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Sunday, March 19, 2023

भव‍िष्‍य की वापसी


 

क्‍या आपको 1980 की प्रस‍िद्ध विज्ञान फंतासी फिल्‍म बैक टु द फ्युचर याद है. रॉबर्ट जेम‍िक्‍स के न‍िर्देशन वाली यह फिल्‍म  कैलीफोर्नि‍या के कस्‍बाई क‍िशोर मार्टी मैकफ्लाई की कहानी है, जि‍सका  वैज्ञाानिक दोस्‍त डॉक्‍टर ब्राउन गलती से एक डेलॉरयेन कार को टाइम मशीन में बदल देता है. इसमें बैठकर मार्टी 50 साल पहले के युग में चला जाता है जहां उसे अपने युवा मां बाप मिलते हैं

यदि आपको यह फिल्‍म याद है तो याद होगा मिस्‍टर फ्यूजन भी. एक छोटा सा न्‍यूक्‍लि‍यर एनर्जी रिएक्‍टर, पुराने जमाने के लालटेन और आज के इमर्जेंसी लाइट जैसा एक उपकरण जिसकी मदद से मार्टी की डे लॉरेयन कार को 1.21 गीगावाट की ऊर्जा की ताकत मिलती है और यह कार समय और स्‍थान से परे पचास साल पीछे चली जाती है. डॉ ब्राउन के इस  न्‍यूक्‍ल‍ियर रिएक्‍टर में प्‍लूटोनियम का नहीं बल्‍क‍ि घरेलू कचरे का इस्‍तेमाल होता है.

वह अस्‍सी के दशक का मध्‍य था एक तरफ लोग इस फ‍िल्‍म से  न्‍यूक्‍लियर फ्यूजन तकनीक का फंतासी कर‍िश्‍मा देख रहे थे तो दूसरी तरफ 1985 में अमेरिका और रुस मिलकर न्‍यूक्‍ल‍ियर  फ्यूजन के परीक्षण की तैयारी कर रहे थे. तब से लंबा वक्‍त बीत गया. वैज्ञानिकों ने प्रयोग पर प्रयोग कर डाले लेक‍िन न्‍यूक्‍ल‍ियर  फ्यूजन की कामयाबी मिलने में 20 वीं और 21 वीं सदी के करीब तीन दशक बीत गए.

 

2022 का साल बीतते बीतते विज्ञान के एक बड़े सपने के सच होने की उम्‍मीद को जगा गया. कैलफोर्न‍िया फेडरल लॉरेंस ल‍िवरमोर लैबरोटरी ने हाइड्रोजन प्‍लाजा और लेजर की मदद से फ्यूजन तकनीक से ऊजा प्राप्‍त करने का सफल परीक्षण कर लिया. विज्ञान की दुनिया इस सफलता से झूम उठी. न्‍यूक्‍ल‍ियर ऊर्जा  मौजूदा तकनीक फ‍िजन पर आधार‍ित है जिसे रेड‍ियोधीर्मी तत्‍वों का इस्‍तेमाल होता है न्‍यूक्‍ल‍ियर फ्यूजन की दीवानगी इसलिए है क्‍यों कि इसके जरिये हाइड्रोजन हीलियम जैसे तत्‍वों के साथ फ‍िजन की तुलना में कई गुना ज्‍यादा ऊर्जा प्राप्‍त की जा सकती है. इससे न तो रेडियोएक्‍ट‍िवटी का डर है और न कार्बन उत्‍सर्जन का. पर्यावरण के सुरक्ष‍ित ऊर्जा को लेकर बदहवास दुनिया के यह खोज किसी वैक्‍सीन से कम नहीं है. 

 

आप कहेंगे कि इकोनॉमिकम में हम न्‍यूक्‍ल‍ियर तकनीक का यह आल्‍हा पंवारा क्‍यों ले आए लेक‍िन दरअसल यह युगबदल खोज ऊर्जा बाजार में एक नई करवट की अगवानी का गीत जैसा है.

रुस के राष्‍ट्रपति की युद्ध लिप्‍सा से ऊर्जा बाजार में जो बडे बदलाव कर रही है उसका एक और नया पन्‍ना जापान में खुल रहा है  

 

लौटने लगी हिम्‍मत

वाकया इस साल सितंबर का है. सुर्ख‍ियों में रुस और यूक्रेन का युद्ध था इस बीच जापान के प्रधानमंत्री फुइमो कशिदा ने चौंका दिया. उन्‍होंने ऐलान किया कि जापान नाभिकीय या परमाणु ऊर्जा में फ‍िर से निवेश करेगा. परमाणु संयत्र शुरु किये जाएंगे नए परमाणु रिएक्‍टर भी लगाये जाएंगे. यह घोषणा होने तक दुनिया में तेल की कीमतें खौल रही थीं. कोयले के भाव तपने लगे थे. ऊर्जा की आपूर्ति के लिए रुस पर निर्भर जापान की इस करवट से ऊर्जा की दुनिया में उलट फेर शुरु हो गया.

बात सिर्फ यही नहीं थी कि जापान की सरकार नाभ‍िकीय ऊर्जा की तरफ लौट रही थी बल्‍क‍ि एनएचके सर्वेक्षण के अनुसार जापान के करीब 48 फीसदी लोग नाभ‍िकीय ऊर्जा के पक्ष में थे. यह घोषणा होते ही यूरेन‍ियम बाजार के तेजड़‍िये अपने अपने टर्मिनल के आगे आ जमे.

नाभ‍िकीय ईंधन के बाद बाजार में मंदी का मौसम हवा हो गया. सितंबर में यूर‍ेन‍ियम की कीमत ने ऊंची उडान भरी. जनवरी 2021 में इसकी कीमत 30 डॉलर प्रत‍ि पौंड थी जो इस साल 64 डॉलर तक दौड़ गई. तब से यूरेन‍ियम 50 डॉलर के आसपास है. क्‍यों कि जापान ही नहीं बल्‍क‍ि यूरोप के मुल्‍क भी न्‍यूक्‍ल‍ियर ऊर्जा की तरफ लौटने वाले हैं

 

हम भी इन तैयार‍ियों की चर्चा पर लौटेंगे लेक‍िन पहले कुछ पीछे चलते हैं और समझते हैं कि नाभ‍िकी ऊर्जा की करवट में जापान की हृदय परिवर्तन इतना महत्‍वपूर्ण क्‍यों है

 

सेंडाई का साया

सेंडाई 2011 - ह दूसरी सुनामी थी जो सेंडाई में जमीन डोलने और पगलाये समुद्र की प्रलय लीला के ठीक सात दिन बाद उठी थी. फुकुश‍िमा के नाभिकीय बिजली संयत्र में आग लग गई. जलते संयंत्र पर हेलीकॉप्‍टर से पानी गिराने के दृश्‍य दुनिया को दहलाने लगे. फटी हुई धरती ( भूगर्भीय दरारें), ज्वालामुखियों की कॉलोनी और भूकंपों की प्रयोगशाला वाले जापान में तब तक  55 न्यूक्लियर रिएक्टर थे यानी जोखिम के बावजूद तेल व गैस पर निर्भरता सीमित रखने और ऊर्जा की लागत घटाने के लिए जापान ने नाभिकीय ऊर्जा पर दांव लगाया था

फुकुश‍िमा के धमाके साथ न्‍यूक्‍ल‍ियर ऊर्जा से दुनिया का विश्‍वास भी हिल गया. लगभग पूरे विश्‍व में परमाणु ऊर्जा की योजनायें फाइलों में बंद हो गईं. पुराने संयंत्रों में उत्‍पादन सीमित कर दिया गया. 1986 में रुस के चेर्नोब‍ेल हादसे के बाद

यूरेन‍ियम का बाजार करीब दस साल लंबी मंदी में चला गया. पूरी दुनिया में ऊर्जा की ले दे मची थी लेक‍िन फुकुश‍िमा के खौफ से सहमी दुनिया ने नाभ‍िकीय ऊर्जा से तौबा कर ली. सनद रहे कि इस हादसे से पहले भारत ने अमेरिका के साथ न्‍यूक्‍ल‍ियर समझौते के साथ बड़ी कूटनीतिक जीत हासिल की थी. मगर 2011 के बाद इस बाजार में अचानक सब कुछ  बदल गया था

 

सेंडाई के हादसे का साया इतना लंबा था कि दुनिया की ऊर्जा में न्‍यूक्‍ल‍ियर बिजली का हिस्‍सा कम होने लगा. वल्‍ड न्‍यूक्‍ल‍ियर एनर्जी स्‍टेटस रिपोर्ट 2022 बताती है कि 2021 में विश्‍व ऊर्जा उत्‍पादन ने नाभि‍कीय ऊर्जा हिस्‍सा चार दशकों पहली बार दस फीसदी से नीचे आ गया. 1996 में यह करीब 18 फीसदी की ऊंचाई पर था.

 

 

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के आंकड़ो में गोता लगाने पर पता चलता है कि दुनिया के करीब 449 सक्रिय रिएक्‍टर या बिजल घरों ने 2018 में अपनी अध‍िकतम क्षमता छू ली थी जो 397 गीगावाट थी इसके बाद न क्षमता बढी और न रिएक्‍टर. 2010 के बाद अगले तीन साल में 23 रिएक्‍टर में उत्‍पादन बंद हो गया. 2022 के मध्‍य तक बिजली बना रहे रिएक्‍टर की संख्‍या घटकर 411 रह गई थी. 2018 के बाद चीन को छोड़ कर ज्‍यादातर विश्‍व में रिएक्‍टर बंद होने की संख्‍या बढती गई है.

 

 

सेंडाई की दुर्घटना का असर इतना गहरा था कि दुनिया में क्रमश: न्‍यूक्‍ल‍ियर पॉवर प्रोग्राम धीमे पड़ने लगे. न्‍यूक्‍ल‍ियर स्‍टेटस रिपोर्ट बताती है कि 2021 में 33 देशों नाभिकीय ऊर्जा प्रोग्राम थे जिनमें तीन बंद हो चुके हैं. 8 को सीम‍ित कर दिय गया. 10 पर काम रोक दिया गया. केवल 15 कार्यक्रम सक्रिय हैं. नाभिकीय ऊर्जा से किनारा करने के कारण पुराने रिएक्‍टरों का आधुनिकीकरण भी नहीं हुआ और न नई तकनीकों का इस्‍तेमाल किया गया. 

 

नाभ‍िकीय ऊर्जा से इस मोहभंग के बीच केवल चीन सक्रिय ऊर्जा कार्यक्रपर आएगे बढता रहा. 2021 में दुनिया नाभिकीय ऊर्जा का उत्‍पादन 3.9 फीसदी बढा लेक‍िन चीन 11.1 फीसदी. चीन से बाहर नाभिकीय ऊर्जा के उत्‍पादन में बढ़त केवल 2.8 फीसदी थी.

 

अगर युद्ध न होता ..

सितंबर 2022 से अचानक दुनिया में ना‍भि‍कीय ऊर्जा को लेकर होड़ जैसी शुरु हो गई. कोयला, गैस और पेट्रोल की महंगाई से बचने के लिए ही तो इस ऊर्जा का आव‍िष्‍कार हुआ था अलबत्‍ता हादसों और खतरों के कारण इसेस किनारा करना पड़ा. करीब 55 रिएकक्‍टर के सथ  ऊर्जा की बड़ी ताकत रहे जापान ने नए रिएक्‍टर लगाने का एलान किया तो यूरेनियम ऊर्जा की उभरती ताकत चीन ने अगले 15 साल में 150 नए रिएक्‍टर बनाने का एलान कर दिया.

नाभि‍कीय ऊर्जा की नई होड शुरु होने से पहले निमाणाधीान रिएक्‍टर में चीन पहले नंबर पर था.

 

 

 

 

गैस की महंगाई से तप रहे यूरोप ने भी अब नाभिकीय ऊर्जा की वापसी का खाका बनाना शुरु कर दिया है. फ्रांस अपने सभी रिएक्‍टर दोबारा शुरु करने वाला है. जर्मनी जिसने 2011 के बाद नाभिकीय ऊर्जा का उत्‍पादन पूरी तरह बंद करने का निर्णय लिया था वह भी प्रत‍िबंध हटाकर नए सिरे यह सस्‍ती ऊर्जा बनाने के संकेत दे रहा है.

सत्‍ता से बाहर से होने से पहले ब्रिटेन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसान ने न्‍यूक्‍ल‍ियर ऊर्जा की फाइल फिर खोल दी थी. पिछली सरकारों को इस ऊर्जा कार्यक्रम को विकालांग बना देने का आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री जॉनसन से साइजवेल 810 मिलियन डॉलर सरकारी निवेश का वादा भी किया था.

अमेरिका की रुस वाली ऊर्जा

नाभ‍िकीय ऊर्जा का ताजा होड में अमेरिका का मामला गजब का दिलचस्‍प है. अमेरिका अपने ऊर्जा कार्यक्रम के तहत कार्बन उत्‍सर्जन रोकने के लिए नाभिकीय ऊर्जा का उत्‍पादन दोगुना करने की योजना पर काम कर रहा है. रुस यूक्रेन युद्ध के कारण इस कार्यक्रम को बड़ा झटका लगा है.

अमेरिका के रिएक्‍टर जिस यूरेनियम का इस्‍तेमाल करते हैं वह दुनिया में केवल एक कंपनी बेचती है और वह रुस की सरकारी कंपनी रोसाटोप यानी रश‍ियन स्‍टेट अटॉमिक एनर्जी कार्पोरेशन. हैरत होगी जानकर कि इस कंपनी पर प्रतिबंध नहीं लगाये गए हैं क्‍यों कि यह ग्‍लोबल न्‍यूक्‍ल‍ियर सप्‍लाई चेन का हिस्‍सा है

नए हलेयू (हाई एसे लो इनर‍िच्‍ड यूरेनियम) रिएक्‍टर अमेरिका के ऊर्जा कार्यक्रम की नई पीढी का सबसे बड़ा किरदार हैं. बिडेन प्रशासन इन नए रिएकटरों रुस पर निर्भरता खत्‍म करना चाहता है वह यूरेनियम नए सप्‍लायर की तलाश में हैं.

 

 

खतरों को सीमित कर लिय जाए तो न्‍यूक्‍ल‍ियर दुनिया का सबसे अनोखा ऊर्जा संसाधन है. यह पर्यावरण के लिए सुरक्षि‍त है और इससे बहुत बड़ी क्षमता के बिजली घर लगाये जा सकते हैं.  तो अब हम वापस लौटते हैं मि. फ्यूजन की तरफ यानी बैक टु फ्यूचर वाली कार की तरफ. यह संयोग ही कि पूरी दुनिया जब नाभ‍िकीय ऊर्जा की तरफ लौटने को मजबूर हुई तो इसी बीच आणव‍िक ऊर्जा उद्योग की सबसे बडी तकनीकी तलाश भी पूरी हो रही है. फ्यूजन रिएक्‍टर बनने में समय लगेगा अब परमाणुओं का जटिल विज्ञान नई तकनीकों के साथ वापसी को तैयार है. मर्चेंट बैंकरों और निवेशक नाभि‍कीय ऊर्जा को अगले कुछ वर्षों का सबसे बड़ा निवेश मौका मान रहे हैं

 

एक युद्ध ने कितना कुछ बदला दि‍या है 

 

 

 

Sunday, June 26, 2022

कौन बढ़ाता है कितनी महंगाई ?


 

एक ट्व‍िटर चर्चा ..

पहला - सरकार ने एक्‍साइज ड्यूटी घटाकर पेट्रोल डीजल सस्‍ता किया. बधाई दीजिये संवेदनीशलता को

दूसरा – दस रुपये बढ़ाकर नौ रुपये कम किये, कीमत तो वहीं है जहां मार्च से पहले थी, पहले बढ़ाओ फिर घटा कर ताली बजवाओ.

यद‍ि कोई इन राजनीतिक स्‍वादानुसार बहसों के परे भारत की महंगाई का सबसे विद्रूप सच समझना चाहता है तो सरकार का ताजा फैसला उसकी नज़ीर है. दरअसल भारत में महंगाई जहां से निकलती वहीं से उसे कम किया जा सकता है और सरकार अब हार कर इस सच को स्‍वीकार करना पड़ा है कि कीमतें न तो रिजर्व बैंक के कर्ज सस्‍ता करने से घटेंगी न और बयानबाजी से.

हमारी ऊर्जा महंगाई के लिए पूरी दुनिया को लानते भेजने के बाद अंतत: सरकार ने यह मान लिया कि यह टैक्‍स ही है महंगाई की जड़ है.

फॉसि‍ल फ्यूल यानी जैव ईंधन यानी कोयला और पेट्रो उत्‍पाद भारत में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत हैं.. भारत दुनिया के उन गिने चुने देशों में होगा जहां ऊर्जा और ईंधन यानी कच्‍चा तेल, पेट्रोल डीजल कोयला बिजली और यहां तक क‍ि सौर ऊर्जा का साजोसामान पर भी भारी टैक्‍स लगता है. यह टैक्‍स न केवल हमें महंगाई के नर्क में जला रहे हैं बल्‍क‍ि भारतीय उत्‍पादों और सेवाओं की प्रतिस्‍पर्धा खत्‍म कर रहे हैं

केंद्र सरकार के कुल टैक्‍स राजस्‍व का करीब 25 फीसदी हिस्‍सा ऊर्जा से आता है राज्‍यों के कुल राजस्‍व का 13 फीसदी ऊर्जा से मिलता है

 

पेट्रोल डीजल पर एक्‍साइज कटौती की रोशनी में चलते हैं भारत के टैक्‍स भवन में जहां ऊर्जा पर टैक्‍स से थोक में महंगाई बन रही है

ईंधन और महंगाई

पेट्रो उत्‍पादों पर एक्‍साइज ड्यूटी क्‍यों घटी क्‍यों कि रिजर्व बैंक ने कारोबारों और उपभोक्‍ताओं की लागत का आकलन करने के बाद कहा था कि ज्‍यादातर महंगाई तो ईंधन से आ रही है. रिजर्व बैंक ने अपनी मॉनेटरी पॅालिसी रिपोर्ट 2021 में बताया था कि खुदरा और थोक दोनों ही वर्गों में ईंधन की महंगाई जुलाई 2020 से शुरु हो गई थी. जो पेट्रोल डीजल कीमतों में ताजा यानी चुनाव बाद मार्च के बाद बढ़ोत्‍तरी का दौर शुरु होने से पहले तक दहाई के अंकों में पहुंच चुकी थी.

भारत की अध‍िकांश महंगाई जो ऊर्जा की कीमतों से निकल रही है, उसकी बड़ी वजह खुद सरकार के टैक्‍स हैं इन्हें टैक्‍स कम किये बिना यह आग ठंडी कैसे होती.

इसल‍िए जब सरकार ने टैक्‍स का लोभ कम किया तो कीमतों का सूचकांक नीचे आया.

पेट्रोल डीजल पर उत्‍पाद शुल्‍क या एक्‍साइज और वैट की चर्चा होतीहै लेकिन यहां तो टैक्‍सों का पूरा परिवार ही पेट्रो उत्‍पादों के पीछे पड़ा है
इंपोर्टेड महंगाई

  • भारत सरकार इंपोर्टेड कच्‍चे तेल पर एक रुपये प्रति टन बेसिक कस्‍टम ड्यूटी, इतनी ही काउंटरवेलिंग ड्यूटी और 50 रुपये प्रति टन का राष्‍ट्रीय आपदा राहत शुल्‍क लगाती है.
  • भारत अपनी जरुरता का 85.5 फीसदी तेल आयात करता है मार्च 2022 में समाप्‍त वर्ष में कच्‍चे तेल का कुल आयात 212 मिल‍ियन टन रहा जो अभी कोविड के पहले के आयात (227 मिलियन टन) से कम है.
  • देश के भीतर निकाले जाने वाले कच्‍चे तेल पर एक रुपये प्रति‍ टन बेसिक एक्‍साइज ड्यूटी, 50 रुपये प्रति टन का आपदा राहत शुल्‍क तो लगता ही इसके अलावा 20 फीसदी का सेस भी लगता है जो कच्‍चे तेल की कीमत पर आधार‍ित (एडवैलोरम) है. इसे 2016 में लगाया गया था. देशी कच्‍चे तेल की कीमत तय करने के लिए भारत के तेल आयात की कीमत को आधार बनाया जाता है यानी अगर इंपोर्टेड क्रूड महंगा तो देशी भी महंगा होगा.
  • आत्‍मनिर्भरता का यह अनोखा तकाजा है कि भारत मे घरेलू तेल उत्‍पादन कुल आयात का 15 फीसदी भी नहीं लेक‍िन इस पर टैक्‍स आयात‍ित क्रूड से काफी ज्‍यादा है
  • आयात‍ित और देशी कच्‍चे तेल पर टैक्‍स से सरकार ने कोविड से पहले के वर्ष यानी 2019-20 में 43.8 अरब रुपये का राजस्‍व जुटाया.
  • भारत में पेट्रोल डीजल का आयात भी होता है पेट्रोल पर 2.5% कस्‍टम ड्यूटी,1.4 रुपये प्रति लीटर की काउंटरवेलिंग ड्यूटी, 11 रुपये प्रति लीटर स्‍पेशल एडीशनल ड्यूटी, 2.5 रुपये प्रति‍ लीटर का इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर सेस, 13 रुपये प्रति लीटर की एडीशनल कस्‍टम ड्यूटी लगती है. डीजल पर बेसिक कस्‍टम ड्यूटी, काउंटर वेलिंग ड्यूटी के अलावा 8 रुपये प्रति लीटर की स्‍पेशल ड्यूटी , 4 रुपये प्रति लीटर का इन्‍फ्रा से और 8 रुपये प्रति लीटर की एडीशनल कस्‍टम ड्यूटी लगती है. 2019-20 में इनसे 73 अरब रुपये का राजस्‍व मिला.
  • आयात‍ित कच्‍चा तेल और पेट्रोउत्‍पाद पर टैक्‍स का इनकी कीमतों सीधा रिश्‍ता है. कच्‍चा तेल लगातार महंगा हुआ इसलिए सरकार की कमाई भी खूब बढ़ी है. 2021-22 में भारत का तेल आयात ब‍िल दोगुना बढ़कर 119 अरब डॉलर हो गया जबकि मात्रा में आयात कम हुआ था.

 

  • मोटे तौर यह समझ‍िये कि एक्‍साइज, स्‍पेशल एडीशनल ड्यूटी, सडक सेस और राज्‍यों के वैट आदि को मिलाकर लगभग अधि‍कांश भारत मे पेट्रोल और डीजल की कीमत का आधा हिस्‍सा टैक्‍स है. बीते साल यूपी चुनाव से पहले और इसी मई 21 यही हिस्‍सा हल्‍का क‍िया गया है.
  • पेट्रोल डीजल पर टैक्‍स कटौती और बढ़त का हिसाब कि‍ताब बताता है कि राहत क्‍यों खोखली होती है 2015 में जब कच्‍चे तेल की कीमत कम थी तब से केंद्र सरकार ने पेट्रो उत्‍पादों पर टैक्‍स बढ़ाना शुरु किया. अक्‍टूबर 2021 तक पेट्रोल पर एक्‍साइज ड्यूटी 200 फीसदी और डीजल पर 600 फीसदी बढ़ी. इसकी क्रम में राज्‍यों का वैट भी बढ़ा. नतीजतन 2014-15 से 20-21 के बीच पेट्रो उत्‍पादों से केंद्रीय एक्‍साइज संग्रह 163 फीसदी बढ़कर 1.72 लाख करोड़ रुपये से 4.5 लाख करोड़ हो गया. इसी दौरान मार्च 2014 से अक्‍टूबर 2021 तक राज्‍यों का वैट संग्रह 35 फीसदी बढ़कर 1.6 लाख करोड़ से 2.1 लाख करोड़ हो गया.
  • केंद्र सरकार पेट्रोल डीजल पर बेसिक एक्‍साइज पर राजस्‍व का 42 फीसदी हिस्‍सा राज्‍यों से बांटती है जो पेट्रोल पर केवल 58 पैसे और डीजल पर 75 पैसे प्रति लीटर है जबकि इन दोनों पर कुल एक्‍साइज क्रमश 33 रुपये और 42 रुपये प्रति लीटर है.

 

कोयला और बिजली वाला टैक्‍स

केवल पेट्रोल डीजल ही नहीं , टैक्‍स निचोड़ नीति के कारण कोयले और बिजली का हाल भी इतना ही बुरा है. भारत की करीब 60 फीसदी बिजली कोयले से बनती है

  • बिजली के कोयले की औसत बेसिक कीमत (955-1100 रुपये) पर रॉयल्‍टी, पर्यावरण विकास उपकर, सीमा कर, कुछ राज्‍यों मे जंगल कर, विकास कर, कोयला निकालने का चार्ज, 5 फीसदी का जीएसटी, 400 रुपये प्रति बिजली घर तक टन के बाद कोयले की कीमत लगभग दोगुनी हो जाती है. रेलवे का भाड़ा (दूरी के अनुसार) और उस पर जीएसटी अलग से.
  • कोल कंट्रोलर के आंकडे बताते हैं केंद्र सरकार को कोयले से करीब 25000 करोड़ का जीएसटी मिलता है. राज्‍यों को मिलने वाला टैक्‍स इससे अलग है.
  • इन टैक्‍स के कारण घरेलू और औद्योगिक उपभोक्‍ताओं के लिए बिजली करीब 26 पैसे प्रति यूनिट महंगी हो जाती है
  • कई राज्‍य सरकारें बिजली पर इलेक्‍ट्र‍िस‍िटी बिल पर ड्यूटी या टैक्‍स लगाती हैं. यह टैक्‍स, चुनावी वादों बिजली को सस्‍ता रखने के लिए लगाया जाता है.

 

नई ऊर्जा नया टैक्‍स

  • टैक्‍स का शिकंजा बडा हो रहा है . सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के प्रचार के बीच सरकार ने सोलर मॉड्यूल्‍स के आयात पर 40 फीसदी और सेल पर 25 फीसदी इंपोर्ट ड्यूटी लगा दी है. भारत में उत्‍पादन क्षमता है नहीं, आयात चीन होता है नतीजतन बढ़ती लागत के कारण सौर ऊर्जा क्रांति का दम भी टूट रहा है

पुणे की रिसर्च संस्‍था प्रयास एनर्जी ग्रुप का अध्‍यन बताता है कि केंद्र सरकार के कुल टैक्‍स राजस्‍व का करीब 25 फीसदी हिस्‍सा ऊर्जा से आता है राज्‍यों के कुल राजस्‍व का 13 फीसदी ऊर्जा से मिलता है. करीब से देखने पर पता चलता है कि केंद्र सरकार को ऊर्जा क्षेत्र से कंपनियों के लाभांश सहित जितना राजस्‍व मिलता है उसमें 90 फीसदी टैक्‍स हैं.

केंद्र को ऊर्जा क्षेत्र से मिलने वाले कुल राजस्‍व में 83 फीसदी पेट्रो उत्‍पादन से और 17 फीसदी कोयले से आता है जबकि राज्‍यों को कोयले से केवल दो फीसदी राजस्‍व मिलता है. 83 फीसदी पेट्रो उत्‍पादों से और शेष बिजली से आता है... रिजर्व बैंक के आंकडे बताते हैं कि 2018-19 के बाद से ऊर्जा पर केंद्र सरकार का राजस्‍व बढ़ा और सब्‍स‍िडी घटती चली गई.

इधर राज्‍य अपने ऊर्जा राजस्‍व का करीब आधा हिस्‍सा , लगभग 1.33 लाख करोड़ रुपये सब्सिडी पर खर्च कर रहे हैं हमें समझना होगा कि पेट्रोल डीजल और बिजली की महंगाई केवल सरकारी टैक्‍स से निकल रही है.

 

GST ked ayre mein kyuu nahi le aateघ्‍

यही वजह है कि सरकारें पेट्रो उत्‍पादों, कोयला और बिजली को जीएसटी के दायरे में नहीं लाना चाहतीं. जबकि यह टैक्‍स वाली लागत का सबसे बड़ा हिस्‍सा है जिस इनपुट टैक्‍स क्रेडिट‍ मिलना चाहिए भारत के नेता जितनी बडी बड़ी बातें करते हैं, उतनी चतुरता उनके आर्थि‍क प्रबंधन में नहीं है. बजटों का राजस्‍व ढांचा बुरी तरह सीमित हो चुका है. सरकारें खर्च कम करने को राजी नहीं है. देश ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता. शाहखर्च सरकारें टैक्‍स निचोड़कर हमें महंगाई में भून रही हैनतीजा यह है कि भारत अब दुनिया के सबसे महंगे मोटर ईंधन और पर्याप्‍त महंगी बिजली वाले देशों में शामिल हो गया.

यदि प्रति व्‍यक्‍ति‍ खपत खर्च या क्रय क्षमता के आधार पर देखें तो यह महंगाई और ज्‍यादा भयावह लगती है भारत के पास अब विकल्‍प कम हैं. कोयले और कच्‍चे तेल की महंगाइ्र स्‍थायी हो रही है. या तो ऊर्जा पर टैक्‍स कम करने होंगे या फिर झेलनी होगी महंगाई. इसके अलावा कोई रास्‍ता नहीं है सनद रहे कि पर्यावरण की चिंताओं के बाद भारत को ऊर्जा का ढांचा बदलना है. नई तकनीकों के बाद ऊर्जा और महंगी होगी. जब तक टैक्‍स नहीं कम हो ऊर्जा क्षेत्र में कोई नया बदलाव मुश्‍क‍िल होगा...

 

Saturday, February 22, 2020

अंधेरे में बिजली


सस्ती या रियायती बिजली क्या दिल्ली वालों की ही किस्मत में लिखी है? उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बंगाल या बिहार में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? बिजली बिलों को बिसूरते हुए गर्मी से भेंट से पहले यह जान लेना जरूरी है कि सरकारों ने हमें कौन-सी अंधी सुरंग में पटक दिया है.

भारत दुनिया में बिजली का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. 2006 से 2018 के बीच बिजली की उत्पादन क्षमता 124 गीगावाट से बढ़कर 344 गीगावाट पर पहुंच चुकी है. 8.9 फीसद की दर से यह बढ़ोतरी जीडीपी से ज्यादा तेज है.

उत्पादन क्षमता की बढ़ोतरी की रफ्तार, पीक डिमांड (सबसे ज्यादा मांग के समय-बिजली की मांग 24 घंटे एक सी नहीं रहती) बढ़ने की गति यानी पांच फीसद से ज्यादा है. नेशनल इलेक्ट्रिसिटी प्लान 2016 के अनुसार, 2021-22 तक भारत में पीक डिमांड 235 गीगावाट होगी यानी कि उत्पादन क्षमता पहले ही इससे कहीं ज्यादा हो चुकी है.

• 2012 से 2016 के बीच बिजली पारेषण (ट्रांसमिशन) क्षमता 7 फीसद की दर से बढ़ी. यानी जो बिजली बन रही थी उसे बिजली वितरण कंपनियों तक पहुंचाने वाला नेटवर्क छह साल में बढ़कर 3.9 लाख किमी पर पहुंच गया.

• 2003 के इलेक्ट्रिसिटी ऐक्ट के तहत उपभोक्ता खुले बाजार से बिजली खरीद (ओपन एक्सेस) सकते हैं, जहां सस्ती बिजली उपलब्ध है. भारत में स्टॉक एक्सचेंज की तरह पावर एक्सचेंज है लेकिन उपभोक्ताओं को यह सस्ती बिजली मिलती है और ही बिजली वितरण कंपनियों को.

पर्याप्त बिजली उत्पादन और पारेषण क्षमता, यथेष्ट सस्ती बिजली, और भरपूर मांग के बावजूद औसत बिजली इतनी महंगी (औसत 6-8 रुपए प्रति यूनिट, उद्योग के ल‍िए और महंगी) क्यों?

इस सवाल का तयशुदा जवाब बीते बरस अप्रैल में सरकार की मेज पर पहुंच गया था. नीति आयोग ने बिजली वितरण की चुनौतियों पर क्रिसि से एक अध्ययन कराया, जिसने केवल पूरे बिजली सुधारों की विफलता का सबूत दिया बल्कि दिल्ली में बिजली सुधारों से नसीहत लेने की राय दी. इस रिपोर्ट के बाद मांग पर बिजली देने के बड़बोले दावे बंद हो गए, बिजली कंपनियों के बकाए को राज्यों के बजट पर थोप देने वाली उदय स्कीम की नाकामी स्वीकार कर ली गई और बिजली दरों में बढ़ोतरी अबाध जारी रही.

क्रिसिल की रिपोर्ट बताती है कि

बाजार (पावर एक्सचेंज) में सस्ती बिजली उपलब्ध है लेकिन बिजली वितरण कंपनियां महंगी बिजली खरीदने को बाध्य हैं. 

समस्या की जड़ है बिजली दरों का ढांचा. बिजली दरें फिक्स्ड और एनर्जी, दो हिस्सों में बंटी होती हैं. फिक्सड चार्ज, लोड या डिमांड पर आधारित होते हैं जिसके तहत कंपनियां उत्पादन, पारेषण, मेंटेनेंस लागत और ब्याज पूंजी पर रिटर्न वसूलती हैं जबकि एनर्जी चार्ज बिजली की वास्तवि खपत पर आधारित होता है.

कंपनियां फिक्स्ड चार्ज से पूरी लागत नहीं निकाल पातीं इसलिए बिजली महंगी होती जाती है. कई उपभोक्ता वर्गों जैसे, किसान, सरकारी संस्थानों को सस्ती बिजली देने के लिए राज्य सरकारें वक्त पर सब्सिडी नहीं देतीं. जिन राज्यों में सब्सिडी वाले उपभोक्ता जितने अधि हैं उतना ही ज्यादा अंतर है बिजली की खरीद लागत और आपूर्ति राजस्व में. यह आंध्र प्रदेश में दो रुपए प्रति यूनिट से ऊपर है और दिल्ली में सबसे कम 19 पैसे. 

यह व्यवस्था शायद दुनिया की सबसे जटिल बिजली दरों के ढांचे से पाली-पोसी जाती है, अलग-अलग राज्यों में उपभोक्ताओं के  9 से लेकर 18 वर्ग हैं और दरों के 14 से लेकर 72 स्लैब हैं. अधिकांश उपभोक्ता जानते ही नहीं कि यह जटिल बिलिंग कैसे होती है.

अक्षम बिजली दर ढांचे, लागत और राजस्व में अंतर यानी घाटे के कारण वितरण कंपनियों को लंबे समय के लिए महंगे बिजली खरीद सौदे करने होते हैं ताकि उधार आपूर्ति हो सके. अगर कोई उपभोक्ता बाजार से खरीदकर सस्ती बिजली की आपूर्ति चाहे भी तो कंपनियां भारी सप्लाई चार्ज लगाती हैं. नतीजतन ओपेन एक्सेस व्यवस्था टूट चुकी है.

सरकारें कभी बिजली दरों का ढांचा ठीक नहीं करना चाहतीं. सब्सिडी को सीधे उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचाना चाहतीं. इसमें अकूत भ्रष्टाचार और उत्पादकों-वितरकों की अक्षमता का संरक्षण निहित है. सरकार बिजली दरों को नियामकों के हाथ से निकाल बाजार के हवाले नहीं करना चाहती. इसलिए बिजली तो सस्ती बनती है लेकिन मिलती नहीं.

2001 से 2015 के बीच बिजली बोर्ड या वितरण कंपनियों को बकाए और कर्ज से उबरने के लिए तीन पैकेज (सबसे ताजा उदय) दिए गए लेकिन 2019 में बिजली कंपनियों का घाटा 27,000 करोड़ रुपए पर पहुंच गया है. उन्हें करीब 81,000 करोड़ रु. बिजली उत्पादन कंपनियों को चुकाने हैं. 

बहु प्रचारित सुधार वीरों की अगुआई में कई राज्यों में बिजली दरें बढ़ चुकी हैं. बिजली की महंगाई और कटौती के बीच दुनिया के तीसरे सबसे बड़े बिजली उत्पादक देश के उपभोक्ता एक और कठिन गर्मी झेलने को तैयार हो रहे हैं.