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Sunday, December 24, 2017

हार की जीत

लोकतंत्र में परम प्रतापी मतदाता ऐसा भी जनादेश दे सकते हैं जो हारने वाले को खुश कर दे और जीतने वाले को डरा दे! गुजरात के लोग हमारी राजनै‍तिक समझ से कहीं ज्यादा समझदार निकले. सरकार से नाराज लोगों ने ठीक वैसे ही वोट दिया है जैसे किसी विपक्ष विहीन राज्य में दिया जाता है. गुजरात के मतदाताओं ने भाजपा को झिंझोड़ दिया है और कांग्रेस को गर्त से निकाल कर मैदान में खड़ा कर दिया है.

गुजरात ने हमें बताया है कि

- सत्ता विरोधी उबाल केवल गैर-भाजपा सरकारों तक सीमित नहीं है.
- लोकतंत्र में कोई अपराजेय नहीं है. दिग्गज अपने गढ़ों में भी लडख़ड़ा सकते हैं.
- भावनाओं के उबाल पर, रोजी, कमाई की आर्थिक चिंताएं भारी पड़ सकती हैं.
- लोग विपक्ष मुक्त राजनीति के पक्ष में हरगिज नहीं हैं.

2019 की तरफ बढ़ते हुए भारत का बदला हुआ सियासी परिदृश्य सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए रोमांचक होने वाला है. गुजरात ने हमें भारतीय राजनीति में नए बदलावों से मुखातिब किया है.

अतीत बनाम भविष्य
जातीय व धार्मिक पहचानें और उनकी राजनीति कहीं जाने वाली नहीं है लेकिन भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक राज्य गुजरात दिखाता है कि सामाजिक-आर्थिक वर्गों में नया विभाजन आकार ले रहा हैमुख्यतः भविष्योन्मुख और अतीतोन्मुख वर्ग. इसे उम्मीदों और संतोष की प्रतिस्पर्धा भी कह सकते हैं. इसमें एक तरफ युवा हैं और दूसरी तरफ प्रौढ़. 2014 में दोनों ने मिलकर कांग्रेस को हराया था.
गुजरात में प्रौढ़ महानगरीय मध्य वर्ग ने भाजपा को चुना है. आर्थिक रूप से कमोबेश सुरक्षित प्रौढ़ मध्य वर्ग सांस्कृतिक, धार्मिक, भावनात्मक पहचान वाली भाजपा की राजनीति से संतुष्ट है लेकिन अपने आर्थिक भविष्य (रोजगार) को लेकर सशंकित युवा भाजपा के अर्थशास्त्र से असहज हो रहे हैं.
लगभग इसी तरह का बंटवारा ग्रामीण व नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में है. ग्रामीण भारत में पिछले तीन साल के दौरान आर्थिक भविष्य को लेकर असुरक्षा बुरी तरह बढ़ी है. दूसरी ओर, नगरीय आर्थिक तंत्र अपनी  एकजुटता से नीतियों को बदलने में कामयाब रहा है. गुजरात बचाने के लिए जीएसटी की कुर्बानी इसका उदाहरण है. लेकिन किसान अपनी फसल की कीमत देने के लिए सरकार को उस तरह नहीं झुका सके. अपेक्षाओं का यह अंतरविरोध भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती होने वाला है.

बीस सरकारों की जवाबदेही
भाजपा भारत के 75 फीसदी भूगोल, 68 फीसदी आबादी और 54 फीसदी अर्थव्यवस्था पर राज कर रही है. पिछले 25 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पिछले तीन साल में जिस तरह की चुनावी राजनी‍ति गढ़ी है, उसमें भाजपा के हर अभियान के केंद्र में सिर्फ मोदी रहे हैं. 2019 में उन्हें केंद्र के साथ 19 राज्य सरकारों के कामकाज पर भी जवाब देने होंगे.
क्या भाजपा की राज्य सरकारें मोदी की सबसे कमजोर कड़ी हैं? पिछले तीन साल में मोदी के ज्या‍दातर मिशन जमीन पर बड़ा असर नहीं दिखा सके तो इसके लिए उनकी राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं. गुजरात इसकी बानगी है, जहां प्रधानमंत्री मोदी के मिशन विधानसभा चुनाव में भाजपा के झंडाबरदार नहीं थे. '19 की लड़ाई से पहले इन 19 सरकारों को बड़े करिश्मे कर दिखाने होंगे. गुजरात ने बताया है कि लोग माफ नहीं करते बल्कि बेहद कठोर इम्तिहान लेते हैं.

भाजपा जैसा विपक्ष
वोटर का इंसाफ लासानी है. अगर सत्ता से सवाल पूछता, लोगों की बात सुनता और गंभीरता से सड़क पर लड़ता विपक्ष दिखे तो लोग मोदी के गुजरात में भी राहुल गांधी के पीछे खड़े हो सकते हैं. वे राहुल जो उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कहीं कुछ भी नहीं कर सके, उन्हें मोदी-शाह के गढ़ में लोगों ने सिर आंखों पर बिठा लिया. भाजपा जैसा प्रभावी, प्रखर और निर्णायक प्रतिपक्ष देश को कभी नहीं मिला. विपक्ष को बस वही करना होगा जो भाजपा विपक्ष में रहते हुए करती थी. गुजरात ने बताया है कि लोग यह भली प्रकार समझते हैं कि अच्छी सरकारें सौभाग्य हैं लेकिन ताकतवर विपक्ष हजार नियामत है.
चुनाव के संदर्भ में डेविड-गोलिएथ के मिथक को याद रखना जरूरी है. लोकतंत्र में शक्ति के संचय के साथ सत्तास्वाभाविक रूप से गोलिएथ (बलवान) होती जाती है. वह वैसी ही भूलें भी करती है जो महाकाय गोलिएथ ने की थीं. लोकतंत्र हमेशा डेविड को ताकत देता है ताकि संतुलन बना रह सके.
गुजरात ने गोलिएथ को उसकी सीमाएं दिखा दी हैं और डेविड को उसकी संभावनाएं.
मुकाबला तो अब शुरू हुआ है. 


Sunday, December 10, 2017

इसलिए खास है गुजरात, इस बार


Image- The mint 2015

हार्दिक पटेल की चमत्‍कारिक लोक‍प्रियताराहुल गांधी की तुर्शीभाजपा के राज्‍य नेतृत्‍व के फीकेपन और जीएसटी की मार के बावजूद कोई समझदार राजनीतिक प्रेक्षक गुजरात में भाजपा को कमजोर आंकने की गलती नहीं कर सकता.

फिर भी इस बार गुजरात खास क्‍यों है  ऐसा क्‍या है जो गुजरात की जंग इतनी कंटीली हो गई है. ?

यह पिछले तीन साल का कमाल है जिसने गुजरात के चुनाव को भारत में पिछले पच्‍चीस सालों का सबसे रहस्‍यमय चुनाव बना दिया है  यह चुनाव तीन ऐसे सवालों के जवाब लेकर आएगा जिनसे भारतीय राजनीति पहली बार मुकाबिल है

पहला - क्‍या गहरी आर्थिक मंदी का चुनावी राजनीति से क्‍या रिश्‍ता है 

दो - क्‍या तरक्‍की के बावजूद असमानतायें बढ़ती रह सकती हैं और उनके चुनावी फलित भी हो सकते हैं

तीसरा - क्‍या खौलते जनआंदोलनों के बावजूद लोगों के चुनावी फैसले अपरिवर्तित रह सकते हैं

बीते तीन साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्‍य में जो कुछ हुआ है वह भी शेष भारत से पूरी तरह फर्क है. ठीक उसी तरह जैसे कि पिछले दो दशक में गुजरात देश से अलग चमकता रहा था. यह उठा पटक नरेंद्र मोदी के गांधीनगर से दिल्‍ली जाने के बाद हुई. राजनीतिक आबो हवा में इस बदलाव की जड़ें राज्‍य की अर्थव्‍यवस्‍था में हैं.

गुजरात में माहौल बदलने की पहली सरकारी मुनादी जुलाई 2016 में हुई थी जब देश को पता चला कि 2014-15 के दौरान गुजरात गुजरात भारत में सबसे तेज विकास दर वाले पांच राज्यों से बाहर निकल गया है वह अब दसवें नंबर पर था और गहरी मंदी में धंस गया था. यह आंकड़ा जिस वित्‍तीय साल की तस्‍वीर बता रहा था वह नरेंद्र मोदी के बाद गुजरात का पहला वर्ष था.

इस वक्‍त तक पाटीदार आंदोलन पहला साल पूरा कर चुका था. आरक्षण की मांग कर रहे बेरोजगार युवाओं का आंदोलन भाजपा को राज्‍य का मुखिया बदलने पर मजबूर करने वाला था और 2017 में गुजरात को भाजपा के लिए सबसे करीबी लड़ाई बना देने वाला था जिसे वह चुटकियों में जीतती आई थी

मंदीबेकार और पाटीदार
गुजरात अगर कोई देश होता तो उसकी मंदी दुनिया में चर्चा का विषय होती. पिछले दो दशकों में गुजरात की ग्रोथ जितनी तेज रही है ढलान उससे कहीं ज्‍यादा तेज है. औद्योगिक बुनियादतटीय भूगोल और निजी पूंजी के कारण गुजरात औद्योगिक ग्रोथ का करिश्‍मा रहा है. भारत में सिर्फ छह फीसदी जमीन और पांच फीसदी जनसंख्‍या वाला गुजरात पूरे देश से तेज (दस फीसदी तक) दौड़ा. गुजरात ने देश के जीडीपी में 7.6 फीसदी व निर्यात में 22 फीसदी हिस्‍सा ले लिया. (रिजर्व बैंक और नीति आयोग के आर्थिक आंकड़ों की हैंडबुक में गुजरात के ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट- जीएसडीपी के वित्त वर्ष 2013-14 के बाद के आंकडे उपलब्‍ध नहीं हैं.)

लेकिन मैन्‍युफैक्‍चरिंग पर आधारित अर्थव्‍यवस्‍थायें मंदी में (सेवा या कृषि वाली अर्थव्‍यवस्‍थाओं के मुकाबले) ज्‍यादा तेजी से टूटती हैं इस‍लिए गुजरात में मंदी व बेकारी शेष भारत से कहीं ज्‍यादा गहरी है. यह ढलान 2013 से शुरु हुई. पाटीदार युवा आंदोलन और गुजरात में मंदी की शुरुआत समकालीन हैं. मंदी से कराहता गुजरात का कारोबार नोटबंदी और जीएसटी की चोट से  बिलबिला उठा और चुनावी नुकसान के डर से भाजपा को पूरा जीएसटी सर के बल खड़ा करना पड़ा. 

करिश्‍मे का असमंजस
मोदी के गुजरात का करिश्‍मा उसकी खेती के पुर्नजागरण में छिपा है. 2001 से 2011-12 तक गुजरात का कृषि उत्‍पादन देश की तुलना ( 3 फीसदी के मुकाबले 11 फीसदी) में अप्रत्‍याशित रुप से तेज था. खेतिहर ग्रोथ के बावजूद ग्रामीण गुजरात में सामाजिक सुविधायें पिछड़ी रही जो गवर्नेंस की पिछले दो दशक सबसे बड़ी उलझन है. 2013 से ही खेती भी मुश्किल में है जिसकी वजह मौसम (सूखा-बाढ़) भी है बाजार भी. शहर उद्योगसेवाओं और सरकारी नौकरी के कारण किसी तरह चल रहे हैंलेकिन मंदी ने गांवों के लिए मौके खत्‍म कर दिये हैं इसलिए ग्रामीण गुजरात का गुस्‍सा इस चुनाव में भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल है

आंदोलनों की हुंकार
गुजरात देश से कितना से अलग है पिछले तीन साल इसके गवाह हैं जब शेष भारत केंद्र की नई सरकार के नेतृत्‍व में अच्‍छे दिनों पर चर्चा कर रहा था तब गुजरात आंदोलनों से सुलग रहा था. इस राज्‍य ने जितने आंदोलन पिछले तीन साल में देखे हैं उतने हाल के वर्षों में नहीं हुए. ज्‍यादातर आंदोलन युवाओकिसान, कामगारों और व्‍यापारियों के थे  जो मंदी से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.

गुजरात अपने छोटे से भूगोल में आार्थिकसामाजिक और राजनीतिक कारकों की पेचीदगी समेटे है इसलिए  गुजरात का चुनाव पिछले दो दशक का सबसे रोमांचक चुनाव हो गया है.

गुजरात के नतीजे पहली बार हमें स्‍पष्‍ट रुप से बतायेंगे कि मंदी और बेकारी के बीच लोग कैसे वोट देते हैं लिखना जरुरी नहीं है कि यह निष्‍कर्ष भारत के भविष्‍य की आर्थिक राजनीति के लिए बहुत कीमती होने वाले हैं.