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Sunday, September 23, 2018

नई मुख्यधारा!


मानसरोवर में राहुल, इंदौर की बोहरा मस्जिद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की संकल्पना को खारिज करते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत!

राजनीति की षड्यंत्र कथाओं में टूट कर विश्वास करने वाला भी यह मानेगा कि सब कुछ वैसे ही नहीं हो रहा है, जैसे खांचे हम गढ़ कर बैठे थे.

क्या लोकतंत्र के ताप में विचारधाराओं के ध्रुव नरम पड़ रहे हैं? ध्रुव बहेंगे या फिर जम जाएंगे? इस पर फिर कभी लड़ लेंगे. पहले तो इस दृश्य को उन सब लोगों को आंख भर देख लेना चाहिए जो यह मानते हैं, चंद्र टरै सूरज टरै लेकिन राष्ट्रीय स्वयं संघ या कांग्रेस विचारधाराओं का जीवाश्म बन चुके हैं.

विचार और विचारधारा का संघर्ष सबसे दिलचस्प है. विचार स्वतंत्र और नया होता है जो रूढ़ विचारधारा के सामने खड़ा होता है. भारत के लोकतंत्र में एक गहरी अदृश्य आंतरिक जीवनी शक्ति है जो वैचारिक ध्रुवों को नए विचारों से मुठभेड़ के लिए बाध्य  कर रही है. नए विचार इनपुराने ध्रुवों के भीतर से ही निकल रहे हैं

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने बाकायदा तीन दिन का अधिवेशन बुलाकर उन सभी सवालों के जवाब खुद दिए जिनके जवाब तो दूर, उन्हें पूछने का अवसर भी उन्होंने कभी नहीं दिया. संघ के अधिवेशन का मजमून 'भविष्य का भारत' था.

क्या यह भविष्य में प्रासंगिकता की जद्दोजहद है जिसमें विचारधाराएं पुनर्मूल्यांकन कर रही हैं!

''दि हम मुस्लिमों को स्वीकार नहीं करते तो या हिंदुत्व नहीं है हिंदुत्व का अर्थ सर्व-समावेशी भारतीयता है.'' संघ के प्रमुख से यह सुनकर बहुतों को अपने कान साफ करने पड़े होंगे.  

भारत की दक्षिणपंथी राजनीति को जब लंबे संघर्ष के बाद सत्ता मिली तो उसे वह रुढ़िवादी, कट्टर ऊंचाई भा नहीं रही है, जिस पर टिके रहकर ही वह यहां तक आई है. संघ का मुस्लिम समावेशी हिंदुत्व का पक्षधर होना भारतीयता की पुरानी परिभाषाओं में स्वाभाविक है लेकिन जिस भारतीय दक्षिणपंथ को हम जानते हैं और जिसकी कट्टरता के कई आयाम देख चुके हैं उसका यह समावेशी विचार चाहे जितने राजनैतिक मंतव्य समेटे हो लेकिन शुभ और मंगलमय है.

दूसरे ध्रुव यानी कांग्रेस, जिसे हम अब तक जानते रहे हैं उससे भी यह उम्मीद नहीं की गई थी कि उसके नेता उन प्रतीकों को गर्व के साथ अपनाते नजर आएंगे जो धर्मनिरपेक्षता की चिरंतन कांग्रेसी परिभाषा में वर्जित रहे हैं. राहुल गांधी की मंदिर यात्राओं में चाहे जो प्रतीकवाद हो लेकिन कांग्रेस का तरल हिंदुत्व, संघ के समावेशी हिंदुत्व जितना ही ताजा, रोचक और संभावनामय है.

तो क्या भारतीय राजनीति के वैचारिक ध्रुव लोकतंत्र की सर्वसमावेशी अदृश्य शक्ति का संदेश सुन रहे हैं? क्या दोनों ध्रुव यह मान रहे हैं भारत बहुसंख्यक अल्पसंख्यकों का देश है जो भारत के भविष्य की राजनीति को निर्धारित करेंगे.

क्या संघ को यह समझ में आ गया है कि उनके बहुसंख्यकवाद के भीतर जातियों, भाषा, संबंधों, जीवन पद्धति पर आधारित असंख्य अल्पसंख्यक हैं जिन्हें एक पहचान में समेटना राजनैतिक रूप से असंभव है. और क्या कांग्रेस को यह एहसास हो गया है कि उसकी धर्मनिरपेक्षता, बहुसंख्यक भारतीयता की जड़ों से कटी नहीं होनी चाहिए?

कांग्रेस का तरल हिंदुत्व और संघ का समावेशी हिंदुत्व भारत में एक नई राजनीति मुख्यधारा बनाने की कोशिश है जो अतीत की राजनैतिक मुख्यधाराओं से ज्यादा वृहत और व्यापक हो सकती है! 

लेकिन इससे पहले हमें देखना होगा कि जब कट्टरता सिर उठाएगी तब संघ का उदार हिंदुत्व क्या बोलेगा? चुनावों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति बनी रहेगी या कांग्रेस का अल्पसंख्यकवादी मोह फिर सक्रिय होगा?

अभी हमें यह भी देखना है कि भारत में कट्टरता अन्य द्वीप-अंतरीप (अल्पसंख्यक संगठन) इस नए उदारवाद पर अपनी जिदें छोड़ते हैं या नहीं.
हम इस नए उदारवाद को खारिज कर सकते हैं. हम इनमें चुनावी चालाकियां देख सकते हैं. हम संघ और कांग्रेस के अतीत को कुरेद कर इसे नकली साबित कर सकते हैं. हम इन में षड्यंत्र तलाश सकते हैं.

लेकिन क्या ऐसे निष्कर्ष हमें वहीं सीमित नहीं कर देंगे, संघ और कांग्रेस जहां से आगे बढऩे की कोशिश कर रहे हैं! इस नए उदारवाद पर शक करते हुए हम भारतीय लोकतंत्र की उस महाशक्ति को छोटा नहीं कर रहे होंगे जो सदियों से इस वैविध्यपूर्ण राष्ट्र को संभालती-सहेजती आई है!

भारतीय लोकतंत्र में एक नया वैचारिक महामंथन शुरू हो रहा है. नतीजों का इंतजार करना होगा.


Monday, March 21, 2016

नौकरियों के बाजार में आरक्षण


जातीय आरक्षण की समीक्षा पर सरकार का इनकारदरअसलबीजेपी और संघ के बीच सैद्धांतिक असहमतियों का प्रस्थान बिंदु है


सके लिए राजनैतिक पंडित होने की जरूरत नहीं है कि बिहार के चुनाव में बड़े नुक्सान के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जातीय आरक्षण की समीक्षा की बहस क्यों शुरू की ताज्जुब संघ के डिजाइन पर नहीं बल्कि इस बात पर है कि सरकार ने रेत में सिर धंसा दिया और एक जरूरी बहस की गर्दन संसद के भीतर ही मरोड़ दी जबकि कोई हिम्मती सरकार इसे एक मौका बनाकर सकारात्मक बहस की शुरुआत कर सकती थी. संघ का सुझाव उसके व्यापक धार्मिक-सांस्कृतिक एजेंडे से जुड़ता है, जो विवादित है, लेकिन इसके बाद भी हरियाणा के जाट व गुजरात के पाटीदार आंदोलन की आक्रामकता और समृद्ध तबकों को आरक्षण के लाभ की रोशनी में, कोई भी संघ के तर्क से सहमत होगा कि जातीय आरक्षण की समीक्षा पर चर्चा तो शुरू होनी ही चाहिए. खास तौर पर उस वक्त जब देश के पास ताजा आर्थिक जातीय गणना के आंकड़े मौजूद हैं, जिन पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है.
 जातीय आरक्षण में यथास्थिति बनाए रखने के आग्रह हमेशा  ताकतवर रहे हैं, जिनकी वजह से बीजेपी और सरकार को संघ का सुझाव खारिज करना पड़ा. जातीय आरक्षण की समीक्षा पर सरकार का इनकार, दरअसल, बीजेपी और संघ के बीच सैद्धांतिक असहमतियों का प्रस्थान बिंदु है जो संघ के सांस्कृतिक एजेंडे को बीजेपी की राजनीति के रसायन से अलग करता है. आर्थिक व धार्मिक (राम मंदिर) एजेंडे पर ठीक इसी तरह की असहमतियां अटल बिहारी वाजपेयी व संघ के बीच देखी गई थीं.
सरकार भले ही इनकार करे लेकिन आरक्षण की समीक्षा की बहस शुरू हो चुकी है जो जातीय पहचान की नहीं बल्कि रोजगार के बाजार की है. इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करेगा कि आरक्षण ने चुनी हुई संस्थाओं (पंचायत से विधायिका तक) और राजनैतिक पदों पर जातीय प्रतिनिधित्व को सफलतापूर्वक संतुलित किया है और इस आरक्षण को जारी रखने में आपत्ति भी नहीं है. आरक्षण की असली जमीनी जद्दोजहद तो सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी को लेकर है. अगर रोजगारों के बाजार को बढ़ाया जाए तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बेसिर-पैर की दीवानगी को संभाला जा सकता है.
आरक्षण की बहस के इस गैर-राजनैतिक संदर्भ को समझने के लिए रोजगारों के बाजार को समझना जरूरी है. भारत में रोजगार के भरोसेमंद आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं इसलिए आरक्षण जैसी सुविधाओं के ऐतिहासिक लाभ की पड़ताल मुश्किल है. फिर भी जो आंकड़े (वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और आर्थिक समीक्षा 2015-16) मिलते हैं उनके मुताबिक, नौकरीपेशा लोगों की कुल संख्या केवल 4.9 करोड़ है जो 1.28 अरब की आबादी में बेकारी की भयावहता का प्रमाण है. इनमें 94 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में नियोजित हैं, जबकि केवल चार फीसदी लोग संगठित क्षेत्र में हैं जिसमें सरकारी व निजी, दोनों तरह के रोजगार शामिल हैं. ताजा आर्थिक समीक्षा बताती है कि 2012 में संगठित क्षेत्र में कुल 2.95 करोड़ लोग काम कर रहे थे, जिनमें 1.76 करोड़ लोग सरकारी क्षेत्र में थे. 
सरकारी रोजगारों के इस छोटे से आंकड़े में केंद्र व राज्य की नौकरियां शामिल हैं. केंद्र सरकार में रेलवे, सेना और बैंक सबसे बड़े रोजगार हब हैं लेकिन इनमें किसी की नौकरियों की संख्या इतनी भी नहीं है कि वह 10 फीसदी आवेदनों को भी जगह दे सके. केंद्र सरकार की नौकरियों में करीब 60 फीसदी पद ग्रुप सी और करीब 29 फीसदी पद ग्रुप डी के हैं जो सरकारी नौकरियों में सबसे निचले वेतन वर्ग हैं. सरकारी क्षेत्र की शेष नौकरियां राज्यों में हैं और वहां भी नौकरियों का ढांचा लगभग केंद्र सरकार जैसा है.
इस आंकड़े से यह समझना जरूरी है कि आरक्षण का पूरा संघर्ष, दो करोड़ से भी कम नौकरियों के लिए है जिनमें अधिकांश नौकरियां ग्रुप सी व डी की हैं जिनके कारण वर्षों से इतनी राजनीति हो रही है. गौर तलब है कि सरकारों का आकार कम हो रहा है जिसके साथ ही नौकरियां घटती जानी हैं. आर्थिक समीक्षा बताती है कि सरकारी नौकरियों में बढ़ोतरी की गति एक फीसदी से भी कम है, जबकि संगठित निजी क्षेत्र में नौकरियों के बढऩे की रफ्तार 5.6 फीसदी रही है. लेकिन संगठित (सरकारी व निजी) क्षेत्र केवल छह फीसदी रोजगार देता है इसलिए रोजगार बाजार में इस हिस्से की घट-बढ़ कोई बड़ा फर्क पैदा नहीं करती.
सबसे ज्यादा रोजगार असंगठित क्षेत्र में हैं जिसका ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है अलबत्ता इतना जरूर पता है कि असंगठित क्षेत्र जैसे व्यापार व रिटेल, लघु उद्योग, परिवहन, भवन निर्माण, दसियों की तरह की सेवाएं भारत में किसी भी सरकारी तंत्र से ज्यादा रोजगार दे रहे हैं. यह सभी कारोबार भारत के विशाल जीविका तंत्र (लाइवलीहुड नेटवर्क) का हिस्सा हैं जो अपनी ग्रोथ के साथ रोजगार भी पैदा करते हैं.  

नौकरियां बढ़ाने के लिए भारत में विशाल जीविका तंत्र को विस्तृत करना होगा जिसके लिए भारतीय बाजार को और खोलना जरूरी है क्योंकि भारत में नौकरियां या जीविका अंततः निजी क्षेत्र से ही आनी हैं. यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण की बहस को कायदे से शुरू करना चाहता है तो उसे इस तथ्य पर सहमत होना होगा कि भारत में व्यापक निजीकरण, निवेश और विदेशी निवेश की जरूरत है ताकि रोजगार का बाजार बढ़ सके और मुट्ठीभर सरकारी नौकरियों के आरक्षण की सियासत बंद हो सके, जो अंततः उन तबकों को ही मिलती हैं जो कतार में आगे खड़े हैं.