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Friday, September 11, 2020

ईमानदार टैक्सपेयर की डायरी

 


इनकम टैक्स का रिटर्न भरने के बाद कागजों को संभालते हुए अनुपम टीवी से उठती आवाज सुनकर ठहर गए. प्रधानमंत्री ईमानदार करदाताओं का उत्साह बढ़ा रहे थे.

निजी कंपनी में काम करने वाले अनुपम ने 30 फीसद तनख्वाह गंवाकर, कोविड के बाद किसी तरह नौकरी बचाई है. लाखों वेतनभोगी करदाताओं की तरह उनकी ईमानदारी पर कोई फूल नहीं बरसाता लेकिन अनुपम न केवल टैक्स चुकाने में ईमानदार हैं बल्किअपने कमाई-खर्च का हिसाब-किताब भी पक्का रखते हैं.

करीब 47 साल के अनुपम टैक्सपेयर्स के उस सबसे बड़े समुदाय का हिस्सा हैं, कमाई, खर्च या रिटर्न पर जिनका ज्यादातर टैक्स पहले कट (टीडीएस) जाता है. आयकर विभाग के मुताबिक, (2019) व्यक्तिगत करदाता हर साल करीब 34 लाख करोड़ रुपए की आय घोषित करते हैं, जिनमें 20 लाख करोड़ रुपए की आय वेतनभोगियों की होती है. 2.33 करोड़ रिटर्न इसी श्रेणी के लोगों के होते हैं.

प्रधानमंत्री की बात सुनने के बाद अनुपम ने इनकम टैक्स रिटर्न को सामने रखकर डायरी निकाल ली. वे ईमानदारी का हिसाब लगाकर उस पर गर्व कर लेना चाहते थे.

डायरी के पन्नों पर सबसे पहले चमका वह मोटा टैक्स जो उनकी कंपनी हर महीने, तनख्वाह देने से पहले ही काट लेती है. इसके बाद उनकी गिनती में आया वह टैक्स जो उनके बैंक ने बचत (एफडी) पर ब्याज से काटा.

अनुपम ने बच्ची की पढ़ाई की फीस के लिए पुराना मकान बेचा था, जिसे बैंक कर्ज से खरीदा था. तबादले के कारण अब वह दूसरे शहर में किराये पर रहे थे. मकान रजिस्ट्री से पहले उन्हें टैक्स जमा करना पड़ा और फिर कैपिटल गेन्स चुकाना पड़ा. डायरी के अगले पन्नों में यह भी दर्ज था कि उनके पेंशनयाफ्ता बुजुर्ग माता-पिता ने भी मोटा टैक्स दिया था.

यहां तक आते-आते अनुपम और उनके घर में कमाने वालों के कुल इनकम टैक्स का आंकड़ा उनके चार महीने के वेतन से ज्यादा हो गया था.

अनुपम किसी पारंपरिक मध्यवर्गीय की तरह खर्च काहिसाब भी लिखते थे. हाउस टैक्स और वाटर टैक्स, टोल टैक्स सब वहां दर्ज था. खाने के सामान, दवा, कपड़ों, फोन-ब्रॉडबैंड के बिल और दूसरी सेवाओं पर खर्च देखते हुए अनुपम ने जीएसटी का मोटा हिसाब भी लगा लिया. 

बीते कई वर्षों से अनुपम के परिवार की आय का करीब 35 से 45 फीसद हिस्सा टैक्स जा रहा रहा था. ईमानदारी पर गर्व करने के बाद अनुपम सोचने लगे कि इतने टैक्स के बदले सरकार से क्या मिलता है?

गिनती फिर शुरू हुई. सरकारी शिक्षा या अस्पताल? बच्चे तो निजी स्कूल और कोचिंग में पढ़ते हैं. इलाज निजी अस्पताल में होता है. हेल्थ बीमा का प्रीमियम भरते हैं, रोजमर्रा के इलाज का खर्च किसी बीमा से नहीं मिलता. दवाओं पर दबाकर टैक्स लगता है. इनकम टैक्स रिटर्न बता रहा था कि उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए सेस भी दिया है.

सरकारी परिवहन का इस्तेमाल न के बराबर था. ट्रेन यात्रा गैर सब्सिडी वाले दर्जों में होती है. कार कर्ज पर ली थी. पेट्रोल पर भारी टैक्स दे रहे हैं, कार के रजिस्ट्रेशन और सड़क निर्माण का सेस देने के बाद टोल भी भर रहे हैं. बिजली महंगी होती जाती है. अपार्टमेंट में पावर बैक अप पर दोहरा पैसा लगता है. बैंक अपनी सेवाओं पर फीस वसूलते हैं. सरकारी भुगतानों में देरी पर पेनाल्टी लगती है और हर बरसात में टूटती सड़कें बताती हैं कि उनके टैक्स का क्या इस्तेमाल हो रहा है.

अनुपम को याद आया कि जो सरकारी व्यवस्था उनके टैक्स से चलती बताई जाती है, उससे मुलाकात के तजुर्बे कितने भयानक रहे हैं. आधार में पता बदलवाने से लेकर बूढे़ पिता के पेंशन दस्तावेजों की सालाना औपचारिकता तक हर सरकारी सेवा ने उन्हें नोच (रिश्वत) लिया है.

ईमानदार अनुपम ने पानी पीकर पॉजिटिव होने की कोशिश की.

टैक्स गरीबों के काम तो आता होगा? अचानक डायरी का सबसे पीछे वाला पन्ना खुला, जहां प्रवासी मजदूरों को खाना बांटने का खर्च दर्ज था. अनुपम के टैक्स के बदले सरकार उन्हें क्या ही दे रही थी लेकिन सड़कों पर मरते प्रवासी मजदूर जिनके पास कुछ नहीं था उन्हें भी क्या दे रही थी?

काश! अगर वे कंपनी होते तो घाटे के बदले (वेतन में कटौती) तो टैक्स से छूट मिल जाती या फिर गरीबों को खाना खिलाने का खर्च जन कल्याण में दिखाकर टैक्स बचा लेते.

ऐक्ट ऑफ गॉड के तर्क से उन्हें टैक्स चुकाने से छूट क्यों नहीं मिलती? पारदर्शिता केवल क्या आम करदाता के लिए ही है, सियासी दल कमाई का हिसाब क्यों नहीं देते? सरकार क्यों नहीं बताती कि वह टैक्स का कैसे इस्तेमाल करती है?

सवालों के तूफान से जूझते हुए अनुपम ने अपनी डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा, “करदाता भारत का स्थायी निम्न वर्ग है. उनसे वसूला जा रहा टैक्स उनकी ईमानदारी पर लगा जुर्माना है.”




Friday, August 23, 2019

डर का कानून


मृद्धि लाने वालों का सम्मान करेंउन पर शक उचित नहीं है.’’ लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुनकर टैक्स अधिकारी जरूर मुस्कराए होंगेक्योंकि सच तो वह है जो राजस्व विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के बंद कमरों में  उनसे कहा जाता है.

पिछले छह-सात वर्षों सेभारत की सरकारें कर प्रशासन को लेकर गहरी दुविधा में हैंवे कर नियमों में उदारता और सख्ती के बीच सही संतुलन बना पातींइससे पहले कुख्यात टैक्स नौकरशाही ने कर और वित्तीय कामकाज के कानूनों को निर्मम बनाकरकरदाताओं को सताने की अकूत ताकत जुटा ली.

अलबत्ता नया आयकर कानून तो कब से नहीं आया और जीएसटी तो टैक्स प्रणाली सहज करने के वादे के साथ लाया गया थातो फिर ऐसा क्या हो गया कि टैक्स नौकरशाही कारोबारियों के लिए आतंक का नया नाम बन गई है.

टैक्स टेरर का यह दौर ऐंटी मनी लॉन्ड्रिंग कानून (2005 से लागू 2009 और 2013 में संशोधनकी देन है जिसने कारोबार को लेकर न केवल नौकरशाही का नजरिया बदल दिया बल्कि उन्हें भयानक ताकत भी दे दीजन्म से ही विवादित इस कानून में अब तक के सबसे सख्त प्रावधानों (संपत्ति की कुर्कीअसंभव जमानतकी मदद से प्रवर्तन निदेशालय (एनफोर्समेंट डायरेक्टरेटदेश की सबसे ताकतवर सतर्कता एजेंसी बन गई है.

मनी लॉन्ड्रिंग के खिलाफ ग्लोबल मुहिम में भारत अजीबोगरीब अंदाज में शामिल हुआपहली एनडीए सरकार (वाजपेयीके दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण के बीच सरकार ने विदेशी मुद्रा विनिमय को भयानक फेरा कानून की जकड़ से मुक्त किया थाइसकी जगह फेमा लाया गया जो विदेशी मुद्रा नियम उल्लंघन को सिविल अपराध की श्रेणी में रखता थालेकिन तब तक आतंक को वित्त पोषण और नशीली दवाओं के कारोबार को रोकने के लिए एफएटीएफ (1989) और संयुक्त राष्ट्र की अगुआई में मनी लॉन्ड्रिंग कानूनों पर ग्लोबल सहमति (1998) बन चुकी थीजिसने अमेरिका पर आतंकी हमले (9/11) के बाद तेजी पकड़ीनतीजतनविदेशी मुद्रा के इस्तेमाल को उदार करने वाला फेमा और कारोबार पर सख्ती का ऐंटी मनी लॉन्ड्रिंग कानून एक साथ संसद में (2002-यशवंत सिन्हामें पेश हुए.

2009 के बाद इस कानून के दांत दिखने शुरू हुए. 2012 में पिछली तारीख से टैक्स (वोडाफोनलगाने का विवाद उभरा और तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी यह कहते सुने गए कि भारत कोई टैक्स हेवेन नहीं हैइस वक्त तक राजस्व नौकरशाही देश के हर कारोबार को संभावित मनी लॉन्ड्रिंग के चश्मे से देखने लगी थी.  ऐंटी मनी लॉन्ड्रिंग कानून इतना खौफनाक इसलिए है क्योंकि

·      यह अकेला कानून है जिसमें ईडी के अधिकारी सिर्फ अपने आकलन (रीजन टु बिलीवके आधार पर संपत्ति जब्त कर सकते हैंअदालत की मंजूरी जरूरी नहीं हैअगर मनी लॉन्ड्रिंग की गई संपत्ति विदेश में है तो बराबर की संपत्ति भारत में जब्त होगी. 

·       करीब दो दर्जन प्रमुख कानून और 75 से अधिक अपराध इसके दायरे में हैंइनमें ट्रेडमार्कपर्यावरण नष्ट करने के अपराध भी हैंइसके अलावा असंख्य संभावित अपराधों (प्रेडिकेट ऑफेंसमें भी मनी लॉन्ड्रिंग लग सकता हैइनकम टैक्स और जीएसटी इसके तहत नहीं है लेकिन टैक्स फ्रॉड से जुड़े मामलों पर अधिकारी मनी लॉन्ड्रिंग का आरोप लगाकर संपत्ति जब्त कर सकते हैं.

·       2017 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश तक इस कानून में जमानत भी मुश्किल थीअब भी आसान नहीं है.

सुस्त अभियोजन के लिए कुख्यात ईडी ने 2,000 से ज्यादा फाइलें खोल रखी हैं लेकिन आधा दर्जन मामलों का भी अभियोजन नहीं हुआ है. 2005 से अब तक ऐंटी मनी लॉन्ड्रिंग में कोई बरी भी नहीं हुआ हैवकील जानते हैं कि किसी भी अपराध में यह कानून लागू हो सकता है और कारोबारी का सब कुछ खत्म हो सकता हैआयकर के तहत कुछ ताजा बदलाव (अभियोग चलाने के कठोर प्रावधान या विदेश में काला धन छिपाने का ताजा कानूनभी इसी से प्रेरित हैं.

भारत की वित्तीय सतर्कता एजेंसियों के दो चेहरे हैंएक के जरिए वे सियासत के इशारे पर बड़े मामलों (जैसे चिदंबरममें सुर्खियां बटोरती हैं और अंततअदालत (2जीकोयलाकॉमनवेल्थमें ढेर हो जाती हैं जबकि दूसरा चेहरा अपनी ताकत से कारोबारियों का डराता हैसनद रहे कि लचर व्यवस्था में बेहद सख्त‍ कानून उत्पीड़क बन जाते हैं और भ्रष्टाचार बढ़ाते हैं. 

भारत में काले धन की धुलाई यानी मनी लॉन्ड्रिंग कितनी कम हुईकुछ हुआ होता तो नोटबंदी का कहर न टूटा होताभाजपायूपीए की सरकार के दौरान टैक्स आतंक को कोस कर सत्ता में आई थीपर आज प्रधानमंत्री ही लाल किले से टैक्स के आतंक को बिसूर रहे हैं.

मजा देखिए कि प्रधानमंत्री अपनी ही सरकार से यह कह रहे हैं कि सभी कारोबारियों को टैक्स चोर न समझा जाए ! बेचारे कारोबारी उनके लिए तो  

मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ़ है
क्या मिरे हक़ में फ़ैसला देगा! 

Sunday, June 24, 2018

एक सुधार, सौ बीमार


  
 देर से आने वाले हमेशा दुरुस्त होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. जैसे जीएसटी. सरकार को लोगों का धन्यवाद करना चाहिए कि उन्होंने दुनिया के सबसे घटिया जीएसटी के साथ एक साल गुजार लिया जो कहने को दुनिया में सबसे नया टैक्स सुधार था.

 पहली सालगिरह पर हमें, टीवी पर जीएसटी की पाठशाला चलाते मंत्री, जीडीपी के एवरेस्ट पर चढ़ जाने का दावा करते अर्थशास्त्री, टैक्स चोरी को मौत की सजा सुनाते भाजपा प्रवक्ताओं और संसद में एक जुलाई की आधी रात के उत्सव को नहीं भूलना होगा, जिसे भारत की दूसरी आजादी कहा गया था.

जीएसटी, यकीनन भव्य था. वजह थी तीन उम्मीदें. एकखपत पर टैक्स में कमी, दोकारोबार में सहजता यानी लागत में बचत, तीनटैक्स चोरी पर निर्णायक रोक.  सुधारों को दो दशक बीत गए लेकिन ये तीन नेमतें हमें नहीं मिली थीं. तेज विकास दर और बेहतर राजस्व के लिए इनका होना जरूरी था.

जीएसटी नोटबंदी नहीं है कि इसके असर को मापा न जा सके. सबसे पहले सरकार से शुरू करते हैं.

-  पिछली जुलाई से इस मई तक औसत मासिक जीएसटी संग्रह 90,000 (केंद्र-राज्य सहित) करोड़ रु. रहा है. न्यूनतम 107 से 110 लाख करोड़ रु. हर माह चाहिए ताकि जीएसटी से पहले का राजस्व स्तर मिल सके. यह इस साल मुश्किल है.

राजस्व मोर्चे पर जीएसटी औंधे मुंह क्यों गिरा?

- क्योंकि देश में बहुत छोटे कारोबारियों को छोड़कर सभी पर जीएसटी लगाया जाना था. हर माह तीन रिटर्न भरे जाने थे. लागत में शामिल टैक्स की वापसी होनी थी. लेकिन जीएसटी ने तो पहले दिन से ही कारोबारी सहजता का पिंडदान करना शुरू कर दिया. मरियल नेटवर्क, किस्म-किस्म की गफलतें देखकर गुजरात चुनाव के पहले सरकार ने 75 फीसदी करदाताओं को निगहबानी से बाहर कर दिया. दर्जनों रियायतें दी गईं.

पहले तीन माह के भीतर वह जीएसटी बचा ही नहीं, सुधार मानकर जिसका अभिषेक हुआ था. जीएसटी का सुधार पक्ष टूटते ही इससे मिलने वाले राजस्व की गणित बेपटरी हो गई. 

तो फिर जीएसटी सुधार क्यों नहीं बन पाया?

- क्योंकि कारोबारी सहजता इसके डीएनए में थी ही नहीं. जीएसटी एक या दो टैक्स दरें लेकर आने वाला था, पांच दरें और सेस नहीं. पूरे तंत्र में जटिलताएं इतनी थीं कि जीएसटी के खिलाफ कारोबारी बगावत की नौबत आ गई.
जन्म से ही दुर्बल और पेचीदा जीएसटी ने तीन माह बाद ही सुधारों वाले सभी दांत दान कर दिए. और फिर लामबंदी, दबावों, असफलताओं के कारण 375 से अधिक बदलावों की मार से जीएसटी उसी नेटवर्क जैसा लुंज-पुंज हो गया जिस पर उसे बिठाया गया था. बड़ी मुश्किल से अंतरराज्यीय कारोबार के लिए ई वे बिल अब लागू हो पाया है.   

किस्सा कोताह यह कि जीएसटी अब निन्यानवे के फेर में है.

- जीएसटी ने सरकारों के खजाने का बाजा बजा दिया है. कारोबारी सहजता के लिए टैक्स दरों की असंगति दूर करना जरूरी है. वह तब तक नहीं हो सकता जब तक राजस्व संग्रह संतोषजनक न हो जाए.

- पेट्रो उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की मंजिल भी अभी दूर है.

- टैक्स चोरी जीएसटी की सबसे बड़ी ताजा मुसीबत है, यानी जिसे रोका जाना था वह भरपूर है. अगर राजस्व चाहिए या उपभोक्ताओं को जीएसटी को फायदे देने हैं तो अब कारोबारियों पर सख्ती करनी होगी यानी उनकी नाराजगी को न्योता देना होगा.

कारोबारी दार्शनिक निकोलस नसीम तालेब ने अपनी नई किताब स्किन इन द गेम में कहा है कि हमारे आसपास ऐसे बहुत लोग हैं जो समझने या सुनने की बजाए समझाने की आदत के शिकार हैं. जीएसटी शायद सरकार की इसी आदत का मारा है. इसे बनाने वाले जमीन से कटे और जड़ों से उखड़े थे.

याद रखना होगा कि आर्थिक सुधार तमाम सतर्कताओं के बाद भी उलटे पड़ सकते हैं. दो माह पहले की ही बात है कि मलेशिया का जीएसटी, खुद भी डूबा और सरकार को भी ले डूबा. इसे भारत के लिए आदर्श माना गया था जो अपने भारतीय संस्‍करण की तुलना में हर तरह से बेहतर भी था.

जीएसटी नेटवर्क की विफलता ने पूरी दुनिया में डिजिटल इंडिया की चुगली की और इसकी ढांचागत खामियों ने सुधारों को लेकर सरकार की काबिलियत पर भरोसे की चूले हिला दी. जीएसटी की पहली छमाही देखकर विश्‍व बैंक को कहना पड़ा कि भारत का जीएसटी दुनिया में सबसे जटिल है. नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय बोल पड़े कि जीएसटी को स्थिर होने में दस साल लगेंगे.

एक साल बाद अब ताजा कोशिशें जीएसटी के संक्रमण को दूर करने यानी एक सुधार के नुकसानों को सीमित करने की हैं. जीएसटी खुद कब ठीक होगा इसका कार्यक्रम बाद में घोषित होगा