के मुताबिक, 10 से 27 नवंबर तक डिपॉजिट और पुराने नोटों की अदला-बदली 8.44 लाख करोड़ रु. पर पहुंच गई. अपुष्ट आंकड़ों के अनुसार, 30 नवंबर तक डिपॉजिट 11 लाख करोड़ रु. हो गए थे.
  • ·    8 नवंबर को नोटबंदी से पहले बाजार में लगभग 14 लाख करोड़ रु. ऊंचे मूल्य (500/1000) के नोट सर्कुलेशन में थे. यानी कि 30 नवंबर तक 63 से 75 फीसदी नकदी बैंकों में लौट चुकी है.
  • ·        जमा करीब 49,000 करोड़ रु. प्रति दिन से बढ़े हैं. स्कीम 30 दिसंबर तक खुली है. आम लोगों के बीच हुए सर्वे बताते हैं कि अभी करीब 23 फीसदी लोगों ने अपने वैध पुराने नोट बैंकों में नहीं जमा कराए हैं.
  • ·        डिमॉनेटाइजेशन के बाद करीब 30 लाख नए बैंक खाते खुले हैं. 
  • ·        बैंकों से पुराने नोटों का एक्सचेंज बंद हो गया हैइसलिए अब डिपॉजिट ही होंगे. बैंकर मान रहे हैं कि करेंसी इन सर्कुलेशन का 90 फीसदी हिस्सा बैंकों में लौट सकता है.

डिपॉजिट की बाढ़ के दो निष्कर्ष हैः 
एकनकदी के रूप में काला धन था ही नहीं. आम लोगों की छोटी नकद बचत और खर्च का पैसा ही डिपॉजिट हुआ है. इसे बैंकों में लाना था तो इतनी तकलीफ बांटने की क्या जरूरत थी
अथवा
दोबैंकों की मिलीभगत से काला धन  खातों में पहुंच गया है. जन धन खातों के दुरुपयोग की खबरें इस की ताकीद करती हैं.

ध्यान रहे कि नोटबंदी की सफलता के दो पैमाने हैं. एककितना नकद बैंकों के पास आया और कितना बाहर रह कर बेकार हो गया. दोनोटबंदी से हुए नुक्सान के मुकाबले सरकार को कितनी राशि मिली है.
अब एक नजर नुक्सान के आंकड़ों परः
  •     सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसाररोजगारटोल की माफीकरेंसी की छपाई की लागत आदि के तौर पर 1.28 लाख करोड़ रु. का नुक्सान हो चुका है.
  •      इसमें जीडीपी का नुक्सान शामिल नहीं हैजो काफी बड़ा है.
  •      कंपनियों के मुनाफेशेयर बाजार में गिरावटबैंकों के नुक्सान अभी गिने जाने हैं.

प्रक्रिया पूरी होने के बाद रद्द हुई नकदी पर्याप्त मात्रा में नहीं होती है तो नुक्सान का आंकड़ाफायदों के आकलन पर भारी पड़ेगा.

डिपॉजिट की बाढ़ और नुक्सानों का ऊंचा आंकड़ा देखते हुए सरकार के पास पहलू बदलने के अलावा कोई रास्ता नहीं था. इसलिए काले धन को सफेद करने की नई खिड़की खोली गईजिसके तहत काला धन की घोषणा पर 50 फीसदी कर लगेगा और डिपॉजिट का 25 फीसदी चार साल तक सरकार के पास जमा रहेगा. पकड़े जाने के बाद टैक्स की दर ऊंची हो जाएगी.

इनकम टैक्स की नई कवायद के दो स्पष्ट लक्ष्य दिखते हैः

पहला— बेहिसाब डिपॉजिट पर भारी टैक्स से लोग हतोत्साहित हो जाएंगे और जमा में कमी आएगी. इससे कुछ नकदी बैंकिंग सिस्टम से बाहर रह जाएगी जो कामयाबी में दर्ज होगी.

दूसराअगर डिपॉजिट नहीं रुके तो जमा पर टैक्स और खातों में रोकी गई राशि सफलता का आंकड़ा होगी. 

डिमॉनेटाइजेशन आर्थिक फैसला हैजिसकी तात्कालिक सफलता आंकड़ों से ही साबित होगीवह चाहे नकदी को बैंकिंग से बाहर रखकर हासिल किया जाए या फिर टैक्स से. सरकार को काली नकदी के रद्द होने या टैक्स से मिली राशि का खासा बड़ा आंकड़ा दिखाना होगा जो इस प्रक्रिया से होने वाले ठोस नुन्न्सान (जीडीपी में गिरावटरोजगार में कमीबैंकों पर बोझ) पर भारी पड़ सके.

यह आंकड़ा आने में वक्त लगेगा लेकिन पहले बीस दिनों में नोटबंदी के खाते में कुछ अनोखे निष्कर्ष दर्ज हो गए हैंजिनकी संभावना नहीं थी.
  • ·        भारत का बैंकिंग सिस्टम बुरी तरह भ्रष्ट है. यह सिर्फ कर्ज देने में ही गंदा नहीं है बल्कि इसका इस्तेमाल काले धन की धुलाई में भी हो सकता है. सरकार इसे कब साफ करेगी?
  •    इनकम टैक्स का चाबुक तैयार है. टैक्स टेरर लौटने वाला है और साथ ही भ्रष्टाचार और टैक्स को लेकर कानूनी विवाद भी. 
  •       एक बेहद संवेदनशील सुधार को लागू करते हुए हर रोज होने वाले बदलावों ने लोगों में विश्वास के बजाए असुरक्षा बढ़ाई है.
  •     भारत के वित्तीय बाजार के पास बड़े बदलावों को संभालने की क्षमता नहीं है. नौ लाख करोड़ रु. बैंकों में सीआरआर बनकर बेकार पड़े हैंजिनके निवेश के लिए पर्याप्त बॉन्ड तक नहीं हैं और न ही कर्ज के लिए इसका इस्तेमाल हो सकता है. नई नकदी आने तक इसे लोगों को लौटाना भी संभव नहीं है. यह आम लोगों का उपभोग का खर्च हैअर्थव्यवस्था की मांग है जो बैंक खातों में बेकार पड़ी हैबैंक इसे संभालने की लागत से दोहरे हुए जा रहे हैं जबकि लोग अपनी बचत निकालने बैंकों की कतार में खड़े होकर लाठियां खा रहे हैं.

जरा सोचिएअगर डिमॉनेटाइजेशन न होता तो क्या हम सचाइयों से मुकाबिल हो पातेइसलिए इन तीन निष्कर्षों को नोटबंदी के मुनाफे के तौर पर दर्ज किया जा सकता है

बाकी हिसाब-किताब 30 दिसंबर के बाद.




Tuesday, October 20, 2015

उलटा तीर



विदेश में जमा काला धन को लेकर एक बेसिर-पैर के चुनावी वादे को पूरा करने की कोशिश में भारतीय टैक्स सिस्टम की विश्वसनीयता पर गहरी खरोंचें लग गई हैं.

यह कहावत शायद टैक्सेशन की दुनिया के लिए ही बनी होगी कि आम माफी उन अपराधियों के प्रति सरकार की उदारता होती है जिन्हें सजा देना बहुत महंगा पड़ता है. टैक्स चोरों और काले धन वालों को आम माफी (एमनेस्टी?) का फैसला सरकारें हिचक के साथ करती हैं, क्योंकि कर चोरों को बगैर सजा के बच निकलने की सुविधा देना हमेशा से अनैतिक होता है. इसलिए अगर इस सहूलियत के जरिए पर्याप्त काला धन भी न आए तो सरकार की साख क्षत-विक्षत हो जाती है. एनडीए सरकार के साथ यही हुआ है, विदेश में जमा काला धन को लेकर एक बेसिर-पैर के चुनावी वादे को पूरा करने की कोशिश में भारतीय टैक्स सिस्टम की विश्वसनीयता पर गहरी खरोंचें लग गई हैं. आधी-अधूरी तैयारियों और जल्दबाजी में लिए गए फैसलों के कारण, सजा से माफी देकर विदेश में जमा काला धन बाहर निकालने की कोशिश औंधे मुंह गिरी है. टैक्स चोरों ने भी सरकार की उदारता पर भरोसा नहीं किया है.
आम चुनावों के दौरान विदेश से काला धन लाकर लोगों के खाते में जमा करने के वादे पर सवालों में घिरने के बाद सरकार ने बजट सत्र में संसद से एक कानून (अनडिस्क्लोज्ड फॉरेन इनकम ऐंड एसेट्स बिल, 2015) पारित कराया था, जिसके तहत सरकार ने विदेश में काला धन रखने वालों को यह सुविधा दी थी कि 1 जुलाई से 1 अक्तूबर के बीच यदि विदेश में छिपाया धन घोषित करते हुए टैक्स (30 फीसद) और पेनाल्टी (टैक्स का शत प्रतिशत) चुकाई जाती है तो कार्रवाई नहीं होगी. तीन महीने में इस अवधि के खत्म होने पर केवल 4,147 करोड़ रु. का काला धन घोषित हुआ है, जिस पर सरकार को अधिकतम 2,000 करोड़ रु. का टैक्स मिलेगा.
इस साल मार्च में इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि 1997 की काला धन स्वघोषणा (वीडीआइएस) स्कीम में गोपनीयता के वादे के बाद भी कंपनियों पर कार्रवाई हुई थी, इसलिए कानून के तहत बड़ी घोषणाएं होने पर शक है लेकिन यह अनुमान कतई नहीं था कि विदेश में काला धन होने के अभूतपूर्व राजनैतिक आंकड़ों के बावजूद इतनी कम घोषणाएं होंगी.
एमनेस्टी स्कीम की विफलता की तह में जाना जरूरी है. काले धन को लेकर इस बड़ी पहल की नाकामी सरकार को नौसिखुआ व जल्दबाज साबित करती है. 
अंधेरे में तीर दरअसल, वित्त मंत्रालय के पास विदेश में जमा काले धन की कोई ठोस जानकारी ही नहीं थी. ऐसी कोशिशें कम ही देशों ने की है क्योंकि इनकी विफलता का खतरा ज्यादा होता है. भारत की पिछली सफल स्कीमें भी देशी काले धन पर केंद्रित थीं. हाल में इटली और अमेरिका ने विदेश में जमा काले धन पर एमनेस्टी स्कीमें सफलता से पूरी की हैं जिनके लिए विदेश से सूचनाएं जुटाकर मजबूत जमीन तैयार की गई थी जबकि अपना वित्त मंत्रालय इस मामले में बिल्कुल अंधेरे में है. सरकार ने दुनिया के तमाम देशों व टैक्स हैवेन को पिछले महीनों में करीब 3,200 अनुरोध भेजकर सूचना हासिल करने की कोशिश शुरू की है, जिनके जवाब अभी आने हैं. सरकार के पास जो जानकारियां उपलब्ध हैं, वे ठोस नहीं थीं, इसलिए तीर उलटा आकर लगा है. वह पार्टी जो विदेश में भारी काला धन जमा होने का दावा कर रही थी, उसके वित्त मंत्री को इस स्कीम की भव्य विफलता के बाद कहना पड़ा कि विदेश में भारत का काला धन है नहीं. 
रणनीतिक चूकः एमनेस्टी स्कीमों का लाभ लेने की कोशिश वही लोग करते हैं जिन्हें सजा का डर होता है. लेकिन वित्त मंत्रालय ने विदेश में जमा धन को लेकर विभिन्न मामलों में सक्रिय कार्रवाइयां, यहां तक सर्वे भी इस स्कीम से बाहर कर दिए थे. इसलिए जो लोग कार्रवाई के डर से स्कीम में आ सकते थे उन्हें भी मौका नहीं मिला. यह एक बड़ी रणनीतिक चूक है.
भरोसे का सवालः आयकर विभाग को मालूम था कि पुराने तजुर्बों की रोशनी में इस सुविधा पर लोग आसानी से विश्वास नहीं करेंगे. स्कीम को सफल बनाने के लिए कर प्रशासन पर भरोसा बढ़ाने की कोशिश होनी चाहिए थी, लेकिन एक तरफ सरकार काला धन घोषित करने के लिए एमनेस्टी दे रही थी तो दूसरी तरफ निवेशकों व कंपनियों को मैट (मिनिमम ऑल्टरनेटिव टैक्स) और पुराने मामलों के लिए नोटिस भेजे जा रहे थे. इस असंगति ने कर प्रशासन पर भरोसे को कमजोर किया और स्कीम की विफलता सुनिश्चित कर दी.
अधूरी तैयारीः वित्त मंत्रालय ने एमनेस्टी के लिए तैयारी नहीं की थी. स्कीम को लेकर स्पष्टीकरण देर से आए और सबसे बड़ी बात, प्रचार में बहादुर सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी स्कीम का कोई प्रचार नहीं किया, खास तौर पर विदेश में तो कतई नहीं, जहां बसे भारतीय इसके सबसे बड़े ग्राहक थे. अंतरराष्ट्रीय तजुर्बे बताते हैं कि इस तरह की स्कीमों को लेकर प्रत्यक्ष व परोक्ष अभियान चलते हैं ताकि अधिक से अधिक लोग इसका हिस्सा बन सकें और सफलता सुनिश्चित हो सके.
काले धन पर आम माफी की असफलता की तुलना 18 साल पहले की वीडीआइएस स्कीम से की जाएगी. तब इसके तहत 36,697 करोड़ रु. काले धन की घोषणा हुई थी, जो मौजूदा स्कीम में की गई घोषणाओं का दस गुना है. यही नहीं, इसे विदेश से काला धन निकालने में अमेरिका (5 अरब डॉलर) और इटली (1.4 अरब यूरो) की ताजा सफलताओं की रोशनी में भी देखा जाएगा.

चुनावी वादे पर फजीहत से लेकर निवेशकों को नोटिस और उनकी वापसी और एमनेस्टी स्कीम की विफलता तक, पिछले सोलह माह में भारत के कर प्रशासन की साख तेजी से गिरी है. बैंकों के जरिए काला धन विदेश ले जाने के ताजा मामले ने कर प्रशासन की निगहबानी के दावों को भी धो दिया है. सरकार की आम माफी पर लोगों का भरोसा न होना एक बड़ी विफलता है, जिसका असर कर प्रशासन की विश्वसनीयता व मनोबल पर लंबे अर्से तक रहेगा. भारत के टैक्स सिस्टम को इस हादसे से उबरने में लंबा वक्त लग सकता है.