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Sunday, November 4, 2018

कायम रहे बीमारी !



कागज देखना कुछ नहींटेलीफोन आयालोन दे दो. लोन चुकाने का समय आया तो नया लोन दे दो. जो गया सो गयाजमा करने के लिए नया लोन दे दो. यही कुचक्र चलता गया और भारत के बैंक एनपीए के जंजाल में फंस गए!

यह थे प्रधानमंत्रीदो माह पहले लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान! वे बता रहे थे कि यूपीए के दौर में किस तरह बैंकों को लूटा गया था. नेतासरकारबिचैलिए मिलकर बकाया कर्ज की देनदारी टाल (रिस्ट्रक्चर कर) देते थे. सरकार बदली तो यह लूट खुली. सक्चती की जा रही है. अब किसी को माफ नहीं किया जाएगा.

साठ दिन भी नहीं बीते कि अब सरकार रिजर्व बैंक पर ही आंखें तरेर रही है कि बकाया कर्ज को लेकर बैंकों पर कुछ ज्यादा ही सख्ती हो गई. कर्ज की किल्लत हो रही है. कर्जदारों को रियायत मिलनी चाहिए. बिजली कंपनियों के बकाया कर्ज की वसूली टाली जानी चाहिए.

इस दिल बदल का सबब क्या है?

चुनाव की धमक के साथ पारदर्शिता के संकल्पों की शवयात्रा प्रारंभ हो गई है.

छह माह पहले बैंकों के स्वच्छता अभियान की कसम खा रही सरकार ने जमा बकाया कर्ज के कीचड़ को ढकने के लिए रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर पंजे गड़ा दिए हैं. बैंकिंग सुधारों के सारे दावे और वादे सिर के बल खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं.

2015 में इस सरकार के वही मंत्रीजो आज नियामकों को संविधान पढ़ा रहे हैंकह रहे थे कि अगर मोदी सरकार न आई होती तो देश को पता ही नहीं चलता कि किस तरह कर्ज पर कर्ज दिए गए. सरकार को फख्र था कि उसने रिजर्व बैंक को एनपीए (बकाया कर्ज) पहचानने का फॉर्मूला बदलने को कहा ताकि सच सामने आ सके.

रिजर्व बैंक ने फॉर्मूला बदलकर बकाया कर्ज से जूझते बैंकों को एक नई व्यवस्था के तहत रखा जिसे प्रॉम्प्ट करेक्टिव ऐक्शन (पीसीए) कहते हैं. इसके तहत रखे गए 11 सरकारी बैकों को ब्रांच नेटवर्क बढ़ानेकर्ज वितरण सीमित करनेलाभांश बांटने पर रोक लगाई गई. उन्हें अपने मुनाफों का बड़ा हिस्सा बकाया कर्ज के बदले पूंजी बनाने में लगाना पड़ रहा है. उनका मुनाफा गिर रहा है. रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि अपने मालिक या सरकार से पूंजी लेकर आएं नहीं तो उनके डूबने का खतरा है.

अचरज देखिए कि पीसीए पिछले एक साल से अमल में है. अभी कल तक सरकार इस सख्ती पर फूल कर गुब्बारा हो रही थी. उसे लगता था कि बैंकों को बचाने के लिए यह जरूरी है. जून मेंइसी पीसीए के तहत सरकारी बैंकों ने अपनी पुनरोद्धार योजना सरकार को सौंपी थी लेकिन अब सरकार के अधिकारी यह कहते सुने जा रहे हैं कि रिजर्व बैंक ने पीसीए बनाने में वित्त मंत्रालय से राय नहीं ली.

यही सरकार है जो संसद में मेज ठोक कर कह रही थी कि बैंकों के कर्जदारों को बचाने की यूपीए की नीति अब खत्म हो चुकी है. लेकिन अब उसे लगता है कि निजी बिजली कंपनियों को इससे बाहर रखा जाए. बैंक उन्हें बकाया कर्ज में रियायत दें.

दरअसलचुनावी झोंक में ईमानदारी के हलफनामों और सुधारों के कौल की चिंदिया उड़ रही हैं. बकाया कर्ज को लेकर रिजर्व बैंक की सख्ती अचानक सरकार को इसलिए खलने लगी है क्योंकि उसे अब बैंकों से सस्ते कर्ज बंटवाने यानी लोकलुभावन इस्तेमाल की जरूरत है. सरकार तो यह भी चाहती है कि रिजर्व बैंक को मुश्किल में फंसी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को भी पूंजी देनी चाहिए. लेकिन कोई भी नियामक कैसे सहमत होगा कि सुधारों की इबारत चुनाव देखकर बदल दी जानी चाहिए. अगर चुनाव है तो बैंकों को बकाया कर्ज के भंवर से निकालने के लिए सख्ती क्यों रुकनी चाहिएएनपीए के नियम सबके लिए एक जैसे होने चाहिए! कारोबारी गलतियों के लिए जमाकर्ताओं के पैसे से खैरात बांटना कैसे नैतिक है! 

दरअसलभारत में सिर्फ एक जमात ऐसी है जो सब कुछ केवल चुनाव को देखकर करती है. और शायद कोई काम या कारोबार सिर्फ पांच साल की एक्सपायरी डेट के साथ शुरू नहीं होता. राजनैतिक दल अपने चुनावी वादों से चाहे जो कॉमेडी कराएंलेकिन जब वे नीतियों को सिर के बल खड़ा करने लगते हैं तो स्वतंत्र नियामकों का यह दायित्व है कि वे सरकार को आईना दिखाएं. रिजर्व बैंक को धमका रही सरकार क्या समझ पा रही है कि लोकतंत्र में चुने प्रतिनिधि इसलिए सर्वोच्च हैं क्योंकि वे संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता की हिफाजत करने के लिए भेजे जाते हैंउन्हें डराने के लिए नहीं.

Sunday, September 30, 2018

कर्ज पर कर्ज


क्या सरकारी बैंक ही बदकिस्मत हैं क्या वे ही  कर्ज के ढेर में दबे हैं ? तो फिर इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर लीजिंग एंड फाइनेंस लिमिटेड (आइएलऐंडएफएस) को क्या हुआ?

कर्ज का मर्ज और खतरनाक होकर गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) तक फैल गया है. इन्हें तो बैंकों की तरह डिपॉजिट जुटाने की छूट भी नहीं है. ये तो उधार लेकर उधार देने के धंधे में हैं.

भारत की अर्थव्यवस्था कुछ जरूरी सुधारों की अनदेखी करने की बड़ी कीमत चुकाने की तरफ बढ़ रही है.

आइएलऐंडएफएससरकारी-निजी भागीदारी में बुनियादी ढांचा विकास की अगुआ कही जाती है जिसने सरकारी राजमार्गों समेत 1.8 लाख करोड़ रु. के प्रोजेक्ट्स को कर्ज दिया है. इसी अगस्त तक रेटिंग एजेंसियां और बाजार इस पर आंख मूंद कर भरोसा कर रहे थे लेकिन एक माह बाद वह कर्ज चुकाने में नाकाम पाई गई.

कंपनी करीब 91,000 करोड़ रु. के कर्ज में दबी है और ब्याज देने में चूक रही है. प्रोजेक्ट से रिटर्न नहीं आ रहा है. बीते सप्ताह जब कंपनी सरकारी बैंक सिडबी का 1,000 करोड़ रु. का कर्ज नहीं चुका सकी तो अफरा-तफरी मच गई. अगले छह माह में इसे 3,600 करोड़ रु. कर्ज चुकाने हैं. आइएलऐंडएफएस 169 शाखा कंपनियों और संयुक्त उपक्रमों वाला वित्तीय समूह हैसरकारी बीमा कंपनी एलआइसी और स्टेट बैंक जिसमें सबसे बड़े हिस्सेदार हैं.

यह आशंका पहले दिन से ही थी कि अगर एक मंदी लंबी खिंच गई तो गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का कारोबारी मॉडल घुटनों पर आ जाएगा. गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां बैंकों से कर्ज लेती हैं या कॉमर्शियल पेपर (औसतन एक साल की अवधि) के जरिए बाजार से कर्ज उठाती हैं. आखिर कर्ज लेकर कर्ज देने का मॉडल कैसे चलता?

इक्रा और बीसीजी (बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप) की ताजा रिपोर्ट बताती है कि हमारे नियामक और सरकार कैसी खुशफहमियों में जी रहे हैः
  • ·      2014 से 2017 के बीच कुल कर्ज में बैंकों का हिस्सा 49 फीसदी से घटकर 28 फीसदी पर आ गया जबकि एनबीएफसी का हिस्सा 21 फीसदी से बढ़कर 44 फीसदी हो गया. यानी बैंकों से कर्ज लेकर इन्होंने बैंकों से ज्यादा कर्ज बांट दिए.
  • ·       इस साल मार्च के अंत तक इन कंपनियों ने करीब 7.5 खरब रु. का खुदरा कर्ज बांटा था. इनके कर्ज में अनसिक्योर्ड (गैर-जमानती) कर्ज (माइक्रोफाइनेंसछोटे निजी लोन जैसे मोबाइल) सबसे तेजी से (40 से 53 फीसदी) से बढ़ रहे हैं. जानना जरूरी है कि अनसिक्योर्ड कर्ज सबसे ज्यादा जोखिम भरे होते हैं.
  • ·   एनबीएफसी अपने 40 फीसदी संसाधन बैंकों के कर्ज से और 38 फीसदी बाजार से डिबेंचर के जरिए जुटाती है. इन पर बकाया बैंक कर्ज 27 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है. इस साल मार्च में यह एक लाख करोड़ रु. था. अगले छह माह में एनबीएफसी के 60 फीसदी डिबेंचर वसूली के लिए तैयार हैं. दूसरी तरफब्याज दर बढऩे लगी है.
  • ·       एनबीएफसी के कुल फंसा हुआ कर्ज उनके कुल कर्ज के अनुपात में 5.8 फीसद है और बैंकों के 11.8 फीसदी. यानी कि पूरा वित्तीय सिस्टम कर्ज के टाइम बम पर बैठा है.

·       बैंकों के बाद एनबीएफसी के लडख़ड़ाने के तीन बड़े असर होने वाले हैः
  • बैंकों के कर्ज वैसे भी ठप हैं, ऑटोमोबाइल (सबसे ज्यादा ट्रैक्टर)उपभोक्ता उत्पादोंछोटे उद्योगों को कर्ज की आपूर्ति और सीमित हो जाएगीजिसका असर मांग पर नजर आएगा.
  • · एनबीएफसी की मुसीबतों ने कर्ज के बाजार को तोड़ दिया है. निवेशकों ने बड़े पैमाने पर बिकवाली की है. अगर डिफॉल्ट बढ़ते हैं तो सबसे बड़ा असर म्युचुअल फंड पर होगा जो इन कंपनियों के कर्ज इश्यू में भारी निवेश करते हैं. छोटे निवेशक मार खाएंगे. शेयर बाजार टूटने से उनके हाथ पहले ही जल रहे हैं.

कौन कहता है कि भारत में चीन की तरह शैडो बैंकिंग नहीं है. कर्ज लेकर कर्ज देने का काम तब खूब चला जब तक मंदी नहीं थी. बस एक मंदी आई तो कर्ज संकट के पलीते सुलग उठे हैं. महान सुधारों के दावेदारों को बताना चाहिए कि पिछले चार साल में उन्होंने वित्तीय तंत्र में कौन से सुधार किए. बैंकों की बीमारी तो दूर हुई नहींगैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी संकट के घाट पहुंचने लगी हैं. 

बैंकों को तो सरकार बचा लेगी लेकिन इन कंपनियों की मदद कौन करेगाइनके डूबने से क्या बैंक और शेयर बाजार नहीं डूबेंगेबैंकों से लेकर एनबीएफसी तक हर जगह आम लोगों की बचत ही दांव पर है.

यूरोप-अमेरिका के कर्ज संकट से तुलना डरावनी हो सकती है लेकिन हमने लीमैन संकट से कुछ नहीं सीखा. आर्थिक विपदाएं आम लोगों को ही मारती हैंनेताओं की तो हमेशा पौ-बारह है.