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Sunday, November 26, 2017

आह इतिहास ! वाह इतिहास !


इतिहास से वर्तमान की जंग सबसे आसान है. जीवंत योद्धा जब काल्पनिक शत्रु से आर-पार वाली जंग लड़ते हैं तो जातीय स्मृतियों से सजा परिदृश्य, फड़कते हुए किस्से-कहानियों और जोरदार संवादों के साथ राजनैतिक ब्लॉकबस्टर की रचना कर देता है.

खोखली होती है यह रोमांचक लड़ाई. हारता-जीतता कोई नहीं अलबत्ता इतिहास बोध की शहादत का नया इतिहास बन जाता है.

इरिक हॉब्सबॉम को बीसवीं सदी के इतिहासकारों का इतिहासकार कहा जाता है. वे कहते थे, ''पहले मैं समझता था कि इतिहास ना‍भिकीय भौतिकी जैसा खतरनाक नहीं है लेकिन अब मुझे लगता है कि इतिहास भी उतना ही भयानक हो सकता है.'' 

सियासत के साथ मिलकर इतिहास के जानलेवा होने की शुरुआत बीसवीं सदी में ही हो गई थी. लंबे खून-खच्चर के बाद यूरोप ने यह वास्तविकता स्वीकार कर ली कि इतिहास के सच हमेशा कुछ मूल्यहीन तथ्यों और अर्थपूर्ण निर्णयों के बीच पाए जाते हैं. इतिहास के तथ्य अकेले कोई अर्थ नहीं रखते. इनकी निरपेक्ष या वस्तुपरक व्याख्या नहीं हो सकती. इसे संदर्भों में ही समझा जा सकता है इसलिए इनके राजनैतिक इस्तेमाल का खतरा हमेशा बना रहता है.

जिन समाजों में सांस्कृतिक इतिहास राष्ट्रीय इतिहास से पुराना और समृद्ध हो, इतिहास व मिथक के रिश्ते गाढ़े हों और परस्पर विरोधी तथ्य इतिहास का हिस्सा हों, वहां इतिहास पर राजनीति खतरनाक हो जाती है.

भारत में फिल्मों, किताबों पर गले काटने की धमकियां रुकें या नहीं. लेकिन इक्कीसवीं सदी में इतिहास को देखने के नए तरीकों पर चर्चा में कोई हर्ज नहीं है.

सांस्कृतिक स्मृतियां

उलनबटोर के पास चंगेज खान की 40 मीटर ऊंची इस्पाती प्रतिमा पिछले दशक में ही स्थापित हुई है. मंगोलिया की जातीय स्मृ‍तियों में चंगेज खान की जो छवि है, यूरोप व अरब मुल्क उसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे. जातीय स्मृतियां किसी भी इतिहास का अनिवार्य हिस्सा हैं लेकिन किसी दूसरे समाज के लिए इनके बिल्कुल उलटे मतलब होते हैं. भारत में कई राजा और सम्राट कहीं नायक तो कहीं खलनायक हैं. ऐसा इतिहास वर्तमान से काफी दूर है और भविष्य के लिए प्रासंगिक भी नहीं है, अलबत्ता राजनीति चाहे तो इसे विस्फोटक बना सकती है.

भूलने के उपक्रम

इतिहास कभी नहीं मरता लेकिन समझ-बूझकर उसे भुलाने की कोशिशें भी अतीत से संवाद के नए तरीकों का हिस्सा हैं. यूरोप मध्ययुगीन बर्बरता पर शर्मिदा होता है. चीन व ब्रिटेन के रिश्तों पर अफीम युद्ध छाया नहीं है. ब्रिटेन उपनिवेशवादी इतिहास को भुला देना चाहता है. अमेरिका, जापान पर परमाणु हमले को याद करने से बचता है. स्पेन का लैटिन अमेरिका पर हमला, स्टालिन की बर्बरताएं या हिटलर की नृशंसता! दुनिया का सबसे बड़ा नरसंहार कौन-सा था? इस पर शोध चलेंगे  लेकिन विश्व युद्धों के बाद इतिहास के कुछ हिस्सों को सामूहिक विस्मृति में सहेज देने के उपक्रम जारी हैं ताकि वर्तमान में चैन के साथ जिया जा सके. 

कीमती यादगार 

स्मृति व इतिहास में एक बड़ा अंतर है. स्मृति किसी समाज के अतीत का वह हिस्सा है जिसे बराबर याद किया जाता है या जिससे सीखा जा सकता है, जबकि इतिहास अतीत का वह आयाम है, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान से उसकी दूरी के आधार पर तय होती है. ताजा इतिहास को, बहुत पुराने इतिहास पर, वरीयता दी जाती है क्योंकि ताजा अतीत, वर्तमान के काम आ सकता है.

सबसे अधिक राजनैतिक विवाद उस इतिहास को लेकर है जिसे हम बार-बार याद करना चाहते हैं और वर्तमान में उससे सीखते रहना चाहते हैं. इसलिए स्मारक, संग्रहालय बनाने, इतिहास की पाठ्य पुस्तकों का विषय तय करने और कला-कल्पना में इतिहास के प्रसंगों पर गले कटने लगते हैं.

तो फिर कैसे तय हो कि वर्तमान को कौन-सा इतिहास चुनना चाहिए?

नीदरलैंड के इतिहास के प्रोफेसर विम वान मेरुस की राय गौर करने लायक है- 21वीं सदी में किसी भी समुदाय के दो लक्ष्य हैं—पहला, स्वतंत्र राष्ट्र होना और दूसरा, उस राष्ट्र का लोकतंत्र होना. इतिहास की जो भी व्याख्या राष्ट्र या जातीय पहचान को प्रकट करती है, उसे लोकतंत्र के मूल्यों की कसौटी पर भी बेहतर होना होगा, नहीं तो इतिहास हमेशा लड़ाता रहेगा.

ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार, ई.एच. कार (पुस्तकः व्हाट इज हिस्ट्री) कहते थे कि इतिहास की सबसे उपयुक्त व्याख्या किसी समाज के भविष्य को निगाह में रखकर ही हो सकती है. .......

जो ऐसा नहीं कर पाते वे जॉर्ज बर्नाड शॉ को सही साबित करते हैः ''इतिहास से हम यही सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा.''

Sunday, October 29, 2017

याद हो के न याद हो


राजनेताओं की सबसे बड़ी सुविधा खत्म हो रही है. लोगों की सामूहिक विस्मृति का इलाज जो मिल गया है.

जॉर्ज ऑरवेल (1984) ने लिखा था कि अतीत मिट गया है, मिटाने वाली रबड़ (इरेजर) खो गई है, झूठ ही अब सच है. ऑरवेल के बाद दुनिया बहुत तेजी से बदली. अतीत मिटा नहीं, रबड़ खोई नहीं, झूठ को सच मानने की उम्र लंबी नहीं रही.

लोगों की कमजोर याददाश्त ही नेताओं की सबसे बड़ी नेमत है. लोगों का सामूहिक तौर पर याद करना और भूलना दशकों तक नेताओं के इशारे पर होता था लेकिन अब बाजी पलटने लगी है. अचरज नहीं कि अगले कुछ वर्षों में इंटरनेट राजनीति का सबसे बड़ा दुश्मन बन जाए. सरकारें सोशल मीडिया सहित इंटरनेट के पूरे परिवार से बुरी तरह खफा होने लगी हैं.

इंटरनेट लोगों का सामूहिक अवचेतन है. यह न केवल करोड़ों लागों की साझी याददाश्त है बल्कि इसकी ताकत पर लोग समूह में सोचने व बोलने लगे हैं.

तकनीकें आम लोगों के लिए बदली हैं, राजनीति के तौर-तरीके तो पुराने ही हैं. झूठ और बड़बोलापन तो जस के तस हैं. दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा और धुंधली हो गई है.

राजनेता चाहते हैं:
·       लोग उन्हें समूह में सुनें लेकिन अकेले में सोचें.

·       अगर समूह में सोचें तो सवाल न करें.

·       अगर सवाल हों तो उन्हें दूसरे समूहों से साझा न करें. 

·       सवाल अगर सामूहिक भी हों तो वे केवल इतिहास से पूछे जाएं, वर्तमान को केवल धन्य भाव से सुना जाए.

दकियानूसी राजनीति और बदले हुए समाज का रिश्ता बड़ा रोमांचक हो चला है. इस चपल, बातूनी, बहसबाज और खोजी समाज पर कभी-कभी नेताओं को बहुत दुलार आता है लेकिन तब क्या होता है जब यही समाज पलट कर नेताओं के पीछे दौड़ पड़ता है. लोगों की सामूहिक डिजिटल याददाश्त अब राजनीति के लिए सुविधा नहीं बल्कि समस्या है.

अकेलों के समूह
राजनैतिक रैलियां अप्रासंगिक हो चली हैं. भारी लाव-लश्कर, खरीद या खदेड़ कर रैलियों में लाए गए लोग जिनमें समर्थकों या विरोधियों की पहचान भी मुश्किल है. तकनीक कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से नेताओं को उनके जिंदाबादियों से जोड़ सकती है. इसके बाद भी रैलियां पूरी दुनिया में होती हैं.

नेता चुपचाप बैठी भीड़ से खि‍ताब करना चाहते हैं. यही उनकी ताकत का पैमाना है. रैली राजनीति के डिजाइन के अनुसार लोगों को सिर्फ सुनना चाहिए. लेकिन अब लोग सुनते ही नहीं, समूह या नेटवर्क में सोचते भी हैं. वे अपनी साझी याददाश्त से किस्म-किस्म के तथ्य निकाल कर सवालों के जुलूस को लंबा करते चले जाते हैं.

आंकड़े बनाम अनुभव
अपनी तरह का पहला, अभी तक का सबसे बड़ा, देश के इतिहास में पहली बारअब, नेताओं के भाषण इनके बिना नहीं होते. पिछली पीढ़ी के राजनेता इतने आंकड़े नहीं उछालते थे. अब तो कच्चे-पक्के, खोखले-पिलपिले आंकड़ों के बिना समां ही नहीं बंधता. शायद इसलिए कि लोग आंकड़े समझने लगे हैं और वे समूह में सोचें तो इनका इस्तेमाल कर सकें.

मुसीबत यह है कि लोगों के अनुभव आंकड़ों से ज्यादा ताकतवर हैं. भोगा हुआ विकास, बतलाए गए विकास पर भारी पड़ता है. इसलिए जब लोगों के निजी और अधिकृत एहसास, सामूहिक चिंतन तंत्र (सोशल नेटवर्क) पर बैठ आगे बढ़ते हैं तो सरकारी आंकड़ों की साख का कचरा बन जाता है.

इतिहास का चुनाव
यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के प्रोफेसर जॉन जे. मियरशीमर, राजनेताओं के झूठ का (पुस्तक: व्हाई लीडर्स लाइ) अध्ययन करते हैं. उनके मुताबिक, इतिहास, राजनैतिक झूठ का सबसे कारगर कारिंदा है. इसके सहारे खुद को महान और अतीत को बुरा बताना आसान है. इतिहास के सहारे एक लक्ष्यनहीन गुस्से को लंबे वक्त तक सिंझाया जा सकता है. इतिहास है तो वर्तमान मुसीबतों पर उठ रहे सवालों के जवाब गुजरे वक्त से मांगे जा सकते हैं.

राजनेता चाहते हैं इतिहास के चयन में उनकी बातें मानी जाएं. अलबत्ता नेता यह भूल जाते हैं कि वे खुद भी तो प्रतिक्षण इतिहास गढ़ रहे हैं. लोग इतिहास अपनी सुविधा से चुनते हैं जिसमें अक्सर नेताओं का ताजा इतिहास सबसे लोकप्रिय पाया जाता है.

राजनीति गहरी मुश्किल में है. लोग नहा-धोकर सियासी झूठ के पीछे पड़े हैं. झूठ पकडऩा अब एक रोमांचक पेशा है. लोगों की उंगलियां प्रति सेकंड की रक्रतार से सवाल उगल रही हैं. लोकतंत्र के लिए इससे अच्छा युग और क्या हो सकता है.

सुनो जिक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का

वो निभाने का तो जिक्र क्या, तुम्‍हें याद हो के न याद हो