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Monday, December 3, 2018

विरासतों की कारसेवा




पुरी में जगन्नाथ मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश और निकास दरवाजों के पास मरीजों को ले जाने वाले स्ट्रेचर रखे देखकर अचरज होना लाजिमी है. लेकिन अगर किसी भीड़ भरे दिन मंदिर के प्रांगण में कुछ वक्त बिताएं तो आपको इनका इस्तेमाल दिख जाएगा. शोर-शराबे के बीच आपको कुछ सेवादार मंदिर के भीतर से किसी बेहोश भक्त को इन पर लाते दिखेंगे.

यहां मंदिर के गर्भ गृह में भारी भीड़ और अंधेरे में दम घुटना आम बात है. भीड़-भाड़ के दिनों में रोज ऐसी चार-पांच घटनाएं होती हैं.

अगर जगन्नाथ मंदिर को भक्तों के लिए निरापद और सुविधाजनक बनाने का अभियान चलाया जाए तो क्या उसके समर्थन में वही भावनात्मक ज्वार उमड़ेगा जो किसी दूसरे मंदिर बनाओ अभियान में उबाला जाता है?

जगन्नाथ मंदिर ही क्योंदेश के किसी भी पुराने तीर्थ या विरासत को सहेजने-संवारने में राजनैतिक मूर्ति निर्माण जैसी दीवानगी नहीं दिखती?
नई विरासतों की सियासत पर लहालोट होने वाले हम लोग नए मंदिरों के लिए लड़ मरते हैं और पुराने मंदिरों की भीड़ में दब-कुचल कर मर जाते हैं. 

भारत की पुरातन संस्कृति की उपेक्षा पर फट पडऩे वाला भारतीय दक्षिणपंथ भी विरासतों के दुर्दिन दूर नहीं कर सकाबल्कि उसने कुछ उलटा ही कर दिया.

इस साल जनवरी में लोकसभा ने प्राचीन स्मारकपुरातात्विक विरासत कानून को संशोधित करते हुए प्राचीन स्मारकों के पास 100 मीटर तक निर्माण न करने की शर्त हटा दी. बावजूद इसके कि 2016 में सरकार ने लोकसभा को बताया था कि पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण के तहत आने वाले 24 स्मारक गायब हो गए हैं. इनमें मंदिर और प्रस्तर अभिलेख भी शामिल हैं.

कानून बदलने के बाद स्मारकों को ढहाने की छूट-सी मिल गई है. पता नहींअगली पीढिय़ां कितनी विरासतों की तस्वीर भी देख पाएंगी. हाल में ही बेंगलूरू में दो विरासतें (मरफी टाउन लाइब्रेरी और क्रमबीगेल हॉल) को ढहाए जाने के बाद स्वयंसेवी संस्था इनटैक ने 83 साल पुराने जनता बाजार को बचाने के लिए कानूनी लड़ाई शुरू की है.

हमारे सभी पुराने तीर्थ-मंदिरों में अव्यवस्था का अंबार है. कुछ एक आधुनिक मंदिरों को छोड़ अधिकांश मंदिर नगरों के बीच या फिर दुर्गम स्थलों पर हैं और हादसों की बाट जोहते हैं. भारत के अधिकांश मंदिर अभूतपूर्व ढंग से संपन्न हैं. उनकी संपन्नता उनके भक्तों से बढ़ी है. उनके आसपास एक भरपूर अर्थव्यवस्था लहलहाती है. सरकार उनके चढ़ावे में मिले सोने से अपनी गोल्ड डिपॉजिट स्कीम को सफल बना लेती है घाटे और संसाधनों की किल्‍लत से परेशान महाराष्‍ट्र सरकार ने शिऱडी मंदिर से हाल में ही कर्ज लिया है.लेकिन इन मंदिरों का पैसा इनके भक्तों की आस्था को सुरक्षित करने के काम नहीं आता.

नियमों से लंदे-फंदे इस देश में प्राचीन स्थापित और पूजित मंदिरों के प्रबंधन को लेकर नीतियांव्यवस्थाएं नहीं बन सकीं. नए मंदिर बनाने के लिए संसद को हिलाने की तैयारी आए दिन होती है. हम मंदिरों में महिलाओं को रोकने को आस्था पर हमला बता सकते हैंमंदिर की अव्यवस्था से मरने वाले भक्तों पर हमें तरस नहीं आता.

डिजिटल इंडिया वाला देश भारत के प्राचीन साहित्य को आधुनिक ढंग से अनूदितसंरक्षित और उपलब्ध नहीं करा पाता. लेकिन केरल में ताजा बाढ़ दर्जनों पुरानी तालपत्र किताबों को और स्मारकों को जरूर निगल जाती है. इस बाढ़ के बाद दिल्ली को पता चला कि हमारी आपदा प्रबंधन नीति में विरासतों को प्राकृतिक आपदा से बचाने की व्यवस्था ही नहीं है. बाढ़ में डूबी केरल की विरासतों को स्वयंसेवी संस्थाओं का इंतजार है. कहां हैं शबरीमला में अदालत के आदेश पर बसें फूंकने का ऐलान करने वाले धर्म योद्धा?

गर्व करते रहिए कि हमारे पास दुनिया के सबसे पुराने मंदिर हैंउन मंदिरों के पास अकूत खजाना है. या हमारे पास दुनिया की सर्वाधिक विरासतें हैं लेकिन 71 साल में केवल 15,000 स्मारकों को कानूनी संरक्षण मिल सका है जबकि ब्रिटेन में इनकी संख्या 60,000 हैजिसका क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश के लगभग बराबर है. केंद्र सरकार के बजट से सालाना एक फीसदी से भी कम हिस्सा संस्कृति मंत्रालय को मिलता है.
न हमारी आस्थाएं निरापद हैं और न ही विरासतें सुरक्षित क्योंकि हमारे रहनुमा न तो पुराने मंदिरों को शांति व सुविधा के साथ पूजा के लायक बनाना चाहते हैं और न अतीत के गौरवों को सजाना-संवारना. ऐसा करने से इतिहास पर गर्व होगा. राजनीति को वे विरासतें बनानी हैं जिन पर हम हमेशा लड़ते रह सकें. भारत की राजनीति ही उसकी विरासत के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है.

Sunday, November 26, 2017

आह इतिहास ! वाह इतिहास !


इतिहास से वर्तमान की जंग सबसे आसान है. जीवंत योद्धा जब काल्पनिक शत्रु से आर-पार वाली जंग लड़ते हैं तो जातीय स्मृतियों से सजा परिदृश्य, फड़कते हुए किस्से-कहानियों और जोरदार संवादों के साथ राजनैतिक ब्लॉकबस्टर की रचना कर देता है.

खोखली होती है यह रोमांचक लड़ाई. हारता-जीतता कोई नहीं अलबत्ता इतिहास बोध की शहादत का नया इतिहास बन जाता है.

इरिक हॉब्सबॉम को बीसवीं सदी के इतिहासकारों का इतिहासकार कहा जाता है. वे कहते थे, ''पहले मैं समझता था कि इतिहास ना‍भिकीय भौतिकी जैसा खतरनाक नहीं है लेकिन अब मुझे लगता है कि इतिहास भी उतना ही भयानक हो सकता है.'' 

सियासत के साथ मिलकर इतिहास के जानलेवा होने की शुरुआत बीसवीं सदी में ही हो गई थी. लंबे खून-खच्चर के बाद यूरोप ने यह वास्तविकता स्वीकार कर ली कि इतिहास के सच हमेशा कुछ मूल्यहीन तथ्यों और अर्थपूर्ण निर्णयों के बीच पाए जाते हैं. इतिहास के तथ्य अकेले कोई अर्थ नहीं रखते. इनकी निरपेक्ष या वस्तुपरक व्याख्या नहीं हो सकती. इसे संदर्भों में ही समझा जा सकता है इसलिए इनके राजनैतिक इस्तेमाल का खतरा हमेशा बना रहता है.

जिन समाजों में सांस्कृतिक इतिहास राष्ट्रीय इतिहास से पुराना और समृद्ध हो, इतिहास व मिथक के रिश्ते गाढ़े हों और परस्पर विरोधी तथ्य इतिहास का हिस्सा हों, वहां इतिहास पर राजनीति खतरनाक हो जाती है.

भारत में फिल्मों, किताबों पर गले काटने की धमकियां रुकें या नहीं. लेकिन इक्कीसवीं सदी में इतिहास को देखने के नए तरीकों पर चर्चा में कोई हर्ज नहीं है.

सांस्कृतिक स्मृतियां

उलनबटोर के पास चंगेज खान की 40 मीटर ऊंची इस्पाती प्रतिमा पिछले दशक में ही स्थापित हुई है. मंगोलिया की जातीय स्मृ‍तियों में चंगेज खान की जो छवि है, यूरोप व अरब मुल्क उसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे. जातीय स्मृतियां किसी भी इतिहास का अनिवार्य हिस्सा हैं लेकिन किसी दूसरे समाज के लिए इनके बिल्कुल उलटे मतलब होते हैं. भारत में कई राजा और सम्राट कहीं नायक तो कहीं खलनायक हैं. ऐसा इतिहास वर्तमान से काफी दूर है और भविष्य के लिए प्रासंगिक भी नहीं है, अलबत्ता राजनीति चाहे तो इसे विस्फोटक बना सकती है.

भूलने के उपक्रम

इतिहास कभी नहीं मरता लेकिन समझ-बूझकर उसे भुलाने की कोशिशें भी अतीत से संवाद के नए तरीकों का हिस्सा हैं. यूरोप मध्ययुगीन बर्बरता पर शर्मिदा होता है. चीन व ब्रिटेन के रिश्तों पर अफीम युद्ध छाया नहीं है. ब्रिटेन उपनिवेशवादी इतिहास को भुला देना चाहता है. अमेरिका, जापान पर परमाणु हमले को याद करने से बचता है. स्पेन का लैटिन अमेरिका पर हमला, स्टालिन की बर्बरताएं या हिटलर की नृशंसता! दुनिया का सबसे बड़ा नरसंहार कौन-सा था? इस पर शोध चलेंगे  लेकिन विश्व युद्धों के बाद इतिहास के कुछ हिस्सों को सामूहिक विस्मृति में सहेज देने के उपक्रम जारी हैं ताकि वर्तमान में चैन के साथ जिया जा सके. 

कीमती यादगार 

स्मृति व इतिहास में एक बड़ा अंतर है. स्मृति किसी समाज के अतीत का वह हिस्सा है जिसे बराबर याद किया जाता है या जिससे सीखा जा सकता है, जबकि इतिहास अतीत का वह आयाम है, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान से उसकी दूरी के आधार पर तय होती है. ताजा इतिहास को, बहुत पुराने इतिहास पर, वरीयता दी जाती है क्योंकि ताजा अतीत, वर्तमान के काम आ सकता है.

सबसे अधिक राजनैतिक विवाद उस इतिहास को लेकर है जिसे हम बार-बार याद करना चाहते हैं और वर्तमान में उससे सीखते रहना चाहते हैं. इसलिए स्मारक, संग्रहालय बनाने, इतिहास की पाठ्य पुस्तकों का विषय तय करने और कला-कल्पना में इतिहास के प्रसंगों पर गले कटने लगते हैं.

तो फिर कैसे तय हो कि वर्तमान को कौन-सा इतिहास चुनना चाहिए?

नीदरलैंड के इतिहास के प्रोफेसर विम वान मेरुस की राय गौर करने लायक है- 21वीं सदी में किसी भी समुदाय के दो लक्ष्य हैं—पहला, स्वतंत्र राष्ट्र होना और दूसरा, उस राष्ट्र का लोकतंत्र होना. इतिहास की जो भी व्याख्या राष्ट्र या जातीय पहचान को प्रकट करती है, उसे लोकतंत्र के मूल्यों की कसौटी पर भी बेहतर होना होगा, नहीं तो इतिहास हमेशा लड़ाता रहेगा.

ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार, ई.एच. कार (पुस्तकः व्हाट इज हिस्ट्री) कहते थे कि इतिहास की सबसे उपयुक्त व्याख्या किसी समाज के भविष्य को निगाह में रखकर ही हो सकती है. .......

जो ऐसा नहीं कर पाते वे जॉर्ज बर्नाड शॉ को सही साबित करते हैः ''इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा.''